
कुछ किस्मते भी कभी थक जाया करती है
और उस शेर से ही याद आई अपनी एक कविता, जो कि मैने २०-9-२००७ को लिखी थी...! लीजिये आप भी शामिल हो जाइये उस कविता में
अपने हाथों की लकीरों में ढूँढ़ती हूँ जिसे,
वो भला कौन है किसकी तलाश बाकी है?
सुबह होने को है दीयों में तेल भरती हूँ,
तमन्ना तुझको अभी किसकी आस बाकी है।
किया जितनी भी बार ऐतबार है सच्चा,
हुए है उतनी बार अपनी नज़र में झूठे।
न जाने कितने गलासों को चख के देखा है,
हुए हैं हर दफा अपने ही होंठ फिर जूठे।
मगर सूखे हुए, पपड़ी पड़े इन होंठों को,
न जाने चाहिये क्या, अब भी प्यास बाकी है।
गिरे हैं इस कदर उठने को जी नही करता,
बहुत हताश कर रही है मेरी साँस मुझे।
बहुत थके हैं कि चलने को जी नही करता,
मगर तलाश मेरी रुकने नही देती मुझे।
गुज़र चुका है सबी कुछ भला बुरा क्या क्या
बड़ी हूँ ढीठ कि अब भी तलाश बाकी है।
सितारे सो चुके है साथ मेरे जग के मगर,
मैं अब भी चाँद की आहट पे कान रखे हूँ।
वो धीमे कदमों से आ कर मुझे चौकायेगा,
संभलना है मुझे धड़कन का ध्यान रखे हूँ।
बढ़ा दो लौ-ए-शमा की ज़रा सी और उमर,
वो आ भी सकता है, थोड़ी सी रात बाकी है!