
फर्क़......!
फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!
फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!
कि तुम्हारी जिंदगी में तब तलक है मेरा वज़ूद,
जब तलक और कोई आ न जाए जिंदगी में।
और जब तक रहेगा दिल में मेरे तेरा वज़ूद,
तब तलक कोई नही आ सकता दिल में मेरे...!!
तो जिंदगी का क्या है...? रोज कई मिलते है,
मै आज हूँ तुम्हें कल ही कोई मिल जाएगा।
कहा है तुमने, तुम्हें चीज नई भाती है,
तुम्हारी जिंदगी में ज़ूक* नया आएगा
(ज़ूक* taste)
और मै...?
और मै क्या हूँ, ये तो तुम भी जानते ही हो,
तुम्ही तो कहते हो माज़ी से निकल पाती नही,
मुझे जो भाता है एक बार भा ही जाता है,
मैं रोज़ रोज़ अपना जू़क बदल पाती नही।
और खिड़की जो है दिल की मेरे मेरे हमदम..!
वो बड़ी देर देर बाद खुला करती है,
इसमें आता है बड़ी देर में आने वाला,
और जाने क्यों उसे जाने नही देती है।
तो.. फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममे, तुम में,
कि तुम्हारी जिंदगी में मैं फक़त लम्हों को हूँ,
और जन्मों के लिये तुम मेरे वज़ूद में हो,
मेरी हर साँस तुम्हारी फक़त तुम्हारी है,
तुम मेरी ज़ीस्त मे, दिल में हो, मेरे ज़ूक में हो..!
तेरी जुबान पे मैं हूँ, मेरे लबों पे तुम,
तुम्हारे सीने पे मैं हूँ, मेरी धड़कन में तुम,
तुम्हारे इर्द गिर्द मैं हूँ और तुम मुझमें....!
फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!