Thursday, July 8, 2010

डॉ० कुमार विश्वास, गुरू जी और कवि सम्मेलन, नवोन्मेष महोत्सव भाग-२


तो २६ तारीख का आरंभ सुबह के पौने चार बजे से होता है। वैसे दिन का अंत भी २६ को ही रात २.०० बजे हुआ था, जब विजित और जीजाजी ने किसी का दरवाजा रात के १ बजे खटखटा के कहा "ज़रा अपना जनरेटर दे दें। बाज़ार में किराये पर मिल नही रहा सहालग के कारण और हमारे यहाँ सांस्कृतिक कार्यक्रमो में हिस्सा लेने आये कई मेहमान हैं।"

तब कहीं हम सब सो सके। अनूप जी और कुश ने ऐलान कर दिया था कि "यूँ भी हम तुम्हे ब्लॉग जगत पर ही नही झेल पाते, वहीं पर बिना पढ़े टिपिया देते हैं तो यहाँ तुम्हे सुनने का टॉर्चर कैसे झेलेंगे।"


खैर सुबह पौने चार बजे वीर जी को बस्ती जाना था। कुश और अनूप जी को छोड़ने और गुरू जी तथा अन्य कवियों को लेने।

और ये दिन था मेरी जिंदगी का एक बहुत विशेष दिन जिस दिन की कल्पना मैं मन में करती तो थी पर किसी से कहती नही थी। और इस दिन की शुरुआत इतने अच्छे और सभी अपनों के बीच होगी मैने सोचा नही था।

गुरू जी, नुसरत दीदी, मोनिका हठीला दी और रमेश यादव जी होटल पहुँचे। मुझे खबरें मिल रहीं थीं। होटल की व्यवस्था अच्छी नही थी उस समय। जबकि ये वहाँ का टॉप होटल था। मैं शर्मिंदा हो रही थी, खासकर नुसरत दी और मोनिका दी के लिये।
दिन में १२ बजे के लगभग अर्श आया और शायद दो बजे के इर्द गिर्द सर्वत ज़माल जी।

सर्वत जी का भी बड़ा योगदान था इस कवि सम्मेलन में। तैयारियाँ तथा फंड इत्यादि के संबंध में उन्होने मुझे बहुत सपोर्ट किया था। मेरे विशेष आग्रह पर ही उन्होने सिद्धार्थनगर आना स्वीकार किया था और अपने व्यस्ततम कार्यक्रम से समय निकाल कर आये भी।
सर्वत जी ने ही मेरे लिये पवन सिंह जी से बात की, जो कि गोरखपुर में एसडीएम हैं। पवन सिंह जी स्वयं तो मसूरी जाने वाले थे परंतु फिर भी सिद्धार्थनगर स्तर पर उनका विशेष सहयोग रहा।

वो पल भी आज ही आया जिसके लिये मैं हमेशा सोचती कि क्या रिऐक्शन होगा मेरा। गुरू जी से मिलना। मैं समझ ही नही पा रही थी कि क्या करूँ। पैर छू लूँ या हाथ पकड़ लूँ या बस चुपचाप खड़ी देखती रहूँ?

गुरू जी और सभी लोग घर पर भोजन करने आये तो मैने भी दर्शन किये।


दिन बहुत सारे तनावों मे गुज़रा। सब मेरे कारण परेशान थे, ये बात अब गुरूर दिलाती है पर उस समय आँसू ला रही थी। कुमार जी के आने की भी खबरों के उतार चढ़ाव मिल रहे थे। रास्त खराब था, लखनऊ से सिद्धार्थनगर तक का।

मगर शाम होते होते सभी समस्याओं का समाधान हुआ। sigh of relief baught a crucial headache with itself. मुझे लग रहा था कि मेरी बीमारी मुझ पर हावी होने वाली है, मगर दोनो दीदियों ने काउंसलिंग कर तुरंत दवा खिलाई और स्थिति सामान्य ओर बढ़ी।

कुमार जी से पहली मुलाकात शाम ७.३० बजे हुई, जब उन्होने कहा "खुश रहिये, हमेशा खुश रहिये। देखिये हम तो बस आप के लिये यहाँ आ गये। पंकज जी ने मुझसे कहा मेरी बहन के लिये सिद्धार्थनगर चलना है, तो मैने कहा आपकी बहन मेरी बहन और आ गया।"

गुरू जी ने कहा "ये बहुत डरी है।" तो वहीं कुमार जी ने आत्मविश्वास के साथ कहा " चिंता मत करिये। आपका प्रोग्राम हिट होगा, पूरी तरह हिट।" और इस आत्मविश्वास से कही बात ने असर दिखाया रात के १२ बजे। कार्यक्रम की भूरि भूरि प्रशंसा हुई।


कार्यक्रम का संचालन गुरू जी के हाथ में था।

शुरूआत मोनिका दीदी की सुरीली सरस्वती वंदना "प्यार दे दुलार दे, माँ तू सद्विचार दे" से हुई।

आगाज़ गुरुकुल टीम जिसे गूगल टीम का नाम मिल चुका था के विमोचन से हुआ।

वीनस जो कि अपने पर्फार्मेंस पर विशेष ध्यान दे रहा है ने अपनी गज़ल
"ना मुकदमा, ना कचहरी उसके मेरे बीच में,
फिर भी खाई एक गहरी, तेरे मेरे बीच में।"
सुना कर युवाओं की तालियाँ बटोरी। उसका एक शेर जो मुझे विशेष पसंद है

"गर चलूँगा तो पहुँच ही जाऊँगा मैं शाम तक
बस खड़ी है एक दुपहरी तेरे मेरे बीच में।

फिर बुलाया गया प्रकाश सिंह अर्श को। जिसका शेर


"हलक़ में अपनी ज़ुबान रखता हूँ,
मैं चुप हूँ कि तेरा मान रखता हूँ।
मेरी बुलंदियों से तू भी रश्क कर,
मैं ठोकर में अपने आसमान रखता हूँ।"

ये वो शेर था जिस पर फिर से युवाओं ने जम कर तालियाँ बजाईं।

अपनी ग़ज़लों से पत्र पत्रिकाओं में, अपनी लगन से गुरू जी के दिल में और अपने स्नेही व्यवहार से गुरुकुल से ब्लॉगजगत तक अपना स्थान बना लेने वाले गौतम राजरिशी (वीर जी) को जब बुलाया गया तो उन्होने

ना समझो बुझ चुकी है आग गर शोला न दिखता है
दबी होती है चिंगारी धुँआ जब तक भी होता है।



के बुलंद शेर से आगाज़ किया और विजित को तथा नवोन्मेष टीम को समर्पित करते हुए शेर कहा

चलो चलते रहो पहचान रुकने से नही बनती,
बहे दरिया तो पानी पत्थरों पर नाम लिखता है।

उन्होने चार गज़ले सुनाई और सारी ही ग़ज़लों की विशेष प्रशंसा हुई।

फिर मेरा नंबर था। मैने जो किया सो किया। मुझे वाक़ई कुछ याद नही। मगर वो बात जिस बात ने सुकूँ दिया वो थी कि बाद में नुसरत जी ने बताया कि "जितनी देर आप मंच पर थीं, आपके भईया भावुक होते रहे।" गौतम भईया ने बताया " तू मंच पर जितनी देर रही दीदी लोग सेंटियाई रहीं।" दीदी ने बताया "तुम्हारा पर्फार्मेंस शुरू होते ही तुम्हारे वीर जी ने मोबाईल आन कर के तुम्हारे बगल में रख दिया था। शायद संजीता को सुना रहे थे तुम्हे।" विश्वास साहब ने कहा "मैने तुम्हारे मिसरे नोट किये हैं, बहुत अच्छा कहा।" और दूसरे दिन गुरू जी ने जो कहा, जो किया वो गूँगे का गुण है, धीरे धीरे स्वाद ले रहीं हूँ मिठास अब तक मुँह में घुली हुई है।


और ये लो वीर जी एक के जवाब में दो दो फोटू ले आई हूँ गुरू जी के स्नेह से निहारते हुए.... जलन अब जा के कुछ शांत हुई ।





अब बारी थी वरिष्ठों की। मोनिका दी... बाद में भी और अब तक प्रशंसा सुन रही हूँ उनकी। उनको जनता की नब्ज़ की अच्छी पकड़ है।

बंद पलकें ना खुलें लब ना हिलें बात ना हो,
इससे अच्छा है, कभी कोई मुलाकात ना हो।



और बेगाना कोई अपना बना कर चला गया।

उनकी स्वरों पर अच्छी पकड़ है। और देखिये ना दोनो ही अखबारों ने उनकी ही फोटो लगायी है।

नुसरत जी.... अहा..क्या सुरीली, क्या नाजुक सी आवाज़ बख़्शी है ऊपर वाले ने उन्हे। बाँसुरी कहूँ या सितार...! उनका अंदाज़ ....

क्यों मेरा दर्द सहते रहते हो,
कुछ पुराना लिया दिया है क्या?

हर कोई देखता है हैरत से,
तुमने सबको बता दिया है क्या

दिल बहुत *मुज़महिल सा है नुसरत,
तुमने कुछ कह कहा दिया है क्या ?

*मुज़महिल- बुझा बुझा

और फिर


सँवर रहा है वज़ूद मेरा, बदल रहा है मिजाज़ मेरा,
है मेरे दिल पर मेरी हुक़ूमत, है मेरी मर्जी पे राज़ मेरा।

महिला जागृति पर उनकी इस नज़्म ने आगे की पंक्ति में बैठी महिलाओं को भाव विभोर कर दिया। सुना है पाक़िस्तान में ये गज़ल बहुत सराही गयी है।

आज़म खाँ की पंक्तियाँ



मुहब्बत की नुमाइश हो रही है,
मगर ज़ेहनों में साज़िश हो रही हैं।
फलक़ तू सतह अपनी बढ़ा ले,
मुझे उड़ने की ख्वाहिश हो रही है।

दर्शकों द्वारा विशेष सराही गईं।

और फिर रमेश जी के मधुर गीत, जिनमें


ये पीला बासंतिया चाँद, संघर्षों का ये दिया चाँद,
चंदा ने कभी रातें पी ली, रातों ने कभी पी लिया चाँद

गीत ने मुझे फुरसतिया जी की याद दिला दी। याद आया कि समीर जी के आने पर उनके घर की मेहफिल में ये गीत उनकी पत्नी द्वारा सुनाया गया था और जहाँ तक मुझे याद है कि उनके विवाह में इस गीत का विशेष योगदान है।

इसके बाद माइक डॉ० कुमार विश्वास ने संभाला और आमंत्रित किया हमारे गुरुवर को। जिन्होने कहा

बड़ी छोटी गुज़ारिश है महोदय।
फक़त रोटी की ख्वाहिश है महोदय

समुंदर, ताल नदियाँ आप रख लो,
हमारे पास बारिश है महोदय।


सुनाई और संचालन के साथ साथ ग़ज़ल में भी अपने सिद्ध हस्त का प्रदर्शन कर दिया।

और अब आये रौनक ए मेहफिल डॉ० कुमार विश्वास। जनता ने असीम उत्साह के साथ उनका स्वागत किया। कुमार जी के लिेये पूर्वाग्रह यूँ भी चलता ही है। कुछ मित्र शायद पहले से ही भरे बैठे थे, राजू श्रीवास्तव की तरह। एक निवेदन से नाराज़ हो गये और मुट्ठी भर लोगों ने लामबंद हो कर बहिष्कार करने की कोशिश की तो जनता ने उन्ही का बहिष्कार कर दिया। जनता एकजुट हो कर खड़ी हो गई और तालियाँ बजा कर कुमार जी से कहा " जो जाता है उसे जाने दें, आप जारी रखें।"

और फिर शुरू हुआ वो जादुई पाठ जो २ घंटे लगातार चलता रहा। कुमार जी ने खड़े होते ही कहा "आज मैं सिर्फ कविताएं सुनाऊँगा।" और ढेरों ढेर कविताएं। ना कुमार जी रुके ना श्रोताओं की तालियाँ।

उस डगर पर मुझे वो छोड़ गया,
कब्र आई है घर नही आया।
वो जो कहता था जान दे दूँगा,
जान दे दी पर नही आया।

रोज़ हम उससे मिन्नते करते
रोज़ वो वायदा भी करता था।
रोज़ हम सबसे यही कहते थे,
उसको आना था पर नही आया।

अब बताईये इस साधारण सी बात पर कौन नही तालियाँ बजायेगा।



खुद से भी मिल ना सको, इतने पास मत होना,
इश्क़ तो करना मगर देवदास मत होना,
देखना, चाहना, माँगना या खो देना,
ये सारे खेल हैं इनमें उदास मत होना।



बस्ती बस्ती घोर उदासी, पर्वत पर्वत खाली पन,
मन हीरा बेमोल बिक गया, घिस घिस रीता तन चंदन,
इस धरती से उस अंबर तक दो ही बात गज़ब की है,
एक तो तेरा भोला पन है, एक मेरा दीवानापन।

सब अपने दिल के राजा हैं, सबकी कोई कहानी है,
भले प्रकाशित हो ना हो पर, सबकी प्रेम कहानी है,
बहुत सरल है पता लगाना, किसने कितना दर्द सहा,
जिसकी जितनी आँख हँसे है, उतनी पीर पुरानी है।
मै भाव सूची उन भावों की, जो बिके सदा ही बिन तोले,
तन्हाई हूँ हर उस खत की, जो पढ़ा गया है बिन बोले
हर आँसू को हर पत्थर तक, पहुँचाने की लाचार हूक,
मैं सहज अर्थ उन शब्दों का जो सुने गये हैं बिन बोले।

जो कभी नही बरसा खुल कर हर उस बादल का पानी,
लवकुश की पीर बिना बाँची, सीता की राम कहानी हूँ।


जिनके सपनो के ताजमहल, बनने के पहले टूट गये,
जिन हाथों में दो हाथ कभी आने के पहले टूट गये,
धरती पर उनके खोने और पाने की अजब कहानी है,
किस्मत की देवी मान गये, पर प्रणय देवता रूठ गये,
मैं मैली चादर वाले उस कबिरा की अमृतवाणी हूँ

कुछ कहते हैं मैं तीखा हूँ, अपने ज़ख्मो को खुद पीकर,
कुछ कहते हैं मैं हँसता हूँ अंदर अंदर आँसू पीकर
कुछ कहते हैं मैं हूँ विरोध से उपजी एक खुद्दार विजय,
कुछ कहते हैं मै रचता हूँ खुद में मर कर खुद में जी कर
लेकिन मैं हर चतुराई की सोची समझी नादानी हूँ।

ये एक बानगी है। और फिर ढेरों ढेर मुक्तक। कुछ गज़लें और वो गीत तिरंगा

शोहरत ना अता करना मौला, दौलत ना अता करना मौला,
बस इतना अता करना चाहे, ज़न्नत ना अता करना मौला
शम्म-ए-वतन की लौ पर जब क़ुर्बान पतंगा हो,

होंठो पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो।

कह कर जब बैठे तो जनता ने शोर मचा मचा कर फिर से वापस बुला लिया, वो पगली लड़की गीत सुनाने के लिये। जाने कौन कौन सी परिस्थितियों के गान के बाद कथन

तब उस पगली लड़की के बिन जीना दुश्वारी लगता है
और उस पगली लड़की के बिना मरना भी भारी लगता है।

अब भी सब कुछ ज़ुबान पर है।

गौतम राजरिशी जी की पोस्ट पर ढेरों प्रतिक्रियाएं आईं। तटस्थ और निरपेक्ष मूल्यांकन ना करने के आरोप भी। मगर हम क्या करें जो हमने उस दिन देखा सुना, उसे मात्र इसलिये ग़लत ठहरा दें क्योंकि लोग कहते हैं कि ऐसा नही होता। कैसे मान जायें हम कि कुमार विश्वास मात्र दो मुक्तको के वीडियों की प्रसिद्धि का भाग्य खेल मात्र हैं, जब हमने वो दोनो मुक्तक कई कई बार के जनता आग्रह पर सुने। कुमार जी ने वायदा किया था कि वो आज सब नया सुनायेंगे। पर जनता ही नही भूलती भ्रमर और कुमुदिनी को तो कोई क्या करे ?

हम ने भी सुना था बहुत कुछ कुमार जी के बारे में मगर जब दिख ये रहा था कि वो मुझसे स्नेह से पूछ रहे थे "क्या खिलायेगी लड़की आज मुझे ?" अर्श की चुटकी ले रहे थे प्रेम कहानियों पर। गौतम भईया से कह रहे थे " गौतम अगर मैं प्रधानमंत्री बना तो तुम्हारे गुरूजी को वित्तमंत्री बनाऊँगा। पचास रूपये का काम पाँच रुपये में करवा लेते हैं।" इतनी सहजता से सब से वार्ता करने वाले शख़्स को कैसे अहंवादी बता दें ? क्या कह दें कि हमने जो देखा सुना वो सच नही है, इसलिये क्योंकि दूसरों ने कभी ये रूप नही दे़खा।




मैं खुद जानती हूँ कि उस सिद्धार्थनगर के वरिष्ठजनों ने उन्हे कितनी बार बुलाया है और वो नही आये। वो सारे वरिष्ठ जन स्वतंत्र है कुमार जी के खिलाफ खड़े होने को, मगर मैं कैसे खड़ी होऊँ, जबकि मुझ जैसी अदना लड़की के कहने पर वो उतनी दूर चले आये और कैसे चले आये ये भी जानती हूँ मैं।
और फिर वो रात के तीसरे पहर के कुछ पहले से आरंभ हुई और भोर तक चली बैठक...


मैं ही नही पूरा घर सम्मोहित था। दीदी, भईया, भाभी सब बैठे थे दालान में। कुमार जी ने कितनी किताबों से, कितने शायरों, कवियों, लेखकों के कितने शेर, कविताएं उद्धरण सुनाये। कुछ हिसाब नही उसका। उन्होने खुद कहा ये आज की संध्या थी ही साहित्य के नाम। पूरे चाँद की रात और कुमार जी पूरे मूड में।

आलोचक कुमार जी की आलोचना करें या हमारी मुग्ध स्थिति की। हमने जो पाया, उसे हमेशा की तरह बाँट रहे हैं आपसे। मै पिछले तीन महीने से गमों के दौर से गुज़र रही थी, मैने तब भी आप से साझा किया। आज खुश हूँ तो फिर से साझा कर रही हूँ।

सिलसिला ए शुक्रिया

और अब लाखों लाख बार धन्यवाद देने का मन हो रहा है, इस आनंद के पीछे जुड़े लोगों को। माँ शारदा तु्म्हे प्रथम धन्यवाद ! तुमने ही सारे संजोग रचे।


धन्यवाद इस ब्लॉग जगत का, जिसने मिलाया गुरू जी आपसे। धन्यवाद गुरू जी आपका। मुझे शिष्या के साथ बहन बनाया और गुरू की तरह बड़प्पन ना दिखा कर अग्रज की तरह सहारा दिया। मुझे उनसे मिलाया जिन तक मैँ कभी पहुँच ही नही सकती थी। धन्यवाद मेरे गुरु भाईयों को। वीर जी तुम्हें। ४८ घंटे में तुम २ घंटे सोये। वक्त पड़ने पर भारतीय सेना का ये मेजर बहन की प्रतिष्ठा के लिये किस हद तक झुका, वो मुझे आपका ॠणी बना गया। अर्श थोड़ी सी डाँट के बाद धन्यवाद तुम्हे भी। देर से आये मगर जब से जब तक रहे समर्पित रहे। सर्वत जी आपको। नुसरत दी, मोनिका दी, रमेश जी और आज़म जी कार्यक्रम को पारिवारिक समारोह का नाम देने और समस्याओं की उपेक्षा करने हेतु। कुश तुम्हे एक अच्छे मित्र की भूमिका निभाने हेतु और अनूप जी आपको हमें पहले दिन झेलने और दूसरे दिन ना झेलने हेतु। सर्वत जी और पवन जी को विशेष सहयोग देने हेतु

सिद्धार्थनगर के प्रेम को जिसने ये दुस्साहस करने की शक्ति दी।

और फिर अपने ही परिवार के हर एक सदस्य को जिसने हर बेवक़ूफी पर साथ दिया और प्रोत्साहन भी.....


और अंत में माँगूगी आशीर्वाद अपने इस बच्चे विजित के लिये, जिसने अच्छे अंक और अच्छा कालेज पाने के बाद भी एम०बी०ए० की पढ़ाई इस लिये छोड़ दी क्योंकि मेरे दीदी जीजाजी अकेले थे घर पर और मेट्रोपॉलिटन शहर के स्थान पर चुना अपना विकासशील जिला कार्यक्षेत्र बनाने को।

इसके ईमानदार प्रयासों को आपका स्नेह और आशीष चाहिये

Thursday, July 1, 2010

कुश और नाटक भारत की तक़दीर, पढ़िये नवोन्मेष महोत्सव-२०१० भाग-१

जिंदगी का मेरा सब से बड़ा अनुभव जो रहा है वो ये कि मेरे सारे अच्छे और बुरे सपने अचानक सच हो जाते हैं। और दोनो में ही मेरे ज़ुबान पर बस एक वाक्य रहता है कि "अरे ये कैसे हो गया।"
ऐसा ही एक स्वप्न था ये नवोन्मेष महोत्सव

मुझे याद है २५ अगस्त की वो तारीख जिस दिन विजित ने इस संस्था के लिये एक नाम पूछा था और मैने कहा था नवोन्मेष। इस के लिये जब प्रथम कार्यक्षेत्र चुनने की बात हुई तो हम दोनो ने चुना सिद्धार्थनगर, जो कि दिसंबर १९८९ में स्थापित ऐसा जनपद है जिसका शहरीकरण तो तेजी से हो रहा है मगर कला एवं संस्कृति की प्रगति वैसी नही है जैसी हमारे अनुसार होनी चाहिये थी।

कलाकार और कलप्रेमी हर जगह होते है, ये हमें अच्छी तरह पता था। बस ज़रूरत थी उन्हे खोज के एक दूसरे तक पहुँचाने की।

विजित ने निश्चय किया कि वो सुदूर ग्रामीण इलाकों से २० बच्चों को चुन कर उनके अंदर की नाट्य प्रतिभा को बाहर लायेगा। मुझे उसका ये निश्चय अत्यधिक चुनौतीपूर्ण मगर ईमानदार और कला के प्रति समर्पित लगा।

इसी बीच जनवरी की किसी तारीख को मन में आया कि क्यों ना सिद्धार्थनगर में उसी समय एक कवि सम्मेलन का आयोजन भी कर लें। विचार के साथ ही मोबाईल की बटन दब गयी गुरु जी से संपर्क करने को। क्योंकि मुझे सिर्फ विचार करना था उस विचार का निष्पादन गुरु जी के अतिरिक्त कोई कर ही नही सकता था मेरे लिये। गुरुजी ने एक बार भी मुझे हतोत्साहित नही किया और कहा "हाँ कर लो ना।"

और उस विचार के आने और पूर्ण निष्पादन के मध्य कितनी कितनी बाधाएं आईं ये तो मैं और मेरे प्रियजन ही जानते हैं।

सीहोर में आयोजित कविसम्मेलन में जा कर मुझे और विजित को एक ले आउट तैयार कर लेना था। विजित की नाट्य कार्यशाला को ७ मई से शुरु हो जाना था़ मगर इसी बीच बड़े भईया अचानक वेंटीलेटर पर ऐसे गिरे कि फिर उठे नही। ये था वो बुरा स्वप्न जो अचानक सच हो गया था और मेरी ज़ुबान पर वाक्य था "अरे ये कैसे हो गया"

बहुत बड़ा झटका था मेरे और परिवार के लिये। विजित की कार्यशाला ७ की जगह १७ मई को शुरु हुई। मैने कवि सम्मेलन को रद्द कराने का निश्चय कर लिया। उस समय तो कोई कुछ नही बोला मगर फिर परिवार के लोगों और गुरु जी ने समझाया कि सिद्धार्थनगर और अन्य जनपदों में इस कार्यक्रम के पोस्टर लग चुके हैं और ऐसे में कार्यक्रम को रद्द करने का मतलब संस्था की पहली ही छवि खराब करना है।

तैयारियाँ शुरु हो गईं। हमें अपने पहले प्रदर्शन में किसी भी प्रकार की कमी नही छोड़नी थी।
पहला काम था बीस बच्चों कि स्थान देने वाली एक तगड़ी स्क्रिप्ट। लोग कई थे मगर मैं अपने निजी अनुभवों पर काम करना चाहत थी। इसके लिये मुझे जो नाम पर सब से अधिक विश्वसनीय लगा वो था कुश। कुश मेरा वो मित्र है जो बात करते समय जितना बेतकल्लुफ और मजाकिया रहता है। रचनाओं में उतना ही संजीदा रहता है।

विजित ने कुश से बात की औ‌र कुश ने हमें स्क्रिप्ट दी नाटक "भारत की तकदीर" की।

निदेशन का जिम्मा खुद विजित ने अपने मित्र रोहित सिंह के सहनिदेशन में संभाला।


सच है कि मुझे अपने उस २२ साल के भांजे की प्रतिभा पर शक हुआ और मैने किसी मँजे हाथ को बुलाने का आग्रह किया उससे। मगर उसने कहा " मौसी मुझे पर भरोसा रखिये।"


दूसरा और कठिन काम था कविसम्मेलन का। कठिन इसलिये कि इस के लिये हमें अधिक और मँजे लोग चाहिये थे जो कि कवि सम्मेलन को जमा सकें और सिद्धार्थनगर की जनता को असल कवि सम्मेलन का चस्का लगवा सकें। साथ ही ज़रूरत थी निधि की जो एक नवोदित संस्था के लिये सिद्धार्थनगर जनपद के प्रशासन और व्यक्तिगत संस्थानों से निकालना टेढ़ी खीर था जो कि खैर अंत तक बना ही रहा।

गुरुकुल के अपने भाइयों पर तो भरोसा था ही मुझे मगर कुछ नाम ऐसे भी चाहिये थे जो मंच के लिये नये ना हों। खैर उसमें मुझे तो कुछ करना नही था। मैने सारा ज़िम्मा गुरु जी पर छोड़ दिया था। गुरु जी ने मुझे बताया कि उन्होने मोनिका हठीला जी, नुसरत जी और रमेश यादव जी से बात कर ली है बाकि "एक नाम जो तुम कह दो मैं उसे बुला दूँ।" मुझे लगा कि अच्छा समय है वरदान माँगने के लिये और मैने झट से कहा "गुरूजी जिससे कवि सम्मेलन की बात करो वो कुमार विश्वास का नाम सबसे पहले लेता है। क्या वो आ सकेंगे ?"

अब गुरू जी क्या करते उन्होने कहा " आ तो जायेंगे, मगर वो भारत में हैं कहाँ अभी।" कुमार जी उस समय अमेरिका गये हुए थे। और संजोग देखिये कि जब हमें लिस्ट फाइनल करनी हुई उसी दिन कुमार जी का फोन गुरु जी के पास आ गया अपनी वापसी खबर के साथ।


गुरु जी ने किससे क्या कहा मुझे नही पता। बस ये पता है कि सभी मंचीय कवि उस छोटे से जनपद में आने के लिये तैयार थे।

कार्यक्रम के ठीक १२ दिन पहले छोटी दीदी ने भी ऐसा बड़ा झटका दिया कि जिंदगी १ हफ्ते के लिेये तो ठहर ही गई। खैर वहाँ तो स्थिति संभल गई। जिन जिन मित्रों को मैने आशंकाओं से दुःखी किया था उनके लिये सूचना है कि स्थिति खतरे के बाहर है।

तो अब शुरु करती हूँ दास्तान ए नवोन्मेष महोत्सव :-

कथा का आरंभ २५ जून से होता है जिसमें श्रीमान कुश वैष्णव द्वारा लिखे गये नाटक "भारत की तकदीर" का मंचन और जनपद स्तरीय मीडिया सम्मान समारोह का आयोजन होना था।
श्रीमान कुश चूँकि पहली बार उत्तर प्रदेश का भ्रमण करने निकले थे अतः कुछ डरे सहमे से थे इसके लिये उन्होने खुर्राट शहर कानपुर के खुर्राट ब्लॉगर श्रीमान अनूप शुक्ला उर्फ फुरसतिया की शरण ली और प्रदेश की राजधानी से उनका साथ कर सिद्धार्थनगर जनपद की ओर प्रस्थान किया।
सिद्धार्थनगर की जनता को पिछले पंद्रह साल से मैने मौसी कहला कहला कर बहुत त्रस्त किया है। पूरे जनपद को मुझसे बदला लेने के लिये सही दिन मिल गया था। रात्रिकालीन बेला से ही विद्युत् कर्मचारियों ने वो हाथ खींचा कि इन्वर्टर इत्यादि सब के पसीने छूट गये साथ देने में और उन्होने चिढ़ कर हमारे पसीने निकलवाने शुरु कर दिये।

११ बजे श्रीमान कुश और श्रीमान अनूप जी पहुँचे हमारे घर हमने उन्हे पसीने की ठंडक से खूब ठंडा रख कर उनका भव्य स्वागत किया।

गौतम भइया सहरसा से और वीनस इलाहाबाद से पूर्व में ही प्रस्थान कर चुके थे। गौतम भइया की ट्रेन थोड़ी देर से आई वीनस की थोड़ी पहले। इसलिेय दोनो को एकदूसरे का साथ मिल गया और दोनो ही ने सिद्धार्थनगर की धरती पर साथ साथ कदम रखा। १ बजे तक गौतम भइया और वीनस भी सिद्धार्थनगर में थे।
हम सब जब मिले तो भूल गये कि कि घर में कोई और भी है। अनूप जी के अनुसार लाइट "नाइस" टिप्पणी की तरह झलक दिखा कर चली जा रही थी और कुश के अनुसार गौतम भईया और वीनस मॉडरेशन की टिप्पणियों की तरह बड़ी देर में प्रकट हुए।
खैर हम चारों को इकट्ठा देख जाने क्यों लाइट आ गयी और कम से कम इन सब यात्रा से आये बंदों को पसीने के बाद पानी से भी स्नान करने का मौका मिला।
हमने सोचा कि इतनी दूर से आये हैं तो खाना भी खिला दें तो खाना खिलाया।
और कुछ देर अपनी अपनी रचनाएं भी झिलायीं ( चूँकि कल कोई सुनेगा या नही इसका कोई भरोसा नही था।)







अब वक़्त आ गया था नाटक भारत की तक़दीर के मंचन का। हमने गौतम भईया, वीनस और कुश को आडिटेरियम भेज कर अपनी अस्थाई प्लास्टिक सर्जरी की जिससे लोग असली शक्ल समझ ना पाये और पहुँच गये भारत की तक़दीर देखने।


सिद्धार्थनगर का मुख्यालय ही अभी बहुत अधिक विकसित नही हुआ है़, उसमें अविकसित गाँवों से लिये गये २० ग्रामीण बच्चों को पॉलिश कर जो अभिनय क्षमता निकलवाई गई थी, उसकी सभी ने भूरि भूरि प्रशंसा की और प्रशंसनीय थी कुश की स्क्रिप्ट जिसने बीसों बच्चों के साथ न्याय किया। नाटक समाज में फैली भिन्न भिन्न कुरीतियों पर था। जिसे भारत की तकदीर मिटाना चाहती थी। तक़दीर बनी बच्चियों ने बहुत ही उम्दा अभिनय कर के पूरे डेढ़ घंटे आडिटोरियम को तालियों से गुँजाये रखा। तकदीर का कथन " मैं..? मैं भारत की तक़दीर हूँ। मैं बदलना चाहती हूँ।" रोंगटे खड़े कर देता था।






अनूप जी को तो कुश की प्रस्तुति इतनी पसंद आई कि उन्होने एक बार पलक झपकाये बिना पूरा मंचन देखा
तो ये था घटना क्रम २५ जून के नाट्य कार्यक्रम का अगली किश्त में पढ़िये कहानी २६ जून के कवि सम्मेलन की... तब तक के लिये....



क्रमशः