दुबली पतली सी वह, बड़ी सी आँखों वाले साँवले चेहरे और थोड़े से भरे होंठ के साथ, हाथ में चाय की ट्रे लिये सिमटी सकुचाई खड़ी थी।
शायद हाथ काँप रहे थे उसके।
बिस्नू इधर-उधर हिल डुल कर थोड़ा
संभल कर बैठने लगे थे। भईया जी ने उनके हाथ पर हाथ रखते हुए उन्हें सामान्य रहने
का इशारा किया। फरवरी का अंतिम सप्ताह था, बहुत
ज़्यादा स्वेटर,
मफलर की ज़रूरत नहीं
थी । लेकिन बिस्नू के कानों और कानों की मशीन को छिपाने के लिये भईया जी ने उनके कानों को
लपेट कर ढकते हुए बहुत अच्छे से मफलर बाँध दिया था।
मैने भईया जी को देखा, जो मेरे जेठ थे। वो मूँछों में मुस्कुरा रहे थे।
फिर अपने पति की तरफ देखा, उनका
चेहरा हमेशा की तरह तना हुआ था। दीदी, मेरी
जिठानी, लड़की को एक टक देखे जा रही थीं। मेरी बिटिया, रिंकल खुद में ही मगन, अपने मत्थे पर मेहनत से लाये गये बालों के गुच्छे
को बार बार सँवार रही थी और बिस्नू, कभी
अपना नया-नया कोट खींच रहे थे, कभी
मफलर सही कर रहे थे और कभी तन के बैठते हुए अपना
मुँह सीधा करने की कोशिश कर रहे थे।
बिचवई, जो बिस्नू के मामा
भी थे, उन्होने माहौल का चुप्पापन तोड़ते हुए भईया जी से
कहा, " कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिये पांडे जी।"
भईया जी ने मेरे पति की तरफ देखा। इन्होंने अपने चेहरे का खिंचाव
बरकरार रखते हुए लड़की से पूछा, "प्रेज़ेन्ट
टेंस कितने तरह के होते हैं ?"
मैं चौंक गई। इन्हे कैसे पता ? प्रेज़ेंन्ट
टेंस के बारे में ? और उसमें भी कुछ तरह
के होते हैं ? ये कैसे जान गये ? इनकी
तरफ आश्चर्य से देखा तो पाया कि इनके बगल में बैठी रिंकल कुछ मुस्कुरा जैसा रही
थी। ओह्ह्ह ! तो रिंकल ने यह प्रश्न सुझाया है।
लड़की ने सिर झुकाये हए कहा, " चार...
प्रेज़ेंट इंडिफिनिट, प्रेज़ेंट कांटिनुएस, प्रेज़ेंट परफेक्ट, और प्रेज़ेंट
परफेक्ट कांटिनुएस।"
रिंकल हर अल्पविराम के बाद सिर हिला दे रही थी। ये उत्तर सही होने की
सहमति का इशारा था शायद।
उत्तर से लड़की की शिक्षा पता चली या नहीं, इस बात को ले कर तो मैं
संशय में हूँ लेकिन प्रश्न पूछ कर मेरे पति गौरवान्वित महसूस कर रहे थे, इस बात में कोई शक नहीं। उनके चेहरे पर दर्प भरा
संतोष था क्योंकि उनके अनुसार यह प्रश्न पूछना ही उनकी विद्वता दर्शा रहा था।
सभी फिर चुप हो गये। एक वृद्ध सज्जन, जो शायद लड़की की तरफ से ज्यादा
सक्रिय थे, उन्होने अपनी तरफ से कहना शुरू किया, " मंजू की पढ़ाई-लिखाई
में कोई कमी नहीं मिलेगी आपको पांडे जी। ११ साल की थी जब इसके पिता जी खतम हो गये। माँ इसकी बड़ी सुसील
थी। जब तक वह रही,
चाहे जितनी मुसीबत
झेली, लेकिन बच्चों की पढ़ाई लिखाई, खान, पियन, पहनाव उढ़ाव में कोई कमी नहीं छोड़ी. बकिर ईस्वर बड़ा अजीब खेल खेले है कभी कभी। इसके पिता
जी के जाने के ३ साल बाद माँ के भी पेट में पेट में कैंसर हो गया। किसी तरह
तीन साल जिंदा रहीं और फिर वह भी चली गयीं। मंजू हमारी तब १७ साल की थी तब। तब से
अपनी और दोनो भाई,
सबकी साज संभाल यही
कर रही है…
...हमेशा अच्छे नंबर से पास हुई है बिटिया। दो
साल पहले खुद सारी जिम्मेदारी उठा कर बड़कने की शादी करी है। अब जब निश्चिंत हो गयी
अपने मायके की जिम्मेदारी से तब खुद शादी करने की सोची है। मनोबिज्ञान से एम०ए०
किया है। ठीक सुविधा मिली होती तो सरकारी नौकरी का कंपटीसन निकाली होती। अभी भी
जिस इंटर कॉलेज में पढ़ा रही है, उसमें
ऐसे तो एढाक (एडहाक) पर है, लेकिन थोड़े
दिन में जब नौकरी पक्की हो जायेगी, तब
सरकारी के बराबर ही तनखाह मिलने लगेगी।"
"तनखाह
की जरूरत है का हमें ? तुम्हैं का लगता है
मिसिर ?" मेरे पति ने फिर अपना रौब दिखाते हुए कहा।
"अरे
नहीं नहीं पांडे जी ! ये कहाँ कह रहे हैं
हम। हम तो बस कह रहे थे कि इतने ऊँच- नीच से गुजरी है तो आप का घर बहुत अच्छे से संभाल लेगी और इसे भी
एक सहारा मिल जायेगा।" बेचारे वृद्धजन
सकपकाते हुए बोले।
"अरे हाँ
हाँ ! वो तो है ही।" भईया जी ने बात संभाली। फिर लड़की की तरफ देख कर कहा, "जाओ बेटा, तुम
अंदर जाओ।"
मैं बस देखती रही उस दुबली पतली काया के इर्द गिर्द लिपटी साड़ी को हवा
से हिलते-डुलते,
बहकते, संभलते अंदर जाते हुए
बिचवई (शादी के मध्यस्थ) और मिसिर, भईया जी और इनका मुँह ताक रहे थे।
भईया जी ने मिसिर से कहा, "हम जरा
बाहर टहल कर आते हैं।" और उठ खड़े हुए। उनके
उठने में कुछ ऐसा इशारा था कि हम सब को पीछे से उठ खड़े होना था और उनके पीछे चल
देना था।
बाहर आ कर भईया जी ने पूछा, "कैसी लग रही है तुम लोगों को ?"
दीदी एकदम से उत्साहित हो गईं, "हमें तो बहुत अच्छी लग रही है। बड़ी सीधी दिख रही है।"
रिंकल ने चहकते हुए कहा, "तुम्हे कैसी लगी बिस्नू भईया ?"
"क़ाऽऽ
क़ाल क़ाली है।"
बिस्नू का मुँह जो
बड़ी मुश्किल से उन्होने सीधा रखने की कोशिश की थी, वो फिर
से टेढ़ा हो गया।
बिस्नू की बात सुन कर भईया जी ठहाका मार कर हँस पड़े, "अरे एक शादी पहले काली वाली से कर लो। दूसरी गोरी
से कर देंगे।"
बिस्नू ने शर्माते हुए खी खी खी कर अपना चेहरा हाथ से छिपा लिया।भईया
जी मेरी तरफ देखते हुए कहा, "तुम का
कह रही हो निसानपुर वाली ?"
मुझे बड़ी तसल्ली हुई कि आखिर मुझे भी अपनी बात कहने का मौका मिला। "हम बस यह कह रहे थे कि एक बार लड़की से भी उसकी
राय पूछ लेते।"
"अरे
लड़की की राय क्या पूछना ? उसकी
राय के बिना थोड़े यहाँ बुलाया गया होगा हम लोगों को।" मेरे पतिदेव ने अकड़ कर मुझे मूर्ख साबित करना
चाहा।
"बबुआ
वईसे सहिये कह रहे हैं, फिर भी अगर तुम्हारा
मन है तो तुमही पूछ लो।" भईया जी ने सोचा
होगा कि मेरा भी मन रह ही जाये। बाकी परिणाम तो उन्हें पता ही था कि लड़की मना नहीं
करने जा रही शादी से.
थोड़ी देर में हमें घर के अंदर एक कमरे में लड़की के पास पहुँचा दिया
गया। हमने बड़ी सहूलियत से पूछा "बिस्नू
बस हाईस्कूल तक की पढ़ाई किये हैं, पता है
ना तुम्हें ?"
लड़की ने हाँ में सिर
हिला दिया। मैं कैसे कहती कि हाईस्कूल तो खाली नाम भर को है। गाँव के स्कूल से
डिग्री मिलनी थी,
जितने चाहें उतने
नंबर की मार्कशीट बन जाती, वरना तो
बिस्नू को अपना नाम लिखने के अलावा कुछ नहीं आता, वह भी
हाथ काँपता रहता है।
"और भी
सब जानती हो ना उनके बारे में। उनका सरीर..." मैं उस लड़की से खुल कर पूछ लेना चाहती थी कि कहीं बिचवईयों ने किसी
धोखे में तो नहीं रखा लड़की को, लेकिन तब
तक मंजू के छोटे भाई, बड़कऊ की पत्नी बोल उठी "सब जानती हैं। सब बता दिया है हम लोगों ने।"
मैने मंजू की तरफ देखा, उसने
सिर झुकाये हुए कहा, " सादी तो करना ही है।
छुटकन भी अब शादी लायक हो रहे हैं। बड़कऊ की तो दो साल पहले सादी कर ही दी। अब इन
लोगों की गिरहस्थी है। इन लोग अपनी मलिकई, अपनी जागीर संभालेंगे। हम कब तक इन पर
बोझा बनेंगे। फिर कहीं ना कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना।"
उसके इतना कहते ही बड़कऊ की पत्नी बोल उठी, "काहें का समझौता दीदी ? बाबूजी भी होते तो अईसा लड़का ना खोज पाते। सौ
बिगहा में तो खाली गेहूँ बोआ जाता है पांडे जी के। झारन बुहारन से जाने कितने घर
पल जायें।"
इसी के साथ बड़कऊ की पत्नी ने जल्दी पकड़ ली, "आप चिंता ना करें. सब एकदम बढ़िया है. चलिए बाहर
कुछ खा पी लीजिये, कुछ खाया नहीं आपने हम देख रहे थे और देखिये अगर सब लोगन की
सहमति हो जाये तो अभी ही कुछ सुभ साईत कर लिया जाये. हमाये लोगों का भी जी तनी
पक्का हो जाये औ आपौ अपनी बहुरिया लाये की तइयारी सुरू करौ... अरे सुनि रहे हौ।" बड़कऊ की दुलहिन ने बाहर की तरफ मुँह कर के आवाज़ लगाई और बड़कऊ तुरंत
सामने खड़े पाये गये। हमें लग तो रहा था कि हम लड़की से खुल कर बात नहीं कर पाए, लेकिन
हम अब कुछ कर भी नहीं सकते थे.
सब लोग बैठक में इकट्ठा हो गये। दीदी खुश हो कर बाहर खड़ी इनोवा से
ज़ेवर के डिब्बे निकाल लायीं। उन्होने लड़की के गले में खुश हो कर हार डाल दिया और
बड़े लाड़ से उसकी ठुड्डी पर हाथ रख, उसका चेहरा ऊपर कर, उसे आँखों मे भर लिया। मेरे
हाथ में सोने की मोटी सीकड़ देते हुए मुस्कुरा कर मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया। अजीब
हूँ मैं भी। मंजू के गले में सीकड़ डालते हुए दो दिन पहले कमरुद्दीन के घर पर सजाया
जा रहा बकरा जाने क्यों बार बार आँख के सामने कौंधने लगा। बकरीद अभी ही बीती है
ना।
बिस्नू ने मंजू को तनिष्क की अँगूठी पहना दी़ । भईया जी कल ही शहर से
लाये हैं। रिंकल ने कहा आज कल फैशन है, सगाई
में तनिष्क की अँगूठी ज़रूरी है। मंजू ने सिर उठा कर देखा भी नहीं बिस्नू को।
जश्न खतम हुआ। सब इनोवा पर हँसते, मुसकुराते
बैठ गये। सबके हाथ में उपहार के डिब्बे यह कह कर पकड़ा दिये गये थे कि "आपकी हैसियत के सामने कुछ नहीं लेकिन पान फूल जो
है, स्वीकारें।" दीदी,
भईया जी को खुशी-खुशी
बहुत कुछ बता रही थीं। रिंकल मोबाइल पर खटाखट उँगली चला रही थी। बिस्नू थोड़ी थोड़ी
देर पर कह देते "क़ाआ़ क़ाऽऽलीऽऽ हैऽऽ।" उनकी इस अदा पर सब ठहाके मार कर हँस पड़ते।
मैं गाड़ी की खिड़की से सड़क के किनारे चलते खेतों को देखे जा रही थी़।
बिलकुल वैसे खेत,
जैसे निसानपुर के।
उस खेत में अचानक अपना चेहरा दिख जाता और फिर वो चेहरा मंजू का चेहरा बन जाता। मन
घबरा जा रहा था मेरा। घबरा कर अंदर देखती, तो अंदर
का जश्न और ज़्यादा घबराहट पैदा करता। मैं फिर से देखने लगती खेतों की तरफ। खेतों
के पार गाँवों की तरफ। गाँवों के बीच घरों की तरफ। उन घरों में दिखता एक घर गेयान
तिवारी का। जिस घर में जाने कितने रंग थे। बाँसुरी, जन्माष्टमी
की मृदंग, होली की ढोल। बहुत बड़ा सा दुआरा। दुआरे पर दण्ड
पेलते गेयान तिवारी और उनके साथी। बड़ा सा आँगन, आँगन
में लगी गेयान तिवारी औेर उनके साथियों की थालियाँ। थालियों में दो तरह की सब्जी, साग, सिकहरी
वाली दही, अरहर की कऊरी दाल और इन सब के साथ हर थाली में
ज़रूरी रूप से रखी थी एक एक कटोरी घी की।
उस बड़े से आँगन और बड़े से दुआरे के बीच खड़े भईया कह रहे थे, "अम्मा दो बिटियन के बियाह
बाबूजी किये औ दो खेत बेचे। अईसे बुजुरगन की निसानी बेच बेच
बिटियन की सादी की जाती है का ? हम दोनों भाइन का कुछ सोचेंगे या बस चार बिटियन की शादी कर के अपने रास रंग में सारी जमीन खतम कर देंगे ?"
अम्मा बड़ी सी थाली में चने की दाल लिये उसमें से अक्सा निकाल कर
फेंकते हुए बोल रही हैं " का करें
हम ? किसी की सुने हैं आज तक तुम्हाए बाबूजी। तुम भी तो लरिका नहीं धरे हो, कहें नहीं तुम ही ढूंढते।"
"खोजे तो
हैं, तभी तो बात कर रहे हैं। अब खेत ना बिकने देंगे
अम्मा हम। फसल बिके उसी पइसे में घर का
खरच रख के बाकी पईसा लाजो की सादी में लगा देंगे.”
"करो तब... ठीकै है़। हम भी एक आध जेवर इधर उधर कर देंगे।
लेकिन सादी देखे कहाँ हो ? घर दुआर ठीक है न ?"
"घर दुआर
तो अम्मा अव्वल है। सौ बिगहा में तो उनके खाली गेहूँ बोवा जात है। पउनी परजा तो
झारन बुहारन से पलि जाते हैं."
"अच्छा ? कउन गाँव है ?"
"पाडेंपुरा।
उनही के पुरखन का बसावा गाँव है। घर तो इतना बड़ा है कि कोई छोट मोट गाँव बसि जाये।
उस पे लड़का खुद सरकारी नौकर है। कोई चीज की कमी नहीं औ सबसे बड़ी बात कोई माँग
नहीं।" भईया खुश हो कर बता रहे हैं। अम्मा का हाथ अक्सा
ढूँढ़ते ढूँढ़ते विस्मय से रुक गया। भईया की बात नहीं रुकी " सरकारी दफ्तर मा चपरासी है। उनके बड़े भईया का बड़ा
दबदबा है। खाली नाम को जाते हैं दफ्तर। कुछ करना धरना नहीं रहता।. घर बैठे तनखाह
मिलती है ये जानो।" अम्मा अपने लाल पर
वारी बलिहारी जा रही हैं।
"बस एक
बात है जो तुमका खराब लग सकती है, वो ये कि लड़िका दुजहा (लड़के की एक शादी हो चुकी
है) है।" भईया ने सारी सफेद पुताई पर काली सियाही वाली
दवात उड़ेल दी हो जैसे।
"दुजहा ?"
"घबराओ
ना अम्मा़। हम दुसमन नहीं हैं लाजो के। दुजहा खाली नाम के है। अभी दो साल पहिले
सादी हुई थी। कहते हैं बच्चा होने में बहुत खून बहा मेहरारू के, उसी के कारन एक आध
महीना बाद महारारू खतम हो गयी। दसेक महीने का बच्चा है।"
" बच्चौ
है ? अरे मतलब तुम सीधे काहें नहीं अपनी बहन की गर्दन काट ले रहे हो, इस तरह काहें
मार रहे हो।"
रात हो गई है। अम्मा के बगल में रीसू है और रीसू के बगल में हम। अम्मा
लेटी लेटी हमारे बाल में उँगली फिरा रही हैं "भईया जिससे सादी करने को कह रहे हैं उसके लिए हाँ कभी ना करना, कहि
देना कि दुजहे से सादी करोगे तो हम कुँआ इनार ले लेंगे।"
मैं चुपचाप साफ आसमान के चमकते तारे देख रही हूँ। सुग्गो दीदी की सादी
हुई तो कितनी कलह हुई घर में। ताल पर का खेत बेच दिये थे बाबूजी। जीजा घर में पड़े
रहते हैं। दीदी भाग के यहाँ आती हैं तो जीजा भी आ जाते हैं। भाभी कितना बड़बड़ाती
हैं। अम्मा किसका किसका तो बरदाश्त करती रहती हैं। बाबूजी ने कभी उनकी सुनी नहीं।
ज्यादा समय तो कहाइन काकी के पास ही गुजरता है उनका। भईया, बाबूजी का भी गुस्सा अम्मा पर ही उतारते हैं।
भाभी चार चार ननदों का भार सँभाले खीझती रहती हैं। जिस खेत, संपत्ति पर उनकी शादी
हुई थी वो तो हर ननद की विदाई के साथ कम हुई जा रही है। अम्मा सब खुद चुपचाप सहतीं
और मुझे भी हमेशा कहती हैं, "धीरज
औरत का सबसे बड़ा सहारा है।" आज पहली
बार अम्मा ने इस सहारे को छोड़ने की बात की है।
भग्गो दीदी के देवर साथ ही पढ़ते थे। पहले मुझसे एक क्लास आगे थे, बड़ी माता निकल आने के कारण इम्तिहान नहीं दे पाये
तो अब मेरे क्लास में आ गये थे। कोई ना कोई बहाना बना कर घर आ जाया करते थे, कभी कॉपी देने, कभी
कॉपी लेने, कभी किसी प्रश्न को हल करने के बहाने बात कर लेते
थे। मुझसे कभी कहा तो नहीं लेकिन लगता यही था की मुझे पसंद करते हैं। मजाक में एक
बार भाभी ने भग्गो दीदी से कहा था, "बहुत
चक्कर लगाये लगे हैं आपके देवर घर के। उनका कामै नही पूरा होता लाजो बीबी के बिना।
सोच रहीं हैं कि इनसे कहि के गाजा बाजा के साथ आपै के घर पहुँचाय दें लाजो बीवी
को। हमरो काम बने, आपौ का।"
भग्गो दीदी ने तुनक के कहा था "जितना पढ़ने में तेज हैं धीरू उतने ही
सुंदर। पता नहीं कितने लोग तो अभी से दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े हैं। धीरू को तो जानो
हमाए खुद के बेटा हैं वो। हमी को उनकी सादी में मलकई संभालनी है। तो किसी काली
कलूटी से सादी नहीं करेंगे हम अपने देवर की, चाहे
हमाई बहिन ही हो।"
मैं आसमान में उड़ते उड़ते जमीन पर आ गयी थी।
"ऐ लाजो ! सुनी कि नाहीं ?" अम्मा पूछ रही हैं।
" लड़का
सरकारी नौकर है अम्मा ! तुम कहती हो कि
भग्गो दीदी औ सुग्गो दीदी के दुलहा की नौकरी लग जाये तो उन लोगों का भाग भाग कर
यहाँ आना छूट जाये।"
"अरे
बउरही ! अब कहिते हैं। जब कोई राह नही देखाई देती। बकिर
सरकारी नौकरी खातिर दुजहे से बियाह कर लेगी ? एक बच्चा है उसके । जाते ही सउरी संभालनी
पड़ेगी। टट्टी पिसाब सब। एक्कौ दिन दुलहिन नहीं बन पाओगी मोरी बिटिया। अपने लड़िके
बच्चे होंगे की नहीं ? औ कुच्छो कर लोगी, सउतेली
महतारी का नाम हमेसा लगा रहेगा साथ।"
"काहें
लगा रहेगा अम्मा ? रीसू का भी तो टट्टी पिसाब सब करते ही हैं ना। जइसे इन्हे पाल
लेते हैं, उसे भी पाल लेंगे। सौतेली महतारी हम बनेंगे तब ना
नाम जुड़ेगा ? आठ नौ महीने का लड़का क्या जाने सगा सतौला ?" हम आसमान देख देख कर बोले जा रहे हैं। जैसे उन्ही
सितारों को इधर उधर कर के गणित बैठाना चाह रहे हों अपनी किस्मत की।
" अरे मोर
धीया। काहें अपनी जिनगी पानी में बोर रही है ? मास्टर साहब कहि रहे थे बरहवे में अबकिर जिला टॉप
करिहे आपकी बिटिया। इतना गुन ढंग, पढ़ाई
लिखाई। काहें सब नास करे के सोचि रही हो।"
"कल्ला
भी बड़ी हो रही है अम्मा। भईया को तो सबको निबटाना है। उनके भी तो बिटिया हो गई है
अब। कब तक बोझ बने रहेंगें हम। कहीं ना कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना।"
“कहीं ना
कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना…" ये किस
वाक्य की प्रतिध्वनि थी ? थोड़ी देर पहले मंजू ने यही बोला था न ? और बहुत दिनों पहले मैंने… यह कैसे ? मैं और मंजू आवाज़ में भी एक हो गये
थे। मैंने घबरा कर चेहरा इनोवा की खिड़की से अंदर बैठे लोगों की तरफ, अतीत से
वर्तमान की तरफ घुमा लिया। अंदर भईया जी की आवाज़ थी, "उसका छोटा भाई कह रहा था कि जीजाजी का फोन नंबर
दे दीजिये। हम मन मा कहे कि ससुर फोन नंबर अबहिने से ना लो। सुनो निसानपुर वाली
तुम्हारा नंबर दे देंगे। ज्यादा बात खुदै करना। बिस्नू से ज्यादा बात ना करने
देना। कुछ ऊँच-नीच हो तो ठीक नहीं। एक बार फेरा पड़ि जाये फिर चाहे जितना बतियायें।"
ओह फिर कुछ दोहराया सा जा रहा था। हम फिर से अतीत की तरफ पहुँच गये, निसानपुर
की तरफ। कल्ला ने बड़े शौक से इन्ही भईया जी से अपने जीजाजी का पता पूछा था। भईया
जी ने गाँव का पता दे दिया था। जहाँ ‘ये’ काम करते थे उस सरकारी दफ्तर का पता नहीं।
तब भी डर था ना कि इंटर में पढ़ रही लड़की आठवें पास लड़के, वो भी अपने गाँव के उसी स्कूल से आठवाँ पास लड़के, जहाँ रिपोर्ट कार्ड खुद बनाये जाते थे, से चिट्ठी पत्री के बाद कोई ऊँच-नीच ना फैला दे।
एक बार फेरा पड़ गया, फिर बस... !
इनोवा के रुकने से पता चला कि पांडेपुरा पहुँच चुके हैं हम। दूसरे ही
दिन से घर में ज़ोर-शोर से शादी की तैयारियाँ हो गयीं। सिर्फ दो ही महीने तो बचे थे। भईया जी कह रहे थे दो
महीना बीतते देर कहाँ लगती है और सच में
देर नही लगी।
दो महीने बीत चुके हैं। बारात जा कर आज लौटने वाली है। हर तरफ अफरा
तफरी है। लो बारात आ भी गई है। दुलहन उतारी जा रही है। लाल साड़ी पहने। ऊपर से लाल
चुनरी डाले। सिर झुकाये। दीदी धार उतार रहीं हैं। सभी बड़े, बुजुर्ग, मान्य, रिश्तेदार, औरतें दुलहिन परछ रहीं हैं। हमको भी
आगे कर दिया गया है। घूँघट के अंदर जाने कैसे मैं खुद को देखने लगी हूँ।
कोहबर में बैठायी गयी मैं। हँसी मजाक सुनती मैं। छेड़ छाड़ से गुज़रती। एक
अँधेरे कमरे में पियरी पहना कर बैठा दी गयी मैं। चतुर्सी की पूजा हो गयी है। गाँव
भर में सब भाभी लोगों को बहुत चिढ़ाया जाता था, चतु्र्सी
की पूजा के दूसरे दिन। मुझे डर लग रहा है, लेकिन
कुछ अच्छा जैसा भी लग रहा है।
दीदी ने मेरी गोद में एक बच्चा डाल दिया है। हमने उसे बहुत प्यार से
खुद से चिपका लिया। रीसू दो दिन से नहीं मिला था मुझसे। आवाज देने पर कोई हरकत नहीं
कर रहा। कान कुछ अजीब से हैं। कुछ ज्यादा ही छोटे। वह रोये जा रहा है। “ऐसा क्यों
?” मैंने धीरे से पूछा। “ऐसा ही है यह।“ दीदी बता रही हैं, “शहर के डाक्टर बताये
हैं दिमागी रूप से अपाहिज कहा जाता है इन बच्चों को। जब हुआ तब से सरीर थोडा फरक
है सबसे। डाक्टर साहब कहे हैं बहुत धीरे
धीरे बढ़ेगा या कोई हरकत करेगा। बहुत हो जायेगी तो दस ग्यारह साल के बच्चे जितनी
बुद्धि हो जायेगी।“ मैं सन्न हो गयी हूँ। मैं फिर से देख रही हूँ बच्चे को। वो
मुस्कुरा रहा है। दीदी मेरी गोद से बच्चा ले कर चली गयी हैं। मुस्कुरा कर कहते हुए
" बबुआ बेचैन हुए जा रहे हैं। लाओ लड़िका हमें दो।"
दीदी के जाते ही कोई कमरे में आ गया है। हाँ मेरे पति हैं। हम सिर झुकाए
बैठे हैं। पिक्चर में देखा था हमने घूँघट उठाता है दूल्हा, दुल्हन शरमाई बैठी रहती है। मेरी धड़कन बढ़ गई है। साँकल
चढ़ने की आवाज़ सुनाई दे रही है। दिया बुझ गया है। घुप अँधेरा। मेरी धड़कन और तेज हो
गई । कोई बिस्तर पर आ गया है। अब शायद घूँघट उठेगा। नहीं...। अचानक किसी ने घसीट
कर लिटा लिया मुझे। ब्लाउज़ की सारी बटन खोल दीं। साड़ी जहाँ जहाँ रोड़ा बनी खीझ कर
हटा दी गई। छातियाँ मसलते हुए कोई हम पर सवार है। यहाँ-वहाँ हर जगह दाँत गड़ाता। ये
चूमना तो नहीं था। मैं छटपटा रही हूँ। मैं चिल्लाना चाह रही हूँ। लेकिन फिर पता नहीं
क्यों खुद ही वो चीख घोंट ले रही हूँ। मैं लहू लुहान हूँ। बगल में एक शरीर पस्त
पड़ा है। उसे कोई मतलब नहीं मेरे दर्द से। उसे नींद आ गयी है।
ओह मैं बार बार कहाँ पहुँच जाती हूँ ? फिर वही अतीत। वर्तमान में लौटने के लिए मैं गौर
से मंजू की तरफ देख रही हूँ। वो मुझे देख
कर घूंघट के अन्दर से मुस्कुरा रही है। मैं उसकी तरफ से नज़र हटा लेती हूँ। सामने मुस्कुराते
हुए पति खड़े हैं, बिस्नू की कालर सही करते हुए। सरकारी नौकर पति, जिसकी नौकरी करने
में मुझसे पता नहीं क्या कमी हो जाती है और मैं हमेशा गालियाँ ही सुनती रहती हूँ.
गाँव वाले इन्हें मोटी बुद्धि का कहते और इनके लिए मैं बिना बुद्धि की हूँ। गाँव
वाले कहते, तुम मिली तो इनकी किस्मत खुल गयी और इन्हें लगता कि यह मिल गए तो मेरी
किस्मत खुल गयी।
सामने खड़े बिस्नू शरमाये भी जा रहे हैं और झल्लाए भी। सब बिस्नू को
देख देख खुश हैं। जब ये सब इतने खुश हैं तो आज इनकी माँ कितनी खुश होती। मैंने खुद
को अपराध भाव से जाँचा। मैं उतनी खुश नहीं थी असल में। मैं कुछ उदास थी। उदास थी
मंजू के लिए। जिसे मैं उस दिन सोने की चैन नहीं जिन्दगी भर के लिए जंजीर पहना आई
थी।
लेकिन विस्नू की माँ भी तो...?? सभी एक सी मोटी खाल के तो नहीं होते
ना। मेरी तो खाल ही मोटी है। बाद में पता चला था, शरीर की कमजोरी से नहीं, मन की
कमजोरी से ख़तम हुई थी बिस्नू की माँ। पति अजीब बुद्धि का तो था ही साथ में शराबी
भी था। एक उम्मीद थी कि बच्चे के सहारे जीवन कट जायेगा। उस बच्चे को डाक्टरों ने
मानसिक विकलांग बता दिया। बच्चा घोषित था, पति अघोषित। सुना है कि चार महीने के
बच्चे का मोह भी नहीं रोक पाया उस औरत को और किसी रात जाने कब पीछे के कुएँ में
छलांग लगा दी।
मैं उस कुँए की तरफ नहीं गयी कभी। वो कुआँ बहुत डरावना है। पति की मार
खा कर भी नहीं गयी। बेटी पैदा करने का क़ुसूर करने के बाद भी नहीं गयी। हर रोज़ उस
कुँए में समायी औरत से तुलना में नीचा दिखाए जाने के बाद भी नहीं गयी। उसने पांडे
खानदान को बिस्नु दिया था। वंश... मैंने ? रिंकल वहीं खड़ी थी, चेहरे पर बिन बात की
मुस्कान लिए।
दीदी ने कंधा हिलाते हुए कहा," ए निसानपुर वाली ! कहाँ
खोई रहती हो। दुलहनिया को तैयार कर दो ज़रा। उधर देख रही हो, बिस्नू कइसे बेचैन हो रहे हैं।" मैं चौंक कर फिर वापस लौटी आज में। बिस्नू की
जुबान पर अब भी असर है। ठीक से बोल नहीं पाते। कान मे मशीन लगवाई है। उससे थोड़ा
थोड़ा सुन पाते हैं। थोड़ा होंठ हिलाने के तरीके से समझ लेते हैं। इस साल २५ पूरे
हुए। बुद्धि ११-१२ साल के लड़के जितनी ही हो पाई। लेकिन ११-१२ साल का लड़का भी तो
लड़का ही होता है ना। एक बात तो सबको पता होती है। बीवी का मतलब क्या ? बिस्नू को भी पता है। बेचैन हैं वो, " एऽऽऽ मऽऽऽम्मीऽऽऽ भेऽऽजोऽऽऽ"
दीदी सहित सारी औरतें खिलखिला रही हैं। बिस्नू की रिश्ते की भौजाईयाँ
उनसे मजाक कर रही हैं। एक भौजाई ने मंजू की बाँह पकड़ कर उठने का इशारा कर दिया है।
चतुर्सी की पूजा हो गई है। पियरी पहने मंजू को उसी कमरे में ले जाया जा रहा है,
जिसमे मैं गयी थी। वहाँ रिंकल ने फूल से कमरा सजाया है। सीएफएल जल रहा है। बेड के
बगल में एक लैंप भी रखा है। मंजू कमरे में जा रही है। मेरी धड़कन तेज हो गई है।
बिस्नू भी कमरे में चले गये हैं। मेरी धड़कन और तेज हो गयी है। दरवाजा बंद हो गया
है। सिटकनी चढ़ने की आवाज़ आई है। खिड़की के शीशे से दिख रहा है, लाइट आफ हो गयी है। अचानक मेरी छातियों मे टीस उठ
गई है। मेरे चेहरे, गरदन में दाँत गड़ने
लगे हैं। मैं तड़फ उठी हूँ। जाने क्या हो गया है मुझे। मैं बंद कमरे के दरवाजे से
कान लगा कर खड़ी हो गयी हूँ। मुझे लग रहा है कोई घुटी आवाज़ आ रही है कमरे के अंदर
से। मै जाने कैसे लहूलुहान सी हुई जा रही
हूँ। और मुझे जाने क्या हुआ कि मैं दरवाज़ा भड़भड़ाने लगी हूँ "दरवाजा खोलो बिस्नू ! उसे छोड़ो। तुरंत छोड़ दो उसे।" मैं बेहोश सी चिल्ला रही हूँ। हर तरफ बुझी हुई
बत्तियाँ चटाचट जल गई हैं। सब मेरे गिर्द इकट्ठा हो गये हैं। कोई समझ नहीं पा रहा
कि मैं कर क्या रही हूँ। मै भड़ भड़ भड़ भड़ दरवाजा खटखटाये पड़ी हूँ। दीदी मुझे पकड़
रही है " ए निसानपुर वाली ! हुआ का
है ? पगला गई हो का ?" मैंने दीदी का हाथ झटक दिया है। मैंने एक-एक रट लगा रखी है, "खोलो बिस्नू, जल्दी
खोलो दरवाजा।"
मेरे पति और भईया जी
भी आ गये हैं। भईया जी की आवाज़ सुनाई पड़ रही है "ये क्या पागलपन है निसानपुर वाली ?" और "तड़ाक्" एक जोरदार थप्पड़ पड़ा है मेरे चेहरे पर। यह मेरे पति का हाथ है। " भाग साली ! अपना तो
२४ साल से हर रात बरबाद कर रही है हमारी। आज लड़के की भी खोटी कर रही है कमीनी।" उस थप्पड़ से मैं रो नहीं रही हूँ। दर्द में तो
मैं पहले से हूँ,
थप्पड़ पड़ने से कहीं
ज्यादा दर्द में। अचानक "धड़्ड़्ड़" दरवाज़ा खुल गया है, मंजू मुझसे लिपट गयी है। सब मुझे मंजू से अलग कर
रहे हैं। मुझे जाने क्या हो गया है आज। वो जो २४ साल से नहीं हुआ था। मैं सबको
झिटकते, धक्का देते हुए मंजू को आँगने में खींच लायी हूँ।
आँगन के बीच-ओ-बीच मैं मंजू को ले कर बैठ गयी हूँ। मंजू मेरे गले से लगी सिसक रही
है। उसके आँसू की धार मेरे कंधे भिगो रही है। मेरे आँसू की धार उसके कंधे भिगो रही
है। मेरे पति की आवाज़ कमरों को पार कर आँगन तक आ रही है "बदजाऽऽत"
कंचन सिंह चौहान
18/333 इंदिरा नगर,
लखनऊ-२२६ ०१६