Wednesday, November 28, 2007

गुरू जी का ब्लॉगिया कवि सम्मेलन

गुरु जी पंकज सुबीर से वादा था कि २४ अक्टूबर को हुए ब्लॉगिया कवि सम्मेलन के विषय में अपने ब्लॉग पर विस्तार से चर्चा करूँगी ऐसे कुछ संजोग पड़े कि समय ही नही मिला। दिन भी काफी व्यतीत हो गये तो सोचा चलो रात गई, बात गई, लेकिन आज जब गुरू जी के ब्लॉग पर पढ़ा कि १५ दिन से वो क्लॉस नही ले रहे लेकिन किसी भी शिष्य ने उनका हाल नही लिया तो सचमुच अपने पर ग्लानि हुई। हम ब्लॉगर मित्र भले एक दूसरे को सीरत से न पहचानते हों लेकिन कहीं न कहीं बँधे तो हैं ही और ऐसे में जब भी हम किसी समस्या में पड़ते हैं तो अपने अन्य मित्रो के साथ ब्लॉगर मित्रो की याद आना स्वाभाविक ही है, तो गुरू जी से सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगते हुए, मैं उनका आभार व्यक्त करती हूँ कि उन्होने ब्लॉग पर ही सही मुझे कवि सम्मेलन मे शामिल होने का पहला मौका दिया, जो कि मेरे लिये एक स्वप्न ही है।..ब्लॉग के मंच पर लाते हुए जब उन्होने कहा कि

और अब आ रहीं हैं कंचन सिंह चौहान इनके लिये चार पंक्तियां

जिसको देखो वो मीत हो जाए ,
सारा आलम पुनीत हो जाए,
तुमको लय छंद की ज़रूरत क्‍या,
जो भी गा दो वो गीत हो जाए आ रहीं हैं कंचन


तो पढ़ कर मुझे लगा कि मैं बहुत बड़े कवि सम्मेलन के मंच पर चढ़ रही हूँ और संचालक मुझे नवाज़ रहे हैं इन शब्दों से। रात मे जब माँ को फोन पर ये लाइने पढ़ कर सुनाई तो वे भावुक हो गई और सुबह तक मोहल्ले के हर व्यक्ति के मुँह पर लाइने चढ़ गई थी....और वो कविता जो मैने वहाँ बाँटी थी वो कुछ इस तरह थी,






स्वर्ण नगरिया तेरी द्वारिका, कोने-कोने सुख समृद्धि,
फिर भी कभी कभी स्मृतियाँ, गोकुल तक ले जाती है क्या?


दूध दही से पूरित तो है, रत्न जड़ित ये स्वर्ण कटोरे,
भाँति भाँति के व्यंजन ले कर दास खड़े दोनो कर जोड़े,
लेकिन वो माटी की हाँड़ी, वो मईया का दही बिलोना,
फिर से माखन आज चुराऊँ ये इच्छा हो जाती है क्या?

बाहों में है सत्यभाम और सुखद प्रणय है रुक्मिणि के संग,
एक नही त्रय शतक नारियाँ, स्वर्ग अप्सरा से जिनके रंग।
लेकिन वो निश्चल सी ग्वालिन, प्रथम प्रेम की वो अनुभूति,
राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?

एवं



देख रहे हैं ऐसा सपना जो सच होगा कभी नही,

हम जाने को कहते हैं और वो कहते हैं अभी नही!
ढूढ़ रही हैं उनकी आँखें भरी भीड़ में मुझको ही,

और हमरी आँखें देखें निर्निमेष सी उनको ही,

और अचानक ही हम दोनो एक दूजे से मिलते है,

आँखें सब कुछ कह जाती है , मगर ज़बानें खुली नही।


दूर कहीं सूरज ढलता हो, छत पर हम दो, बस हम दो,

एक टक वो देखें हो मुझको और मेरी नज़रें उनको,

दिल की धड़कन हम दोनो की तेज़ ही होती जाती है,

कहे हृदय अब नयन झुका लो, मगर निगाहें झुकी नही।


Wednesday, November 21, 2007

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?



खुशी मरी उत्साह मर गया जीने की हर चाह मरी,
ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?

कितना नीर भरा मेघों में किन्तु स्वाति की प्रतीक्षा,
पागलपन ये नही अगर तो क्या है चातक की इच्छा
मरुभूमि को नीर समझना और भ्रमों के पीछे दौड़,
ये दुर्भाग्य नही हिरनी की सोची समझी ढिठाई है।

मना मना कर हारे मन को मना किया है कितनी बार,
चाँद पकड़ने की ज़िद मत कर इस प्रयास में मिलेगी हार।
वो जो है ही नही जगत में उसको ही पाने का वर,
भला भरे कैसे ईश्वर जो खाली झोली आई है।

वो क्षण जो कुछ क्षणों मात्र को आये, और फिर ना आये,
जो बादल सुख भ्रांति बन कर छाये और फिर न छाये,
रात कहा करती है मुझसे अब वो सब ना लौटेगा,
पर ये बैरन भोर हमारी आस जगाने आई है।

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?