आज सुबह ११.३० बजे पारुल से चैट हुई और मजाक मजाक में कही गई बात ज़ेहन में ऐसी छाई रही कि ३.०० बजे मैं कविता लिखने बैठ गई और ४.०० बजे कविता पूरी हो गई, वैसे धन्यवाद बिजली सेवा को भी देना पड़ेगा जिसने १.३० बजे साथ छोड़ा तो बस अभी ४.३० बजे आई है, जिससे सारे यू०पी०एस० डंप हो गए और मुझे खाली समय मिल गया वर्ना जाने कितनी ही कविताओं की इसी समय के चलते दिमाग में ही भ्रूणहत्या हो जाती है। लेकिन क्रेडिट तो पारुल को ही जाता है,जिससे मैने बाय करते समय कहा कि अब बहुत उड़ चुकी तुम आभासी दुनिया के आसमान में, जमीन पर आओ और जा के बच्चे संभालो और उसने जवाब दिया "मैं अपनी जमीन कभी नही छोड़ती, जमीन पर पैर रख कर ही आसमान को देखती हूँ क्यों कि मुझे अपनी जमीन से प्यार भी बहुत है.... " वाह वाह वाह लेडी गुलज़ार, क्या बात कही, सबसे अच्छी बात तो ये कि इस बात ने कविता का एक प्लॉट दे दिया..तो सुनिये.... और क्षमा पहले कर दीजिये ...क्योंकि बस भाव भाव हैं और कुछ नही... :(
जमीन अपनी जगह,आसमान अपनी जगह,
मुझे दोनो से मोहब्बत, ये बात अपनी जगह।
वो आसमान जैसे,खान कोई नीलम की,
औ उसपे तैरते बादल,कि मोतियों के पहाड़,
वो आफताब, वो मेहताब, वो सितारों के हुज़ूम,
खुदा क्या कर सकूँगी इनमें कभी खुद को शुमार..?
इशारे कर रहा है,मुझको बहुत दे से वो,
मैं उड़ तो जाऊँ, मेरे पंख में नही है कमी,
मगर जो बात है, वो बात सिर्फ इतनी है,
कि मुझको रोक रोक लेती है ये मेरी जमीं।
ये ज़मीं वो,कि जिसने खुद के बहुत अंदर तक,
मुझे संभाल के रक्खा, मुझे सँवारा है,
कभी कभी तो लगता है, मेरे अंदर भी,
इसी जमीन के होने का खेल सारा है।
वो साफ साफ फलक और ये पाक़ पाक़ ज़मी
कहीं पे पैर मेरे और कहीं निगाह थमी,
किसी को खोना न चाहूँ, ये चाह अपनी जगह,
ये पैर अपनी जगह हैं, निगाह अपनी जगह।