और अब आ रहीं हैं कंचन सिंह चौहान इनके लिये चार पंक्तियां
जिसको देखो वो मीत हो जाए ,
सारा आलम पुनीत हो जाए,
तुमको लय छंद की ज़रूरत क्या,
जो भी गा दो वो गीत हो जाए आ रहीं हैं कंचन
तो पढ़ कर मुझे लगा कि मैं बहुत बड़े कवि सम्मेलन के मंच पर चढ़ रही हूँ और संचालक मुझे नवाज़ रहे हैं इन शब्दों से। रात मे जब माँ को फोन पर ये लाइने पढ़ कर सुनाई तो वे भावुक हो गई और सुबह तक मोहल्ले के हर व्यक्ति के मुँह पर लाइने चढ़ गई थी....और वो कविता जो मैने वहाँ बाँटी थी वो कुछ इस तरह थी,
स्वर्ण नगरिया तेरी द्वारिका, कोने-कोने सुख समृद्धि,
फिर भी कभी कभी स्मृतियाँ, गोकुल तक ले जाती है क्या?
दूध दही से पूरित तो है, रत्न जड़ित ये स्वर्ण कटोरे,
भाँति भाँति के व्यंजन ले कर दास खड़े दोनो कर जोड़े,
लेकिन वो माटी की हाँड़ी, वो मईया का दही बिलोना,
फिर से माखन आज चुराऊँ ये इच्छा हो जाती है क्या?
बाहों में है सत्यभाम और सुखद प्रणय है रुक्मिणि के संग,
एक नही त्रय शतक नारियाँ, स्वर्ग अप्सरा से जिनके रंग।
लेकिन वो निश्चल सी ग्वालिन, प्रथम प्रेम की वो अनुभूति,
राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?
एवं
देख रहे हैं ऐसा सपना जो सच होगा कभी नही,
हम जाने को कहते हैं और वो कहते हैं अभी नही!
ढूढ़ रही हैं उनकी आँखें भरी भीड़ में मुझको ही,
और हमरी आँखें देखें निर्निमेष सी उनको ही,
और अचानक ही हम दोनो एक दूजे से मिलते है,
आँखें सब कुछ कह जाती है , मगर ज़बानें खुली नही।
दूर कहीं सूरज ढलता हो, छत पर हम दो, बस हम दो,
एक टक वो देखें हो मुझको और मेरी नज़रें उनको,
दिल की धड़कन हम दोनो की तेज़ ही होती जाती है,
कहे हृदय अब नयन झुका लो, मगर निगाहें झुकी नही।