Monday, August 27, 2007

कितने हसीन रिश्ते हैं यहाँ पर.....!

राखी का मौसम आया औ‌र मन हुआ आपसे अपना एक खूबसूरत सा अनुभव बाँटा जाए? अपनी धारावाहिक कहानी मुक्ति को थोड़ा सा विराम देते हुए इस शीर्षक पर बात करने के लिये क्षमा चाहती हूँ। लेकिन क्या करूँ रोक नही पाई खुद को...!

प्रदीप से मिली थी मैं जुलाई २००२ में। वो शांता अम्मा का बेटा था। SSC परीक्षा द्वारा हिंदी अनुवादक पद पर चयन होने के पश्चात मुझे पहली पोस्टिंग मिली थी अनंतपुर, आंध्र प्रदेश में। सन् २००१ का अंत मेरे लिये ऐसे घटनाक्रमों का वर्ष था जो मेरी सपनो की तो सीमा में था लेकिन कल्पनाओं की सीमा से परे था। क्योंकि सपने तो मेने देखे थे अपनी व्हीलचेयर से उड़ान भरने के, अपनी बैसाखियों से बुलंदियों की सीमा सीढ़ियाँ छूने की! लेकिन कल्पना नही की थी कि घर की चार दीवारी को अपनी दुनिया समझने वाली मैं एक दिन घर से २००० कि०मी० दूर रहने का निर्णय लूँगी और डट जाऊँगी।

खैर वो बातें फिर कभी! आज तो बात करनी है प्रदीप की.! तो शांता अम्मा मुझे आफिस कैम्पस में मिले क्वार्टर से आफिस और आफिस से क्वार्टर मेरी व्हीलचेयर से ले जाया करती थीं। ऐसे में अक्सर लगभग १८ वर्ष का ६ फुटा, दुबला पतला, पक्के साँवले रंग का किशोर दौड़ता हुआ और लगभग हाँफता हुआ आता और अम्मा से मेरी व्हीलचेयर अपने हाथ में ले लेता। रास्ते में बहुत अधिक बातें तो होती नहीं थी। बस मेरे प्रश्न और उसके उत्तर और उसी प्रश्नोत्तरी में मुझे पता चला कि २-३ बार में हाई स्कूल पास करने के बाद प्रदीप ने से आगे पढ़ने की कोशिश नही की। गलत संगत में पड़े उस लड़के की दो कमजोरियाँ थी। एक उसका किशोरावस्था का एक पक्षीय प्रेम जो मात्र मृगतृष्णा था लेकिन वो २४ मे ४८ घंटे उसी फेर में पागल रहता था और दूसरी उसकी पान मसाले की लत जो वो २४ घंटे में ९६ पुड़िया खाता था। उसकी जीभ,तालु हमेशा कटे रहते थे लेकिन वो उसे छोड़ने में असमर्थ था। अलग प्रांत, अलग शहर, अलग संस्कृति से आई हुई मैं कह भी क्या सकती थी। बस दुःख होता था शांता अम्मा पर जिनका अतीत था उनका शराबी पति जो शराब में डूब कर खतम हो चुका था और उन्हे कर्ज में डुबो गया था और भविष्य था यह लड़का।

ऐसे में आया राखी का त्यौहार, भावना प्रधान होने के कारण मेरा सबसे प्रिय त्यौहार। पर इस बार मैं घर से बहुत दूर थी। सुबह से ही मेरे आँसू बह रहे थे। खाना नही बनाया.... बिना भाईयों को राखी बाँधे आज तक कहाँ खाया था जो आज खा लेती।

शाम को मैं घर पहुँची तो प्रदीप एक राखी का धागा लिये चला आया "क्या दीदी मेरे रहते तू रो रही है, चल बाँध मुझे राखी और अच्छा-अच्छा खाना बना कर खिला।

अहा! मैं तो खुश हो गई। झट से टीका बना लाई। बगल की आंटी ने टिप्पणी की " वो क्रिश्चियन है, टीका नही लगवाता" मैने उसकी तरफ देखा वो मुस्कुराया " अभी तो मैं सिर्फ तेरा भाई हूँ दीदी!"

हम दोनो ने मिल कर खाना खाया। मैने खाना खाते समय उससे कहा " तूने मेरी राखी बँधाई नही दी?"

" हाँ दीदी..!" कहते हुए उसने जेब में हाथ डाला और दस रुपये का नोट मुझे पकड़ाने लगा।

" दस रुपये तो कल ही खतम हो जायेंगे।" मेरे इस जवाब ने उसे उदास कर दिया और वो दबे स्वर में बोला " इससे ज्यादा तो मेरे से होगा ही नही दीदी !"

" तो रुपये देने को बोल कौन रहा है ?"

"........?"

" मुझे तो एक प्रॉमिस चाहिये।"

"promise....?" कछ सेकण्ड के मौन के पश्चात वो बोला " देख दीदी मैं जानता हूँ तू दो में से एक चीज माँगने वाली है मुझसे और मैं भी ना तू जो माँगेगी वो दे दूँगा तुझे..... ललेकिन तू भी दीदी जरा सोच समझ के माँगना।"

अब इतने भोलेपन से कही गई बात के बाद मैं उसकी मृगतृष्णा तो उससे माँग नही सकती थी.... सो दूसरी चीज ही माँगी जानी थी। एक दाँव ही खेलना था, वर्ना कितने ही लती इससे पहले मिल चुके थे जो
"रोज़ तौबा उठाई जाती है रोज़ नीयत खराब होती है" के ढर्रे पर चल रहे थे।

तो मैने उससे माँगा पान मसाला ना खाने का वचन। ये सोच कर कि छोड़ेगा नही तो कम से कम सोचेगा तो छोड़ने की.... फिर अब भाई बन गया है तो देख लेंगे धीरे -धीरे।

उसने कहा saturday last दिन दीदी, उस दिन एक पार्टी है, फिर कभी नही लूँगा।

इतनी छूट देना तो मेरी मजबूरी थी। खैर उसने कहा कि वो अब पान मसाला नही खाता.... और मैं मन में ये सोच कर कि बोल रहा है तो कुछ कम तो किया ही होगा, चुप रह जाती।

एक दिन मैं घर पर बैठी थी तब तक कुछ किशोरों ने दरवाजा खटकाया हाथ में फूल लिये साँवले सी लगान फिल्म जैसी टीम खड़ी थी। मैं क्या पूछूँ समझ मे नही आ रहा था... तभी उसमे से जिसको हिंदी बोलनी आती थी उसने बोलना शुरू किया " दीदी हम आपको thank you बोलने आया दीदी ! प्रदीप तो कैसे भी सुधरने वाला नही था दीदी ! पर अभी तो वो एकदम बदल गया। आपका बहुत respect करता वो दीदी ! हम सब को भी आपका भाई बनाएगा दीदी...?"

मैं भाव विभोर सी उन सब को देख रही थी...राखी के धागे ने ये कमाल कर दिया.... मुझे खुद नही पता था।

जनवरी २००३ मे मेरा स्थानांतरण लखनऊ हो गया। प्रदीप को अब भी राखी भेजी जाती है।

मैने कभी भी उससे उसकी मृगतृष्णा नही माँगी..... लेकिन जब मैं लखनऊ आ रही थी, लोग विदाई में ढेरों उपहार दे रहे थे.... वो आया और उसने मेरे हाथ में एक कागज थमा दिया.... ये वो कागज़ था जिस पर उसने उस लड़की के साथ अपनी शादी का सपना बनाया था ..... एक शादी का कार्ड...!

ये मैं तुझे दे रहा हूँ दीदी...! ये सब सच्ची बात नही है....! सच्ची बात वो है जो तू बोलती है.....! प्यार तो प्यार होता है और तुझसे ज्यादा प्यार कौन कर सकता है मुझे"

उस साल उसने इण्टर का फार्म भरा और पास हो गया, अभी वो ग्रेजुएशन कर रहा है। हच में सर्विस कर रहा है और कंपटीशन तैयारी कर रहा है। अब वो ये सोचता है कि माँ का कर्ज कैसे कम किया जाये.....!


और ये सब किया है एक राखी के तार ने .....!


विश्वास मानिये मेरा...........!

Wednesday, August 22, 2007

मुक्ति भाग‍ -५

मैं आगे बढ़ कर पीछे के रास्ते निकली और पड़ोस का पिछला दरवाजा खटखटाने लगी गाँवों के लिये तो उस समय आधी रात का समय था। एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला। मैने उन्हे देखते ही सारिका को उनके पैरों पर रख दिया।

"चाची जिऊ ! एकर जिनगी बचाइ लें।"

" का भै ?"

" हमरे इजती पे आइ गै है चाची जिऊ ! कुँवर जी हम्मै बरबाद करै चाहत हिन। हमसे ई पाप नाही होई। हम तो मरे के तैयार हई चाची जिऊ ! बकिर एकर का करी ? हम्मै अपने घर के एक कोना में जगह दइ दीन जाये। आपके हियाँ मजूरी कइ के हम आपन औ यह बिटिया के पेट पालि लेब। एकर जिनगी बनि जाये, फिर हम कहूँ कुँआ ईनार लई लेब।" कहते हुए मैने उनके पैर पकड़ लिये थे। लेकिन जिस पर दीन दयालु ईश्वर को दया नही आई उस पर ला सामान्य मनुष्य को दया क्यों आती ?

चाची जी ने मुझे बरे प्यार से समझा दिया था " देखा दुलहिन ! ई पट्टीदारी के मामला बाय। काल्हि के पूरा गाँव कही कि हम तोहरे आदमी के जमीनी के खातिर तुहैं अपने घर में राखे हई। तोहरे कुँवर ज्यू से बिना मतलबै मे दुश्मनी होइ जाई। नीक होई कि घर के बात घर हि मे सुलझाइ ल्या।"

मेरे लिये सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। मैं पीछे के ही रास्ते से फिर से आ गई। आँगन में पहुँची तो सामने ही कुँवर जी खड़े थे। आँखे लाल थीं। जो इस बात का परिचायक थीं कि शराब की कई बोतलें खाली हो चुकी हैं। उन्होने मेरी बाँहें पकड़ते हुए मुझे घसीटा। " हमरे साथ रहे में तोर इज्जत जात है, आधी रात में दुसरे के घरे मुँह मारत तोर इज्जत नाही जात।"

उन्होने सारिका को एक कमरे में बंद कर दिया..... वो चीखती रही...... और फिर मेरे साथ क्या हुआ......? नही !...नही...! मैं आज भी वो नही बता पाऊँगी। जो मैं झेल गई वो मैं कह नही पाऊँगी...! वो मैं याद भी नही कर पाती हूँ ..... और एक क्षण को भी मेरी जिंदगी उससे मुक्त भी नही हो पाती। आज २५ साल बाद भी वो ज़ख्म छुआ जाता है तो उतना ही तेज दर्द होता है।

उस वक्त भी ऐसा नही था कि मैं सब सामान्य रूप से सह गई थी। बहुत विरोध किया था। बहुत छटपटाई थी। लेकिन क्या तड़फती मछली को देख कर खाने वालों को उस पर दया आती है....? उन्हे तो बस उसके स्वाद से मतलब होता है। बस आत्मतृप्ति से...........!

अपने ही शरीर से नफरत हो गई थी मुझे। एक एक अंग काट कर फेंक देने का मन होता था। लेकिन बस..... बस मन ही होता था.....कर नही पाई कुछ भी। कौन विश्वास करता मेरा ? सबके लिये तो बस ए चटकारे दार खबर थी, " अमीन के मेहरारू अपने देवरे पे बइठि गईं।" कैसे पिघले शीशे जैसा वाक्य था। वो चाची जी जिन्होने एक रात का भी सहारा नही दिया था उन्होने कितने चाव से घोर कलजुग की ये गाथा पूरे गाँव को सुनाई थी।

"अरे अईसन जवानी आगि लागे बहिनी ! मर्दे के मरे के सालौ पूर होये के इंतिजार नाही किहीं।"

" अरे बियाह तो खाली नाव के लिये है, सुन्यू नाही सरिकवा के जोड़ा लागे के तईयारी होत बाय।"

मैं कैसे बताती ? किसे बताती ? कि ये रिश्ता बनाना तो मेरी मजबूरी थी। मुझे पता चला कि मैं गर्भवती हूँ तो मैं क्या करती ? मैं घर में कितने दिन तक बच कर रह सकती थी ? सारिका आज छोटी थी कल बड़ी होगी तो मैं क्या जवाब दूँगी ? इस लिये शादी का नाम इस रिश्ते को देना मेरी मजबूरी थी। मैं किस रूप में विख्यात थी मुझे पता था। लेकिन मेरे पास कोई रास्ता भी नही था।

समय बदल रहा था लेकिन मेरी किस्मत नही बदल रही थी। शारीरिक शोषण और साथ में शारीरिक प्रताड़ना मेरी रोज की जिंदगी में शामिल हो चुके थे। मुझे सब कुछ मौन हो कर सहना था।

सारिका पे मैं अपना सारा प्यार लुटा देना चाहती थी। वहीं संजीव मेरी कोख से जन्म लेने के बावजूद मेरे लिये सौतेला हो गया था। उसके साथ मैं उतना ही कर पाती थी जितना मेरा कर्त्तव्य होता था। लेकिन सारिका का उसे खूब स्नेह मिलता था और वो व्यक्ति जो अब मेरा पति था वो तो पता नही किस धातु से बना था उसका स्नेह न सारिका पर था, न संजीव पर और मुझ पर तो सवाल ही नही था। उसे मतलब था सिर्फ अपनी जरूरतों से।

सारिका बहुत कुशाग्र बुद्धि की थी। हर क्षेत्र में आगे। शुरू में उसे गाँव के पास के एक स्कूल में डाला गया। फिर वो सरकार की तरफ से स्कॉलरशिप पाने लगी। वो अपनी व्यवस्था खुद ही कर लेती थी। बहुत छोटी उम्र में ही बड़ी हो गई थी वो। कहाँ पढ़ना है ? क्या पढ़ना है ? वो खुद ही कर लेती थी और साथ में संजीव की भी व्यवस्था बना लेती थी। संजीव के लिये माँ का दिल तो उसके पास ही था। मुझे सारिका से अवकाश मिला तो मैने खुद को धर्म में व्यस्त कर लिया। दुःखों से निपटने का शायद इससे सरल उपाय कोई नही है। सब कुछ सहना आदत बन जाता है, स सह कर भी संतुष्टि बनी रहती है।

सारिका अब २० वर्ष की हो गई थी और संजीव १६ का। जीवन धीरे धीरे ऐसी नदी बन गया था, जिसमें पत्थरों के पड़ने से भी हलचल नही होती थी। लेकिन अचानक फिर हलचल हुई, जब सारिका कॉलेज से आई और मुझसे बिना कुछ बात किये ही जा कर अपने कमरे में लेट गई। मैने उसे खाना खाने के लिये बुलाया, लेकिन वो नही आई। मैं खाना ले कर उसके कमरे में गई लेकिन वो नही उठी। मैने लाड़ से उसे उठाना चाहा तो उसने मुँह फेर लिया। सारिका ऐसी थी ही नही। वो बहुत समझदार थी मुझे कुछ समझ में नही आ रहा था। लेकिन जल्द ही समझ में आ गया जब वो अचानक उठी और मुझसे पूँछा " मेरे पापा कौन हैं माँ..? "

क्रमशः

Monday, August 20, 2007

मुक्ति भाग‍-4

ससुराल में आने के बाद कभी-कभी ओसारे में बाबू जी को खाना देने आती थी। वो भी तब जब ये नही होते थे। वो मेरी आखिरी सीमा रेखा थी। लेकिन आज मुझे अपनी कोई भी सीमा रेखा नही याद थी। मैं नंगे पैर ही उधर दौड़ पड़ी जहाँ से गाँव भर की आवाजें आ रही थी। गाँव में मुझे देखा बहुत कम लोगो ने था। इसलिए मुझे कोई पहचानता तो नही था लेकिन मेरी दशा देख कर शायद जान सब गए थे कि मैं उनकी पत्नी ही हो सकती हूँ जो वहाँ पर खून से नहाया पड़ा हुआ है। इसलिए भीड़ मुझे खुद रास्ता देती गई। मुझे नहीं याद कि मेरे रास्ते में कौन कौन आया, कौन कौन हटा, किसने क्या कहा ? मुझे इतना याद है कि अचानक मेरे सामने वो शरीर खून से लतफत पड़ा था जो सुबह जल्दी आने का वादा कर गया था। देखते ही मेरे मन में आया कि "क्या ये अब कभी नही उठेंगे ?" और इस विचार के साथ ही शायद मैं खुद ही गिर गई। जब आँख खुली तो मेरे इर्द गिर्द गाँव की औरतें थीं। मैं चीख पड़ी। सब मुझे पकड़ने लगी, लेकिन मैं सबसे खुद को छुड़ा कर बाहर की तरफ भागी। वहाँ उननका शरीर पड़ा हुआ था। पास में बाबूजी बिलख रहे थे। मैं इनके शरीर पर गिर गई। मैं फिर बेहोश हो गई। इस बार मुझे जब होश आया तो मैं अस्पताल में थी। मुझे ग्लूकोज़ चढ़ रहा था।जब होश आया तो मेरे मायके से आये मेरे पिता जी और बड़के बाऊ जी मेरे पास खड़े थे।

मैं बिलखने लगी। पिता जी दूर खड़े मुँह पर अँगौछा रखे सुबक रहे थे। बड़के बाऊ जी जी मुझे समझाने लगे, "हमरे लोगन के कऊनो बहुत बड़ा पाप उदित भा बिटिया जऊन भगवान एतना बड़ा कष्ट डारिन। अपने भाग पे केहू के बस नाही है। अब तू धीरज धरा। एक बिटिया बाय इहीक् सम्हारा।"

पिता जी जाते समय तक मुझसे कुछ नही बोले। शादी के इतने दिन बाद मैने पिता जी को देखा था तो ऐसे समय में जब ना वो कुछ बताने की स्थिति में थे और ना मैं कुछ पूँछने की।

तब से आज तक दुबारा मायके की एक चिड़िया भी नही देखी मैने। क्या क्या बीत गया इस शरीर पर कोई सांत्वना देने को कौन कहे, उलाहना देने भी नही आया।

अब मुझे सारिका का होश आया था। मैने घर जाने की इच्छा व्यक्त की। मुझे बताया गया कि मैं तीन दिन से बेहोश थी। ससुर जी पुत्र शोक नहीं सहन कर पाये थे और पुत्र के साथ ही अपनी अंतिम यात्रा तय कर ली थी।

मैं सोचती रहती थी कि मैं क्यों नही मरी ? उनकी आत्मा क्या सोच रही होगी मुझे देख कर, कि मुझे अपना जीवन कितना प्यारा है ? मैं कितनी स्वार्थी हूँ? ये खयाल आता और मै फिर बिलखने लगती।

घर धीरे-धीरे खाली हो गया। मैं रात-रात जगती रहती। मुझे सन्नाटे से बहुत भय लगता। घर में अब सन्नाटे के अलावा सिर्फ कुँवर जी थे, जिनसे मुझे सन्नाटे से भी ज्यादा डर लगता था। दो डरावनी चीजों में मुझे जब एक को चुनना हुआ तो मैने सन्नाटे को ही चुना।

लेकिन मेरे चुनने न चुनने से क्या होता था ? दुर्भाग्य ने तो अपने सारे भयानक तमाशे दिखाने के लिये मुझे ही चुना था न।

सारिका सो रही थी। मैं बगल में बैठी आँसू बहा रही थी। अचानक कमरे में कुछ आहट हुई। मैने सर उठाया तो देखा वही व्यक्ति खड़ा है जिसके लिये मैं सशंकित थी। मैं उन्हे देखते ही काँप गई। मुझे उनकी पशुता की पराकाष्ठा की कल्पना नही करनी थी.. वो सब तो मैं हक़ीकत में झेल चुकी थी।
मैं बिस्तर से खड़ी हो गई और गिड़गिड़ाते हुए बोली " हमसे नाही डेरात्या कुँवर जी तो दुनिया से डेरा, दुनियौ के डर नाही बाय तो भगवान से डेरा। अपने भईया के धरोहर पे नीयत खराब करिहैं तो भगवान छिमा नाहीं करिहै। एतना बड़ा पाप ना करैं।"

" यह में पाप के कौन बाति है, ई तो बहुत दिन से होत आय बा। बड़े भाई के मरे के बाद अगर छोटे के बियाह ना भै होय तो उमिर भर बिधवा होई के जिये के जगही छौटे से बियाह होई जात है।"

" लेकिन जब हम चाही तब ना..!हमार जिनगी आपके भईया से जुड़ी रही ..बस्स्स् ! अब हम्मै केहू और के सुहागन बने से ढेर नीक बाय उनके बिधवा बनिके जिनगी गुजारब...... हमरे ई एक बिटिया बाय। हम इही के देख के जौन दुइ चार रोज जिनगी के बाय बिताइ देब। लेकिन ई पाप ना करें कुँवर जी! यह बिटिया के ऊपर दया करें कुँवर जी!"

" इहै कुल तो तुहैं सोचे के चाहीं। यह बिटिया के जिनगी तू कइसे पार कइ पइबू, अगर हम ना सहारा देब ? औ हम एतना सतजुगी नाही हई कि बिना कौनो कीमत के सबके पार लगाई।"

राक्षसों के सचमुच दस सिर या सींग या कोई और भयानक आकृति नही होती होगी। मुझे पता चल गया था कि ऐसे ही राक्षस होते होंगे जो दिखने में बिलकुल इंसान ही लगते होंगे।

" हम आज जात हई। लेकिन तू सोचि ल्या।"

कह कर वो राक्षस चला गया। मैं क्या करूँ मेरे सामने अब बस एक शरणस्थली थी। गाँव के पास बहने वाली नदी।.... मेरे बाद सारिका का क्या होगा ? इस आदमी की नीचता की कोई सीमा नही है। ये पता नही किसके साथ क्या करे ? ये सोच कर मैने सारिका को गोद में उठाया और नदी की तरफ चलने को तैयार हो गई। दरवाजे की तरफ बढ़ने के साथ ही मैं मेज से टकराई और मेज से एक किताब गिर कर मेरे सामने आ गई। उसके सामने आते ही मेरी आँखों के सामने सारिका के पापा का चेहरा आ गया और याद आ गया सारिका के लिये उनका स्वप्न..! "मैं ये क्या करने जा रही हूँ उनके सपने का मूल ही खतम करने।" मैने सारिका को कस लिया। वो जाग गई थी और ध्यान से मेरी तरफ देख रही थी। वो क्या जाने कि उसका वर्तमान उसके भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ कर रहा है ? उसे जब कुछ समझ में आया तो मेरे आँसू पोंछते हुए बोली " तोत लग गई माँ " " नही बेटा" कह कर मैने उसे कंधे से लगा लिया। उसे क्या बताऊँ किस्मत ने कैसी चोट दी है उसे और मुझे दोनो को।

अब मै क्या करूँ कैसे इस नन्ही सी जान को मार दूँ ? और अगर अकेली मर जाऊँ तो ये तो वैसे भी मर जायेगी।

क्रमशः

Friday, August 17, 2007

मुक्ति भाग‍-3

ये आवाज तो इनकी थी। मैने सारिका को जहाँ का तहाँ छोड़ा और दौड़ कर दरवाजा खोलते ही इनसे लिपट कर फिर उसी बेग से रोने लगी। ये कुछ भी समझने में असमर्थ थे।

ऐसी स्थिति अब तक कभी नही हुई थी। इन्होने मुझे पकड़े हुए ही दरवाजा धीरे से लगाया और एक मजबूत रक्षक की तरह मेरे शरीर के गिर्द अपने हाथों के घेरे का कवच बना दिया। मेरा डर अब धीरे धीरे कम हो रहा था। इन्होने मुझे धीरे से बिस्तर पर बिठाया और मेरे आँसू पोंछते हुए बोले "पहले तो तुम शांत हो! फिर बताओ कि हुआ क्या ?"

मेरी हिचकियाँ बँध गईं। मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं कैसे इन्हे इनके ही भाई की पशुता बताऊँ ये क्या सोचेंगे ? अगर कहीं इन्हे क्रोध आ गया तब तो अनर्थ हो जाएगा ? जो बात रात के अँधेरे में दब गई वो पूरे गाँव में फैल जाएगी। चार लोग कुँवर जी को गलत कहेंगे तो चार मुझे भी कहेंगे। और कुँवर जी के ऊपर चार लोगों की सच्चाई का उतना दाग नही लगेगा, जितना मेरे ऊपर एक झूठे आरोप का। मैं क्या करूँ मेरे कुछ समझ में नही आ रहा था।

इनका प्रश्न बार-बार आ रहा था, "हुआ क्या कुछ पता तो चले।"

मैने बिलखते हुए कहा "देखीं हम जौन कुछ बताइब आप नाराज ना होवा जाई !"

"बताओ तो पहले।" इन्होने धैर्य के साथ कहा।

मैने अपनी बात कहनी चाही, लेकिन उसके पहले ही फिर आँसू उमड़ पड़े "हम कईसे बताई, हमरे मुँहा से नाही निकरत बाय।"

इस वाक्य के पूरा होते ही इनके चेहरे की रंगत बदल गई, "कल छोटे आए थे क्या " इन्होने मेरी तरफ चिंता के साथ देखते हुए कहा।

इस वाक्य को इनके मुँह से सुनते ही मैं इनका हाथ पकड़ कर बिलखने लगी। हाँ का शब्द मेरे मुँह से निकल ही नही रहा था।

"मुझे नही पता था कि मैं जो सुन रहा हूँ वो सच है।" कहते हुए इन्होने मुझसे हाथ छुड़ा लिया।

इससे पहले कि ये आगे बढें मैं दौड़ कर दरवाजे के पास गई और कुंडी लगा कर दरवाजे से लग कर खड़ी हो गई "ना ना बाहर ना जायें आप। हमार किरिया है।" कहते हुए मैने इनके पैर पकड़ लिये " देखें अबहीं ले त कुछ नाही भै। ऊ देखीं... ऊ हसिया बाय ना, उहै उठाय लेहे रहेन हम। कुँवर जी आगे नाही बढ़ि पाइन। बकिर अब आप बाहर जाई के रिसियइहैं त गउँवा भर में ऊ बात फईलि जाई जौन भईबे नाही कीन। गाँव के मनई मेहरारुन के तो आप जनिबै करथिन। तनी हमरे इजती के सोची सारिका के पापा। आपके सारिका के मूड़ेक् किरिया।" आवेग के साथ कही जा रही मेरी बात उनकी समझ में आ गई थी। इन्होने धीरे से अपना हाथ छुड़या और सारिका के बगल में जा कर लेट गए।

इन्होने कुँवर जी से क्या कहा, मुझे नही पता। लेकिन कुँवर जी अब खाने के लिए भी अंदर नही आते थे। कुँवर जी को ईश्वर की तरफ से काला रंग, मोटी नाक, छोटी छोटी आ¡खें, मिली थीं। इसके बाद जो अपनी तरफ से बनता है वो होता है स्वभाव उसे कुँवर जी ने अपनी सूरत से भी अधिक खराब बना लिया था। जब इन्होने पढ़ाई की कुँवर जी ने गाँव के बिगड़ैल लड़कों के साथ आवारगी की। इन्हे जब नौकरी मिली, कुँवर जी तब तक भाँग, गाँजा, ताड़ी लेने के आदी हो गए थे। उनके चरित्र के विषय में खबर कान में पड़ चुकी थी, लेकिन गाँव में तो बिना आग के ही धुँआ होने लगता है, यह सोच कर मैं इस बात पर ध्यान नही देती थी। कुँवर जी की सूरत और सीरत के कारण कोई लड़की वाला रिश्ता ले कर नही आता था।इस बात की चिंता शायद इन्हें भी थी। लेकिन उनकी नीचता की हद यहाँ तक होगी यह कोई नही जानता था।

ये घटना कुछ दिनों तक मेरे दिमाग से उतरी ही नही, लेकिन इन्होने अपने मौन स्नेह से धीरे-धीरे मुझे सामान्य कर दिया।

मैं अपनी सारिका में रम गई। अब तो मैं जोड़ जोड़ कर अंग्रेजी भी पढ़ लेती थी। सारिका ढाई साल की थी तब। अपनी तोतली भाषा में खूब बातें करने लगी थी वो। इन्होने मुझे सारिका से किताबी भाषा (जिसे गाँव में अड़बी तड़बी कहा जाता था) बोलने का निर्देश दे रखा था!उस दिन शाम को जब मैने उससे दूध पीने को कहा तो वो बोली "पापा हाथ छे पीना ऐ"

उसकी बोली के साथ साथ ही मेरी ढेर सारी ममता उमड़ पड़ती। मैने उसे चूमते हुए कहा "पापा तो रात में आएंगे" उसने सिर हिलाते हुए कहा "नई दल्दी आएंगे।"

वो रोज अपने पापा से जाते समय जल्दी आने का वादा लेती थी और उसके पापा अपना वादा निभाने की कोfशश भी करते थे। अब वो जितनी जल्दी हो सके अपनी बिटिया के पास आ जाते थे। आज वो पास के ही गाँव में गए थे, मुझसे भी कहा था जल्दी आने को। इसीलिए मैने सारिका को दूध पीने के लिए अधिक बार नही कहा और प्यार से उसके गाल हिला कर दूध रखने चली गई।

इन्हे जल्दी आना था, इस हिसाब से कुछ खाना बनाने की तैयारी कर रही थी तभी बाहर से शोर सुनाई दिया। मैं ड्यौढ़ी तक आई लेकिन कुछ भी समझ में नही आया कि हुआ क्या है।

ओसारे में बाबूजी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। वो पूरी तरह से दूसरे पर आश्रित थे। सब शोर के साथ भाग गए थे और वे अकेले चिल्ला रहे थे। मैने घूँघट खींचा और और ओसारे की चौखट पर पहुँच कर धीमे से बोली "का भै बाबू जी ? "
बाबूजी चिल्लाते हुए बोले "कुछ नाही, कुछ नाही भै। सब अईसे कहत है। क्यौ अऊर होई। अरे भगवान एतना निर्दई नाही हईन। ऊ हमरे बुढ़ापा में हम पर अईसन पहाड़ नाही गिरईहै।"

बाबू जी की सांत्वना से मैं अंदर तक सिहर गई। क्या कह रहे हैं बाबूजी ............? क्या सारिका के पापा को कुछ हो गया ? मेरा स्वयं पर से नियंत्रण छूटने लगा। मैं ओसारा पार कर के दरवाजे पर दलान में पहुँच गई। गाय भैंस की मड़ईया के पास कँहार का लड़का खड़ा था। मैने उससे पूँछा "का भै रे किसना ? "

"सब कहत हैं कि बड़का भई या के डकईत गोली मार दिहिन।"

" है S S S" और मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी।

Monday, August 13, 2007

मुक्ति (भाग‍‍-२)

कितनी सुंदर थी वो गोल भरा सा मुँह बड़ी सी काली.काली आँखें, घुँघराले बाल, मैं मुग्घ हो गई थी अपनी ही कृति पर। मुझे जीवन में खुश रहने का सहारा मिल गया था। मैं उसी को सोचती, उसी को जीती।

मुझे नही पता, मेरे पति भी खुश थे या नही लेकिन कभी-कभी सारिका अकेले पड़ी होती और वे उसे बड़े प्यार से निहार रहे होते और मैं पहुँच जाती तो यूँ आँखें चुराने लगते जैसे कोई गलत काम कर रहे हों, मुझे हँसी आ जाती और मैं मुस्कुराती हुई कहती "काँहें अपने बिटिया के खेलाइब कौनो चोरी है का" और वो बाहर चले जाते।

लेकिन एक दिन उन्होने अपने भाव व्यक्त किए "सुनो! मेरे साहब के एक ही बिटिया है लेकिन उन्होने उसे लड़के की तरह रखा है। खूब पढ़ाया लिखाया है और सारी खुशी दी है। हम अपनी बिटिया को भी ऐसा ही बनाना चाहते हैं।

मैने चूल्हे में पड़ी रोटी को निकालने से अपना हाथ रोक लिया। इनका मुँह देखते हुए आश्चर्य से बोली "सच्ची...?"

"हाँ"

`"बकिर अपने एतना पइसा कहाँ है.....?

"तो क्या हुआ हम तो हैं।..........लेकिन! ....... उसके लिए तुम्हे बदलना होगा।"

`"हम्मै...?"

`"तुम्हा तो सबसे अधिक उसके साथ रहोगी। बच्चा माँ का दर्पण होता है, पता है तुम्हे ? "

`"हम्मै ई कुल बड़ी‌‌‌ - बड़ी बात नाहीमालूम।"

``"तो तुम उसे कैसे बताओगी ?"

ये तो मेरे लिए सबसे बड़ा प्रश्न था। मैं कैसे बताऊँगी ....... सच में मुझे तो कुछ भी पता नही, मैं कैसे बता पाऊँगी .........लेकिन एक ही पल पहले कितनी खुशी हुई थी ये सुनकर कि मेरी मेरी बिटिया भी लड़को के साथ पढ़ेगी, कितना अच्छा सपना था ये। मै कितना चाहती थी कि भईया के साथ मैं भी झोला और कलेवा ले के स्कूल जाऊँ, लेकिन बड़के बाबूजी नही जाने दिये। किसी ने मुझसे कहा नही मगर मैं जानती थी मगर बड़के बाबू जी सभी लड़कियों के लिये यही कहते थे कि कलक्टर थोड़े न बनना है, जो लड़कियों को पढ़ने भेजा जाये। वैसे कलक्टर तो भईया भी नही बने, लेकिन मैने ये बात समझ ली कि लड़कियाँ स्कूल नही जातीं.... लेकिन मैं तो इस काबिल ही नही हूँ, कि अपनी बिटिया को पढ़ा सकूँ मैं उदास हो गई।

`"तुमने पढ़ाई क्यों नही की अपने मायके में ?" उन्होने पूँछा।

मैं उनका मुँह देखने लगी। आज ये कैसे कठिन कठिन प्रश्न पूँछ रहे हैं, जो
पूँछते हैं उसी का उत्तर नही होता मेरे पास।

`"हम पढ़ाऐ तो पढोगी तुम ?" ये था उनका अगला प्रश्न लेकिन ये उतना कठिन नही था।

`"यह उमिर में पढ़ब तो कुछ अइबो करी ?" मैने आश्चर्य से पू¡छा।

`"क्यों नही ? तुम चाहोगी तो सब आएगा। नही चाहोगी तो कुछ नही आएगा।"

बात सिर्फ मेरी होती तो मैं शायद ना नुकुर करती, लेकिन इसका संबंध मेरी एकमात्र खुशी से था, जिसके लिए मैने अभी-अभी बड़ा प्यारा सा सपना देखा था। वो सपना इतना खूबसूरत था कि सत्य परिणिति के लिए कुछ भी किया जा सकता था।

`"लेकिन आप कब पढ़इहैं हम्मै? दिन भर तो आप नौकरी पर रहत हिन।"

`"रात में तो घर पर रहते हैं।"

मैं कुछ नही बोली। बस फिर से चूल्हे की लकड़ी खिसकाने में लग गई। लेकिन कुछ कहने की जरूरत भी नही थी। उन्हें मेरी मौन स्वीकृति मिल चुकी थी।

रात में वो मुझे आधे घंटे में जो कुछ पढ़ाते, मैं पूरे दिन में जब- जब समय मिलता उसका अभ्यास करती। मुझे लिखना पढ़ना छ: महीने में ही आ गया। सारिका मेरी पढ़ाई के साथ साथ ही बढ़ रही थी। ये मुझे किताबें ला कर देते और मैं काम से समय मिलते ही उन्हे आत्मसात करने लगती, इस भावना के साथ कि जल्द ही मुझे सारिका में ये सब डाल देना है।

उस दिन ये अभी लौटे नही थे। गाँवों में वसूली का काम था। अक्सर देर हो ही जाती थी। सारिका सो गई थी और मैं सारिका के बगल में बैठी किताब पढ़ रही थी। दरवाजा खुला ही था। सामने से देवर जी ने प्रवेश किया। मैं उन्हे देख कर खड़ी हो गई।

उन्होने कहा "भईया नाही अइहैं आज । जऊने गाँव मा उसूली खरती गए रहिन उहाँ रिश्तेदारी है तो वै सब रोक लिहिन। एक आदमी आय रहा खबर लई के।"

मैं बिना कुछ बोले सर पर पल्ला सम्हालती रही, जिसका अर्थ था 'मैने सुन लिया।' मैं उनसे अधिक बात नही करती थी। देवर होते हुए भी उनकी उम्र मुझसे बड़ी थी अत: मैं उनका सम्मान करती थी।

अपनी बात कह लेने के बाद उन्हे चले जाना था लेकिन वो पास की कुर्सी पर बैठ गए। मैने कनखियों से उन्हे देखा, तो वो एक टक मुझे निहार रहे थे। नारी में नीयत पहचानने की एक जो इन्द्रिय होती है वहाँ कुछ कंपन हुई। इस क्रिया के साथ प्रतिक्रिया होती है स्थिति को समझदारी से संभाल लेने की। मैं इसी कोशिश में काम याद आने के बहाने बाहर निकलने लगी। लेकिन इतने में कुँवर जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरा पूरा शरीर झनझना उठा। मैने उन पर नज़र डाली तो एक बेशर्म हँसी के साथ वो मुझे देख रहे थे। एक झटके में अपना हाथ छुड़ाते हुए मैं दूर जा खड़ी हुई और काँपती हुई आवाज में चिल्ला उठी " होश में नाही हईन का कुँवर जी। "

वो अभी भी उसी तरह मुस्कुरा रहे थे "एतना चिल्लाओ ना! बाबूजी दुआरे पर हईन आवाज नाही पहुँची।" कह कर वो कुर्सी से उठे और उनके कदम मेरी तरफ बढ़ने लगे।

मैने विस्तर के पास पड़ी हँसिया उठा ली "आगे ना बढ़िहैं कुँवर जी। हम गर्दन अलग कई देब। औरत के इज्जती पे आइ जाए तो कुच्छू कई सकत है। ई बात धमकी ना समझिहैं कुँवर जी।" मेरे अंदर इतनी शक्ति ना जाने कहा¡ से आ गई थी। मैं जान लेने और देने दोनो को तैयार थी।

कुँवर जी समझ चुके थे कि बात सिर्फ धमकी तक नही सीमित थी। अगले क्षण ही कही गई बातें सच हो सकती थीं। वासना तो अपने आप में सबसे बड़ी कायरता होती है, ऐसी कायरता रखने वाला आगे बढ़ने की हिम्मत कैसे कर सकता था। वो बाहर निकल गए। उनके निकलते ही मैने दौड़ के दरवाजा बंद किया। कुंडी, सिटकिनी सब लगा दी। देखा तो सारिका चिल्ला चिल्ला के रो रही थी। मैने दौड़ के उसे उठाया और सीने से लगा कर खुद भी फूट कर रोने लगी। मेरी सारी शक्ति जैसे निचुड़ गई थी। मैं काँप रही थी। मेरे रोने का वेग रात भर कम ना हुआ। सारिका मेरी गोद पा कर सो गई थी। मैं उसे लिए रात भर रोती रही। थोड़ी थोड़ी देर में कुँवर जी की कुटिल हँसी वाला चेहरा सामने आ जाता और मेरे आँसुओं में ज्वार आ जाता। पता नही कितनी देर बाद दरवाजा खटका। मैं फिर भीतर तक काँप गई। सारिका को मैने जोर से चिपका लिया। दरवाजा फिर खटका और साथ में आवाज आई `"सारिका!"

क्रमशः

नोटः मनीष जी एवं उड़न तश्तरी की सलाह के अनुसार गुरुवार के पूर्व ही प्रस्तुत

Thursday, August 9, 2007

मुक्ति

हास्पिटल के उस कमरे के बेड पर पड़ा वो शरीर जिसमें खून की बोतल चढ़ रही है, उसके शरीर के रोम-रोम में सुइयों का दर्द है। उसे कुछ भी नही याद। पिछली सुबह कब हुई थी, अगली शाम कब होगी! महीनों से उसे कुछ पता नही। वो सन्निपात के दौर में है। लेकिन एक चीज वो अब भी उसी तरह करता है जैसे पचीस बरस पहले..........मेरा नाम ले कर दस गालियाँ उसके मुँह से अब भी उसी तरह निकलती है और मैं पचीस बरस पहले की तरह आज भी उन गालियों के जवाब में देखने लगती हू¡ कि अब मेरी सेवा में क्या कमी रह गई है।

नही..नही! आप सभी लोग बिलकुल गलत समझ रहे है। मै कोई पतिव्रत धर्म निभाने या भारतीय नारी की आदर्शवादिता सिद्ध करने के लिए ऐसा नही करती हूँ। असल में ये वो मजबूरियाँ हैं जो अब आदत बन चुकी हैं।

मैं भी कभी अल्हड़ हुआ करती थी। कितने कम दिन के लिए पर कितना प्यारा था वो सुख। माँ बथुए तोड़ने का आदेश देती और मैं अपने खेत से दीनू चाचा के खेत तक दौड़ आती। बथुआ, पालक सोया, मेथी जो-जो मिलता, जहाँ जहाँ, मिलता, आसरे काका की सीख, कुसुमा काकी की फटकार समेत आधा सड़क पर बिखेरते, आधा अपनी चुन्नी में समेटते, दालान से आँगन तक पहुँचती तो बड़की अम्मा के चेहरे पर गुस्सा और चिंता दोनो झलक जाते,

"अरे कपड़ा सम्हाल मलिच्छिन!"

कहती हुई वो सर पर हाथ धर कर दादी को देखती हुई कहतीं, "बारह की पूरी होइ के तेरहे में लागि गईं औ भगवान
अक्किल
अबहींनौ नाही दिहिन"
और मैं ठुनकती हुई दादी की खटिया पर जा बैठती, क्योंकि वही मेरी सुरक्षित शरणस्थली थी। दादी के गले में हाथ डाल कर जब मैं उनकी तरफ शिकायत भरे लहजे में देखती तो वो तुरंत मेरी तरफ से बोल उठतीं " मेहरारुन का तो वइसे जिनगी भर अक्किल के काम करे के होत है। बाद में तो सब बिटियन के भाग एक्कै कलम से लिख्खा जात है।" कहती हुई दादी धीमे से मुस्कुरा कर बात का रूख मोड़ने की गरज से कहतीं "जब बियाह कई के आए रह्यू तो केतना कपड़ा सम्हारि लेत रह्यू तूँ "

" हमार बात तो छोड़ि दें अम्मा जी। दस के होते आपके घर मा आइ गै रहेन औ एतनी उमर में तो कूटे पीसे से लई के गिरहस्ती के सारा काम आप हमरे सिरे छोड़ि दिहे रहीं" और इसी के साथ झुँझलाहट बढ़ जाती बड़की अम्मा की "हम्मै का करेक है अइसे रहिहैं तो अपुनै भुगतिहैं।" इतना कह कर बड़की अम्मा काम करने लगतीं और मै दादी की चादर से मुँह ढक कर ऐसे पड़ जाती जैसे कुछ हुआ ही नही था।

माँ जब खाना परोस कर बुलाती तो धीमे से समझाती "काँहे रे! काँहे हम्मै सबसे बोली सुनवावत हे! तोरे उमिर के बिटिये आधा काम सम्हारि लेत हीं गिरिहस्ती के।"
मैं तुनक के खाना छोड़ देती "सुरू होइ गयू बड़की अम्मा के तरह।"
माँ फटाक से हाथ पकड़ लेतीं "अरे तो बड़की अम्मौ तोरे भलईये खातिर कहत हीं। तोसे दुई महीना बड़ी बाय मलतिया, लेकिन देख कईसे धीरा पूरा रहत है।........... अच्छा खाना न छोड़। अन्न के निरादार नाही करेक् चही। ई देख केतना बढियाँ परवर भूजे हई तोहरे खातिर।

फिर ढेरो मान-मनावन के बाद मैं खाना शुरू करती। वो मान मनावन, वो मीठी झिड़कियाँ वहीं खतम हो गईं एक बार घर से निकली तो दोबारा बुलाई भी नही गई।
कौन बड़ी दूर शादी हुई थी। चार घंटे का सफर था, वो भी बैलगाड़ी से लेकिन चार युग तक शायद कोई ना याद करे। माँ कितना प्यार करती थी। मैं गुस्से में भूखी सो जाती तो रात में मेरा पेट टटोल कर देखती। उसने सुनी तो होगी ना मेरी व्यथा-कथा। कैसे शांत रही होगी वो...... शायद उसने भी अपनी सोच को समाज के अनुसार ढाल लिया होगा! लेकिन मैं तो उसका अंश थी। मेरे विषय में वो गलत धारणा कैसे बना पाई होगी
और अगर बना भी ली होगी तो कितना कष्ट हुआ होगा उसे! शायद मुझसे अधिक उसे अपने आप से घृणा हुई होगी। इतना समझाने सिखाने के बाद भी लड़की संस्कारों से गिर गई। कितना घुट-घुट कर रही होगी वो! लोगों के ताने सिर्फ सुनती होगी और जवाब ढूँढ़ ही नही पाती होगी वो।

पता है ? बहुत खुश थी मै ये सुनकर कि मेरी शादी होगी अब। गाँव में शादी होती थी तो खूब मिठाई बनती थी। ढेरों रिश्तेदार आते थे। शामियाना डाला जाता था। वो सब अब मेरे घर में भी होगा। मेरे ससुराल से भी जेवर आएंगे। सावित्री को कितना तैयार किया गया था। मुझे भी तैयार किया जाएगा। जेवर पहनूँगी, पियरी पहनूँगी, गाना होगा। सब कुछ सोच-सोच कर खुश हो रही थी।

गेहूँ बीनने, धान कूटने, चूरा कूटने के लिए मेरे घर में अब गाँव भर की बहू-बेटियाँ इकट्ठी होने लगी थी। खूब हँसी-मजाक होता। गाने होते। मैं भी उनके साथ गाने लगती। सब खूब हँसती और बड़की अम्मा दौड़ कर मुँह पर हाथ रख देती "अरे पगलिया! गाँव भर मा हँसी करवाई का"
रिश्ते की भाभियाँ चुटकी काट कर कहतीं "अब जाइ के अमीन साहब के सुनायू आपन गीत"
मुझे उन पर खूब गुस्सा आता। अपना तो सब खूब हँस रही हैं, गा रही हैं, मैं जरा सा वही काम करती हूँ तो सब मुझ पर गुस्साने लगते हैं। अब तो दादी भी मेरे पक्ष में नही बोलती। मैं चुप-चाप अपनी कोठरी में चली जाती।

लेकिन एक बात मुझे न समझ में आती थी, इतनी खुशी के माहौल में भी माँ, दादी और अक्सर बड़की अम्मा भी अपनी आँखें क्यों पोंछती रहती हैं...? वो दिन भी आ गया जब मुझे खूब तैयार किया गया। आज की तरह ब्यूटीशियन तो नही आईं थी, लेकिन गाँव की लड़कियों और बहुओं को जितना ज्ञान था उस हिसाब से पूर्ण श्रृंगार किया गया। पहले तो खुशी हुई लेकिन जब रात भर घूँघट डाल के जाने क्या क्या करना पड़ा और उस पर नाउन थी कि जरा सा सिर उठाओ तो फिर से धँसा देती। उफ! गर्दन दर्द होने लगी थी। बड़ी अम्मा का डर न होता तो मैं तो नाउन को धक्का दे देती।

जब सवेरा हुआ तब जा कर छुट्टी मिली। दूल्हे की खूब बड़ाई हो रही थी। लड़कियाँ औरते सब उनसे खूब मजाक कर रही थी।
" ई बताएं मेहमान! आप तो इतना सुंदर हईं बकिर ई आपके भई एतना करिया कइसे होइ गईन ?"
" काले रंग पे तो सब गोपी निछावर थीं। और आप सब भी तो हमसे जादा हमारे भाई को ही निहार रही हैं।" दूल्हे का तुरंत जवाब आया।
" हे भागवान! ई तो बड़ा तेज हईन।" एक महिला का स्वर आया और कई खिलखिलाहटें मिल गई उससे।

एक दिन जनवासा रोकने के बाद तीसरे दिन विदाई हो गई। मेरे साथ कई बक्से जा रहे थे। मैं खुश थी कि अभी मुझे डोली में बैठाया जाएगा। कँहार मुझे उठा के दूसरे गाँव में ले जाएंगे। मैने तो गाँव के दूसरे टोलों के अलावा कुछ देखा ही नही था। आज घूमने को मिलेगा। माँ आई और मुझे पकड़ कर चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। उसे चुप कराने जो भी आया वही अविरल आँसुओं के संग आया इतनी रूलाई देख कर मुझे भी रोना आ गया। छोटे बच्चे भी तो मा को रोता देख कर बिना कारण समझे रोने लगते हैं। बस उसी तरह।

फिर मैं ससुराल आ गई। पता नही कैसे ? लेकिन उसी दिन शायद मैं बड़ी हो गई। यहाँ भी वही भीड़ भाड़ थी जो मैं मायके में अभी छोड़ कर आ रही थी। लेकिन यहा¡ सब अपरिचित थे। वहाँ गाँव के भी लोग अपने लगते थे, यहाँ घर के भी लोग पराए लग रहे थे। कौन रिश्तेदार है? कौन गाँव का? कौन परिवार का ? कुछ पता ही नही चल रहा था। मैं घूँघटमें मशीन की तरह सब कुछ करती जा रही थी। सबको जल्दी थी दूल्हन देखने की। घूँघट खोलने के बाद अलग अलग तरह की आवाजें आतीं। कोई कहता "दुलहा दुलहिन के जोड़ा बढ़िया लाग है।" तो कोई आवाज आती "ठीक तो भऊज्यू हईं बकिर हमरे भईया यस नाही हईं" अगली बार घूँघट उठता तो आवाज आती "दुलहिनिया लड़िका से इक्कीसे पड़ी उन्नीस नाही।"
जितने लोग उतनी प्रतिक्रियाएं। इससे पहले मैं कभी डरी नही थी।आज मुझे इन सब लोगों से डर लगने लगा था।

फिर शुरू हुआ मेरे जेवरों और मेरे बक्सों का जायजा। "सीकड़ केतना हलकी बाय। "
"दुलहिन तोहार बाप यस सुनार कहाँ पाइ गइन जे एतना हल्लुक सीकड़ बनाइ दे।"
"सास के लिए जौन साड़ी आए बा ऊ तो जैसे परजौती होय।"

आँखें के आगे तो घूँघट का पर्दा था और कान में तरह तरह के तानों की आवाज। रात होते-होते मैं रोने लगी। आज मैं सचमुच रोई थी। दु:खी हो कर कैसे रोया जाता है, मुझे आज पता चला था और इसके बाद तो वो सिलसिला बन गया।

धीरे-धीरे घर खाली होने लगा। घर में बचे लोग थे, मेरी सास( जो मेरी दादी से कुछ ही कम उम्र की थी ), मेरे ससुर( जो मेरी दादी से भी अधिक उम्र के थे ) मेरे पति जिनको मैं बहुत दिनों बाद शकल से पहचान पाई (क्यों कि वो जब आते तो कमरे की ढिबरी बुझ गई होती थी और सुबह उजाला होने के पहले वो दरवाजे पर पहुँच गए होते थे) और एक मेरे देवर थे (जो मुझसे करीब ५-६ साल बड़े होंगे)

ससुर मेरे बीमार ही थे। उनकी पूरी सेवा मेरी सास को करनी होती थी। लेकिन अचानक सास भी बीमार पड़ गईं। सास के रहते मुझे काम भले ही करने पड़ते थे लेकिन जिम्मेदारी कुछ खास नही पड़ी थी। लेकिन उनके बीमार पड़ने के साथ ही काम तो दोगुना बढ़ा ही जिम्मेदारियाँ भी आ गई। अम्मा जी को फालिज का अटैक पड़ा था। वे पूरी तरह बिस्तर पर पड़ गईं थीं। पिता जी तो पहले ही दमा के कारण अपना ही काम बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। मैने तीन महीने तक अम्मा जी की अपने हिसाब से भरपूर सेवा की लेकिन उनका खाना छूटता चला गया और एक दिन वो शरीर भी छोड़ गईं।

पति देव माँ और पिता जी की सेवा के कारण अब घर में समय देने लगे थे। अब मेरा भी परिचय उनसे बढ़ चुका था। मेरी झिझक भी उनसे खुल चुकी थी क्योंकि इधर कुछ भी अम्मा जी के माध्यम से न कहला कर स्वयं कहना होता था।

अम्मा जी के जाने के बाद ही मुझे पता चला( बल्कि पड़ोस की काकी ने बताया) कि मुझमें कोई जीव पलने लगा है। अब तो याद भी नही कि उस समय कोई खुशी या उत्साह हुआ भी था या नही। लेकन ये याद है कि सारिका हुई तो मुझे जो खुशी मिली वो मेरी जिंदगी की पहली खुशी थी, याद तो ऐसा ही आ रहा है कि शायद आखिरी भी थी।

क्रमशः
फिर मिलिये अगले गुरुवार …..!