Wednesday, February 27, 2008

फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!



फर्क़......!

फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!

फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!

कि तुम्हारी जिंदगी में तब तलक है मेरा वज़ूद,

जब तलक और कोई आ न जाए जिंदगी में

और जब तक रहेगा दिल में मेरे तेरा वज़ूद,

तब तलक कोई नही आ सकता दिल में मेरे...!!


तो जिंदगी का क्या है...? रोज कई मिलते है,

मै आज हूँ तुम्हें कल ही कोई मिल जाएगा।

कहा है तुमने, तुम्हें चीज नई भाती है,

तुम्हारी जिंदगी में ज़ूक* नया आएगा
(ज़ूक* taste)


और मै...?

और मै क्या हूँ, ये तो तुम भी जानते ही हो,

तुम्ही तो कहते हो माज़ी से निकल पाती नही,

मुझे जो भाता है एक बार भा ही जाता है,

मैं रोज़ रोज़ अपना जू़क बदल पाती नही।


और खिड़की जो है दिल की मेरे मेरे हमदम..!

वो बड़ी देर देर बाद खुला करती है,

इसमें आता है बड़ी देर में आने वाला,

और जाने क्यों उसे जाने नही देती है।


तो.. फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममे, तुम में,

कि तुम्हारी जिंदगी में मैं फक़त लम्हों को हूँ,

और जन्मों के लिये तुम मेरे वज़ूद में हो,

मेरी हर साँस तुम्हारी फक़त तुम्हारी है,

तुम मेरी ज़ीस्त मे, दिल में हो, मेरे ज़ूक में हो..!


तेरी जुबान पे मैं हूँ, मेरे लबों पे तुम,

तुम्हारे सीने पे मैं हूँ, मेरी धड़कन में तुम,

तुम्हारे इर्द गिर्द मैं हूँ और तुम मुझमें....!

फर्क़ इतना ही है शायद कहीं हममें, तुम में...!

Wednesday, February 20, 2008

नारी बनाम पुरुष क्यों .....? क्यो नही नारी संग पुरुष...?

हाँ...! क्यों नही है हम साथ साथ...? जैसे शरीर के पाँच तत्व पूरक हैं एक दूसरे के उसी भाँति सृष्टि के पूरक इन दोनो तत्वों का ब्लॉग पर इतना विरोध क्यों...?

यूँ तो ब्लॉगिंग का मेरा अपना नियम यह है कि शांति से जब भावनाएं उफान मारे तो कुछ लिख लिया जाये...वो भी ऐसे जैसे डायरी ही थोड़ी टेक्निकली डेवलप्ड हो गई हो और जैसे दो चार दोस्त डायरी पढ़ कर समालोचना कर देते हैं वैसे यहाँ भी एक आध लोग चले आते हैं.... मुझे भी कुछ अच्छा लगता है तो वाह बोल देती हूँ , अन्यथा चुपचाप चल देती हूँ... बाकि मेरा हृदय जानता है कि ध्यान आकृष्ट करने या किसी का विरोध करने अथवा समर्थन पाने के लिये कभी कुछ नही लिखा..!

लेकिन ये जो आजकल चल रहा है..जो मैं काफी दिनों से देख रही हूँ... कभी नारी होने का रोना.. कभी नारी होने का ब्लेम...कबी अहम्... कभी कायरता..ये क्या हो रहा है..? और हो ही क्यों रहा है...?

सृष्टि में अगर पुरुष नही रहेंगे तो क्या होगा..? सारी महिलाओं को चैन मिल जायेगा..? या महिलाएं नही होंगी तो पुरुषों को चैन आ जायेगा ..? क्या हम आग के बिना सृष्टि की परिकल्पना कर सकते है...? या फिर पानी के बिना......? नही न..? आवश्यकता तो दोनो की ही है..! बस ज़रूरत है अपनी सीमाओं मे रहने की। जिसने भी अपनी मर्यादा त्यागी, वही असंतुलन का कारक बन गया। प्रकृति मे जितनी भी चीज़ें होती हैं सबका अपना महत्व है, तो स्त्री पुरुष तो प्रधान तत्व हैं।

आप जो नारी को छल की मूर्ति मान रहे हैं...सच बताइये क्या आपके जीवन में कोई भी महिला ऐसी नही है जिसका आपके हृदय में एक कोमल कोना है या हम जो पुरुष को अहम् का पुतला मान रहे है, उन्हे किसी भी रूप में एक पुरुष सहारा नही देता..? ऐसा कैसे हो सकता है..? माँ, बहन पत्नी, प्रेमिका या कोई भी अनाम रिश्ता और पिता, भाई, पति प्रेमी या कोई भी अनकहा रिश्ता सबके जीवन में है तो हम क्यों पूरी पूरी जाति को दोष दे रहे हैं...?

वो पति जो बीमारी में भी पत्नी से काम ले रहा है ज़रा उसके इर्द गिर्द के पुरुषों से पूँछिये, वो उनके लिये भी अच्छा नही होगा और वो महिला जो पति के लिये कर्कशा है वो किसी के लिये मृदुल नही होगी। ये सब व्यक्तिगत स्वभाव की बात है न कि स्त्रीत्व अथवा पुरुषत्व की।हम ब्लॉगर्स क्यों इतनी छोटी सी बात में फँस गए है.. और भी ग़म हैं ज़माने में मोहब्बत के शिवा। नही याद आ रहा मुझे कि इतनी ही तेजी से दो चार दस पोस्ट कई ब्लॉग पर निरक्षरता, बेरोजगारी, भुखमरी को ले कर आई हो.... जो हमारे राष्ट्र विकास को पीछे खींच रही हैं..क्या हमारे समाज में आज की सबसे बड़ी समस्या नर नारी वैमनस्य हो गई है..? जब कि व्यक्तिगत जिंदगी में हम कहीं न कहीं साथ ही हैं..!

अभी परसों एक पोस्ट में पढ़ रही थी कि स्त्रियाँ तभी मायने रखती हैं जब वे युवती हो जायें, अन्यथा क्यों नही राधा सीता का बचपन बताया गया...? अच्छी पोस्ट थी मेरा उनसे कोई विरोध नही है...! सबने उनका समर्थन भी किया, लेकिन ज़रा रामायण पढ़ें तो पाएँगे कि सीता का उल्लेख यदि युवती बनने के बाद के बाद आया होता तो हम कैसे जानते जानकी का जन्म जनक द्वारा सोने का हल चलाने पर टकराए घड़े से हुआ...कैसे पता चलता कि बाल्यावस्था में ही उन्होने शिव धनुष पिनाक खेल खेल में ही हटा दिया था। ये तो रीतिकाल में आकर राधा का नखशिख वर्णन और राधा कृष्ण की आड़ में श्रृंगार रस का फूहड़ चित्रण होने लगा अन्यथा यह प्रेम इतना पवित्र इसिलिये है...इसीलिये मंदिरों में पूज्य है क्योंकि ये बाल्यावस्था का प्रेम था..वासना रहित प्रेम....किशोरावस्था के साथ तो श्रीकृष्ण मथुरा और फिर गुरुकुल चले गए थे। और अगर स्त्री के यौवन को ही शास्त्रों में जगह मिलती तो यशोदा, देवकी, कौशल्या, सुमित्रा के वात्सल्य, ममता और त्याग को हम कैसे जान पाते...अपाला, गार्गी, लोपामुद्रा जैसी विदुषी महिलाओं के ग्यान से कैसे परिचित होते?

जब हमारे नायक मोहन दास कर्मचंद गाँधी होंगे तो कस्तूरबा उनके विवाह के बाद ही आएँगी ना...उनका बचपन हम कैसे जानेंगे..? और जब बात रानी लक्ष्मीबाई की होगी तो दामोदर राव का बचपन कहाँ मिलेगा..?

अच्छे बुरे लोग हर काल में हुए हैं, जब राम हुए तब रावण हुआ..जब सीता हुईं तब सूपनखा हुई..यदि सीता जैसी स्त्री को राम जैसे पुरुष के कारण वनवास मिला तो राम जैसे पुरुष को भी तो कैकेई जैसी स्त्री के कारण वनवास मिला..ये सब उनका स्वभाव था कैकेई का त्रियाचरित्र या राम अथवा उस धोबी का पुरुष अहम् नही।

अरे वो नारी जो पूज्य इसलिये है क्योंकि वो खुद मर्यादा और धैर्य दिखा कर आने वाली पीढ़ी को सुसंस्कारित बनाती है और समाज और राष्ट्र में अपना मूक योगदान देकर सब को ॠणी बना देती है वो कह रही है कि मुझे उन्नतशीलता नही पतनशीलता भा रही है। होड़ लग गई है पतित बनने की..! बड़ा कष्ट हो रहा है मुझे...! हम अपने राष्ट्र को २२वीं शताब्दी की ओर ले जाने का ये रास्ता अपना रहे हैं..?..उफ...!

मुझे पता है कि सब मेरा विरोध करेंगे, लेकिन मेरे अपने विचार थे कहे बिना नही रहा गया...! क्यों न हम दोनो मिलकर विरोध करे समाज के उन दोषों का जो हमारे राष्ट्र विकास को पीछे ले जा रहे हैं.....क्यो न हम पुरुषों की ताकत और नारी की संवेदान को मिला कर बनाएं एक अच्छा घर...फिर एक अच्छा समाज..फिर एक अच्छा ....फिर एक अच्छा राष्ट्र और फिर एक अच्छा विश्व.....क्यो नही..?

Monday, February 11, 2008

लेकिन तुम भी कोशिश करना.



बसंत की गुलाबी सर्दी में पढ़िये... मेरी ये emotinally warm कविता...!


चारों तरफ घना कोहरा है, ठिठुरन भरी कड़ी सर्दी है,
छोटे छोटे कोयले देकर आग अभी जिंदा रक्खी है..!
मैं तो कोशिश खूब करूँगी, आग मेरी बुझने न पाये,
लेकिन तुम भी कोशिश करना..
आग रहे तब तक आ जाना..!


माज़ी से न कोई शिक़वा, न उम्मीदें कोई कल की,
रिश्ता तुम से जो है, उसमें बातें हैं बस इसी सफर की।

मैं तो कोशिश खूब करूँगी, आज हमारा मैला न हो,
लेकिन तुम भी कोशिश करना,
रोज आज को नहला जाना ।।


किस दिन तुम ये समझ सकोगे, रीत प्रीत की क्या होती है,
जब जब मैं हारी हूँ तुम से, जीत सदा मेरी होती है।
मैं तो कोशिश खूब करूँगी, जीतो तुम्ही सदा मेरा मन,
लेकिन तुम भी कोशिश करना
मैं हारूँ तो सहला जाना ।।


शिख से नख तक बाँध लिया है, जिस पर तुमने अपना बंधन,
वो तुम से क्या अहम् करेगा, जिस पर तेरा ही है शासन,
मैं तो कोशिश खूब करूँगी, ये बंधन खुलने न पाए,
लेकिन तुम भी कोशिश करना,
रोज़ डोर कसने आ जाना ।।

Thursday, February 7, 2008

बाबूजी....!



बाबूजी....!
आप बहुत याद आते हो...! आज १८ साल बाद भी वो रिक्तता भरी नही जो आज के दिन हुई थी ......! आप वैसे ही याद आते हो...और हमेशा ऐसे ही याद आते रहना क्योंकि आप की याद के साथ याद आते हैं वो सपने जो मेरे लिये आपने देखे थे..वो आँखें जो मेरी असफलता पर सूनी हो जाती..और सफलता पर चमक जातीं....अब भी जब असफल होती हूँ तो लगता है कि आप उदास हो और आपकी आँखों की चमक के लिये फिर से प्रयास करने लगती हूँ...! अपनी हर उपलब्धि वाले दिन ..जब अम्मा की मिठाई खाती हूँ...दोस्तों के साथ पार्टी में शामिल होती हूँ... तो आप देखे लेते हो न...कि मन के अंदर कोई उदासी होती है....कि निगाह आपको ढूँढ़ रही होती है...!..कि कान सुनना चाहते हैं कि आप होते तो क्या कहते....!


तो आप ऐसे ही हमेशा याद आते रहना....मेरे अंदर की जिजीविषा बनी रहेगी

आपकी
गुड्डन

Tuesday, February 5, 2008

हो भी गया प्रेम हम में तो, बोलो मिलन कहाँ पर होगा..?


"नीरज" मेरे बहुत प्रिय कवियों में एक है...और उनकी लिखी कविताओं में से एक प्रिय कविता आपके साथ बाँटना चाहूँगी...!

मै पीड़ा का राजकुँवर हूँ, तुम शहजादी रूपनगर की
हो भी गया प्रेम हम में तो, बोलो मिलन कहाँ पर होगा..?
मेरा कुर्ता सिला दुखों ने,
बदनामी ने काज निकाले,
तुम जो आँचल ओढ़े उसमें
अम्बर ने खुद जड़े सितारे
मैं केवल पानी ही पानी, तुम केवल मदिरा ही मदिरा
मिट भी गया भेद तन का तो, मन का हवन कहाँ पर होगा

मैं जन्मा इसलिये कि,
थोड़ी उम्र आँसुओं की बढ़ जाए
तुम आई इस हेतु कि मेंहदी
रोज नए कंगन बनवाए,
तुम उदयाचल, मैं अस्ताचल, तुम सुखांत की
मिल भी गए अंक अपने तो रस अवतरण कहाँ पर होगा?

मीलों जहाँ न पता खुशी का,
मै उस आँगन का इकलौता,
तुम उस घर की कली जहाँ
नित होंठ करें गीतों का न्यौता
मेरी उमर अमावस काली और तुम्हारी पूनम गोरी
मिल भी गई राशि अपनी तो बोलो लगन कहाँ पर होगा?

इतना दानी नही समय कि
हर गमले में फूल खिला दे
इतनी भावुक नही जिंदगी
हर खत का उत्तर भिजवा दे
मिलना अपना सरल नही पर फिर भी ये सोचा करता हूँ,
जब ना आदमी प्यार करेगा जाने भुवन कहाँ पर होगा..?


हो भी गया प्रेम हम में तो, बोलो मिलन कहाँ पर होगा..?