Tuesday, June 19, 2007

मै देवी नही थी

सहज सा हृदय था, सहज भावना थी,
ललक थी, तड़प थी, खुशी थी, व्यथा थी,
गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

सुबह शाम जल के हैं जो अर्घ्य मिलते,
मैं शीतल से अब सर्द होने लगी हूँ |
हवन के अगन की तपन है ये इतनी,
जलन से उठा दर्द रोने लगी हूँ|

मुझे मित्रता का सहज साथ चहिये,
ये अर्पण, समर्पण की बातें न बोलो,
मुझे हैं प्रशंसा के दो बोल काफी,
ये आरती, ये स्तुति न कानों में घोलो |

ये इतना चढ़ावा, ये झूठा दिखावा,
जो परसाद में फिर तुम्हे ही है मिलना,
ये दो अक्षरों का नया नाम दे कर,
नये एक तरीके से यूँ मुझको छलना |

मुझे चाहिये पात्र मृदुजल लबालब,
तो दो बूँद गंगाजली ही मिली थी,
ये चाँदी के फाटक, ये सोने के गोपुर,
मैं एकांत मंदिर की भूखी नही थी,

गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

12 comments:

मैथिली गुप्त said...

बहुत अच्छा लिखा है

महावीर said...

सत्य और भावना-रहित आडमंबर और कर्मकाण्ड आदि ढकोसलों का अच्छा चित्रण है। शब्द-चयन और प्रवाह का सुंदर समन्वय है।

कंचन सिंह चौहान said...

मैथिली जी एवं शर्मा जी! उत्साहवर्द्धन के लिये हृदय से धन्यवाद

Anonymous said...

thank you for posting your very touching comment on my blog
rachna

Gaurav Pratap said...

कंचन जी, मैं गौरव हूं . मेरा ब्लौग सिर्फ़ गज़लों का संग्रह है . आपको अख्तर जी की ग़ज़ल अच्छी लगी मेरी कोशिश सफ़ल हुई.

Manish Kumar said...

गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

बहुत सुंदर रचना !

राकेश जैन said...

kaise kahun kuchh....
sab kuchh ke aage.....kanchan..

tumne to likh dia hai apna nirmal man..
lagta hai, sach ho hi kaise sakta hai ki tum ho manvi..

Esa man to rakh sakti hai kewal Devi..

Bahut Marm hai shabdo.....

कंचन सिंह चौहान said...

अब क्या कहूँ मैं राकेश जी! क्या खूबसूरत काव्यात्मक अंदाज़ है प्रशंसा करने का! कवियों की यही तो अदा है कि वो छोट सी बात को भी इतने सुंदर तरीके से कहते हैं कि सचमुच मानवी देवी ही लगने लगे!

हृदय से धन्यवाद

Evolving said...

beautiful poem.

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ said...

बहुत ही सार्थक ,सुन्दर ,मर्मस्पर्शी रचना.

कविता का सन्देश बहुत महत्व का है.

गौतम राजऋषि said...

कुछ कहना नहीं चाहता...हिम्मत नहीं हो रही कुछ कहने की। बस कि मैं हूँ ठिठका हुआ एक-एक शब्द, एक-एक पंक्ति, एक-एक अंतरे पे...
"ये इतना चढ़ावा, ये झूठा दिखावा,
जो परसाद में फिर तुम्हे ही है मिलना" और शायद ये दो पंक्तियां लंबे समय तक मेरे साथ रहने वाली हैं...

इतना कुछ झेलना मानवी के बस की बात नहीं...न!

वो क्या था नहीं था, नहीं जानता हूँ
तुझी से सुना है तो पहचानता हूँ
थी जिसके लिये उसने दुनिया ये छोड़ी
थी मानवी न कोई, वो देवी ही होगी

Shardula said...

ओह बच्चे! कितना सुन्दर लिखा है सच में. कौन सा छंद उद्धृत करुँ, सब कुछ मन छू लेने वाला!सुनो, कुछ और भी कहना है ख़त में लिखती हूँ. . . दीदी