Tuesday, July 29, 2008

जमीन अपनी जगह,आसमान अपनी जगह,


आज सुबह ११.३० बजे पारुल से चैट हुई और मजाक मजाक में कही गई बात ज़ेहन में ऐसी छाई रही कि ३.०० बजे मैं कविता लिखने बैठ गई और ४.०० बजे कविता पूरी हो गई, वैसे धन्यवाद बिजली सेवा को भी देना पड़ेगा जिसने १.३० बजे साथ छोड़ा तो बस अभी ४.३० बजे आई है, जिससे सारे यू०पी०एस० डंप हो गए और मुझे खाली समय मिल गया वर्ना जाने कितनी ही कविताओं की इसी समय के चलते दिमाग में ही भ्रूणहत्या हो जाती है। लेकिन क्रेडिट तो पारुल को ही जाता है,जिससे मैने बाय करते समय कहा कि अब बहुत उड़ चुकी तुम आभासी दुनिया के आसमान में, जमीन पर आओ और जा के बच्चे संभालो और उसने जवाब दिया "मैं अपनी जमीन कभी नही छोड़ती, जमीन पर पैर रख कर ही आसमान को देखती हूँ क्यों कि मुझे अपनी जमीन से प्यार भी बहुत है.... " वाह वाह वाह लेडी गुलज़ार, क्या बात कही, सबसे अच्छी बात तो ये कि इस बात ने कविता का एक प्लॉट दे दिया..तो सुनिये.... और क्षमा पहले कर दीजिये ...क्योंकि बस भाव भाव हैं और कुछ नही... :(


जमीन अपनी जगह,आसमान अपनी जगह,

मुझे दोनो से मोहब्बत, ये बात अपनी जगह।


वो आसमान जैसे,खान कोई नीलम की,

औ उसपे तैरते बादल,कि मोतियों के पहाड़,

वो आफताब, वो मेहताब, वो सितारों के हुज़ूम,

खुदा क्या कर सकूँगी इनमें कभी खुद को शुमार..?


इशारे कर रहा है,मुझको बहुत दे से वो,

मैं उड़ तो जाऊँ, मेरे पंख में नही है कमी,

मगर जो बात है, वो बात सिर्फ इतनी है,

कि मुझको रोक रोक लेती है ये मेरी जमीं।


ये ज़मीं वो,कि जिसने खुद के बहुत अंदर तक,

मुझे संभाल के रक्खा, मुझे सँवारा है,

कभी कभी तो लगता है, मेरे अंदर भी,

इसी जमीन के होने का खेल सारा है।


वो साफ साफ फलक और ये पाक़ पाक़ ज़मी

कहीं पे पैर मेरे और कहीं निगाह थमी,

किसी को खोना न चाहूँ, ये चाह अपनी जगह,

ये पैर अपनी जगह हैं, निगाह अपनी जगह।

Monday, July 14, 2008

अब तुम मुझको छोड़ न जाना...!


२७ अक्टूबर २००१ को लिखी गई ये कविता आप के साथ बाँट कर के फिर से याद कर रही हूँ ......!


दोस्त तुम्हारे दम पर मैने ये सारा जग छोड़ दिया है,

अब तुम मुझको छोड़ न जाना...!


न जीने की चाह थी कोई, न मरने का कोई डर था,

मंजिल कहाँ, मेरी कोई थी , सूना लंबा एक सफर था !

पर तुमसे मिल कर जाने क्यों, अब जीने का जी करता है,

मौत जुदा कर देगी तुमसे, अब मरने से डर लगता है..!

दोस्त तुम्हारे पथ पर मैने, इन कदमों को मोड़ लिया है,

अब तुम ही मुख मोड़ ना जाना...!


जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,

तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !

ठहर गई मेरी तलाश, अब साथी तेरे दर तक आ कर,

खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !

दोस्त तुम्हारी खातिर दुनिया से नज़रों को मोड़ लिया है,

अब तुम नज़रे मोड़ ना जाना

तुम हो तो हैं कितने सपने, तुम हो तो हैं कितनी बातें,

तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !

तुम मेरे अपने हो जानूँ, फिक्र नही अब कौन है अपना,

दिन में मेरी हक़ीकत हो तुम, रातों में तुम मेरा सपना।

जीवन का लमहा लमहा तेरी यादों से जोड़ लिया है,

तुम इनमे गम जोड़ न जाना


सूचनाः कल महावीर शर्मा जी के ब्लॉग पर एक कवि सम्मेलन/मुशायरा का आयोजन, हम भी पहुँचेंगे, आप भी पहुँचियेगा

Thursday, July 10, 2008

मत करें ऐसा



घर और आफिस की दौड़भाग में लाख चाहेने के बावजूद कोई भी पोस्ट दे पाना संभव नही हो पा रहा था.....! आज के फास्टफूड कल्चर में समस्याएं भी रोज इंस्टैंट आती हैं, शाम तक का समय हल ढूढ़ने में निकल जाता है सुबह दूसरी समस्या...! लिखूँ तो क्या लिखूँ...! कविता की संवेदनशीलताओं तक मन पहुँच ही नही पाता।

दो दिन से कंप्यूटर मे नेट कनेख्शन खराब पड़ा था। किसी तरह दूसरे किसी के कंप्यूटर पर मेल चेक कर रही थी ऐसे में परसों शाम को जब एक लेटर का प्रिंटआउट निकालने पहुँची तो देखा इंटरनेट कनेक्शन काम करने लगा है। आदतानुसार अपने मूल एकाउंट याहू पर लाग इन किया तो पाया कि मेरे ब्लॉग पर पोस्ट आई है। मामला समझने के लिये अपने ब्लॉग की लिंक क्लिक की तो दिमाग से सन्नन्न्न की आवाज़ आने लगी, थोड़ी देर को किंकर्तव्यविमूढ़ सी जहाँ की तहाँ बैठ गई। मेरे ब्लॉग पर अंग्रेजी में एक फालतू बातों से भर हुई पोस्ट पड़ी हुई थी। अब तक कितने लोग क्लिक कर चुके होंगे...? कितनो की निगाह पड़ी होगी..?

कुछ सूझ ही नही रहा था कि क्या करूँ क्या करूँ...सबके संज्ञान में लानी चाहिये ये बात या बस खतम करूँ यहीं पर..कुछ नही समझ मे आ रहा था। जैसा कि हमेशा होता है कि ब्लॉग से संबंधित कोई भी परेशानी होने पर मैं तुरंत मनीष जी को फोन करती हूँ, वही किया। हैलो के साथ मैने उनसे पूँछा

"मेरा ब्लॉग देखा है आज"
" नही, सुबह से काम में लगा हूँ, समय ही नही मिला" उन्होने सोचा कि शायद मैं अपनी कोई नई पोस्ट पढ़ने को कह रही हूँ।
" मेरे ब्लॉग पर किसी ने पोस्ट डाल रखी है।"
"क्या.????"
"हाँ..और मुझे बहुत रोना आ रहा है।" कह कर मैं रोने लगी।
" let me see, I'll call you latter" कह कर उन्होने फोन काट दिया।


अभी मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी ही थी कि मीत जी का नंबर मोबाइल पर डिस्प्ले होने लगा। मैने फोन उठाया

"हैलो"
"कंचन..! ये क्या है..?"
"मैने नही पोस्ट किया है" मैने रुआँसे स्वर मे कहा
"obviously you have not written it, but delete it immediately first"
"O.K." कह कर मैने फोन काट दिया।

पोस्ट तो डिलीट हो गई, कुछ देर तक लोग ब्लोगवाणी के जरिये आते रहे। लेकिन मैं उतनी ही देर में कितने तनाव से गुजरी ये मैं ही जानती हूँ।

क्यों करते हैं ऐसा प्रकृति ने, आज की लाइफ स्टाइल ने पहले ही बहुत सारे तनावों की व्यवस्था कर दी है,फिर अलग से आप लोग क्यों एफर्ट्स करते है। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण दे दूँ कि कल से ये पोस्ट पब्लिश करने की सोच रही हूँ और अब जा के कर पा रही हूँ।

फिलहाल मैं तकनीकी लोगों से पूँछना चाहूँगी कि ऐसी सावधानियाँ बताएं जिनसे इस तरह की समस्याओं से मेरे साथ अन्य लोग बच सकें

चलते चलते दो कविताओं के अंश, जो कि कल मुझसे मिलने आये सज्जन ने मुझे सुनाई..(पूरी उन्हे भी नही पता थी)

जीवन संगति का नाम नही,
यह सूत्र असंगति का पहला।
हम सींच थके मधु से वलरी,
फल हाथ लगा केवल जहरी,
जो द्वार लगी सुख की देहरी
वह पीर जगा लाई गहरी
अपवाद न सीता शकुंतला

(कविः महिपाल, फूल आपके लिये से)

अफसोस नही इसका हमको,
जीवन में हम कुछ कर न सके।
झोलियाँ किसी की भर न सके,
संताप किसी का हर ना सके
अपने प्रति सच्चा रहने का,
जीवन भर हमने यत्न किया,
देखा देखी हम जी न सके,
देखा देखी हम मर न सके

(कविः गोपाल सिंह नेपाली)