Friday, June 20, 2008

नदी के द्वीप



१६ जून की दोपहर में मुझे मेरी सहेली ज्योति मिश्रा ने सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय" का प्रसिद्ध उपन्यास "नदी के द्वीप" दिया और १७ जून की रात से मैने इसे पढ़ना शुरू किया। फिर इसके बाद तो इसे पढ़ने के लिये समय निकालने की ज़रूरत ही नही थी क्योंकि इसके पात्र कहीं भी रहो आवाज़ दिया करते थे.... और समय खुद-ब-खुद निकल आता था....रात के १ बजे तक, सुबह चाय चढ़ा कर, आफिस से निकलते समय पानी बरस रहा है, तो समय का उपयोग करते हुए.... और नदी के द्वीप कल रात १२.३० बजे खतम हो गई। पूरी रात उसके पात्र दिमाग में घूमते रहे।

सच यूँ ही तो नही ओशो ने कहा होगा



"This novel is for those who want to meditate; it is a
meditator's novel.

७ मार्च १९११ में जन्मे तथा ४ अप्रैल १९८७ को महाप्रयाण करने वाले "अज्ञेय" ने मेरे ज्ञान के अनुसार मात्र ३ उपन्यास लिखे है



१.शेखर एक जीवनी २.नदी के द्वीप ३. अपने अपने अजनबी



मैने तो पहला ही नॉवेल पढ़ा है...लेकिन मुरीद हो गई। चार पात्रों डॉ० भुवन,. श्रीमती रेखा, चंद्रमोहन और गौरा के मध्य ही चलने वाली कथा में प्रेम और समर्पण का हर रूप दीख जाता है।


रेखा थोड़ी रहस्यमयी महिला है जो क्षणों मे जीने में विश्वास रखती है, वर्तमान में विश्वास रखती है, भविष्य उसके लिये वर्तमान का प्रस्फुटन है।



गौरा कुछ नही जानती शिवाय भुवन दा के जो उसके मास्टर भी रह चुके है, तभी तो विज्ञान में शोध करने वाले डॉ० भुवन से वह संस्कृत के नाटकों का मंचन भी करवाने आ जाती है।



डॉ० भुवन एक वैज्ञानिक है..समाज से तटस्थ..जब मन आया समाज में शामिल जब मन आया किसी के पत्र का कोई जवाब नही..लेकिन रेखा और गौरा का प्रेम पूर्ण समर्पण मजबूर कर देता है उन्हे... और तटस्थता छोड़नी ही पड़ती है।

चंद्रमोहन एक पत्रकार हैं और एक कुंठाग्रस्त पात्र है... ऐसा पढ़ने वाला तो शुरू से ही समझने लगता है परंतु अंत में उपन्यासकार डॉ० भुवन के माध्यम से कहला भी देता है "चंद्रमाधव भी अत्यंत कुंठित व्यक्ति है, जब तक नही था, तब तक बहुत असंतुष्ट था : अब कुंठित हो चुका है और उसका असंतोष युक्ति से परे हो गया है- कुंठित होना अब उसके जीवन की आवश्यकता बन गया है, उसकी कुंठा और उसका वाद परस्पर पोषी हैं। किसी पर दया करना पाप है, नही तो मैं चंद्र को दया का पात्र मान लेता।"





"अज्ञेय" का जीवन लखनऊ, काश्मीर, दक्षिण भारत एवं विदेशों मे बीता जिसकी झलक उपन्यास में दिखाई देती है। १९२९ में बी०एससी० के बाद उन्होने अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० में प्रवेश लिया अंग्रेजी साहित्य की यह रुचि भी नदी के द्वीप में प्रचुर मात्रा में दीखती है..जगह जगह लॉरेंस, ब्रॉउनिंग, बाइबिल की वर्सेज़ उद्धृत हैं। उनका अंग्रेजी साहित्य से एम०ए० पूर्ण होने के पहले ही वो स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे... डॉ० भुवन भी कॉस्मिक किरणों पर अपने शोध को छोड़ कर राष्ट्र के लिये सेना में भर्ती हो जाते है और दलील ये कि " मैं नही सोच सकता कि मैं कैसे किसी भी प्रकार की हिंसा कर सकता हूँ, या उसमें योग दे सकता हूँ-पर अगर कोई काम मैं आवश्यक मानता हूँ, तो कैसे उसे इस लिये दूसरों पर छोड़ दूँ कि मेरे लिये घृण्य है? मुझे मानना चाहिये कि वो सभी के लिए- सभी सभ्य लोगो के लिये एक सा घृण्य है, और इसी लिये सब का सामान्य कर्तव्य है..।"

उपन्यास के सर्ग पात्रों के नाम पर हैं, बीच में तीन बार अंतराल आता है..४१६ पृष्ठ की इस पुस्तक के पत्र आपको निश्चय ही उस जमाने में ले के चले जाएंगे जब पत्रों की प्रतीक्षा बड़ी बेसब्री सेहम करते थे और लिखने में अपना मन सजा देते थे।

उपन्यास के कुछ अन्य उद्धरण जो मुझे पसंद आये



" 'क''ख' से प्रेम करता है ये कह देना कितना आसान है, और 'मैं तुमसे प्रेम करता हूँ' ये कह पाना कितना कठिन-कितना पेनफुल। क्योंकि एक तथ्य है, दूसरा सत्य-और सत्य न कहना आसान है, न सहना"--भुवन




" द पेन आफ लिविंग यू इज़ मोर दैन आई कैन बेयर"




"प्रेम को धोखा रोमांटिकों ने बताया है, और आप कितने भी ॠषि भक्त क्यों न हों, रोमांटिक ॠषि को नही पसंद करेंगे। मैं तो यही जानती थी कि ॠषियों ने प्रेम और सत्य को एक माना हैं क्योंकि दोनो को ईश्वर का रूप माना जाता है।"--रेखा




"कुछ जड़ें वास्तव में जीवन का आधार होती हैं और सतही जड़ों का बहुत बहुत बड़ा जाल भी एक गहरी जड़ की बराबरी नही करता।"--रेखा




" अध्यापन का श्रेष्ठ संबंध वही होता है, जिसमें अध्यापक भी कुछ सीखता है।"




"मैत्री साख्य प्रेम इनका विकास धीरे धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं, 'प्रथम दर्शन से ही प्रेम' की संभावना स्वीकार कर लेने से भी इसमें कोई अंतर नही आता"




"तुम ने एक ही बार वेदना में मुझे जना था माँ
पर मैं बार बार अपने को जनता हूँ
और मरता हूँ
पुनः जन्म और पुनः मरता हूँ
क्योंकि वेदना में मैं अपनी ही माँ हूँ"--रेखा





"तुम चले जाओगे- मैं जानती हूँ तुम चले जाओगे। मैं आदी हूँ कि जीवन में कुछ आये और चला जाये..मैने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहना भी छोड़ दिया"--रेखा



"यह कि दाँव दोनो खेलते है,लेकिन हम अपना जीवन लगाती है और आप हमारा"




"किसी अनुभव को दुबारा चहना भूल है"

Monday, June 16, 2008

तुम्हारे जन्मदिन पर

उसके जन्मदिन पर जो पता नही कहाँ है, लेकिन जहाँ भी है मेरी बहुत सारी दुआएं आज भी उसी तरह वहाँ पहुँचती होंगी जैसे तब, जब टीका लगा के मैं सामने आशीर्वाद देती थी....! उसकी बहुत सारी भूलों को क्षमा करने की प्रार्थना तब भी करती थी और अब भी..जब ६ साल हो गए उसने शकल नही दिखाई..!



तुम जहाँ भी हो वहाँ पहुँचे मेरी शुभकामना..!
काश ईश्वर मान लें अबकी मेरी ये प्रार्थना...!

जन्म जन्मों तक तुम्हें विधि दे हृदय की शांति
अब ग्रसित ना करने पाये तुमको कोई भ्रांति!


पूर्व सा भावुक हृदय हो, प्रेम स्वजनो के लिये,
खुद पे हो विश्वास अद्भुत, साहसी मन में लिये।
किंतु अबकी मानना मानव धरम का मर्म तुम,
धैर्य धारण करके प्यारे, करना अपना कर्म तुम
तेरी भूलों को भुला दे वो पतित पावन प्रभू,
दीनबंधु ये है मेरी दीन सी इक आरजू।
वो जहाँ भी है, अकेला है उसे तुम देखना,
बद्दुआओं से बचा लेना, ये है मेरी दुआ।
माँ के आँखों की नमी तुमसे सही जाती नही,
कैसे सहते हो मेरे आँखों की ये बहती नदी
आसुओं के अर्घ्य मेरे, दिल की मेरी प्रार्थना,
शेष अब कुछ भी नही है, शेष है ये चाहना,

तुम जहाँ भी हो वहाँ पहुँचे मेरी शुभकामना..!
काश ईश्वर मान लें अबकी मेरी ये प्रार्थना....!




संबंधित पोस्ट यहाँ भी है।

Thursday, June 12, 2008

"हे ईश्वर ....! धरती के इस मोती को अपनी करुणा की सीप में सम्हाल कर रखना...!"


शशि दी चली गईं .... सब के मुँह से यही निकला कि एक अध्याय का अंत हो गया और मुझे लगा कि एक इतिहास पूर्ण हुआ। सूरज बन के सारी दुनिया को रोशनी देना सब के वश की बात नही है लेकिन दीपक बन के एक छोटी सी दुनिया तो रोशन की ही जा सकती है न..! ये सिखाती थीं शशि दी....!



मेरे छोटे से मोहल्ले में निर्विवादित रूप से अच्छी मानी जाने वाली दी को जानती तो मैं पता नही कब से थी लेकिन उनके प्रभाव में आई १९८८ से जब मैने ९ वें दर्जे के लिये प्रवेश लिया और उन्होने कहा कि वैकल्पिक विषय के रूप में गायन ले लो, मैं तुम्हे सिखाऊँगी।


तीन बहन और एक भाई में दी सबसे बड़े भईया के बाद आती थीं, पिता जी बहुत जिम्मेदार व्यक्ति नही थे, लेकिन वे थीं.... बहुत कम उम्र से बहुत जिम्मेदार...! सबसे छोटी बहन यशी दीदी को फिट्स पड़ते थे, वो कहीं भी सुरक्षित नहीं थीं। दीदी ने निश्चित किया कि वे उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिये आजीवन विवाह नही करेंगी। लोगो ने सलाह दी की इसी शर्त पर शादी की जा सकती है कि "आप अपनी बहन को अपने साथ रखेंगी तो उनका जवाब होता कि "लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि शर्त आजीवन निभाई ही जाएगी" बात अपने आप में बहुत व्यवहारिक थी।


दीदी ने अपने लिये जीवन का जो रूप चुना था उसमें अपने लिये कुछ नही था। सिर्फ दूसरों को देने की बात थी। बचपन में सुना करती थी लोगो से कि दीदी के पैसा बहुत है, इण्टर कॉलेज में लेक्चरर और फिर शाम को संगीत की जो कोचिंग चलती है उसमें कितने सारे बच्चे आते हैं..!ये तो जब मैं उस कोचिंग का हिस्सा बनी तब मुझे पता चला कि ७५ प्रतिशत लोगो की फीस माफ थी और जिनकी नही माफ थी उनके भी लेन देन का कोई हिसाब नही था।



वो दीदी का मंदिर था जहाँ शाम से वो साधना करती थीं, जहाँ जितने दुखी मिल सकते उन्हे बटोर कर कुछ खुशी देने की कोशिश की जाती थी...! शाम को प्रसाद चढ़ता, आरती होती, नवरात्र के नौ दिन वहाँ भंडारा होता और दीदी जो कुछ कॉलेज में कमाती इन्ही सब में लगा देती थी। कहीं किसी लड़की की शादी हो तो दीदी को ये नही सोचना पड़ता कि व्यवहार कितना देना है वो जितनी गरीब होती दीदी का गिफ्ट उतना मँहगा।


सोमनाथ सर जो कि होम्योपैथ के डॉक्टर हैं और समाजसेवा को उन्होने भी अपना धर्म चुना है, मेरे और दीदी के समान रूप से करीबी हैं। सबसे पहले उन्हे ही पता चली ये बात कि दीदी को लीवर कैंसर है। अब ये बात बताई किसे जाये..? और छिपाई कैसे जाये..? इस पशोपेश में उन्होने मुझसे ये बात बाँटी और कहा "लेकिन हम अपनी प्रार्थना से दीदी कि उम्र बढ़ा लेंगे।" आपरेशन के बाद सोमनाथ सर ने मुझसे कहा था कि दी का survival ४-५ साल तक भी हो सकता है, तब मैने ऐसा नही सोचा था कि इतनी जल्दी वो छूट जाएंगी। दीदी और उनके घर वालो से ये बात छिपा ली गई थी, क्यों कि उनकी ८५ वर्षीय माँ और यशी दी को ये बात बताई भी कैसे जाती।


मैने इधर कानपुर की विजिट बढ़ा दी थी। थोड़े दिन पहले सर ने फोन कर के बताया कि दीदी एड्मिट हैं और अब कोई निश्चित नही कि वे कब हमारा साथ छोड़ देंगी। मैं रोज सोने के पहले सर से उनका हाल लेती। दीदी जिस दिन एड्मिट हुईं उसके एक दिन पहले उन्होने खूब गीत गाये। उसमें एक गीत था "ये शाम की तन्हाइयाँ ऐसे में तेरा गम" सर लगभग रोज फोन रखने के पहले ये गीत सुनते,


"जिस राह से तुम आने को थे,

इसके निशाँ भी मिटने लगे"


और फिर कहते बस करो।



३ तारीख की रात भी ऐसा ही हुआ। मैने दीदी का हाल लेने को फोन किया। दीदी का हाल पूँछा ये गीत और कुछ और गीत जो उस समय परिस्थिति सम्यक थे, सर को बताया कि दीदी तो मना कर रही हैं लेकिन मैं शनिवार की सुबह आ रही हूँ। लाइट चली गई थी शायद १ बजे सोई होऊँगी.... तभी एक अद्भुत स्वप्न देखा जो कि दूसरे दिन पारुल से बाँटा भी ( मेरा प्रोग्राम संडे को पारुल से मिलते हुए कानपुर जाने का था।) मैने देखा कि भयंकर आँधी तूफान में फँसी मैं दीदी के पास जब नही पहुँच पाती तो एक व्यक्ति सहारा दे कर मुझे वहाँ पहुँचा देता है। वहाँ दीदी के ऊपर खूब ठंडा पानी डाला जा रहा है और वहीं ढेर सारे रंगबिरंगे कागज उड़ रहे हैं जिनमें लिखा है " हे ईश्वर धरती के इस मोती को अपनी करुणा की सीप में सम्हाल कर रखना" ..और अचानक मेरी नींद खुल जाती है... समय देखा तो ३.३० बज रहे थे...कैसा स्वप्न था ये, थोड़ी देर को हिला गया।


सुबह उठ कर सोचा कि सर को बताऊँ लेकिन आफिस जाने की हौच पौच में समय नही मिला। कैलीपर्स पहन ही रही थी कि सर का फोन बज गया और उन्होने बताया कि दीदी की हालत कल रात ३ बजे से गंभीर हो गई है। दिन कैसे बीता बता नही सकती, हर पल डर कही कुछ खबर ना आ जाए। दूसरे दिन दीदी के पास पहुँच गई। दीदी अब बहुत खास लोगो को ही पहचान पा रही थीं। लेकिन मेरी आवाज सुनते ही बोलीं "उसे मिल लेने दो मुझसे" और पास पहुँचते ही बोली " तुम्हें अभी बहुत ऊँचाई पर जाना है।"फिर चलते समय बोलीं "अब तुम मत आना हम ही आ जाएंगे जल्द ही।" मेरे आँसू दीदी की गज़ल गान चाहते थे


आओगे कहाँ लौट के जो जा रहे हो तुम,

नाहक ही मेरे सर की कसम खा रहे हो तुम


७ मई की रात ११.३० बजे सर का फोन आ गया कि "दीदी साँस नही ले रहीं" और मैने आँख बंद कर के कहा "हे ईश्वर ....! धरती के इस मोती को अपनी करुणा की सीप में सम्हाल कर रखना...!"


दीदी अपनी अगली यात्रा पर जा रहीं थी। कोई बूढ़ी महिला चिल्लाती हुई आतीं "अरे तुम तो कहती थी कि हम तो हैं, अब हमसे ये कौन कहेगा।" कोई गरीब औरत चिल्ला रही थी "कहती थी कि किसी से कुछ ना माँगा करो हमसे बताया करो जो जरूरत हो" कितने लोग खड़े ऐसी ही कतनी चीखें निकाल रहे थे। किसी को नही पता कि वो शशि दी के कौन थे लेकिन उनको पता था कि शशि दी उनकी अपनी थीं।



Saturday, June 7, 2008

एक बात



मेरी संगीत अध्यापिका और मेरी आदर्श सुश्री शशि पाण्डेय पिछले दो हफ्तों से जीवन और मौत के बीच संघर्ष कर रही हैं, जिसमें जीत मौत की ही होनी है। हम हाथ बाँधे खड़े हैं, ये भी नही समझ पा रहे कि प्रार्थना क्या करे...! उन्होने अपनी जिंदगी कि एक भी साँस अपने लिये नही जी...! आज उन्हे पैंक्रियाज़ मे कैंसर है....! इन सब स्थितियों से जब निकलूँगी तब फिर से आप से मिलूँगी..!