Tuesday, March 24, 2009

ऐसा भी लेकिन हो पाया कई दिनो के बाद और क्षमा




आज बढ़ी इतनी तनहाई, खुद को अपनी बात बताई,
ऐसा भी लेकिन हो पाया, कई दिनो के बाद,
खुद से मिलने की फुरसत थी कई दिनो के बाद।

वक़्त नही खुद से मिलने का ऐसा तो कुछ यार नही,
पर खुद से मिलने की खातिर मैं खुद ही तैयार नही,
क्योंकि खुद से मिलने का मतलब होगा तुम से मिलना,
और तुम्हारे मिलने का मतलब है यादों से जुड़ना
आह..! रुला देती है, तेरी छोटी छोटी याद
खुद से मिलने की फुरसत थी कई दिनो के बाद।

खुद से नज़र चुराई कितनी, कितना भागे हम तुम से,
पर ये यादों की आँधी भी आ जाती है एकदम से,
टेक दिये घुटने हमने, मुश्किल था कदमों का उठना,
याद बवंडर बन के आई, शुरू हुए बादल घिरना,
और रात भर हुई नयन से घुमड़ घुमड़ बरसात
खुद से मिलने की फुरसत थी कई दिनो के बाद।

ऐसा क्यों हो जाता है हम जिनकी खातिर जीते हैं,
खुद जीने की खातिर उनके विरहा का विष पीते हैं,
अपने सपनो की खातिर अपनेपन की आहुति,
ये मेरा स्वारथ है या फिर जीने की है रिति
अक्सर द्विविधा में कर देती है मुझको ये बात
खुद से मिलने की फुरसत थी कई दिनो के बाद।

ये कविता मैने २१‍.०७‍.२००२ को आंध्रप्रदेश पोस्टिंग के दौरान लिखी थी, जब मैं पहली बार अपने सारे अपनो से बहुत दूर गई थी और मैं सबको भूलने की कोशिश में हमेशा ही याद करती रहती थी। ये मेरे शहर कानपुर को संबोधित है।

और अब एक क्षमा

पिछली पोस्ट लिखने के बाद से ही लग रहा था कि कुछ संतोषजनक नही किया। ऐसा पहली बार हुआ था जब मेरे मन में बार बार किसी पोस्ट को डिलीट कर देने का खयाल आ रहा था। असल में मुझे ऐसा लग रहा था कि फिल्म देखने के बाद इतने सारे विचारो का कोलाहल हो गया था दिमाग में कि मैं कुछ अंट शंट सा लिख गई...... कुछ स्पष्ट और सटीक सा नही लिखा। फिर कल ममता जी का कमेंट आया जिस से मुझे अपनी एक और गलती समझ में आई कि मैने पोस्ट कुछ अधिक ही विस्तृत कर दी है, इस से उन लोगो का चार्म समाप्त हो सकता है, जिन्होने फिल्म देखी नही है। रात को आभासी अनुज राकेश का फोन आया उसने कहा कि "दो चार वाक्यों के आगे नही पढ़ा मैने दीदी, उसमे कुछ खास नही था।" मेरे मन के विचार पक्के होते चले जा रहे थे। मैं घर से सोच के चली थी कि इस पोस्ट को या तो डिलीट कर दूँगी या नई पोस्ट लिख दूँगी जिस से मेरी पिछली बेवक़ूफी पर लोगो का कम दिमाग जाये। परंतु आज आफिस आने के साथ ही मिले मिहिर जी के कमेंट के साथ ही पोस्ट हर तरह से निरस्त करने योग्य ही लगी। उनके कमेंट को थोड़ा सा एडिट करना पड़ रहा है (जहाँ बोल्ड है), जो कि बात समझाने के लिये उनके लिये तो आवश्यक था, परंतु समझ मे आने के पश्चात थोड़ा एडिट कना मेरे लिये भी आवश्यक हो गया है। कमेंट इस तरह से है

कंचन जी, मैं आपको सही कर रहा हूँ यहाँ. फ़िल्म में यह कहीं भी नहीं कहा गया है कि पृथ्वी बना उनके पिता की अवैध संतान थे. पृथ्वी बना आधुनिक शिक्षा लेकर आये इंग्लैंड से और साथ ही जॉन लेनन (जिनके गीत वे सुनते थे) और अन्य क्रांतिकारी कवियों से बराबरी का दर्शन भी. जॉन लेनन के बारे में आप और ज़्यादा विकीपीडिया से जान सकती हैं. अब वापस इस सामंती माहौल में वे अनफ़िट हैं, अप्रासंगिक हैं यह आप और हम देख ही पाते हैं. डुकी बना और दिलीप के बीच जिस संवाद का उल्लेख कर आपने उनकी तुलना करण से की है उसमें करण का नहीं रण सा का उल्लेख है. देखें...

दिलीप~ "कौन राजा साहब."

डुकी बना~ "हिजहाइनेस मृत्युन्जय सिंह. राजपूताना के फ़ाउंडर. रणसा के दाता. उन्होंने भी वही गलती की जो हमारे दाता ने पृथ्वी बना के साथ किया. स्कूल पढ़ने के लिए इंग्लैंड भेजा, जॉन लेनन के पास में."

इस गलत समझफ़हमी की वजह से ही शायद आप लिख जाती हैं, "मगर राजपूतान माँ की संतान ना होने के कारण उन्हे ताता की उपाधि और सेनापति का पद बड़ी संतान होने बावज़ूद नही मिला है। ये उन्हे एक कुंठा का शिकार बना देती है। और कभी कभी ये पागलों सी हरकत करने लगते हैं।"

देखिये इस तरह तो पृथ्वी बना के किरदार के विचार की ही हत्या हो जाती है. उनके व्यंग्य व्यक्तिगत कुंठा से नहीं उपजे हैं. यह फ़िल्म खुद को ’प्यासा’ से जोड़ती है और सत्ता, पैसे, ताक़त के पीछे भागती इस दुनिया की निरर्थकता सामने रखती है. यहाँ से ही "ये दुनिया ग़र मिल भी जाये तो क्या है’ का विचार उपजता है जिसके पृथ्वी बना प्रतीक हैं.

मिहिर जी ब्लॉग जगत में आप जैसे लोगों का मैं सम्मान करती हूँ। आपकी बहुत बहुत आभारी हूँ, धन्यवाद स्वीकार करें। पोस्ट मैने डिलीट कर दी है। जो विचार ही गलतफहमी की उपज हों उन्हे रखने से क्या फायदा।

Monday, March 16, 2009

"मुझे मदद चाहिये तुम्हारी"


आती हुई लहर ने किनारे से बेचैनी के साथ कहा
"मुझे मदद चाहिये तुम्हारी"


किनारे ने स्वागत के स्वर में पूँछा
"किस चीज में"
"दूसरा किनारा पाने में..........!"
लहर ने और बेचैन हो कर कहा


किनारा शांत....!
लहर के आने से आये भीगेपन में
कुछ खारापन मिल गया था,

मगर वो चुप था।


उसने खुद को किया और दृढ़
और पत्थर....!


लहर उससे अपनी भावना के वेग में टकराई,
और उसी वेग से क्रिया प्रतिक्रिया के नियम से
पीछे लौट आई
दूसरे किनारे के पास


लहर खुश थी....बहुत खुश...!
बिना इस अहसास के,
कि पीछे छूटा किनारा,
अब भी पत्थर बना बैठा है।

Sunday, March 8, 2009

अंतर्राष्ट्री महिला दिवस पर मुझे बतायें ?


८ मार्च ...अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के आते वही अखबारो, पत्र, पत्रिकाओं में कितने ही लेख आने लगते है। महिला अधिकार, महिला दशा, महिला उत्पीणन, महिला सशक्तिकरण के साथ एक कोमन लेख होता है ललिजेन्ड्रीज़ से पूँछा जाना कि आपकी जिंदगी में स्थान रखने वाली वो तीन महिलाएं जिन्हे आप आदर्श मानते हैं या जिनका आपके व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ा हाथ रहा है। तुरंत ही हम भी ये प्रश्न अपने आप से करने लगते हैं।

और आज यही प्रश्न हम आप से पूँछना चाह रहे हैं। अपने सारे ब्लॉगर मित्रों से ........आज नही कल सही कल नही परसों सही जब भी आप पढ़ें इस पोस्ट को मुझे बताये कि आपकी जिंदगी में स्थान रखने वाली वो तीन महिलाएं जिन्हे आप आदर्श मानते हैं या जिनका आपके व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ा हाथ रहा है। अब चूँकि मेरा अपना व्यक्तिगत मानना ये है कि स्त्री और पुरुष दोनो ही सृष्टि के दो आवश्यक स्तंभ है तो साथ ही यह भी पूछूँगी आपकी जिंदगी में स्थान रखने वाले उन तीन पुरुषों का भी नाम लें जिन्हे आप आदर्श मानते हैं या जिनका आपके व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ा हाथ रहा है।

शुरुआत करती हूँ मैं खुद...!

पहली है मेरी माँ, जिन्होने मुझे जिंदगी के उसूल सिखाये दूसरी मेरी बड़ी दीदी जिन्होने मुझे प्रेम और सामाजिकता सिखाई और तीसरी मेरी छोटी दीदी जिनसे मुझमे दर्शन और व्यवहारिकता की समझ आई।

और अब वो तीन पुरुष जिनका मेरे व्यक्तित्व निर्माण में हाथ है उनमें भी सबसे पहले हैं मेरे बाबूजी जिनका मानाना था कि मानव मात्र सभी समाना हैं। जो बात मायने रखती है वो है आपका स्वभाव। जाति भेद, लिंग भेद से ऊपर। समानता का पाठ उन्होने पढ़ाया।

दूसरे है मेरे छोटे भईया जिनसे सीखती हूँ कर्तव्यबोध। हर रिश्ते के प्रति। सब को ले कर चलना। सब से निभाना। आदर्श बाते ना कर के आदर्श कर्म में उतारना।

और तीसरा संदीप। जो बहुत दिन नही रहा मेरी जिंदगी में। मुझे मौसी कह कर माँ, बहन और दोस्त का रिश्ता निभाने वाले संदीप ने मुझे बताया कि प्रेम बहुत ही विस्तृत शब्द है। उसने मुझे महात्वाकांक्षी बनाया। उसने मुझे सपने देखना सिखाया। लेकिन उसकी ही जिंदगी से मैने ये भी सीखा कि सपनों के पीछे अंधी दौड़ आपको कहीं का नही छोड़ती।

तो आप भी बताइये ना आपकी जिंदगी में स्थान रखने वाली वो तीन महिलाएं और वो तीन पुरुष कौन हैं जिन्हे आप आदर्श मानते हैं या जिनका आपके व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ा हाथ रहा है।