Friday, October 24, 2008

पे


"आपका तो काफी फायदा हुआ अबकी पे कमीशन मिसरा जी" बॉस ने मुस्कुराते हुए मिश्रा जी से पूँछा।"


"क्या साहब ! जमाना जो आ गया है, उसमें ७-८ हजार तनखाह बढ़ना कोई मायने नही रखता। देख रहे हैं आप रोज के खर्चे कितने बढ़ रहे हैं। सबकी छोड़िये सर रोज की सब्जी के दाम इतने बढ़ गए हैं कि कमर टूटी जा रही है। १०० का एक पत्ता तो सीधे खतम एक दिन की सब्जी में और आँटा, दाल, चावल, गैस, पेट्रोल किस के बिना काम चलेगा सर... उधर बच्चों की फीस, ड्रेस.. पढ़ाई कराने के १०० चोंचले, जब कि बहुत मँहगे स्कूल में नही पढ़ा रहा हूँ मैं लेकिन एक साधारण जिंदगी के लिये भी लाले पड़े हैं साब"


बॉस "ये तो है खैर" "सही कह रहे हो" जैसे वाक्य बोलते रहे उन्हे लगा कि गलत बयाना ले लिया उन्होने मिश्रा जी से, खैर अब तो सुननी ही थी उनकी.!


मिश्रा जी बोले जा रहे थे "और साहब एक बात जो साफ है सो कहूँ कि सरकार है बड़ी चालू, देखो चुनाव सामने देख कर पैसे तो दे दिये, लेकिन हम लोगो को तो बस झुनझुना ही पकड़ाया है। सारी चाँदी अफसरों की है... यहाँ हमारी तो कहीं २५ हजार हुई है, उधर ९० ९० हजार सेलरी हो गई है साब बड़े लोगो की" सीधा निशाना बॉस पर।


बॉस बेचारे सकपकाये उन्होने सोचा कि अभी कहीं मिश्रा जी और अधिक बखिया ना उधेड़ने लगे सो तुरंत बोले " सही कह रहे हैं मिश्रा जी मँहगाई तो बहुत बढ़ गई है, वो जरा सेवकराम की फाईल लाइयेगा ..! और बॉस ने टॉपिक चेंज कर के बड़ी संतुष्टि पाई।


रात का खाना खाने के बाद जब मिश्रा जी जरा पत्नी के साथ टहलने निकले तो पत्नी ने मूड सही देखते हुए कहा, "सुनो जी वो काम वाली कह रही थी कि ५ साल से एक ही तनखाह पर काम कर रही है,इस बार १०० रु० बढ़ा दे..!"


" दिमाग तो नही खराब हो गया उसका, एकदम से १०० रु० अरे ५० बढ़ा दो..!" मिश्रा जी का बढ़िया मूड एकदम से बदल गया।


"अरे जी वो कह रही थी कि मँहगाई बहुत बढ़ गई है, सब्जी के दाम तो आसमान छू रहे हैं, ३ लोगो में १ किलो से कम सब्जी से काम भी तो नही चलता, देख रहे हैं कोई सब्जी तो नही रह गई सस्ती। फिर आदमी है नही बेचारी का २ २ बच्चो को पढ़ा रही है किसी तरह" पत्नी ने कामवाली की अप्लीकेशन अपनी रिकमंडेशन के साथ लगाई"


" तो कौन कहता है इन लोगो को चादर से अधिक पैर फैलाने को...! मैने कितनी बार कहा उससे लड़के को किसी दुकान पे बैठाने लगे और लड़की को अपने साथ काम सिखाए तो तीन लोग मिल के कितना खर्चा चला सकते हैं, लेकिन शौक जो कलक्टर बनाने का लगा है उसे अपने बच्चो को।.... और तुम ज्यादा वकालत तो किया ना करो उसकी तरफ से..घर में बैठे बैठै बड़ी दया करूना फैलती है,दिन भर फाईलों मे सर खपा के ३० दिन बाद जब ४ पैसे लाने पड़े तो समझ में आये कीमत तुम्हे भी" मिश्रा जी पूरी तरह झल्ला चुके थे अब उनका मन नही लग रहा था टहलने में वे झटके से पलट पड़ै घर की ओर.........!

Thursday, October 16, 2008

माँ...तुम जियो हजारों साल..!


१४ अक्टूबर को हमने उनका ७५वाँ जनमदिन मनाया, मैने बहुत दिन से सोच रखा था कि उस दिन की पोस्ट मेरी माँ के नाम रहेगी, लेकिन क्या करें ? सर्वर उसी दिन डाउन होना था।

मेरी माँ .... जो अक्सर कहती हैं कि " मेरे पिता ने मुझे आखिरी शिक्षा ये दी है कि तुम ये कभी मत सोचना कि किसी ने तुम्हारे साथ क्या किया ? अरे ये तो उसकी मर्जी है, तुम हमेशा अपना कर्तव्य करना" और मेरे लिये बिना कहे ही ये उनकी पहली सीख हो जाती है।

मेरी माँ..जिन्होने कभी मुझे सिखाया तो नही लेकिन मैने उन्ही से सीखा कि रूढ़ियों और संस्कारों में क्या अंतर होता है...! मेरी माँ जो मुझे बहुत कमजोर समझती हैं लेकिन मजबूत होना मैने उन्ही से सीखा है,... मेरी माँ...जिन्होने कहा कि परीक्षा में नकल कर के पास होने से अच्छा है कि फेल हो जाना और हाँ दोस्तों की कापियों से देखना भी नकल ही कहलाता है...! और मैं कक्षा ८ की बोर्ड परीक्षा में जब ब्लैकबोर्ड पर प्रश्न हल कराये जा रहे थे तो भी नकल करने की हिम्मत नही कर पाई....! मेरी माँ जो अक्सर बहुत हिम्मती होती हैं, लेकिन बात बात पर रो देती हैं...! मेरी माँ जो छोटी छोटी गलतियों पर भले बहुत नाराज हो जायें लेकिन मुझसे हुए बड़े नुकसानों को हमेशा नॉर्मली लिया है। मेरी माँ..जिसने मुझे स्वतंत्रता और उच्छृंखलता में अतर समझाया।

वो मुझसे कहती हैं कि इतनी भावुकता ठीक नही, लेकिन मैं जानती हूँ कि ये भावुकता मैने उन्ही से पाई है। मैने देखा है कि जब घर के खर्च बड़ी मुश्किल से चलते थे, तब भी अगर पड़ोस की चाची उनसे उधार माँगने आ जाती तो अम्मा झट किसी को गोमती बहन जी के घर भेज के खुद उधार माँग लेतीं लेकिन उन्हे वापस नही करतीं।

बस्ती के माँझा क्षेत्र के जिस जिले से वो संबंध रखती हैं वहाँ आज भी नारी शिक्षा का स्तर बहुत अधिक नही बढ़ा है, तो आजादी के पहले की तो बात ही छोड़िये.. १५ साल की उम्र से ही उन्होने पढ़ाना शुरू कर दिया। फिर हरदोई आ कर सीटीसी की ट्रेनिंग की, जो उस समय टीचर बनने के लिये किये जाने वाले प्रशिक्षण का नाम था। मैं अक्सर उनमें कुशल नेत्री और वकील के गुण देखती हूँ।

ये सारे रूप मैने अक्सर ही देखे हैं उनके लेकिन जो रूप मैने आंध्रा प्रवास के समय देखा वो बहुत अलग था। ५ मई २००१ को मेरा परिणाम आया, अम्मा ने आँसुओं के साथ मुझे ढेरों आशीर्वाद दिये। खूब प्रसाद बाँटे। मैं मन ही मन तैयारी करती रही दक्षिण के किसी प्रदेश की ज्वाइनिंग आने की और उन्होने मेरे विचारों मे कोई दखल नही दिया। लेकिन ९ नवंबर २००१ को जब रिज़र्वेशन के लिये भईया जाने लगे तो उनका रूप ही बदल गया... वो रोती जाती थी, रोती जाती थीं, भईया से पूँछती " तुम सच में उसको इतनी दूर ज्वाईन करा दोगे?" मुझसे कहती "तुम और रिज़ल्ट का इंतजार कर लो" और मैं कहती " अगर नही हुआ फिर से तब क्या करेंगे अम्मा? आपको ज्वाईन नही कराना था तो मुझे फार्म क्यों भरने देती थीं, किताबें क्यों मँगाती थी..?"
" इसके अलावा तुम्हारा मन लगाने के लिये क्या करते, हम सोचते थे कि तुम इसी सब में व्यस्त रखो अपने आप को? और फिर हमने सोचा कि जब कोई तुम्हे ज्वाईन नही करायेगा, तो बाद में समझा देगें? लेकिन अब हमारे पास इतना कलेजा नही है कि तुम्हे ईतनी दूर भेज दें।"

वो कहतीं "मेरी स्थिति दशरथ वाली हो गई है, जैसे दशरथ ने कहा था कि राम को वन दिखा कर वापस ले आना वैसे ही हम चाहते हैं कि कंचन को ज्वाइन करा के फिर वापस ले आओ, उसे संतोष हो जाएगा कि उसने नौकरी कर ली"

वो हर एक से इस उम्मीद से कहतीं कि शायद कोई उनका साथ दे, लेकिन सब उन्हे प्रैक्टिकल होने को कहते। उन्होने रो रो के मुझे विदा कर दिया..! मैं तीन महीने के लिये गई थी लेकिन उनकी हालत सुन के १ महीने में ही मुझे १५ दिन के लिये छुट्टी ले कर वापस आना पड़ा। और दिन रात रोते रोते वो अवसाद (डिप्रेशन)में चली गईं। हालत ये थी कि अब ना वो अधिक रोती थीं, न हँसती थीं और न ही नाराज होती थीं। जो कह दो बस यंत्रवत करती जाती थी। २ महीने में ही मैं मेडिकल लगा कर चली आई। और ४ महीने तक रही। जब दिन रात साथ रह के उन्हे ये विश्वास दिलाया कि मैं कर सकती हूँ, इसके अलावा कोई चारा भी नही है और न किया गया तो जिंदगी बहुत खराब हो जायेगी..तो फिर धीरे धीरे वो फिर से सामान्य हुईं।

मुझे हमेशा ये लगता था कि मै सब से छोटी हूँ तो माँ मुझे सब से कम चाहती हैं, लेकिन इसके बाद पता चला कोई माँ किसी भी बच्चे को कम नही चाहती, वो बस ये चाहती है कि मेरा बच्चा बिलकुल परेशान न हो मैं उसके सारे दुख ले लूँ..! वो खुश रहे, हमेशा खूश..!

ये एक कविता जो आंध्रा ज्वॉइनिंग के ५वें दिन मैने रो रो के लिखी थी और यहाँ अम्मा कह रही थी "आज वो बहुत बेचैन है,उसका हाल ले लो, हमें लग रहा है कि वो बहुत रो रही है।" तब तक कोई नं० नही था जहाँ बात की जा सके, लेकिन दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।

सुबह सवेरे आँख खुली
और तेरी सूरत नज़र ना आई
माँ तब याद तुम्हारी आई।

साँझ ढले जब घर लौटी
और तू चौखट पर नज़र ना आई,
माँ तब याद तुम्हारी आई।


दुनिया भर की धूप लगी
और तेरी आँचल छाँव ना पाई
माँ तब याद तुम्हारी आई

आज थकन थी बहुत पैर में,
हमने सबको खूब बताया,
मगर आजबत्ती बुझने पर
कोई चुपके से ना आया,
तेरे हाथो की गर्माहट,
आज थकावट ने ना पाई
माँ तब याद तुम्हारी आई।

उनके विषय में एक बार में पूरा नही लिख सकती.. अगली पोस्ट में सुनाऊँगी उनका पसंदीदा गीत
क्रमशः

Friday, October 10, 2008

गावक्ष की हवाओं का राकेश खण्डेलवाल को सलाम

गुरुवर का आदेश है कि इस सप्ताह चूँकि राकेश खण्डेलवाल जी की पुस्तक अंधेरी रात का सूरज का विमोचन हो रहा है अतः सभी शिष्यों को एक पोस्ट उनसे संबंधित लगानी है.... ! गुरुवर का आदेश सिर माथे पर।

तो राकेश जी जिन्हे मैंने ब्लॉग का नीरज नाम दिया है, उनके प्रभाव मे मै तब से आई हूँ जब से मैं इस ब्लॉग जगत में आई हूँ। जून २००७ से ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद जब मै कुछ अच्छी कविताओं के लिये ब्लॉग सर्फिंग कर रही थी, तभी मेरि दृष्टि राकेश जी की एक कविता पर पड़ी जो इस प्रकार थी

आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग,
कैसी है वो राह न बोले,
फिर भी ओ आराध्य ह्रदय के पाषाणी !
इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?
कितने गीत और लिखने हैं,
लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते,
स्याही सभी तमाम हो गई

तुरंत मैने एक हार्ड कॉपी सुरक्षित की और राकेश जी की सारी कविताएं पढ़ डाली। एक समस्या जो तब से अब तक आती है कि आखिर उनकी कविताओं की प्रशंसा के लिये नए शब्द कहाँ से लाए जाएं..? वही क्या बात है....! वही कुछ कहने को नही...!वही निश्शब्द हूँ मैं... !वही मन को भीतर तक छू गई....! खुद को बनावटी लगने लगते हैं अपने शब्द..! कभी कभी पढ़ के बस वापस लौट आती हूँ, बिना कोई कमेंट किये।

तो यूँ गीत कलश पान हेतु मेरा तो जाना अक्सर ही होता था, पर कष्ट इस बात का रहता था कि मैं क्यों नही थोड़ा सा अच्छा लिखती कि कभी वो भी मेरे गवाक्ष तक आएं, और मुझे पता था कि यदि राकेश जी कभी कुछ कहेंगे तो अवश्य वो लेन देन या मन रखने हेतु तो नही ही होगा और कवि की प्रशंसा हो या निंदा मगर उचित मूल्यांकन उसकी सबसे बड़ी निधि होती है शायद। ब्लॉग जगत ने मुझे निराश तो नही किया कभी, जैसा मैं लिखती थी उस हिसाब से ठीक ठाक प्रतिक्रियाएं मिलती रहीं, लेकिन कष्ट इस बात का होता था कि जिनके हम प्रशंसक हैं, वो हम पर निगाह क्यों नही डालते। अपने ब्लॉग गुरु मनीष जी से यह कष्ट बाँटा भी,कि कभी राकेश जी मेरी कविता की प्रशंसा नही करते? तो उन्होने सलाह दी कि "आप उनकी निगाह में नहीं आई होंगी, उनको खुद अपनी कविताएं मेल कर दीजिये।" लेकिन मुझे लगा कि ये तो न्यौता दे कर बड़ाई कराना होगा। कोई भी विनम्र व्यक्ति इतने पर तो प्रोत्साहन देगा ही। खैर ५ फर०, २००८ का वह दिन आया जब राकेश जी की पहल टिप्पणी मेरी किसी पोस्ट पर आई (यद्यपि वो मेरी किसी कविता पर नही नीरज जी की कविता पर थी)। जैसा कि मैने उन्हे मेल मे लिखा कि मेरे लिये "उनका आना शबरी की कुटिया में राम का आना था।" ये बात शब्दशः सत्य थी। खैर उनके जैसे व्यक्तित्व का तुरत विनम्र उत्तर आना तो स्वाभाविक ही था और इस प्रकार उनका आना जाना गवाक्ष की तरफ हुआ लेकिन मेरी पोस्ट पर उनकी हर टिप्पणी से भी अधिक प्रभावकारी उनकी वे दो टिप्पणी हैं मेरे लिये जो मेरी कविता के लिये सीधे मेरी मेल पर आई। मैने महसूस किया कि वो हृदय से मुझ पर स्नेहाशीष रखते हैं। वे टप्पणियाँ मेरी पोस्ट अब तुम मुझको .... और पर सुलगती ये ...... पर आईं जो इस तरह हैं।

कंचनजी
नमस्कार,

आपका यह गीत पढ़ा. सुन्दर भाव और शिल्प भी अच्छा है लेकिन कहीं कहीं प्रवाह अटकता है. कारण या तो टंकण दोष है या शब्दों के प्रवाह पर आपने ध्यान नहीं दिया.

आशा है आप मेरी स्पष्ट वादिता को अन्यथा नहीं लेंगी. गीत की गेयता के लिये प्रवाह एक आवश्यकता है. एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिला रहा हूँ. कॄपया गीत में सम्बोधन एक ही रखें. अगर तुम का प्रयोग है तो तुम ही और तू का तो तू ही.

कुछ शब्द संगीत के माध्यम से तो लघु और दीर्घ स्वर होते हुए भी चल जाते हैं लेकिन पढ़ने में अटकते हैं. अगर आप को मेरे शब्द उचित न लगें तो क्षमाप्रार्थी हूँ. मुझे व्यर्थ हां में हां मिला कर टिप्पणी अपने पसन्द के ब्लागों पर लिखना नहीं आता. अगर औपचारिकतावश करनी होती तो शायद मैं भी तारीफ़ ही करता, दोष नहीं निकालता.
सादर,
राकेश खंडेलवाल

खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !

तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !

और


कंचन जी,
नमस्कार,

जैसा मैने अपनी टिप्पणी में लिखा था आपके सुन्दर गीत में एक शाब्दिक त्रुटि की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ
निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,फिर मुझे अनुरूप ढालो।

अकसर ऐसा होता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंचल में स्तर को इस्तर की तर्ह बोला जाता है. यही नहीं स्नेह, स्कूल आदि शब्द आंचलिकता के कारण उच्चारण दोष से ग्रसित होते हैं गाते हुए तो आपका गीत ठीक लगेगा क्योंकि सुर को दीर्घ कर बोल दिया जायेगा लेकिन सही नहीं होगा.
उदाहरण के लिये
वर दे वीणा वादिनी वर दे
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योर्तिमय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे

यहाँ स्तर को लघु सम्मिश्रित ही गाया और बोला जायेगा. यदि इस्तर बोला जाये तो मात्रा दोष दिखेगा और वह गलत भी होगा.

आशा है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगी.

आपके लेखन में निरन्तर प्रगति हो, यही कामना है,

शुभकामनाओं सहित
राकेश

चलते चलते राकेश खण्डेलवाल जी पुस्तक अँधेरी रात का सूरज के विमोचन के अवसर पर शुभकामनओं के साथ गुनगुनाइये उनका लिखा एक गीत (राकेश जी के ब्लॉग विन्यास की विशेषता अथवा मेरी अनभिज्ञता किन्ही कारणों से exact लिंक नही दे पा रही हूँ जून, २००७ के आर्काइव का लिंक क्लिक करें यहाँ दूसरे नं० पर २२ जून, २००७ को पोस्ट है यह कविता) जो मुझे बहुत प्रिय है।

एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया

बचपन की पहली सीढ़ी से यौवन की अंतिम पादानें
मंदिर की आरति से लेकर मस्जिद से उठती आजानें
गिरजे की घंटी के सुर में घुलती हुई शंख की गूँजें
थीं हमको आवाज़ लगातीं हम आकर उनको पहचानें

लेकिन पिया घुटी में जो था, उसका कुछ प्रभाव ऐसा था
परछाईं में रहे उलझते, और सत्य हो गौण रह गया

लालायित हम रहे हमेशा, आशीषों के चन्द्रहार के
और अपेक्षित रहे बाग के दिन सारे ही हों बहार के
स्वर्ण-पत्र पर भाग्य लिखेगा सदा, हमारा भाग्य नियंता
और कामनायें ढूंढ़ेंगी, रह रह कर हमको पुकार के

जब ललाट पर लगीं उंगलियां, हमने सोचा राजतिलक है
देखा दर्पण में तो पाया, केवल लगा डिठौन रह गया

सदा शीर्ष के इर्द गिर्द ही रहीं भटकतीं अभिलाषायें
और खोजतीं केवल वे स्वर, जो श्रवनामॄत मंत्र सुनायें
पक्षधार हो द्रोण, कर सके, एकलव्य हर एक नियंत्रित
और दिशायें विजयश्री की धवल पताकायें फ़हरायें
जीवन के इस बीजगणित के लेकिन समीकरण सब उलझे

जो चाहा था पूरा हो ले, वो ही आधा-पौन रह गया

जहां लिया विश्राम काल की गति ने एक निमिष को रुककर
थमे हुए हैं जीवन के पल, अब तक उसी एक बिन्दु पर
राजसभा में ज्यों लंका की, पांव अड़ाया हो अंगद ने
या इक राजकुंवर अटका हो, चन्दा को पाने के हठ पर

बारह बरस बदल देते हैं, मिट्टी की भी जर्जर काया
ढूंढ़ रहा हूँ कोई बताये, ये सब बातें कौन कह गया ?

Monday, October 6, 2008

नेता हमारे

कुछ मित्रों ने शिकायत की कि मैं लोगो को दुखी अधिक करती हूँ, ईश्वर की दया है कि मुझे मित्र सच्चे मिले हैं।
खैर सोच मैं भी यही रही थी और अनूप जी से चर्चा भी की थी कि मेरे गवाक्ष से भीगी बयारें अधिक निकलती हैं, जाने क्यों ऐसा हो ही जाता जबकि व्यक्तिगत रूप से सिर्फ मित्रों को रुलाना ही मेरा उद्देश्य बिलकुल नही है, लेकिन फिर भी गलत तो है ही, यूँ ही मैं महीने मे कहीं एक बार कुछ लिखती हूँ और वो भी ऐसा ....! खैर मैं बातें भले जॉली मूड में कर लूँ, लाख चाहते हुए भी हास्य रचनाए नही लिख पाती, तो अपनी नही दूसरे की वाणी से माहौल हल्का करने की सोची
मेरे परिवार में कविता के कीड़े लगभग सभी के अंदर पाये जाते हैं, ये अलग बात है कि अधिकर सुषुप्ता अवस्था में रहते हैं और एक विशेष काल में शायद ये कुछ दिनो के लिये ऐक्टिवेट होते हैं। ऐसे ही एक समय में मेरे भांजे विपुल (बड़ी दीदी का बेटा) ने जो कि अब ज़ी बिज़नेस मे है ने भी एक कविता लिखी थी।



इस वर्ष अपने जन्म की रजत जयंती मनाने वाला मेरा ये भांजा मुझे अपने सभी बच्चों में सबसे गंभीर और समझदार लगता है। (विपुल पढ़े तो शातिर विशेषण भी जोड़ ले)। तो ये संक्रमण काल इनके जीवन के १६-१७ वर्ष की अवस्था में आया था। कई कविताएं लिखी बालक ने उस समय। मेरी दीदी कें बच्चों मे प्रमुख विशेषता ये है कि ये लोग अपनी पहली कविता तब लिखते हैं जब घर छोड़ के दूसरे शहर में जाते हैं :) तो विपुल ने भी पहली कविता लिखी
(विपुल और मै)
पूरे कर लें सबके सपने, हम से दूर हुए सब अपने

खैर वो सारी कविताएं तो वो अपने साथ ही ले गया लेकिन आज एक फाईल में उसकी यह व्यंग्य कविता मिल गई, तो मन हुआ कि आप सब के साथ बाँट ली जाये। तो लीजिये पढ़िये





हमें गर्व है कि आप नेता हमारे हैं,
आप जैसे लोग आदर्श हमारे हैं।

कहीं हवाला का बवाला कहीं तोपों का घोटाला,
किसी ने तो जानवरों का चारा ही खा डाला।
हैं अरबों मगर तन पे धोती कुरता है डाला,
ये भरते हैं झोली अपनी, निकाल के देश का दीवाला
प्रजातंत्र को इन्होने, राजतंत्र बना डाला,
खुद हटे तो गद्दी पत्नी को बिठा डाला।
शिक्षा मंत्री को शिक्षा का कोई ज्ञान नही है,
रक्षा मंत्री के शरीर में जैसे जान नही है।
स्वास्थ्य मंत्री खुद अपने स्वास्थ्य से परेशान हैं,
बाकी मंत्रियों का करने लायक नही गुणगान है।
आप ही ने द हमें विश्व में एक नई पहचान है,
भ्रष्टाचार मे अव्वल हमारा भारत देश महान है।
अनफॉर्च्यूनेटली ये दुर्भाग्य हमारा है,
कि आप पर ही देश का दारोमदार सारा है।

कहते हैं विद्वान ये जनता का दोष सारा है,
ना जाने क्यों इन्हें भ्रष्ट नेता ही प्यारा है।
निश्चय ही हमारे पास विकल्प कई सारे हैं,
पर क्या करें यहाँ रंगे सियार सारे हैं।
इसीलिये देते हैं वोट उन्हे जो भ्रष्ट नजदीक हमारे हैं।

यदि आप बनना नेता चाहते हैं,
तो हम आपको इसके कायदे कानून बताते हैं।
आपका अपना नही कोई उसूल होना चाहिये,
नेतागिरी का ये पहला रूल होना चाहिये।
जब ज़रूरत हो तो रोना और मुस्कुराना चाहिये,
दूसरे नियम में हर नेता को एक अभिनेता होना चाहिये।
लोक कल्याण के लिये हमेशा आगे आना चाहिये,
तीसरे नियम में लोगो के लिये जेल जाना चाहिये।
चौथे नियम में भी माहिर होना चाहिये,
रंग बदलने में गिरगिट को मात देना चाहिये।
पाँचवे नियम का भी पालन करना बहुत ज़रूरी है,
खाई हुई थाली में छेद करना नेता की मजबूरी है।
पर इतने से ही आप नेता नही बनते हैं
जब तक कि छठी शर्त को आप पूरा नही करते हैं।
नेता की आवाज़ का हाई सॉउण्ड होना चाहिये,
उसका जबर्दस्त क्रिमिनल बैक ग्राउण्ड होना चाहिये।
इसके अलावा भी अपनाने पड़ते हथकण्डे बहुत सारे हैं,
कुछ तो इसके लिये रहते जिंदगी भर कुँवारे हैं।
अब यदि आप में विद्वमान ये गुण सारे हैं,
तो आप भविष्य के सफल नेता हमारे हैं।