ये आवाज़ अक्सर परीक्षा के समय कूजती थी। जब सारी दुनिया से ध्यान हटा कर एक लक्ष्य परीक्षा होती दिन रात के परिश्रम में जब इसकी आवाज़ कान में पड़ती तो मन कुछ हलका सा प्रतीत होता था। अब भी जब ये आवाज़ सुनती हूँ तो हाथ में पु्स्तक लिए बाउंड्री के भीतर पड़ी खटिया पर खुद को औंधी पाती हूँ।
सर्विस के बाद जब दोबारा एम०ए० हिंदी कर रही थी उस समय भी अचानक ये बोली उस दिन रमेश भईया आये हुए थे। तो अनायास ही मुँह से निकला, "देखो कितना अच्छा लगता है जब ये बोलती है।"
वो मुस्कुरा कर बोले "मगर मुझे कोयल पसंद नही आती।"
सर्विस के बाद जब दोबारा एम०ए० हिंदी कर रही थी उस समय भी अचानक ये बोली उस दिन रमेश भईया आये हुए थे। तो अनायास ही मुँह से निकला, "देखो कितना अच्छा लगता है जब ये बोलती है।"
वो मुस्कुरा कर बोले "मगर मुझे कोयल पसंद नही आती।"
अजीब सी बात लगी मुझे ये, भला कोई ऐसा भी हो सकता है जिसे कोयल न अच्छी लगती हो ? फिर उन्क्स्होने कुछ कारन बताये..... उसी आधार पर लिखी गई है ये लम्बी तुकबंदी। लीजिये पढ़िए ०९.०४.२००६ को लिखा गया ये कुछ
मेरी बगिया में पेड़ हैं दो, इक आम और इक कटहल का,
कटहल में वास काग का है और आम घरौंदा कोयल का।
इक दिन सूरज ढलने को था और मै बैठी थी बगिया में,
संग में मेरा था प्रिय मित्र और मै सपनीली दुनिया में।
ऋतु भी बसंत कुछ ऐसी कि, सब कुछ रूमानी होता है,
उस पर कोयल कि कुहू कुहू फिर खुद पे कहाँ वश होता है।
मै काँधे पर धर शीश मीत के आँखों को थी बंद किये,
जीती थी उस हर इक पल को, हर आहट पर थी कान दिए।
पर जैसे मिश्री की डालियों में इक नीम गिलौरी आ जाए,
वैसे ही वहाँ एक स्वर गूँजा, इक कौवा बोला काँय काँय।
मै खीझ बहरे स्वर में बोली, मेरा मुँह था कुछ तना ताना ,
भगवान् तुझे ये क्या सूझी, कोयल संग कागा दिया बना।
इतने में मेरे कानो में रूखा पर भीगा स्वर आया,
ये स्वर उस कागा का ही था उसका था गला कुछ भर आया।
उस भीगे स्वर में वो बोला "देवी मेरा अपराध कहो,
तुम तो दर्शन में जीती हो कम से कम तुम तो ये न कहो।
ना काम कोई भी बुरा किया, किस्मत में जो था उसे लिया,
फिर भी तुम जैसे कहते हैं क्यों, काकः काकः, पिकः पिकः।
न ठिठुरन सर्दी की झेले, न जेठ दोपहरी में आये
ये कोयल सबको प्यारी है, जो बस बसंत ऋतु में गाये।
मैंने गर्मी कि तपन सही, ठिठुरन सर्दी कि झेली है,
पर कहीं पलायन नहीं किया, विपदा सर आँखों पर ली है,
वो कोयल जो अपने अंडे तक मेरे घर रख जाती है,
मातृत्व बोध भी नहीं जिसे, वो सबके मन को भाती है।
अपने शिशुओं की नही हुई जो, वो समाज की क्या होगी,
मै एक समूह में रहता हूँ, ये बात गौर की ही होगी।
जिसको समूह में रहना है, उस पर एक जिम्मेदारी है,
खुद में जीना गाने गाना ये बात कौन सी भारी है।
जूठा कूठा साँझा कच्चा, जो भी मिलाता है खाता हूँ।
इस पर सब मुझको कहते हैं, मै बिना बात चिल्लाता हूँ।
मेरा स्वर मीठा नहीं सही, संदेशे मीठे लाता हूँ,
आने वाला है परदेसी सजनी को जा बतलाता हूँ।
वो जो इठलाई फिरती है, जो फुदक रही डाली डाली,
उसकी बस किस्मत अच्छी है, पर वो मन से भी है काली।
जब आम बौरने लगते हैं, मीठा सा मौसम आता है,
अनुकूल सभी कुछ होने पर, ये पंचम सुर लहराता है।
मीठे सुर से छलने वाली पर दुनिया मोहित रहती है,
पर मेरे मन कि सच्चाई मुझमे ही तिरोहित रहती है।
सब कुछ किस्मत की बाते हैं, सहना पड़ता है भाल लिखा,
ज्ञानीजन ठोकर खाते हैं, मूरख देते हैं राह दिखा।
देवी तुम से ये विनती है, फिर से पढ़ना ये शाष्त्र लिखा,
और नया अर्थ देना इसको है काकः काकः, पिकः पिकः "