Monday, December 22, 2008

कि तुम हो मेरे गिर्द...


दिल के किसी कोने से आई आवाज़


"काश कि तुम होते "


तो बोल उठी ज़ुबाँ...


"तो..?.....तो क्या होता...????"


"कुछ नही......! बस ये अहसास .....!

कि तुम हो मेरे गिर्द....!"
किसी ने दिया जवाब ....!!!!!!

Thursday, December 18, 2008

वो भला कौन है किसकी तलाश बाकी है?


पिछली पोस्ट के शेर पर अनुराग जी ने कमेंट में एक शेर लिखा था

हाथ की लकीरों में लिखा सब सच होता नही,
कुछ किस्मते भी कभी थक जाया करती है

और उस शेर से ही याद आई अपनी एक कविता, जो कि मैने २०‍‍-9-२००७ को लिखी थी...! लीजिये आप भी शामिल हो जाइये उस कविता में

अपने हाथों की लकीरों में ढूँढ़ती हूँ जिसे,
वो भला कौन है किसकी तलाश बाकी है?
सुबह होने को है दीयों में तेल भरती हूँ,
तमन्ना तुझको अभी किसकी आस बाकी है।

किया जितनी भी बार ऐतबार है सच्चा,
हुए है उतनी बार अपनी नज़र में झूठे।
न जाने कितने गलासों को चख के देखा है,
हुए हैं हर दफा अपने ही होंठ फिर जूठे।
मगर सूखे हुए, पपड़ी पड़े इन होंठों को,
न जाने चाहिये क्या, अब भी प्यास बाकी है।

गिरे हैं इस कदर उठने को जी नही करता,
बहुत हताश कर रही है मेरी साँस मुझे।
बहुत थके हैं कि चलने को जी नही करता,
मगर तलाश मेरी रुकने नही देती मुझे।
गुज़र चुका है सबी कुछ भला बुरा क्या क्या
बड़ी हूँ ढीठ कि अब भी तलाश बाकी है।

सितारे सो चुके है साथ मेरे जग के मगर,
मैं अब भी चाँद की आहट पे कान रखे हूँ।
वो धीमे कदमों से आ कर मुझे चौकायेगा,
संभलना है मुझे धड़कन का ध्यान रखे हूँ।
बढ़ा दो लौ-ए-शमा की ज़रा सी और उमर,
वो आ भी सकता है, थोड़ी सी रात बाकी है!

Wednesday, December 10, 2008

एक शेर


एक धागे का साथ देने को,

मोम का रोम रोम जलता है....!

बस गुलजार का ये एक शेर कहने का मन हो रहा है आज..ये शेर जो कभी पुराना नही पड़ता मेरे लिये। और कुछ-कुछ दिनों पर इसकी धार कुछ ज्यादा तेज हो जाती है... नश्तर की तरह चुभता है ये...! आज कल धार फिर तेज हो गई है इसकी...!

Wednesday, December 3, 2008

विश्व विकलांग दिवस पर



टाईम्स आफ इण्डिया के लखनऊ संस्करण में आज महिला विद्यालय की शिक्षाशास्त्र की विभागाध्यक्ष रानी जेस्वानी जी के विषय में लिखा गया है। रानी एक पैर पर जिंदगी बिता रही हैं। जिंदगी के विषय में पूंछे जाने पर वे कहती हैं

I feel normal but....

और इस लेकिन के बाद वो बात जो आना लाज़मी है कि

ज़ब्त करती हूँ, तो हर ज़ख़्म लहू देता है,
बोलती हूँ तो अंदेशा-ए-रुस्वाई है।

सच है कि अगर कभी अपनी समस्या डिसकस करने की कोशिश करो तो, लोग जिंदगी से हारा समझने लगते हैं, जो कि नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होती है।

और उन लोगो के लिये जो घूर घूर के देखते रहते हैं जैसे सामने वाला एलिएन्स प्रजाति का हो.. "ओह...ऐसे जीवन से मरना अच्छा" कहते हुए, जो सुनाई तो देता है, लेकिन आप सुनते नही...बहुत दिनो से हर रोज़ ये सब सुनते देखते आपको आदत हो गई है..कुछ असमान्य नही लगता...! उनके लिये उन्होने कहा....!

साहिल के तमाशाई हर डूबने वाले पर,
अफसोस तो करते हैं, इम्दाद नही करते।

कोई गलत नही है ये सोच, ये हक़ीकत है। लेकिन इसका मतलब ये नही कि इस अफसोस को उनकी हार का तर्ज़ुमा समझ लिया जाये। ये सिक्के का एक पहलू है। हर कदम पर संघर्ष जैसा वाक्य जिनके कदमो से जुड़ा हो और उन्होने एक भी कदम उठने से रोका ना हो, उन्हे आप निराश की श्रेणी में नही ला सकते।

पिछली बार विकलांग दिवस पर इस विषय में लिखने से पहले बहुत संकोच हुआ था , कहीं लोग गलत अर्थ ना लगा लें, कहीं लोग जिंदगी से हारा ना समझ लें, कहीं लोग उदास न समझ लें, लेकिन आज सुबह सुबह रानी जी को पढ़ने के बाद मन में आया कि अपनी बातें हम नही खुल कर बतायेंगे तो कौन बतायेगा ? जनता बुरी नही है..असल में हम उन्हे समझा ही नही पाते कि हमें क्या व्यवहार चाहिये। हम कहीं न कहीं रोज गिरते हैं, ये सच है, लेकिन हम हर रोज जितनी शिद्दत से बिना पिछली चोट की परवाह के खड़े होते हैं वो भी सच है।

जो सच रानी जी का है, वो मेरा भी सच है....लेकिन कुछ अपने सच बाँटती हूँ... जो रानी जी का भी सच होगा, ये मुझे विश्वास है....!!!!

पहली बात जो माँ कहती थी जब मैं अपनी बीमारी से लड़ रही थी...जो अब भी बहुत बहुत बल देती है



वो देखो उठ बैठी मुन्नी, सारी चींटी मार के,
गिर कर उठ जाने वाले ही, बड़े लोग संसार के...!

और दो शेर जो मेरी वर्किंग टेबल के ऊपर लगे है... जिन्हे मै लगभग रोज याद करती हूँ...

इरादे हों अटल तो मोज़दा ऐसा भी होता है,
दिये को पालती है, खुद हवा ऐसा भी होता है

और दूसरा

बढ़ते पग कब सोचते मंजिल कितनी मील,
घोर अंधेरे से लड़े, छोटी सी कंदील

रानी जी का फोटो मुझे टाईम्स आफ इण्डिया की साईट पर नही मिला, वरना मैं आपसे ज़रूर बाँटती़। एक बात और the person like Rani Ji is not physically disabled... they are in the daily battle of proving there ability.... actually they are highly chalanged by nature ... physically chalanged.


इम्दाद- मदद
मोज़दा -पराकाष्ठा

Monday, December 1, 2008

दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।


इस पर क्रोध बढ़ाए कोई या फिर आये लाज,
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।

जीवन पा कर जीवन देते मौत दिखाने वालों,
हाहाकार रहित करते कुछ धरती को दुनिया को,
ताकत पा कर कैसा कायर काज किया ये आज।
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।

देने वाले ने ताकत दी और उम्र तरुणाई,
और मिटाने खातिर तूने वह उपलब्धि गँवाई,
कैसे तांडव से भर डाला मधुर पखावज साज
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।

बाल वृद्ध न देखे तूने, ना भगिनी, ना माता,
क्या पल भर की खातिर भी सोचा होगा ये नाता,
सभी चिरैया जैसे दुबके और तुम जैसे बाज।
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।


शस्त्र चलाएं शस्त्रों पर, वो वीर कहे जाते हैं,
डटें रहें जो सीमा पर रणधीर कहे जाते हैं,
जयद्रथ सा जो वार करे वो कौन कहावे आज,
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।

कौन जन्म देने वाला था, जिसकी कोख लजाई,
छुप छुप कर रोती तो होगी आज तेरी भी माई,
किसको अश्रु दिखाए, किस से कहे कहानी आज
दुनिया भर में अचरज बन फिर ताज खड़ा है आज।

Friday, November 28, 2008

हर तरफ ज़ुल्म है, बेबसी है, सहमा सहमा सा हर आदमी है





शोक नही आक्रोश सही...कुछ है जो मन में दो दिन से उथल पुथल मचाये है...आक्रोश भी कह सकते हैं, लेकिन जब आक्रोश कहीं निकलेगा नही तो शोक तो जन्म लेगा ही। और आक्रोश निकालें कहाँ..इस ब्लॉग पर ....! क्या फर्क पड़ता है ...???? हम नेताओं को गालियाँ दे लें..आतंकवाद को कोस लें... किसी धर्म को कोस लें या धर्मनिरपेक्षता की बात कर लें। क्या फर्क़ पड़ता है...?? कौन हमारा ब्लॉग पढ़ेगा..?? कौन बदल जायेगा..??? हम कर भी क्या सकते है..??? शिवाय घरों में बोलने के और ब्लॉग में भड़ास निकालने के...!!!! लेकिन करें भी तो क्या...अपनी डायरी से भी ना कहें तो किस से कहें..???

सच बहुत दुःख होता है, ऐसा जीवन पा के जिसमें आप अंदर ही अंदर कुढ़ सकते हैं बस...!

शोक नही मनाएं तो करें क्या...??? वो शख्स जिसने हमारे सामने शपथ ली कि एक एक को जिंदा या मुर्दा खतम कर के आयेंगे... वो कुछ क्षणों बाद हमारे सामने ही खतम दिखाई देता है...! वो पत्नी, वो बच्चे.. जो ये सब देख रहे थे टी०वी० पर उन्होने कैसे झेला होगा...!!!! श्रद्धांजली... अश्रुपूर्ण श्रद्धाजली..!!!!








बस कुछ कहने को असमर्थ....! मन में यही गीत आ रहा है...!!!! ये गीत जो जब जब मैं बहुत निराश होती हूँ तो मन को सांत्वना से भरता है..! जब कुछ नही रह जाता हाथ में, तब ये प्रार्थना ही तो आती है मन में...!

नेट आज बहुत स्लो होने के कारण गीत अटैच्ड नही हो पा रहा....! शब्दो में मेरी प्रार्थना..!



इतनी शक्ति हमें देना दाता.,
मन का विश्वास कमजोर ना।
हम चलें नेक रस्ते पे हम से
भूल कर भी कोई भूल हो ना।

हर तरफ ज़ुल्म है, बेबसी है,
सहमा सहमा सा हर आदमी है
पाप का बोझ बढ़ता ही जाये,
जाने कैसे ये धरती थमी है,
बोझ ममता से तू ये उठा ले,
तेरी रचना का ही अंत हो ना।

हम अंधेरे में हैं रोशनी में दे,
खो न दें खुद को ही दुश्मनी से,
हम सज़ा पायें अपने किये की,
मौत भी हो तो सह लें खुशी से,
कल जो गुज़रा है, फिर से न गुज़रे
आने वाला वो कल ऐसा हो ना।

Tuesday, November 25, 2008

धरती, अम्बर और सीपियां


कल दिन पूर्वाह्न १० बजे के लगभग अमृता प्रीतम की ये उपन्यास मुझे प्राप्त हुई। जहाँ तक याद है शायद रसीदी टिकट में ही इस उपन्यास का ज़िक्र पढ़ा था और साथ ये भी पढ़ा था कि १९७५ में इस उपन्यास पर शबाना आज़मी अभिनीत एक फिल्म कादम्बरी भी बनी थी...! (इण्टरनेट पर प्रदर्शन वर्ष १९७६ पता चला है और यूनुस जी के चिट्ठे पर १९७४ )।

अमृता प्रीतम जी की जिंदगी हो या उनकी किताबें उनका जो खास अंदाज़ है वो ये है कि उनके क़ुफ्र बड़े पाकीज़ा होते है। इसी पाक़ीज़ा क़ुफ्र की एक बानगी मैने और मेरी सखी शिवानी सक्सेना ने पढ़ी थी, जब इस पूरी पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जाग उठी थी हमारे मन में। और जैसे ही उन्हे अमीरुद्दौला पुस्तकालय में ये किताब मिली वे तुरंत ले आईं हम दोनो के पढ़ने के लिये।

खैर मध्यम आकार के अक्षरो में छपी १८९ पन्नो की यह पुस्तक मेरे द्वारा रात भर में समाप्त कर दी गई। परंतु उपन्यास का जादू जिस दृश्य में समाहित था शायद उसको कई बार पहले ही पढ़ लेने के कारण जो सहज जिग्यासा उपन्यास को पढ़ने के बीच एक अनोखा भाव बनाये रखती है, उसकी कुछ कमी हो गई और एक अच्छी पुस्तक पढ़ने के बाद कुछ दिनो तक जो मीठा स्वाद मन को खुश किए रहता है उससे मैं वंचित रह गई।

उपन्यास तीन महिला किरदारों की प्रणय कथा पर आधारित है, जिनमें मुख्य किरदार चेतना है, जिसका नायक ईक़बाल अपनी माँ की नाजायज़ औलाद है और शादी न करने हेतु कृतसंकल्प है, इस असामान्य परिस्थिति मे पनपे प्रेम की एक असामान्य कथा है ये। अन्य दो पात्र है मिन्नी जो कि नरेश के प्रति अपने बचपन के प्रेम को कभी नही व्यक्त करती और परिस्थिति वश जग्गू के साथ जा मिलती है और होनी उसे खुद को खत्म करने पर मजबूर कर देती है। दूसरी है चम्पा जिसे चेतना का भाई जी जान से चाहता है, लेकिन होनी उसे सामर्थ्य पर गुरूर आजमाने के मनोरोग से भर देती है और जब तक वो पश्चाताप करे तब तक उसका प्रिय कहीं और रम चुका होता है

लेखिका पता नही क्या कहना चाह रही है इस उपन्यास में मगर मुझे जो लगा वो ये कि अन्य दोनो पात्र मिन्नी और चम्पा ये दोनो ही चेतना की सखी हैं, इनके प्रेम में सहजता होने के बावज़ूद ये दोनो पात्र अपने प्रणयी को स्वीकार नही कर पाते और दुखान्त को प्राप्त होते हैं, वहीं चेतना सब कुछ विपरीत होने के बावज़ूद अपने स्नेह को अपने जीवन में लाने की जुर्रत करती है और जिंदगी से बिना कुछ माँगे भी सब कुछ पा जाती है और सुखांत का हिस्सा बनती है।

इस उपन्यास के प्रति आकर्षण का एक मुख्य कारण इस पर बनी फिल्म का गीत बात क़ूफ्र की की है हमने भी है... जो कि अमृता जी की निजी जिंदगी से संबंध रखता है। इमरोज़ के साथ रहने का पक्का इरादा करने पर उन्हे जो कुछ सुनने को मिला उसके बाद उन्होने अपने पाक़ कुफ्र को जो शब्द दिये .....वो जि शब्दो में गाया वो यही गीत था। अमृता जी के उपन्यास का जो खास अंदाज़ होता है वो उनके नैरेशन में ही होता है और उस नैरेशन को कैसे पिक्चराईज़ किया गया होगा ये जानना अद्भूत होगा मेरे लिये लेकिन अभी तो फिलहाल इससे वंचित ही हूँ...!

जो भी हो आप सुनिये कादम्बरी फिल्म का आशा भोसले द्वारा गाया, उस्ताद विलायत खाँ द्वारा निदेशित ये गीत...!


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अंबर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठाकर ,
घूंट चांदनी पी है हमने,

बात कुफ्र की..की है हमने ।

कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं,
मांग के अपनी मौत के हाथों
उम्र की सूली सी है हमने,
बात कुफ्र की..की है हमने ।

अंबर की एक पाक सुराही ।।
अपना इसमें कुछ भी नहीं है,
रोज़े-अज़ल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने,
बात कुफ्र की.. की है हमने ।

लिरिक्स साभार यूनुस जी की ये पोस्ट

Wednesday, November 19, 2008

प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र




कभी कभी आश्चर्य होता है कि सारी दुनिया को कोई बात मालूम होती है और हमको नही..वही कुछ इस गीत के साथ भी है। ये गीत सुना मैने सब से पहले अपनी भाभी के कज़िन के मुँह से। गीत के बोल सहज भावनओं को लिये , सहज शब्दों को लिये और कान से मन तक अच्छे लगने वाले लगे। और मुझे लगा कि पूरी दुनिया में उसे ही ये गीत आता है और जब भी वो आता मैं उससे ये गीत ज़रूर सुनवाती...लेकिन खल के तब रह जाती जब सबको इस गीत के बारे में पहले से जानकारी रहती..और वो कहते कि हाँ एक उम्र में हमने ये गीत बहुत सुना है... जैसे मुझसे बताया जा रहा हो कि तुम्हारी उम्र नही रही अब ऐसे गाने सुनने की :)। अब हम क्या करें जब हमको ये गीत इसी उमर में सुनने को मिला।

अपनी सखी माला मुखर्जी से पूँछा तो उनका भी यही जवाब था। मैने पूँछा पता नही कौन सी फिल्म का होगा ये गीत ???? तो उन्होने बिना सोचे समझे कहा... एक नज़र...अमिताभ और जया की फिल्म है.... बी०आर० इशारा डायरेक्टर हैं और किशोर कुमार का गाया हुआ है। मैने सोचा कि संगीत निदेशक और गीतकार का नाम ही क्यों छोड़ दिया..ब्लॉग मित्र तो छूटा देख लेंगे तो ज़रूर पूँछेगे :) खैर नेट पर पता चला कि १९७२ में प्रदर्शित इस फिल्म के संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल हैं और गीतकार मुझे नही पता चले।

जो भी हो ये गीत लखनऊ में मेरे अद्यतन तीन लोगो के परिवार के हर सदस्य का यह प्रिय गीत है। क्योंकि मैने भले इस उम्र में सुना हो बाकि दोनो की तो उम्र ही यही है..। नेट पर खोज करते समय ये भी पता चला कि इसके अन्य तीन गीत
भी मुझे बहुत प्रिय है पहला

पहले सौ बार इधर और उधर देखा है,
तब कहीं जा के उसे एक नज़र देखा है।


दूसरा
पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही ना जाने बाग तो सार जाने है


और तीसरा
हमी करे कोई सूरत उन्हे भुलाने की,
सुना है उनको तो आदत है भूल जाने की....!


तो आप भी सुनिये मेरे साथ ये गीत

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हम्म्म् एक नज़र, एक नज़र

प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र
देर से तू मेरे अरमानो के आइने में.
बंद पलकें लिये बैठी है मेरे सीने में,
ऐ मेरी जान-ए-हया देख इधर, देख इधर
प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र
बेकरारों की दवा, एक नज़र एक नज़र

चैन दे कर के जो बेचैन बना देती हो,
हो तो शबनम सी मगर आग लगा देती हो,
जब मिले शोर उठे, हाय रे दिल, हाय जिगर
बेकरारों की दवा, एक नज़र एक नज़र
दर्दमंदों की सदा, एक नज़र एक नज़र

शिकवा बाकि ना रहे दूर गिला हो जाये,
इस तरह मिल कि दिवाने का भला हो जाये
चाहने वालों में हाँ देर न कर, देर न कर
दर्दमंदों की सदा, एक नज़र एक नज़र
इश्क़ माँगे है दुआ, एक नज़र एक नज़र

खून-ए-दिल से बढ़े रुख्सार की लाली तेरी,
मेरी आहों से पलक और हो काली तेरी,
मेरी हालत पे ना जा और सँवर, और सँवर
इश्क़ माँगे है दुआ, एक नज़र एक नज़र
प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र

Friday, November 14, 2008

"मुझे चाँद चाहिये"


"मुझे चाँद चाहिये" ये शीर्षक ही कुछ ऐसा था जो मुझ जैसे लोगों को आकर्षित करता था। सबसे पहले मेरी सहेली शिवानी सक्सेना के द्वारा मैं इस उपन्यास से परिचित हुई और पढ़ने के लिये लालायित हुई। इसके बाद मनीष जी की पोस्ट और उस पर अनूप जी, चारु और बसलियाल जी के विचारों ने और भी विकल कर दिया। अनूप जी का कथन था कि पुस्तक उनकी निजी संपत्ति है, सो मैने सोचा कि कुछ दिनो के लि़ए माँग ली जाये और वे राजी भी थे...लेकिन १४ अक्टू० को जब वो पुस्तक के साथ लखनऊ पहुँचे तब मैं एक तो लखनऊ में थी नही दूसरे ये किताब मैं पुस्तक मेला से ले आई थी।

५७० पृष्ठों की ये किताब मैने शुरू की तो इस के जाल में फँसती चली गई। समस्या ये है कि कुछ भी पढ़ो तो वो मेरे मन मष्तिष्क पर ऐसे छाता है कि जैसे मेरी दिनचर्या। और इस बार भी वही हुआ। वर्षा वशिष्ठ पल भर को साथ नही छोड़ती थी और दूसरी समस्या ये कि मै उस चरित्र को समझने में बिलकुल नाकामयाब हो रही थी। लेकिन आकर्षण इतना अधिक था उस शख्सियत का कि बिना समझे रहा भी नही जा रहा था। यदि वो कोई पुरुष होती तो मैं सोच लेती कि पुरुष स्वभाव ऐसा ही होता होगा, यदि वो कसी उच्च वर्गीय घराने से संबंध रखती तो मैं सोचती कि बड़े घरों की संस्कृति है, लेकिन.... वो ऐसे ही महौल से ताल्लुक रखती थी, जिससे हम जैसे लोग रखते हैं। इसीलिये तो परेशानी हो रही थी। ऐसा लगता कि जैसे कितना भाग कर तो मैं उसके साथ आती हूँ सहेली बनाने को और मेरे साथ पहुँचते ही वो मुझसे दो कदम और आगे बढ़ जाती है..और मैं फिर हैरान परेशान।

घर की सिलबिल ने अपना नाम यशोदा शर्मा से वर्षा वशिष्ठ कर लिया क्यों कि "हर तीसरे चौथे के नाम में शर्मा लगा होता है। मेरे क्लास में ही सात शर्मा हैं।....और यशोदा ? घिसा पिटा दकियानूसी नाम। उन्होने किया क्या था सिवा किशन को पालने के?" " यशोदा शर्मा नाम में कोई सुंदरता नही।" और वर्षा नाम उसने अपना इसलिये रखा कि पिता की अलमारी में रखी ॠतुसंहार पुस्तक में छहो ॠतुओं में उसे सबसे प्रिय वर्षा लगी। " देखो प्रिये, जल की फुहारों से भरे हुए मेघों के मतवाले हाथी पर चढ़ी हुई, चमकती विद्युत पताकओं को फहराती हुई और मेघ गर्जनों के नगाड़े बजाती हुई यह अनुरागी जनो की मनभायी वर्षा राजाओं का सा ठाठ बनाये हुए यहाँ आ पहुँची है।" ये है उसके दुस्साहस का पहला नमूना।

और इसके बाद हैं श्रृंखलाए...! पढ़ते समय भतीजे ने जब पूँछा इस चरित्र के बारे में तो मुँह से निकला कि "वर्जित शब्द वर्ज्य है इस नायिका के लिये" सब कुछ ऐसे करती जाती है जैसे कितने दिनो से अभ्यस्त है। कहीं कोई हिचक ही नही। अपनी प्रेरणा श्रोत दिव्या के घर पर अंडों का सेवन वो बिना किसी संकोच के कर चुकी है। लखनऊ पहुँचने पर जब टूँडे के कवाब की प्लेट उसकी तरफ बढ़ाई जाती है तो बात करती हुई वर्षा के हाथ एक पल को भी सकुचाते नही वरन् सामान्य माँसाहारी की तरह सहजता से उठा लिया जाता है और बियर के साथ ऐसे लिया जाता है जैसे सिलबिल रोज रात माँ पिता के साथ एक पैग लेने की आदि हो। बाद में वो स्वीकार करती है कि बीफ का भी सेवन कर चुकी है।

कमलेश "कमल" से प्लैटोनिक लव के बाद लखनऊ के मिट्ठू से दो ही तीन मुलाकात बाद गहन सन्निकटता, और दिल्ली के हर्ष से भी कुछ ही मुलाकातों के बाद समर्पण की पराकाष्ठा प्राप्त करना फिर हर्ष की बहन द्वारा सगाई के लिये कहने पर इन सबके बावजूद "अभी सोचने के लिये समय माँगना" और बॉम्बे में ऐसे ही सहज मित्र सिद्धार्थ के प्रणय निवेदन को बिना किसी विरोध के स्वीकार करना और फिर से हर्ष के लिये वही समर्पण की पराकाष्ठा पहुँचना..... उफ्फ्फ्फ मैं तो कन्फ्यूज़ हुई जा रही थी। सिद्धार्थ के साथ साथ मैं भी उस पर आक्षेप लगाते हुए पूँछती हूँ कि " क्या तुम उनमें से हो जो थोड़ा सा भी भावात्मक अकेलापन नही झेल सकते।"

अंत की ओर बढ़ते हुए उपन्यास में जब पिता द्वारा मदिरापान करने पर प्रश्न खड़ा करने पर वो उत्तर देती है कि " शुरुआत जिग्यासा और ऐड्वेन्चर से हुई थी" और कहना कि " मैं गलत कह गई। दरअसल एक प्रमुख कारण अनुभव की माँग थी।" तब कुछ स्पष्ट होता है। वर्षा को अपने जीवन में अगर सबसे प्रिय कुछ है तो वो है उसका मंच, उसका नाट्य, मैं उसे कैरियर भी नही कह सकती, लेकिन उसक कला ऐसी चीज है जिसकी पराकाष्ठा पर पहुँचना वर्षा वशिष्ठ का जुनून है। वो किसी से भी विद्रोह कर सकती है मगर अपनी कला से नही वो उसके प्रति पूर्ण ईमानदार है। वहाँ वो कोई भी शॉर्टकट नही अपनाती, वहाँ वो कोई भी अड़ियल रवैया नही रखती। वह स्वीकार करती है कि " अगर मुझे भूख और शाहजहाँपुर में से किसी एक को चुनना पड़ेगा तो मैं भूख को चुनूँगी।

हर्ष के साथ उसका व्यवहार हो सकता है कि अनुभव कि माँग के कारण ही हो। क्योंकि अनुभव की कमी के कारण ही उसका पहला नाटक "बेवफा दिलरुबा" फ्लॉप रहा था।

मगर उपन्यास का अंत होते होते सभी भ्रम पीछे छूट जाते हैं.... और बस यही भावना रह जाती है कि वो शुरू से दुस्साहसी न होती तो इतना बड़ा निर्णय कैसे लेती ? धारा के विरुद्ध जाने की क्षमता न होती तो उस प्रवाह में वो जाने कहाँ बह गई होती..! और अंत में मै भी समर्थ हो ही जाती हूँ, उसे सखी बनाने में। जा के बैठ जाती हूँ उसके बगल में और जब उसे एक आँसू निकालने के लिये झकझोरा जा रहा होता है तो उसके आँसू मेरी आँखों से निकल रहे होते हैं।

एक ऐसा उपन्यास जो हमेशा मेरे द्वारा पढ़ी गई बेहतरीन किताबों में एक होगा।

हाँ वर्षा को समझने में शायद हर्ष का चरित्र भुला दिया जाता है, परंतु अपने अनेकों दुर्भाग्य के बावजूद हर्ष का चरित्र भी कम आकर्षक नही है। हर्ष मे मुझे जो चीज सबसे पहले भाती है वो है वर्षा के लिये उसकी एकनिष्ठा। शिवानी उस पर दिल-ओ-जाँ से फिदा है। तनुश्री पत्रकारों के सामने स्वीकार करती है। रंजना उसके लिये सायकिक हो गई है, लेकिन हर्ष पल भर को भी सिलबिल के अलावा किसी को मन में नही लाता। मंचीय क्षमता उसकी बेजोड़ है। वो अपने स्तर को कम करने समझौता नही कर सकता। वो गलत लोगो को बर्दाश्त नही कर सकता। मगर इस सबके साथ उसमे जो कमी है और ऐसी है जो उसकी सारी अच्छाइयों पर हावी है, वो है उसका अहं....लेकिन मै नही मानती कि ये अहं ही उसे पतन की ओर ले जाता है, पतन की ओर उसे लेजाता है उसका दुर्भाग्य.... जैसा कि वर्षा भी मानती है कि उसकी जिंदगी के तीसरे पृष्ठ चेखव को भी कभी सम्मानित नही किया गया था और वो इस मामले में उनसे अधिक भाग्यशाली थी।

लेखक के ग्यान से मैं अभिभूत थी। मनीष जी के विपरीत मुझे उपन्यास बिलकुल बोझिल नही लगी। कारण ये भी हो सकता है कि अभी हाल ही में छोटे भांजे ने रंगमंच ज्वॉइन किया, तो उसके स्तर पर बहुत कुछ समझने का मौका मिला। हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर सामान्य रूप से अधिकार रखने वाले सुरेंन्द्र वर्मा के विषय में नेट पर कुछ भी नही मिला परंतु मनीष जी ने बताया कि यूनुस जी के अनुसार वे मुंबई रंगमंच से जुड़े हुए हैं।

मैने अपनी पोस्ट मे जो कुछ भी लिखा वो मेरी तरफ से भावात्मक विश्लेषण था, इस संबंध में तकनीकी और व्याख्यात्मक विवरण पढ़ने के लिये आप मनीष जी की ये पोस्ट पढ़ सकते हैं।



कुछ वाक्य जो मुझे भले लगे-

1. कुपात्र के साथ बँधने से अकेले रहना अच्छा है। (वर्षा)

2. मुझे ये समझना चाहिये था कि अपना बोझ ढोने के लिये हर कोई अभिशप्त है। (वर्षा)


३. "ड्रामा स्कूल के प्रति तुम्हारा जो मोह है, हम सचमुच उसे समझने में असमर्थ है।" वह हल्की मुस्कान से बोले।
" ऐसा हो जाता है।" सिलबिल ने काफी ऊँचाई से हामी भरी " क्योंकि हम लोग एक दूसरे की जिंदगी जीने में समर्थ नही हैं।"

३ अब मुझे महसूस होता है कि जिस चीज का हमारे पेशे में महत्व है, वह यश नही है, बल्कि सहने की क्षमता है, अपना दायित्व निभाओ और विश्वास रखो। मुझमें विश्वास है और इसीलिये अब वैसा दर्द नही उठता और जब मैं अपने अंत के बारे में सोचती हूँ तो मुझे अपने जीवन से डर नही लगता।" (वर्षा द्वारा अभिनीत नाटक का एक अंश)

४. खुशी का कोई स्विच नही होता। वह अपने आप पनपती है। उसके लिये अवसर तो देना होगा न। (वर्षा)

५. "जब चुप होती हो तो, ज्यादा अच्छी लगती हो"
वर्षा भीतर ही उदासी से मुस्कुरायी। "तो अच्छा लगने का यह मूल्य चुकाना होगा।"

६. " न मेरे हाथों में लगाम है, न मेरे पाँवों में रकाब, और उम्र का घोड़ा तेज तेज दौर रहा है। (वर्षा)


७. रोजी कमाना जिनकी मजबूरी है वो नापसंदगी की दलील कैसे दे सकते हैं।


८. maturity lies in having limited objectives in life


९. हर्ष के चेहरे का वह भाव उसे बहुत दिनो तक याद रहा। उसमें वैसा ही आतंक था, जैसे कोई अबोध बालक मेले में अकेला छूट गया हो। (हर्ष के पिता की मृत्यु पर)


१० छप्पर की लकड़ी की पहचान भादों में होती है।

११.अजीब है... कभी कभी रिश्ते की स्थिति का कारण नही स्पष्ट होता।


१२. मृत्यु चाहे कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नही हो सकती जो चाहे जितनी ही निकृष्ट हो....ऐसा चाणक्य कहा करते हैं।

१३. जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे, तो इसे व्यवहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है।
शिवानी उदास चंचलता से मुस्कुराई " और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे, तो क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नही होगी?

१४. हर स्त्री पुरुष के बीच में किसी न किसी तरह का तनाव आता है। इस रिश्ते की प्रकृति ही ऐसी है। अगर तुम्हारी तरह हर कोई सौ फीसदी अंडरस्टैंडिंग की दलील ले कर अड़ जाये तो यहाँ तो कोई घर ही न बसे। अंडरस्टैंडिंग एक प्रक्रिया है जो एक साथ धूप छाँव झेलने से ही अपना स्वरूप लेती है। इसमें दोनो पक्षों को एड्जस्ट करना होता है। (सुजाता)

१५. भावना की लगाम ना मोड़ने से मुड़ती है, न रोकने से रुकती है।


१६. दुख व्यक्ति में गंभीरता, गहराई और गरिमा लाता है। दुख व्यक्ति का आध्यात्मिक परिष्कार कर देता है।


१७. आत्महंता को यह पता नही होता कि अपने निकटतम लोगो को वह कैसे सर्वग्रासी दुख के शिकंजे में कसा छौड़ रहा है।अपनी टुच्ची खुदगर्जी में वह सिर्फ अपने दर्द में डूबा रह जाता है। वे पीछे छूटे हुए लोग वंदनीय हैं, जो पीड़ा के दंश से चीखते हुए फिर अपने कर्मपथ पर वापस लौटते हैं।

Tuesday, November 11, 2008

मुझे तुम याद आये

मैने वादा किया था कि माँ के पसंदीदा गीत के साथ दोबारा मिलूँगी असल में एक गीत के कारण वो पोस्ट रह जा रही थी जिसे हमने आईपॉड पर रिकॉर्ड किया था और उसमें वायरस के कारण कंप्यूटर पर सेव नही कर पा रही थी।



मेरे भईया के मित्र और माँ के मानस पुत्र नीरज भईया ये गीत बहुत अच्छा गाते हैं। नीरज भईया कैरियर क्षेत्र में मेरे प्रेरणा श्रोत भी हैं। जब मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास की, उसी समय नीरज भईया की जॉब हिन्दुस्तान पेट्रोलियम में हिंदी अनुवादक के पद पर लगी थी और भईया ने मुझे भी यही तैयारी करने की सलाह दी और मैने स्नातक परीक्षा में इसी अनुसार विषय लिये। भईया ने मुझे एक टाइप राइटर भी ला कर दिया और अनुवाद की तैयारी का सबसे बढ़िया तरीका ये बताया कि रोजगार समाचार के दोनो वर्ज़न मँगाया करो। जब एक साल तक मैं हिंदी ही वर्ज़न मँगाती रही तो उन्होने खुद हॉकर को अंग्रेजी वर्ज़न मेरे घर डाल कर पेमेंट उनसे लेने को कह दिया और ये उनका मेरे प्रति सत्य स्नेह ही था शायद कि वो पेपर जब पहली बार मेरे घर आया तो दोबारा मुझे मँगाने की जरूरत नही पड़ी क्योंकि इसी पेपर मे मेरे चुने जाने का परिणाम आया था। :)



तो नीरज भईया ने हिदुस्तान पेट्रोलियम के वार्षिक समरोह में ये गीत गाया तो अधिकतर लोगों की आँखें नम हो गईं और ये किस्सा सुनाते हुए जब भईया ने ये गीत अम्मा को सुनाया तो फिर अम्मा ने फोन पर मुझे बताया कि कंचन मेरे कान में ये गीत सुबह शाम गूँजता रहता है.........मै समझ सकती थी।



तो उनके जन्मदिन पर इससे अधिक भला उपहार हो ही क्या सकता था नीरज भईया द्वारा...! लीजिये सुनिये आनंदबक्षी के बोलो से सजा लक्ष्मीकात, प्यारेलाल का संगीतबद्ध किया हुआ ये गीत पहले नीरज भईया (पार्टी के शोर के साथ)

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जब जब बहार आये और फूल मुस्कुराए,


मुझे तुम याद आये,


मुझे तुम याद आये,



अपना कोई तराना मैने नही बनाया,


तुमने मेरे लबों पर हर एक सुर सजाया,


जब जब मेरे तराने दुनिया ने गुनगुनाए,


मुझे तुम याद आये,



एक प्यार और वफा की तसवीर मानता हूँ,


तसवीर क्या तुम्हे मैं तकदीर मानता हूँ


देखी नज़र ने खुशियाँ, या देखे गम के साये


मुझे तुम याद आये,



मुमकिन है जिंदगानी कर जाये बेवफाई,


लेकिन ये प्यार वो है जिसमें नही जुदाई,


इस प्यार के फसाने जब जब ज़ुबाँ पे आये,


मुझे तुम याद आये,

और फिर मो० रफी की आवाज में



jab jab bahar aaye
और साथ ही ये गीत भी सुनिये जो भईया के दूसरे परम प्रिय मित्र अनुराग भईया द्वारा गाया गया है

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चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,



मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।



बड़ा दिलकश बड़ा रंगीन है ये शहर कहते हैं,


यहाँ पर हैं हजारों घर, घरों में लोग रहते हैं,


मुझे इस शहर ने गलियो का बंजारा बना डाला





चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,
मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।




मै इस दुनिया को अक्सर देख कर हैरान होता हूँ,


न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ,


खुदा या कैसे तूने ये जहाँ सारा बना डाला


चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,


मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।



नोटः योगेंन्द्र जी एवम् राजर्षि जी को विशेष धन्यवाद...जिन्होने याद तो रखा कि दीपावली बहुत देर मनती रही..! और राजर्षि जी आपकी दूसरी शिकायत के विषय में यही कहना है, कि क्या चाहते हैं भईया कि कमेंट भी देना बंद हो जाये :) :) असल में रोमन लिपि में तो काम के साथ साथ कमेंट होते रहते हैं..लेकिन हिंदी के लिये थोड़ा समय लेना पड़ता है... फिर भी कोशिश की है आज हमने..!

Friday, October 24, 2008

पे


"आपका तो काफी फायदा हुआ अबकी पे कमीशन मिसरा जी" बॉस ने मुस्कुराते हुए मिश्रा जी से पूँछा।"


"क्या साहब ! जमाना जो आ गया है, उसमें ७-८ हजार तनखाह बढ़ना कोई मायने नही रखता। देख रहे हैं आप रोज के खर्चे कितने बढ़ रहे हैं। सबकी छोड़िये सर रोज की सब्जी के दाम इतने बढ़ गए हैं कि कमर टूटी जा रही है। १०० का एक पत्ता तो सीधे खतम एक दिन की सब्जी में और आँटा, दाल, चावल, गैस, पेट्रोल किस के बिना काम चलेगा सर... उधर बच्चों की फीस, ड्रेस.. पढ़ाई कराने के १०० चोंचले, जब कि बहुत मँहगे स्कूल में नही पढ़ा रहा हूँ मैं लेकिन एक साधारण जिंदगी के लिये भी लाले पड़े हैं साब"


बॉस "ये तो है खैर" "सही कह रहे हो" जैसे वाक्य बोलते रहे उन्हे लगा कि गलत बयाना ले लिया उन्होने मिश्रा जी से, खैर अब तो सुननी ही थी उनकी.!


मिश्रा जी बोले जा रहे थे "और साहब एक बात जो साफ है सो कहूँ कि सरकार है बड़ी चालू, देखो चुनाव सामने देख कर पैसे तो दे दिये, लेकिन हम लोगो को तो बस झुनझुना ही पकड़ाया है। सारी चाँदी अफसरों की है... यहाँ हमारी तो कहीं २५ हजार हुई है, उधर ९० ९० हजार सेलरी हो गई है साब बड़े लोगो की" सीधा निशाना बॉस पर।


बॉस बेचारे सकपकाये उन्होने सोचा कि अभी कहीं मिश्रा जी और अधिक बखिया ना उधेड़ने लगे सो तुरंत बोले " सही कह रहे हैं मिश्रा जी मँहगाई तो बहुत बढ़ गई है, वो जरा सेवकराम की फाईल लाइयेगा ..! और बॉस ने टॉपिक चेंज कर के बड़ी संतुष्टि पाई।


रात का खाना खाने के बाद जब मिश्रा जी जरा पत्नी के साथ टहलने निकले तो पत्नी ने मूड सही देखते हुए कहा, "सुनो जी वो काम वाली कह रही थी कि ५ साल से एक ही तनखाह पर काम कर रही है,इस बार १०० रु० बढ़ा दे..!"


" दिमाग तो नही खराब हो गया उसका, एकदम से १०० रु० अरे ५० बढ़ा दो..!" मिश्रा जी का बढ़िया मूड एकदम से बदल गया।


"अरे जी वो कह रही थी कि मँहगाई बहुत बढ़ गई है, सब्जी के दाम तो आसमान छू रहे हैं, ३ लोगो में १ किलो से कम सब्जी से काम भी तो नही चलता, देख रहे हैं कोई सब्जी तो नही रह गई सस्ती। फिर आदमी है नही बेचारी का २ २ बच्चो को पढ़ा रही है किसी तरह" पत्नी ने कामवाली की अप्लीकेशन अपनी रिकमंडेशन के साथ लगाई"


" तो कौन कहता है इन लोगो को चादर से अधिक पैर फैलाने को...! मैने कितनी बार कहा उससे लड़के को किसी दुकान पे बैठाने लगे और लड़की को अपने साथ काम सिखाए तो तीन लोग मिल के कितना खर्चा चला सकते हैं, लेकिन शौक जो कलक्टर बनाने का लगा है उसे अपने बच्चो को।.... और तुम ज्यादा वकालत तो किया ना करो उसकी तरफ से..घर में बैठे बैठै बड़ी दया करूना फैलती है,दिन भर फाईलों मे सर खपा के ३० दिन बाद जब ४ पैसे लाने पड़े तो समझ में आये कीमत तुम्हे भी" मिश्रा जी पूरी तरह झल्ला चुके थे अब उनका मन नही लग रहा था टहलने में वे झटके से पलट पड़ै घर की ओर.........!

Thursday, October 16, 2008

माँ...तुम जियो हजारों साल..!


१४ अक्टूबर को हमने उनका ७५वाँ जनमदिन मनाया, मैने बहुत दिन से सोच रखा था कि उस दिन की पोस्ट मेरी माँ के नाम रहेगी, लेकिन क्या करें ? सर्वर उसी दिन डाउन होना था।

मेरी माँ .... जो अक्सर कहती हैं कि " मेरे पिता ने मुझे आखिरी शिक्षा ये दी है कि तुम ये कभी मत सोचना कि किसी ने तुम्हारे साथ क्या किया ? अरे ये तो उसकी मर्जी है, तुम हमेशा अपना कर्तव्य करना" और मेरे लिये बिना कहे ही ये उनकी पहली सीख हो जाती है।

मेरी माँ..जिन्होने कभी मुझे सिखाया तो नही लेकिन मैने उन्ही से सीखा कि रूढ़ियों और संस्कारों में क्या अंतर होता है...! मेरी माँ जो मुझे बहुत कमजोर समझती हैं लेकिन मजबूत होना मैने उन्ही से सीखा है,... मेरी माँ...जिन्होने कहा कि परीक्षा में नकल कर के पास होने से अच्छा है कि फेल हो जाना और हाँ दोस्तों की कापियों से देखना भी नकल ही कहलाता है...! और मैं कक्षा ८ की बोर्ड परीक्षा में जब ब्लैकबोर्ड पर प्रश्न हल कराये जा रहे थे तो भी नकल करने की हिम्मत नही कर पाई....! मेरी माँ जो अक्सर बहुत हिम्मती होती हैं, लेकिन बात बात पर रो देती हैं...! मेरी माँ जो छोटी छोटी गलतियों पर भले बहुत नाराज हो जायें लेकिन मुझसे हुए बड़े नुकसानों को हमेशा नॉर्मली लिया है। मेरी माँ..जिसने मुझे स्वतंत्रता और उच्छृंखलता में अतर समझाया।

वो मुझसे कहती हैं कि इतनी भावुकता ठीक नही, लेकिन मैं जानती हूँ कि ये भावुकता मैने उन्ही से पाई है। मैने देखा है कि जब घर के खर्च बड़ी मुश्किल से चलते थे, तब भी अगर पड़ोस की चाची उनसे उधार माँगने आ जाती तो अम्मा झट किसी को गोमती बहन जी के घर भेज के खुद उधार माँग लेतीं लेकिन उन्हे वापस नही करतीं।

बस्ती के माँझा क्षेत्र के जिस जिले से वो संबंध रखती हैं वहाँ आज भी नारी शिक्षा का स्तर बहुत अधिक नही बढ़ा है, तो आजादी के पहले की तो बात ही छोड़िये.. १५ साल की उम्र से ही उन्होने पढ़ाना शुरू कर दिया। फिर हरदोई आ कर सीटीसी की ट्रेनिंग की, जो उस समय टीचर बनने के लिये किये जाने वाले प्रशिक्षण का नाम था। मैं अक्सर उनमें कुशल नेत्री और वकील के गुण देखती हूँ।

ये सारे रूप मैने अक्सर ही देखे हैं उनके लेकिन जो रूप मैने आंध्रा प्रवास के समय देखा वो बहुत अलग था। ५ मई २००१ को मेरा परिणाम आया, अम्मा ने आँसुओं के साथ मुझे ढेरों आशीर्वाद दिये। खूब प्रसाद बाँटे। मैं मन ही मन तैयारी करती रही दक्षिण के किसी प्रदेश की ज्वाइनिंग आने की और उन्होने मेरे विचारों मे कोई दखल नही दिया। लेकिन ९ नवंबर २००१ को जब रिज़र्वेशन के लिये भईया जाने लगे तो उनका रूप ही बदल गया... वो रोती जाती थी, रोती जाती थीं, भईया से पूँछती " तुम सच में उसको इतनी दूर ज्वाईन करा दोगे?" मुझसे कहती "तुम और रिज़ल्ट का इंतजार कर लो" और मैं कहती " अगर नही हुआ फिर से तब क्या करेंगे अम्मा? आपको ज्वाईन नही कराना था तो मुझे फार्म क्यों भरने देती थीं, किताबें क्यों मँगाती थी..?"
" इसके अलावा तुम्हारा मन लगाने के लिये क्या करते, हम सोचते थे कि तुम इसी सब में व्यस्त रखो अपने आप को? और फिर हमने सोचा कि जब कोई तुम्हे ज्वाईन नही करायेगा, तो बाद में समझा देगें? लेकिन अब हमारे पास इतना कलेजा नही है कि तुम्हे ईतनी दूर भेज दें।"

वो कहतीं "मेरी स्थिति दशरथ वाली हो गई है, जैसे दशरथ ने कहा था कि राम को वन दिखा कर वापस ले आना वैसे ही हम चाहते हैं कि कंचन को ज्वाइन करा के फिर वापस ले आओ, उसे संतोष हो जाएगा कि उसने नौकरी कर ली"

वो हर एक से इस उम्मीद से कहतीं कि शायद कोई उनका साथ दे, लेकिन सब उन्हे प्रैक्टिकल होने को कहते। उन्होने रो रो के मुझे विदा कर दिया..! मैं तीन महीने के लिये गई थी लेकिन उनकी हालत सुन के १ महीने में ही मुझे १५ दिन के लिये छुट्टी ले कर वापस आना पड़ा। और दिन रात रोते रोते वो अवसाद (डिप्रेशन)में चली गईं। हालत ये थी कि अब ना वो अधिक रोती थीं, न हँसती थीं और न ही नाराज होती थीं। जो कह दो बस यंत्रवत करती जाती थी। २ महीने में ही मैं मेडिकल लगा कर चली आई। और ४ महीने तक रही। जब दिन रात साथ रह के उन्हे ये विश्वास दिलाया कि मैं कर सकती हूँ, इसके अलावा कोई चारा भी नही है और न किया गया तो जिंदगी बहुत खराब हो जायेगी..तो फिर धीरे धीरे वो फिर से सामान्य हुईं।

मुझे हमेशा ये लगता था कि मै सब से छोटी हूँ तो माँ मुझे सब से कम चाहती हैं, लेकिन इसके बाद पता चला कोई माँ किसी भी बच्चे को कम नही चाहती, वो बस ये चाहती है कि मेरा बच्चा बिलकुल परेशान न हो मैं उसके सारे दुख ले लूँ..! वो खुश रहे, हमेशा खूश..!

ये एक कविता जो आंध्रा ज्वॉइनिंग के ५वें दिन मैने रो रो के लिखी थी और यहाँ अम्मा कह रही थी "आज वो बहुत बेचैन है,उसका हाल ले लो, हमें लग रहा है कि वो बहुत रो रही है।" तब तक कोई नं० नही था जहाँ बात की जा सके, लेकिन दिल ने दिल से बात की बिन चिट्ठी बिन तार।

सुबह सवेरे आँख खुली
और तेरी सूरत नज़र ना आई
माँ तब याद तुम्हारी आई।

साँझ ढले जब घर लौटी
और तू चौखट पर नज़र ना आई,
माँ तब याद तुम्हारी आई।


दुनिया भर की धूप लगी
और तेरी आँचल छाँव ना पाई
माँ तब याद तुम्हारी आई

आज थकन थी बहुत पैर में,
हमने सबको खूब बताया,
मगर आजबत्ती बुझने पर
कोई चुपके से ना आया,
तेरे हाथो की गर्माहट,
आज थकावट ने ना पाई
माँ तब याद तुम्हारी आई।

उनके विषय में एक बार में पूरा नही लिख सकती.. अगली पोस्ट में सुनाऊँगी उनका पसंदीदा गीत
क्रमशः

Friday, October 10, 2008

गावक्ष की हवाओं का राकेश खण्डेलवाल को सलाम

गुरुवर का आदेश है कि इस सप्ताह चूँकि राकेश खण्डेलवाल जी की पुस्तक अंधेरी रात का सूरज का विमोचन हो रहा है अतः सभी शिष्यों को एक पोस्ट उनसे संबंधित लगानी है.... ! गुरुवर का आदेश सिर माथे पर।

तो राकेश जी जिन्हे मैंने ब्लॉग का नीरज नाम दिया है, उनके प्रभाव मे मै तब से आई हूँ जब से मैं इस ब्लॉग जगत में आई हूँ। जून २००७ से ब्लॉगिंग शुरू करने के बाद जब मै कुछ अच्छी कविताओं के लिये ब्लॉग सर्फिंग कर रही थी, तभी मेरि दृष्टि राकेश जी की एक कविता पर पड़ी जो इस प्रकार थी

आह न बोले, वाह न बोले
मन में है कुछ चाह न बोले
जिस पथ पर चलते मेरे पग,
कैसी है वो राह न बोले,
फिर भी ओ आराध्य ह्रदय के पाषाणी !
इतना बतला दो
कितने गीत और लिखने हैं ?
कितने गीत और लिखने हैं,
लिखे सुबह से शाम हो गई
थकी लेखनी लिखते लिखते,
स्याही सभी तमाम हो गई

तुरंत मैने एक हार्ड कॉपी सुरक्षित की और राकेश जी की सारी कविताएं पढ़ डाली। एक समस्या जो तब से अब तक आती है कि आखिर उनकी कविताओं की प्रशंसा के लिये नए शब्द कहाँ से लाए जाएं..? वही क्या बात है....! वही कुछ कहने को नही...!वही निश्शब्द हूँ मैं... !वही मन को भीतर तक छू गई....! खुद को बनावटी लगने लगते हैं अपने शब्द..! कभी कभी पढ़ के बस वापस लौट आती हूँ, बिना कोई कमेंट किये।

तो यूँ गीत कलश पान हेतु मेरा तो जाना अक्सर ही होता था, पर कष्ट इस बात का रहता था कि मैं क्यों नही थोड़ा सा अच्छा लिखती कि कभी वो भी मेरे गवाक्ष तक आएं, और मुझे पता था कि यदि राकेश जी कभी कुछ कहेंगे तो अवश्य वो लेन देन या मन रखने हेतु तो नही ही होगा और कवि की प्रशंसा हो या निंदा मगर उचित मूल्यांकन उसकी सबसे बड़ी निधि होती है शायद। ब्लॉग जगत ने मुझे निराश तो नही किया कभी, जैसा मैं लिखती थी उस हिसाब से ठीक ठाक प्रतिक्रियाएं मिलती रहीं, लेकिन कष्ट इस बात का होता था कि जिनके हम प्रशंसक हैं, वो हम पर निगाह क्यों नही डालते। अपने ब्लॉग गुरु मनीष जी से यह कष्ट बाँटा भी,कि कभी राकेश जी मेरी कविता की प्रशंसा नही करते? तो उन्होने सलाह दी कि "आप उनकी निगाह में नहीं आई होंगी, उनको खुद अपनी कविताएं मेल कर दीजिये।" लेकिन मुझे लगा कि ये तो न्यौता दे कर बड़ाई कराना होगा। कोई भी विनम्र व्यक्ति इतने पर तो प्रोत्साहन देगा ही। खैर ५ फर०, २००८ का वह दिन आया जब राकेश जी की पहल टिप्पणी मेरी किसी पोस्ट पर आई (यद्यपि वो मेरी किसी कविता पर नही नीरज जी की कविता पर थी)। जैसा कि मैने उन्हे मेल मे लिखा कि मेरे लिये "उनका आना शबरी की कुटिया में राम का आना था।" ये बात शब्दशः सत्य थी। खैर उनके जैसे व्यक्तित्व का तुरत विनम्र उत्तर आना तो स्वाभाविक ही था और इस प्रकार उनका आना जाना गवाक्ष की तरफ हुआ लेकिन मेरी पोस्ट पर उनकी हर टिप्पणी से भी अधिक प्रभावकारी उनकी वे दो टिप्पणी हैं मेरे लिये जो मेरी कविता के लिये सीधे मेरी मेल पर आई। मैने महसूस किया कि वो हृदय से मुझ पर स्नेहाशीष रखते हैं। वे टप्पणियाँ मेरी पोस्ट अब तुम मुझको .... और पर सुलगती ये ...... पर आईं जो इस तरह हैं।

कंचनजी
नमस्कार,

आपका यह गीत पढ़ा. सुन्दर भाव और शिल्प भी अच्छा है लेकिन कहीं कहीं प्रवाह अटकता है. कारण या तो टंकण दोष है या शब्दों के प्रवाह पर आपने ध्यान नहीं दिया.

आशा है आप मेरी स्पष्ट वादिता को अन्यथा नहीं लेंगी. गीत की गेयता के लिये प्रवाह एक आवश्यकता है. एक और त्रुटि की ओर ध्यान दिला रहा हूँ. कॄपया गीत में सम्बोधन एक ही रखें. अगर तुम का प्रयोग है तो तुम ही और तू का तो तू ही.

कुछ शब्द संगीत के माध्यम से तो लघु और दीर्घ स्वर होते हुए भी चल जाते हैं लेकिन पढ़ने में अटकते हैं. अगर आप को मेरे शब्द उचित न लगें तो क्षमाप्रार्थी हूँ. मुझे व्यर्थ हां में हां मिला कर टिप्पणी अपने पसन्द के ब्लागों पर लिखना नहीं आता. अगर औपचारिकतावश करनी होती तो शायद मैं भी तारीफ़ ही करता, दोष नहीं निकालता.
सादर,
राकेश खंडेलवाल

खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !

तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !

और


कंचन जी,
नमस्कार,

जैसा मैने अपनी टिप्पणी में लिखा था आपके सुन्दर गीत में एक शाब्दिक त्रुटि की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ
निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,फिर मुझे अनुरूप ढालो।

अकसर ऐसा होता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के अंचल में स्तर को इस्तर की तर्ह बोला जाता है. यही नहीं स्नेह, स्कूल आदि शब्द आंचलिकता के कारण उच्चारण दोष से ग्रसित होते हैं गाते हुए तो आपका गीत ठीक लगेगा क्योंकि सुर को दीर्घ कर बोल दिया जायेगा लेकिन सही नहीं होगा.
उदाहरण के लिये
वर दे वीणा वादिनी वर दे
काट अंध उर के बंधन स्तर
बहा जननि ज्योर्तिमय निर्झर
कलुष भेद तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे

यहाँ स्तर को लघु सम्मिश्रित ही गाया और बोला जायेगा. यदि इस्तर बोला जाये तो मात्रा दोष दिखेगा और वह गलत भी होगा.

आशा है आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगी.

आपके लेखन में निरन्तर प्रगति हो, यही कामना है,

शुभकामनाओं सहित
राकेश

चलते चलते राकेश खण्डेलवाल जी पुस्तक अँधेरी रात का सूरज के विमोचन के अवसर पर शुभकामनओं के साथ गुनगुनाइये उनका लिखा एक गीत (राकेश जी के ब्लॉग विन्यास की विशेषता अथवा मेरी अनभिज्ञता किन्ही कारणों से exact लिंक नही दे पा रही हूँ जून, २००७ के आर्काइव का लिंक क्लिक करें यहाँ दूसरे नं० पर २२ जून, २००७ को पोस्ट है यह कविता) जो मुझे बहुत प्रिय है।

एक तुम्हारा प्रश्न अधूरा, दूजे उत्तर जटिल बहुत था
तीजे रुंधी कंठ की वाणी, इसीलिये मैं मौन रह गया

बचपन की पहली सीढ़ी से यौवन की अंतिम पादानें
मंदिर की आरति से लेकर मस्जिद से उठती आजानें
गिरजे की घंटी के सुर में घुलती हुई शंख की गूँजें
थीं हमको आवाज़ लगातीं हम आकर उनको पहचानें

लेकिन पिया घुटी में जो था, उसका कुछ प्रभाव ऐसा था
परछाईं में रहे उलझते, और सत्य हो गौण रह गया

लालायित हम रहे हमेशा, आशीषों के चन्द्रहार के
और अपेक्षित रहे बाग के दिन सारे ही हों बहार के
स्वर्ण-पत्र पर भाग्य लिखेगा सदा, हमारा भाग्य नियंता
और कामनायें ढूंढ़ेंगी, रह रह कर हमको पुकार के

जब ललाट पर लगीं उंगलियां, हमने सोचा राजतिलक है
देखा दर्पण में तो पाया, केवल लगा डिठौन रह गया

सदा शीर्ष के इर्द गिर्द ही रहीं भटकतीं अभिलाषायें
और खोजतीं केवल वे स्वर, जो श्रवनामॄत मंत्र सुनायें
पक्षधार हो द्रोण, कर सके, एकलव्य हर एक नियंत्रित
और दिशायें विजयश्री की धवल पताकायें फ़हरायें
जीवन के इस बीजगणित के लेकिन समीकरण सब उलझे

जो चाहा था पूरा हो ले, वो ही आधा-पौन रह गया

जहां लिया विश्राम काल की गति ने एक निमिष को रुककर
थमे हुए हैं जीवन के पल, अब तक उसी एक बिन्दु पर
राजसभा में ज्यों लंका की, पांव अड़ाया हो अंगद ने
या इक राजकुंवर अटका हो, चन्दा को पाने के हठ पर

बारह बरस बदल देते हैं, मिट्टी की भी जर्जर काया
ढूंढ़ रहा हूँ कोई बताये, ये सब बातें कौन कह गया ?

Monday, October 6, 2008

नेता हमारे

कुछ मित्रों ने शिकायत की कि मैं लोगो को दुखी अधिक करती हूँ, ईश्वर की दया है कि मुझे मित्र सच्चे मिले हैं।
खैर सोच मैं भी यही रही थी और अनूप जी से चर्चा भी की थी कि मेरे गवाक्ष से भीगी बयारें अधिक निकलती हैं, जाने क्यों ऐसा हो ही जाता जबकि व्यक्तिगत रूप से सिर्फ मित्रों को रुलाना ही मेरा उद्देश्य बिलकुल नही है, लेकिन फिर भी गलत तो है ही, यूँ ही मैं महीने मे कहीं एक बार कुछ लिखती हूँ और वो भी ऐसा ....! खैर मैं बातें भले जॉली मूड में कर लूँ, लाख चाहते हुए भी हास्य रचनाए नही लिख पाती, तो अपनी नही दूसरे की वाणी से माहौल हल्का करने की सोची
मेरे परिवार में कविता के कीड़े लगभग सभी के अंदर पाये जाते हैं, ये अलग बात है कि अधिकर सुषुप्ता अवस्था में रहते हैं और एक विशेष काल में शायद ये कुछ दिनो के लिये ऐक्टिवेट होते हैं। ऐसे ही एक समय में मेरे भांजे विपुल (बड़ी दीदी का बेटा) ने जो कि अब ज़ी बिज़नेस मे है ने भी एक कविता लिखी थी।



इस वर्ष अपने जन्म की रजत जयंती मनाने वाला मेरा ये भांजा मुझे अपने सभी बच्चों में सबसे गंभीर और समझदार लगता है। (विपुल पढ़े तो शातिर विशेषण भी जोड़ ले)। तो ये संक्रमण काल इनके जीवन के १६-१७ वर्ष की अवस्था में आया था। कई कविताएं लिखी बालक ने उस समय। मेरी दीदी कें बच्चों मे प्रमुख विशेषता ये है कि ये लोग अपनी पहली कविता तब लिखते हैं जब घर छोड़ के दूसरे शहर में जाते हैं :) तो विपुल ने भी पहली कविता लिखी
(विपुल और मै)
पूरे कर लें सबके सपने, हम से दूर हुए सब अपने

खैर वो सारी कविताएं तो वो अपने साथ ही ले गया लेकिन आज एक फाईल में उसकी यह व्यंग्य कविता मिल गई, तो मन हुआ कि आप सब के साथ बाँट ली जाये। तो लीजिये पढ़िये





हमें गर्व है कि आप नेता हमारे हैं,
आप जैसे लोग आदर्श हमारे हैं।

कहीं हवाला का बवाला कहीं तोपों का घोटाला,
किसी ने तो जानवरों का चारा ही खा डाला।
हैं अरबों मगर तन पे धोती कुरता है डाला,
ये भरते हैं झोली अपनी, निकाल के देश का दीवाला
प्रजातंत्र को इन्होने, राजतंत्र बना डाला,
खुद हटे तो गद्दी पत्नी को बिठा डाला।
शिक्षा मंत्री को शिक्षा का कोई ज्ञान नही है,
रक्षा मंत्री के शरीर में जैसे जान नही है।
स्वास्थ्य मंत्री खुद अपने स्वास्थ्य से परेशान हैं,
बाकी मंत्रियों का करने लायक नही गुणगान है।
आप ही ने द हमें विश्व में एक नई पहचान है,
भ्रष्टाचार मे अव्वल हमारा भारत देश महान है।
अनफॉर्च्यूनेटली ये दुर्भाग्य हमारा है,
कि आप पर ही देश का दारोमदार सारा है।

कहते हैं विद्वान ये जनता का दोष सारा है,
ना जाने क्यों इन्हें भ्रष्ट नेता ही प्यारा है।
निश्चय ही हमारे पास विकल्प कई सारे हैं,
पर क्या करें यहाँ रंगे सियार सारे हैं।
इसीलिये देते हैं वोट उन्हे जो भ्रष्ट नजदीक हमारे हैं।

यदि आप बनना नेता चाहते हैं,
तो हम आपको इसके कायदे कानून बताते हैं।
आपका अपना नही कोई उसूल होना चाहिये,
नेतागिरी का ये पहला रूल होना चाहिये।
जब ज़रूरत हो तो रोना और मुस्कुराना चाहिये,
दूसरे नियम में हर नेता को एक अभिनेता होना चाहिये।
लोक कल्याण के लिये हमेशा आगे आना चाहिये,
तीसरे नियम में लोगो के लिये जेल जाना चाहिये।
चौथे नियम में भी माहिर होना चाहिये,
रंग बदलने में गिरगिट को मात देना चाहिये।
पाँचवे नियम का भी पालन करना बहुत ज़रूरी है,
खाई हुई थाली में छेद करना नेता की मजबूरी है।
पर इतने से ही आप नेता नही बनते हैं
जब तक कि छठी शर्त को आप पूरा नही करते हैं।
नेता की आवाज़ का हाई सॉउण्ड होना चाहिये,
उसका जबर्दस्त क्रिमिनल बैक ग्राउण्ड होना चाहिये।
इसके अलावा भी अपनाने पड़ते हथकण्डे बहुत सारे हैं,
कुछ तो इसके लिये रहते जिंदगी भर कुँवारे हैं।
अब यदि आप में विद्वमान ये गुण सारे हैं,
तो आप भविष्य के सफल नेता हमारे हैं।

Friday, September 12, 2008

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,


वो गीत जो चलता रहा मेरे मन में मेरे आँसुओं के साथ, वो गीत जो एक दिन यूँ ही पूरे दिन सुनने के बाद ऐसे ही डर गई थी कि कभी किसी के साथ ये सत्य हो जाये तो क्या होगा और पूरी रात क्या दो दिन नही सो पाई थी.... वो गीत जो सिसकियों के साथ जुबान पर आया जाता था उस दिन...! शायद सुना हो तुमने भी...!




ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,

अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,

उलझ गई है कहीं साँस खोल दो इसकी,

लबों पे आई है जो बात पूरी करने दो,

अभी उमीद भी जिंदा है, ग़म भी ताज़ा है

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,
अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,


जगाओ इसको गले लग के अलविदा तो कहूँ,

ये कैसी रुखसती, ये क्या सलीका है,

अभी तो जीने का हर एक ज़ख्म ताजा है

ना ले के जाओ, मेरे दोस्त का जनाजा है,
अभी तो गर्म है मिट्ती ये जिस्म ताज़ा है,

Monday, September 8, 2008

पर सुलगती ये अगन, फिर भी धधक कर जल न पाई।

अपने रिश्तों की चिता पर एक लकड़ी और आई,
पर सुलगती ये अगन, फिर भी धधक कर जल न पाई।

निम्नता लो, उच्चता लो,
इक कोई स्तर बना लो।
और उस स्तर पे थम के,
फिर मुझे अनुरूप ढालो।
रोज का चढ़ना उतरना, अब थकावट पग में आई,
और मंजिल की तरफ, पग भर नही कोई चढ़ाई।

इक नये व्यक्तित्व के संग,
पूँछते हो "कौन हो तुम ?"
"क्यों भला निश्शब्द हो तुम,
क्यों भला यूँ मौन हूँ तुम"
ये विलक्षण रूप लख कर, अल्पता शब्दों में आई।
और तुम फिर पूँछते हो, बात क्या मुझसे छिपाई।।

क्यों न हम इक काम कर लें,
तनिक रुक आराम कर लें।
थक गई हैं भावनाएं,
कह दें कुछ विश्राम कर लें।
और नये कुछ तंतु ले कर फिर करें इनकी बिनाई।
अब नया एक जन्म ढूँढ़ें, बहुत भटकन आह! पाई।

Wednesday, September 3, 2008

प्रतिष्ठित कवि अशोक लव का ब्लॉग


११ अगस्त था हमारे आफिस में हिंदी कार्यशाला का दिन, जिस की प्रतीक्षा आफिस में तो लोगो को बेसब्री से होती है, मगर मेरे लिये बहुत थकावट भरा कार्यक्रम हो जाता है। पूरे दिन की भागदौड़ के बाद जब कार्यशाला खतम हुई तो सोचा कि एक सरसरी निगाह मेल पर डालती हुई चलूँ। चेक करती हूँ तो पाती हूँ कि १४ मई को की गई मेरी पोस्ट सुनो आतंकवादियों पर कोई कमेंट आया है। कमेंट रोमन में था जिसे मैं देवनागरी में लिख रही हूँ

"आपके माध्यम से मुझे अपनी कविता पढ़ने का अवसर मिला, मैं नही जानता था कि नासिरा जी ने अपने उपन्यास में मेरी अधिकार काविता उद्धृत की है। आपका आभारी हूँ। नासिरा जी से मेरे पारिवारिक संबंध रहे हैं। उनके दोनो बच्चे मेरे विद्यार्थी भी रहे हैं। उनका भी धन्यवाद..! जिन पाठकों ने कविता की प्रशंसा की है उनका भी धन्यवाद।
अशोक लव, ०८.०८.०८, ashok_lav1@yahoo.co.in"

आपने जिसकी कविता पसंद की हो वो ही आपकी पोस्ट पर कमेंट कर रहा हो तो आप समझ ही सकते हैं कि क्या अनुभूति होती है उस वक्त। लेकिन मुझे तुरंत घर निकलना था।

दूसरे दिन मैने अशोक जी को मेल से लंबा सा धन्यवाद दिया और खत-ओ-क़िताबत का सिलसिला चल पड़ा।

कविता,लघुकथा,पत्रकारिता एवं शिक्षा जगत से से संबंधित अनेकानेक पुस्तको के प्रकाशन से धन्य अशोक जी को मैने सुझाव दिया कि उन्हे अब ब्लॉग दुनिया को भी आजमाना चाहिये...! और वो मेरि बात मान गये....! अब जानिये अशोक लव के शिखरों से आगे जाने के इरादे खुद अशोक लव के माध्यम से...! मैं होती कौन हूँ सूरज को दिया दिखाने वाली...!

Saturday, August 16, 2008

कितने हसीन रिश्ते हैं यहाँ पर-2



परफ्यूम की खुशबू घर मे आते ही दोनो दीदियाँ कह उठतीं " अनिल भईया आ गये"


और अनिल भईया के आते ही घर में खुशी की लहर दौड़ जाती। मैं तो बहुत छोटी थी, पर सब के मुँह से सुनती आ रही हूँ। हमारा संयुक्त परिवार था जिसमें नौकरी के लिये अलग अलग शहरों में रहते हुए भी हम सब बँधे हुए थे। बड़े ताऊ जी गोरखपुर में थे, और छोटे ताऊ जी के बेटे " नरेंद्र भईया" भी उन्ही के साथ थे। अनिल भईया को घर पर लाने वाले यही नरेंद्र भईया थे। मोहक व्यक्तित्व के स्वामी अनिल भईया ने बहुत जल्दी घर में अपना स्थान बना लिया। स्मार्ट अनिल भईया मेरे बड़े भईया के दोस्त और अम्मा के लड़के का रोल शीघ्र ही निभाने लगे। ऐसे में जब राखी आई तो अनिल भईया का दीदी लोगों से प्रश्न था " मुझे राखी नही बाँधोगी, बहन" वो अक्सर उन लोगों को उनके नाम की जगह बहन से ही संबोधित करते थे। और दीदी लोगों ने राखी बाँध दी।


एक तार का क्या महत्व है रिश्तों में ये तो वही जानता है जो इसे जीता है। अनिल भईया भी अब उसी श्रेणी में आ गये थे। अब बातें व्यक्तिगत स्तर पर होने लगीं, भाई हो और भाभी को देखने की लालसा ना हो ऐसा कैसे हो सकता है? दीदी लोग भाभी से मिलने की जिद करती तो भईया अपनी बेचारगी जताते कि वो बहुत अमीर घर की है, वो हम सब के साथ adjust नही कर पाएगी। दो कुत्ते लिये, बेलवाटम शर्ट पहने एक लड़की की फोटो दिखाई गई कि यही हैं भाभी। दीदी लोगो को भी लगा कि हाँ शायद भाभी हमारे साथ adjust नही कर पाएंगी।वो तो भईया ही हैं इतने down to earth ....!भईया फलों की पेटी ले कर आते और बताते कि अभी अभी मम्मी पापा लैंड किये हैं और वो ये फल की पेटी ले के आये थे। पूरा घर सम्मोहित .... ! इतने बड़े घर का लड़का और हमारे जैसे निम्नतर मध्यम वर्गीय परिवार की सेवा में लगा हुआ है।


इन्ही सब के बीच, मेरे बड़े भतीजे का जन्म हुआ। मेरे पोलियो का अटैक आने के बाद से परिवार जिस दुखद काल में चल रहा था उससे उबरने का एक बहुत बड़ा आश्रय मिला सभी को। घर में खुशी की लहर दौड़ गई। उसका जन्मोत्सव होना था और हमारे परिवार का गेट टुगेदर। खूब सामान खरीदे जा रहे थे। सभी उत्साह पूर्ण भागदौड़ मे लगे थे। अम्मा को चूड़ियाँ खरीदनी थी, वे अनिल भईया के साथ जा रही थीं और उधर से बड़े ताऊ जी गोरखपुर से आ रहे थे। अम्मा को अनिल भईया के साथ जाते देख ताऊ जी के तेवर चढ़ गए। " वीरेंद्र की अम्मा किस के साथ जा रही थी।" उन्होने बाबूजी से प्रश्न किया। बाबूजी ने अनिल भईया का परिचय दिया। लेकिन अनिल भईया तो असल में ताऊ जी के पास का ही प्रोडक्ट थे न। ताऊ जी उनके विषय में हम से अधिक जानते थे।


उन्होने बताया कि जिस लड़के को तुम लोगो ने अपने परिवार का सदस्य बना रखा है, उसने असल में अपनी पत्नी को छोड़ दिया है। सो काल्ड भाभी जी की फोटो दिखाई गई तो पता चला कि ये तो मील के हेड आफ डिपार्टमेंट की बेटी है। जहाँ अनिल भईया का अक्सर आना जाना होता है। बिहार के एक साधारण परिवार के अनिल भईया यहाँ घर छोड़ के आ गए हैं।


एक मिनट में परिवार के लिये हीरो भईया विलेन बन गए। जो दीदी लोग बड़े भाई की सुरक्षात्मक जगह अनिल भईया में पाती थीं वो उनसे डरने लगीं।


सब के चेहरे पर मन के भाव अनिल भईया को बताने लगे कि अब कुछ गड़बड़ है। लेकिन अम्मा अपना व्यवहार सामान्य रखे रहीं।


सभी लोग अनपढ़ फिल्म देखने गए अनिल भईया फिल्म बीच में ही छोड़ आये।


दूसरे दिन फिर उनका आगमन हुआ। अम्मा ने पूँछा " अनिल कल तुम फिल्म बीच में ही क्यों छोड़ आये थे"
भईया ने बात का उत्तर ना देते हुए कहा " मम्मी मुझे कई दिन से आप से कुछ कहना चाहता हूँ,लेकिन कह नही पा रहा हूँ।"
"तो लिख के दे दो" अम्मा ने सुझाव दिया।


अनिल भईया सिर नीचे कर के अपनी कहानी बताने लगे। उन्होने बताया कि उनकी शादी हो चुकी है और एक बेटा भी है। बिहार में शादी के बाद एक माह तक दामाद ससुराल में ही रहता है। पत्नी का साथ उतने दिन का ही रहा है उनका। इसी बीच उन्हे पता चला कि लड़की बिलकुल पढ़ी लिखी नही है, और वो गर्भवती पत्नी को छोड़ यहाँ चले आये।भईया कहानी सुना रहे थे और दोनो दीदियाँ और अम्मा की आँखें गंगा जमुना हो रहीं थी। इतनी सी बात की एक औरत को इतनी बड़ी सजा....? दीदी उठ कर अपने कमरे में चली आईं और फूट फट कर रोने लगीं।


भईया कमरे में आये और दीदी के सिर पर हाथ रख के बोले
" मुझे तेरी राखी की कसम है बहन मैं होली तक तुम लोगो के साथ तुम्हरी भाभी को ले आऊँगा।"
और वो बिहार चले गए।


इतना झूठ बोलने वाले आदमी के लिये कसम का क्या महत्व? किसी को विश्वास नही था,लेकिन होलिका दहन के दिन भईया एक सुंदर सी औरत और ८ साल के बच्चे के साथ रिक्शे से उतर रहे थे। किसी की राखी ने किसी की होली मनवा दी थी .......!




इस बात को आज लगभग २९ साल हो गये। दोनो दीदियों की विदाई की चूनर भईया ही लाए। भाई के किसी भी कर्तव्य मे वो पीछे नही रहे। वो बच्चा जो आठ साल का था, आज उसके अपने बच्चे आठ साल से ऊपर के हो रहे हैं।




और ये सब किया राखी के एक तार ने। राखी के तार से संबंधित दूसरी कहानी यहाँ भी पढ़ सकते हैं।





Tuesday, July 29, 2008

जमीन अपनी जगह,आसमान अपनी जगह,


आज सुबह ११.३० बजे पारुल से चैट हुई और मजाक मजाक में कही गई बात ज़ेहन में ऐसी छाई रही कि ३.०० बजे मैं कविता लिखने बैठ गई और ४.०० बजे कविता पूरी हो गई, वैसे धन्यवाद बिजली सेवा को भी देना पड़ेगा जिसने १.३० बजे साथ छोड़ा तो बस अभी ४.३० बजे आई है, जिससे सारे यू०पी०एस० डंप हो गए और मुझे खाली समय मिल गया वर्ना जाने कितनी ही कविताओं की इसी समय के चलते दिमाग में ही भ्रूणहत्या हो जाती है। लेकिन क्रेडिट तो पारुल को ही जाता है,जिससे मैने बाय करते समय कहा कि अब बहुत उड़ चुकी तुम आभासी दुनिया के आसमान में, जमीन पर आओ और जा के बच्चे संभालो और उसने जवाब दिया "मैं अपनी जमीन कभी नही छोड़ती, जमीन पर पैर रख कर ही आसमान को देखती हूँ क्यों कि मुझे अपनी जमीन से प्यार भी बहुत है.... " वाह वाह वाह लेडी गुलज़ार, क्या बात कही, सबसे अच्छी बात तो ये कि इस बात ने कविता का एक प्लॉट दे दिया..तो सुनिये.... और क्षमा पहले कर दीजिये ...क्योंकि बस भाव भाव हैं और कुछ नही... :(


जमीन अपनी जगह,आसमान अपनी जगह,

मुझे दोनो से मोहब्बत, ये बात अपनी जगह।


वो आसमान जैसे,खान कोई नीलम की,

औ उसपे तैरते बादल,कि मोतियों के पहाड़,

वो आफताब, वो मेहताब, वो सितारों के हुज़ूम,

खुदा क्या कर सकूँगी इनमें कभी खुद को शुमार..?


इशारे कर रहा है,मुझको बहुत दे से वो,

मैं उड़ तो जाऊँ, मेरे पंख में नही है कमी,

मगर जो बात है, वो बात सिर्फ इतनी है,

कि मुझको रोक रोक लेती है ये मेरी जमीं।


ये ज़मीं वो,कि जिसने खुद के बहुत अंदर तक,

मुझे संभाल के रक्खा, मुझे सँवारा है,

कभी कभी तो लगता है, मेरे अंदर भी,

इसी जमीन के होने का खेल सारा है।


वो साफ साफ फलक और ये पाक़ पाक़ ज़मी

कहीं पे पैर मेरे और कहीं निगाह थमी,

किसी को खोना न चाहूँ, ये चाह अपनी जगह,

ये पैर अपनी जगह हैं, निगाह अपनी जगह।

Monday, July 14, 2008

अब तुम मुझको छोड़ न जाना...!


२७ अक्टूबर २००१ को लिखी गई ये कविता आप के साथ बाँट कर के फिर से याद कर रही हूँ ......!


दोस्त तुम्हारे दम पर मैने ये सारा जग छोड़ दिया है,

अब तुम मुझको छोड़ न जाना...!


न जीने की चाह थी कोई, न मरने का कोई डर था,

मंजिल कहाँ, मेरी कोई थी , सूना लंबा एक सफर था !

पर तुमसे मिल कर जाने क्यों, अब जीने का जी करता है,

मौत जुदा कर देगी तुमसे, अब मरने से डर लगता है..!

दोस्त तुम्हारे पथ पर मैने, इन कदमों को मोड़ लिया है,

अब तुम ही मुख मोड़ ना जाना...!


जाने कितने अंजाने, दरवाजों पर दस्तक दी हमने,

तब जा कर तुम में पाया है, मन चाहा अपनापन हमने !

ठहर गई मेरी तलाश, अब साथी तेरे दर तक आ कर,

खत्म हुआ एक सफर मेरा, अब मंजिल पाई तुमको पा कर !

दोस्त तुम्हारी खातिर दुनिया से नज़रों को मोड़ लिया है,

अब तुम नज़रे मोड़ ना जाना

तुम हो तो हैं कितने सपने, तुम हो तो हैं कितनी बातें,

तेरी सोच में दिन कट जाये, तेरी सोच में कटती रातें !

तुम मेरे अपने हो जानूँ, फिक्र नही अब कौन है अपना,

दिन में मेरी हक़ीकत हो तुम, रातों में तुम मेरा सपना।

जीवन का लमहा लमहा तेरी यादों से जोड़ लिया है,

तुम इनमे गम जोड़ न जाना


सूचनाः कल महावीर शर्मा जी के ब्लॉग पर एक कवि सम्मेलन/मुशायरा का आयोजन, हम भी पहुँचेंगे, आप भी पहुँचियेगा

Thursday, July 10, 2008

मत करें ऐसा



घर और आफिस की दौड़भाग में लाख चाहेने के बावजूद कोई भी पोस्ट दे पाना संभव नही हो पा रहा था.....! आज के फास्टफूड कल्चर में समस्याएं भी रोज इंस्टैंट आती हैं, शाम तक का समय हल ढूढ़ने में निकल जाता है सुबह दूसरी समस्या...! लिखूँ तो क्या लिखूँ...! कविता की संवेदनशीलताओं तक मन पहुँच ही नही पाता।

दो दिन से कंप्यूटर मे नेट कनेख्शन खराब पड़ा था। किसी तरह दूसरे किसी के कंप्यूटर पर मेल चेक कर रही थी ऐसे में परसों शाम को जब एक लेटर का प्रिंटआउट निकालने पहुँची तो देखा इंटरनेट कनेक्शन काम करने लगा है। आदतानुसार अपने मूल एकाउंट याहू पर लाग इन किया तो पाया कि मेरे ब्लॉग पर पोस्ट आई है। मामला समझने के लिये अपने ब्लॉग की लिंक क्लिक की तो दिमाग से सन्नन्न्न की आवाज़ आने लगी, थोड़ी देर को किंकर्तव्यविमूढ़ सी जहाँ की तहाँ बैठ गई। मेरे ब्लॉग पर अंग्रेजी में एक फालतू बातों से भर हुई पोस्ट पड़ी हुई थी। अब तक कितने लोग क्लिक कर चुके होंगे...? कितनो की निगाह पड़ी होगी..?

कुछ सूझ ही नही रहा था कि क्या करूँ क्या करूँ...सबके संज्ञान में लानी चाहिये ये बात या बस खतम करूँ यहीं पर..कुछ नही समझ मे आ रहा था। जैसा कि हमेशा होता है कि ब्लॉग से संबंधित कोई भी परेशानी होने पर मैं तुरंत मनीष जी को फोन करती हूँ, वही किया। हैलो के साथ मैने उनसे पूँछा

"मेरा ब्लॉग देखा है आज"
" नही, सुबह से काम में लगा हूँ, समय ही नही मिला" उन्होने सोचा कि शायद मैं अपनी कोई नई पोस्ट पढ़ने को कह रही हूँ।
" मेरे ब्लॉग पर किसी ने पोस्ट डाल रखी है।"
"क्या.????"
"हाँ..और मुझे बहुत रोना आ रहा है।" कह कर मैं रोने लगी।
" let me see, I'll call you latter" कह कर उन्होने फोन काट दिया।


अभी मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी बैठी ही थी कि मीत जी का नंबर मोबाइल पर डिस्प्ले होने लगा। मैने फोन उठाया

"हैलो"
"कंचन..! ये क्या है..?"
"मैने नही पोस्ट किया है" मैने रुआँसे स्वर मे कहा
"obviously you have not written it, but delete it immediately first"
"O.K." कह कर मैने फोन काट दिया।

पोस्ट तो डिलीट हो गई, कुछ देर तक लोग ब्लोगवाणी के जरिये आते रहे। लेकिन मैं उतनी ही देर में कितने तनाव से गुजरी ये मैं ही जानती हूँ।

क्यों करते हैं ऐसा प्रकृति ने, आज की लाइफ स्टाइल ने पहले ही बहुत सारे तनावों की व्यवस्था कर दी है,फिर अलग से आप लोग क्यों एफर्ट्स करते है। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण दे दूँ कि कल से ये पोस्ट पब्लिश करने की सोच रही हूँ और अब जा के कर पा रही हूँ।

फिलहाल मैं तकनीकी लोगों से पूँछना चाहूँगी कि ऐसी सावधानियाँ बताएं जिनसे इस तरह की समस्याओं से मेरे साथ अन्य लोग बच सकें

चलते चलते दो कविताओं के अंश, जो कि कल मुझसे मिलने आये सज्जन ने मुझे सुनाई..(पूरी उन्हे भी नही पता थी)

जीवन संगति का नाम नही,
यह सूत्र असंगति का पहला।
हम सींच थके मधु से वलरी,
फल हाथ लगा केवल जहरी,
जो द्वार लगी सुख की देहरी
वह पीर जगा लाई गहरी
अपवाद न सीता शकुंतला

(कविः महिपाल, फूल आपके लिये से)

अफसोस नही इसका हमको,
जीवन में हम कुछ कर न सके।
झोलियाँ किसी की भर न सके,
संताप किसी का हर ना सके
अपने प्रति सच्चा रहने का,
जीवन भर हमने यत्न किया,
देखा देखी हम जी न सके,
देखा देखी हम मर न सके

(कविः गोपाल सिंह नेपाली)

Friday, June 20, 2008

नदी के द्वीप



१६ जून की दोपहर में मुझे मेरी सहेली ज्योति मिश्रा ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" का प्रसिद्ध उपन्यास "नदी के द्वीप" दिया और १७ जून की रात से मैने इसे पढ़ना शुरू किया। फिर इसके बाद तो इसे पढ़ने के लिये समय निकालने की ज़रूरत ही नही थी क्योंकि इसके पात्र कहीं भी रहो आवाज़ दिया करते थे.... और समय खुद-ब-खुद निकल आता था....रात के १ बजे तक, सुबह चाय चढ़ा कर, आफिस से निकलते समय पानी बरस रहा है, तो समय का उपयोग करते हुए.... और नदी के द्वीप कल रात १२.३० बजे खतम हो गई। पूरी रात उसके पात्र दिमाग में घूमते रहे।

सच यूँ ही तो नही ओशो ने कहा होगा



"This novel is for those who want to meditate; it is a
meditator's novel.

७ मार्च १९११ में जन्मे तथा ४ अप्रैल १९८७ को महाप्रयाण करने वाले "अज्ञेय" ने मेरे ज्ञान के अनुसार मात्र ३ उपन्यास लिखे है



१.शेखर एक जीवनी २.नदी के द्वीप ३. अपने अपने अजनबी



मैने तो पहला ही नॉवेल पढ़ा है...लेकिन मुरीद हो गई। चार पात्रों डॉ० भुवन,. श्रीमती रेखा, चंद्रमोहन और गौरा के मध्य ही चलने वाली कथा में प्रेम और समर्पण का हर रूप दीख जाता है।


रेखा थोड़ी रहस्यमयी महिला है जो क्षणों मे जीने में विश्वास रखती है, वर्तमान में विश्वास रखती है, भविष्य उसके लिये वर्तमान का प्रस्फुटन है।



गौरा कुछ नही जानती शिवाय भुवन दा के जो उसके मास्टर भी रह चुके है, तभी तो विज्ञान में शोध करने वाले डॉ० भुवन से वह संस्कृत के नाटकों का मंचन भी करवाने आ जाती है।



डॉ० भुवन एक वैज्ञानिक है..समाज से तटस्थ..जब मन आया समाज में शामिल जब मन आया किसी के पत्र का कोई जवाब नही..लेकिन रेखा और गौरा का प्रेम पूर्ण समर्पण मजबूर कर देता है उन्हे... और तटस्थता छोड़नी ही पड़ती है।

चंद्रमोहन एक पत्रकार हैं और एक कुंठाग्रस्त पात्र है... ऐसा पढ़ने वाला तो शुरू से ही समझने लगता है परंतु अंत में उपन्यासकार डॉ० भुवन के माध्यम से कहला भी देता है "चंद्रमाधव भी अत्यंत कुंठित व्यक्ति है, जब तक नही था, तब तक बहुत असंतुष्ट था : अब कुंठित हो चुका है और उसका असंतोष युक्ति से परे हो गया है- कुंठित होना अब उसके जीवन की आवश्यकता बन गया है, उसकी कुंठा और उसका वाद परस्पर पोषी हैं। किसी पर दया करना पाप है, नही तो मैं चंद्र को दया का पात्र मान लेता।"





"अज्ञेय" का जीवन लखनऊ, काश्मीर, दक्षिण भारत एवं विदेशों मे बीता जिसकी झलक उपन्यास में दिखाई देती है। १९२९ में बी०एससी० के बाद उन्होने अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० में प्रवेश लिया अंग्रेजी साहित्य की यह रुचि भी नदी के द्वीप में प्रचुर मात्रा में दीखती है..जगह जगह लॉरेंस, ब्रॉउनिंग, बाइबिल की वर्सेज़ उद्धृत हैं। उनका अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० पूर्ण होने के पहले ही वो स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे... डॉ० भुवन भी कॉस्मिक किरणों पर अपने शोध को छोड़ कर राष्ट्र के लिये सेना में भर्ती हो जाते है और दलील ये कि " मैं नही सोच सकता कि मैं कैसे किसी भी प्रकार की हिंसा कर सकता हूँ, या उसमें योग दे सकता हूँ-पर अगर कोई काम मैं आवश्यक मानता हूँ, तो कैसे उसे इस लिये दूसरों पर छोड़ दूँ कि मेरे लिये घृण्य है? मुझे मानना चाहिये कि वो सभी के लिए- सभी सभ्य लोगो के लिये एक सा घृण्य है, और इसी लिये सब का सामान्य कर्तव्य है..।"

उपन्यास के सर्ग पात्रों के नाम पर हैं, बीच में तीन बार अंतराल आता है..४१६ पृष्ठ की इस पुस्तक के पत्र आपको निश्चय ही उस जमाने में ले के चले जाएंगे जब पत्रों की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री सेहम करते थे और लिखने में अपना मन सजा देते थे।

उपन्यास के कुछ अन्य उद्धरण जो मुझे पसंद आये



" 'क''ख' से प्रेम करता है ये कह देना कितना आसान है, और 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' ये कह पाना कितना कठिन-कितना पेनफुल। क्योंकि एक तथ्य है, दूसरा सत्य-और सत्य न कहना आसान है, न सहना"--भुवन




" द पेन आफ लिविंग यू इज़ मोर दैन आई कैन बेयर"




"प्रेम को धोखा रोमांटिकों ने बताया है, और आप कितने भी ॠषि भक्त क्यों न हों, रोमांटिक ॠषि को नही पसंद करेंगे। मैं तो यही जानती थी कि ॠषियों ने प्रेम और सत्य को एक माना हैं क्योंकि दोनो को ईश्वर का रूप माना जाता है।"--रेखा




"कुछ जड़ें वास्तव में जीवन का आधार होती हैं और सतही जड़ों का बहुत बहुत बड़ा जाल भी एक गहरी जड़ की बराबरी नही करता।"--रेखा




" अध्यापन का श्रेष्ठ संबंध वही होता है, जिसमें अध्यापक भी कुछ सीखता है।"




"मैत्री साख्य प्रेम इनका विकास धीरे धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं, 'प्रथम दर्शन से ही प्रेम' की संभावना स्वीकार कर लेने से भी इसमें कोई अंतर नही आता"




"तुम ने एक ही बार वेदना में मुझे जना था माँ
पर मैं बार बार अपने को जनता हूँ
और मरता हूँ
पुनः जन्म और पुनः मरता हूँ
क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ"--रेखा





"तुम चले जाओगे- मैं जानती हूँ तुम चले जाओगे। मैं आदी हूँ कि जीवन में कुछ आये और चला जाये..मैने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहना भी छोड़ दिया"--रेखा



"यह कि दाँव दोनो खेलते है,लेकिन हम अपना जीवन लगाती है और आप हमारा"




"किसी अनुभव को दुबारा चहना भूल है"