Friday, December 27, 2013

कोई सागर दिल को बहलाता नही

१६ दिसंबर,२०१२ की उजली दोपहर। सुबह सुबह दीदी को फोन किया पता चला कि खाँसी आ रही है बहुत ज्यादा। रात भर आती रही। मनोज नॉर्मल फिज़ीशियन की क्लीनिक पर ले कर गया। दीदी के घर धूप नही आती थी। मैने फोन कर के कहा मेरे घर आ जाओ यहाँ धूप में लेटना थोड़ी देर को। वो पहले ही कहाँ मना करती थी, अब तो और नही। मुझे बड़ा कब माना उन्होने ? बच्चा ही समझती थी। समझती थी कि कुछ भी बर्दाश्त करने की क्षमता नही मुझमें। ना डाँट। ना सच। मुझसे छोटे छोटे लोगो से कह गई कि अब जीवन की आस नही। लेकिन मुझसे तो कभी नही कहा़। मेरी उम्मीद में हमेशा सिर हिलाती रही। मुझे निराश नही होने देना चाहती थी वो कभी भी शायद।

बाहर की धूप में दरी बिछा कर मोटा बिछौना डाल दिया धूप में। अदरक़ वाली चाय जब आई तो बोली "तुम्ही तो मना करती हो कि अब दूध वाली चाय ना पिया करो।" मैने हूक़ संभालते हुए कहा। अब कुछ नही मना करते हैं। तुम्हारा जो मन हो वो खाओ।
"नही रहने दो" उन्होने धीमे से कहा।

मैं काढ़ा बनवा लाई।
फिर जबर्दस्ती खुश दिखने की चाहत में चहक चहक कर बताने लगी, "ये देखो दीदी, ये ना प्यूटीनिया है, ये डॉग फ्लॉवर। ये गुलाब देखो कितना सुंदर खिला है। देख रही हो सारी बगिया हरी हो गई है। अब ऐसे ही तुम भी धीरे धीरे हरी हो जाओगी।"
वो ऐसे मुस्कुराई जैसे किसी बच्चे की नादानी पर मुस्कुराया जाया जाता है " मौसमी फूलों पर मेरी जिंदगी डिसाइड कर रही हो ? मौसम बदलेगा और ये सब मुरझा जायेंगे।"
मुझे अपनी बेवक़ूफी पर वाक़ई अजीब खीझ हुई।

मैने फिर बात बदल दी। "जानती हो दीदी, जैसे ही तुम ठीक होगी ना, तुम कार चलाना सीख लेना। और तुम्हारी हेयर स्टाइल एकदम चेंज। लेगिंग और कुर्ती के साथ एकदम नया अवतार होगा तुम्हारा। और हम दोनो बहने मिल कर खूब काम करेंगे। सोशल वर्क। ये सामने झोपड़ी के बच्चों को पढ़ाया जायेगा और...."
वो बीच में बात काट कर बोली वो "कौन सा गाना है.....कोई सागर दिल को बहलाता नही...अब ये सब बातें अच्छी नही लगतीं।"
मैं अपनी सारी मुर्खताओं के साथ चुप हो गई।
मन ही मन गुनती रही गीत के शब्द, सारे अंतरे। हर शब्द, हर स्टैंजा फिट था उन पर।

मुझसे छुप के, बच्चों से छुप के किसी दिन अकेले में कहती तो होगी ही

मैं कोई पत्थर नही इंसान हूँ,
कैसे कह दूँ ग़म से घबराता नही।

दर्द को हद से आगे तक बर्दाश्त करने के बाद भी एक के बाद दूसरे अंग का साथ छूटता पा कर किसी न किसी दिन तो मन कह उठता होगा

जिंदगी के आईने को तोड़ दो,
इसमें अब कुछ भी नज़र आता नही

और अब कहीं दूर या कहीं हमारे ही इर्द गिर्द, हमें अपने से अलग होने के बावज़ूद हँसता, घूमता देख कभी मन में आ ही जाता होगा ना

कल तो सब थे कारवाँ के साथ साथ,
आज कोई राह दिखलाता नही।

मेरी बहादुर बहन ! मुझे माफ कर दो, तुम मुझे जितना बहादुर बनाना चाहती थी, मै उतनी बहादुर नही बन सकी।

Thursday, October 3, 2013

विविध भारती ! बचपन के दोस्त को जन्मदिन मुबारक़

यूनुस जी की फेसबुक पोस्ट पर पढ़ा आज विविध भारती का जन्म दिन है। 

जब से होश सभाला, माँ को जाना, बाबूजी को जाना, घर को जाना, तब से जाना विविध भारती को। घर में एक बड़ा सा रेडियो आ चुका था। सुना बड़े भईया को दहेज के साथ मिला था। वो सुबह भाभी के साथ किचेन में पाया जाता। दोपहर में बाउंड्री में। रात में पिता जी के साथ होता था़ समाचार बाँचता हुआ।

मेरी सुबह ढेर सारा दर्द देने वाली एक्सरसाइज़ से होती। नाश्ता करते समय सुनाई देता "मैं अपने खून से आसमाँ को रंग दूँगा, क्रांति लिख दूँगा। क्राऽऽऽतिऽऽऽ" ये सबसे पुरानी याद है विविध भारती की। 

माँ स्कूल जाने को तैयार हो रही होतीं, बाबूजी और दो भईया लोग आफिस, रसोई से आँगन तक दो भाभियाँ और दीदियाँ चहल कदमी कर रही होतीं। नाश्ता बनाती, टिफिन पैक करती। माँ का सामान जगह पर रखती, बाबूजी का पीढ़ा रखती। और पीछे से जाने कौन सुन रहा होता। संगीत सरिता, भूले बिसरे गीत, चित्रलोक। 

स्कूल देर से जाना हुआ। चौथी कक्षा से। अब जब व्यक्तित्व निर्माण में अंजाने ही कोई आपका रोलमॉडल बन जाता है, तब मेरे रोलमॉडल का सबसे प्रिय साथ था, विविध भारती। 

अब उसका क़फस छोटा हो गया था। छोटे भईया ने अप्रेंटिस से बचा कर मेरी रोलमॉडल, को वो रेडियो ला कर दिया था।

स्कूल जा रही होती, तो चट पट तैयार कर रहे हाथों, चाय के साथ रोटी दे रहे चिमटे और बस्ते में टिफिन रख रहे हाथों के पीछे भूले बिसरे गीत बज रहा होता। स्कूल से लौट कर आती, तो मेरी रोल मॉडल गुसलखाने मे अपने उसी साथी को ताखे पर रख कपड़े धुल रही होती। उसका साथी उसे मनचाहे गीत सुना रहा होता।

घेर में सबसे पीछे था गुसलखाना ‌और गेट पर डाकिया मनी आर्डर, रजिस्ट्री, लेकर भड़भड़ भड़भड़ करता रहा जाता। मन चाहे गीत के आगे वो आवाज़ कहाँ सुनाई देती। कभी कभी कोई मेहमान भी....!! अम्मा स्कूळ से लौट कर आतीं, जान पातीं कि आज फिर फलाँ आदमी वापस हो गया गेट से और आग बबूला हो जातीं। शरमायी दीदी, सहमी दीदी। अम्मा का नाश्ता तैयार करने में जुटी होती।

शाम को मेरा होमवर्क और उनके साथी का जयमाला। 

रात में उनका सहलाती, एड़ी दबाती हुई मेरे स्कूल की कथा गाथाएं और उनके साथी का छायागीत। सुबह से काम में लगी वो जाने कब सो गयी होती। मैं गुस्सा हो कर बगल में लेट जाती और रात बिरात आँखें खुलने पर सुनाई देता कि वो साथी भी बोल बोल कर हार चुका और अब घर्रर्रर्र की आवाज़ आ रहौ होती शायद वो खर्राटें लेता था। मैं कुहनी मार कर बताती। तो पहिये सी स्विच से उसे शांत किया जाता। कभी कभी तो सोने में हाथ लगता और वो बिस्तर के नीचे। दो खानों मे बँटा हुआ....! डर के संभाला जाता। झट से बजा कर देखा जाता, वो भी एक बेशरम, बज पड़ता और मेरी रोलमॉडल के चेहरे पर हँसी....!!

मेरी टीन एज आई और दीदी विदा हो गयीं। उनके रिश्ते, नाते, चिट्ठियों वाली पोटली, ज्वेलरी बॉक्स, लंबे लंबे सूट, डायरी सब मेरी अनकही विरासत में आ गये। उनका साथी भी, अब वो मेरे साथ होता गुसलखाने में कपड़े धोते समय।

ऊबती दोपहरों में मनचाहे गीत सुनाता। दीदी ने एक रूलदार कॉपी में १० १५ गाने लिखे होंगे। मैने चार डायरियाँ भरी थीं। विविध भारती से सुने गानो से। बुझी बत्ती में कान के पास चलता छायागीत। तब दिमाग का मेमोरी कार्ड भरा नही था। अँधेरे में सुनायी देता वो मनपसंद गीत, हर अंतरे के साथ दिमाग में फीड हो जाता। सुबह समय मिलते ही डायरी में दर्ज़ और फ्री पीरियड में सहेलियों के साथ गुनगुनाहट।

एम०ए० कंप्लीट हुआ और मेरे पैर का आपरेशन हुआ। कॉर्बन रिंग्स पड़ी थीं। दर्द से रिश्ता पुराना था। लेकिन उतना दर्द कभी नही झेला था। मैने लिखा

"छत की ईँटे कम पड़ती हैं, रातें लंबी होती हैं, सोने वालों तुम क्या जानो, ये बातें क्या होती हैं।"

रात भर दर्द, नींद का नाम नही। उस कमरे प्लास्टर नही हुआ था। यहाँ से वहाँ, तक की ईँटे गिन जाती थी और फिर से शूरू करती थी।  

दीदी की एक सहेली ढेर सारी किताबें दे जातीं और भइया ले आये थे नया रेडियो। ढेर सारे बैंड वाला। क़फस और अधिक कॉपैक्ट था इस बार। और जाने कितने बैंड थे उसमें।  

मैं, दर्द, दवा, छत की ईँटे, नयी दोस्त किताबें और पुराना साथी विविध भारती।

वहाँ से निकली तो कंपटीशन की तैयारी में जुट गई। ढेर ढेर किताबे और उनके बीच विविध भारती़। पढ़ते पढ़ते थक जाती, तो उस साथी की सुन लेती और फिर से रिचार्ज हो कर लग जाती अपने लक्ष्य की ओर। 

इस बीच लड्डूलाल जी से इश्क़ भी हो चुका था। लड्डूलाल जी तीसरा इश्क़ थे। उनसे पहले गोपालदास नीरज और अटल जी के आशिक हो चुके थे हम। लड्डूलाल जी से आवाज़ का रिश्ता था। अपने खयालों मे किसी ट्रेन में बैठी मैं (जबकि तब तक भूल भी चुकी थी कि ट्रेन कैसी होती है, सफर ही कितना करना होता था और जो करना होता वो बस से करती, क्योंकि ट्रेन के प्लेटफॉर्म में लिये सुविधाजनक नही थे।) सामने की सिट पर बैठे लड्डूलाल जी। वो कुछ बोलते और मैं पहचान जाती। मुग्ध सी पूछती "आप लड्डूलाल जी हैं।"

वो मुस्कुरा कर अपनी दिल ले लेने वाली आवाज़ में कहते "आपको कैसे पता।"

और मैं निहाल सी कहती "आपकी आवाज़ कोई भूल सकता है क्या ?"

खैर लड्डूलाल जी तो ना मिले आज तक। यूनुस जी मिल गये इसी ब्लॉगिंग के गलियारे में। 

वो भी दिन आया, जब कंपटीशन की किताबों ने हमें हमारी मंजिल तक पहुँचा दिया। लेकिन मंजिल बड़ी दूर थी। घर से २००० किमी दूर। द्क्षिण भारत का एक क्षेत्र। कभी सोचा भी नही था। सोचा क्या जाना ही नही था कि इसी देश के किसी भूभाग में भौगोलिक, सांस्कृतिक भिन्नता ऐसी होगी कि हमें लगेगा कि हम विदेश आ गये।

 हमारे जाने की तैयारी में जो माँ ने दिया उससे इतर मेरी एक ही माँग थी। एक टू इन वन। जिसमें विविध भारती सुना जा सके।

आफिस में दिन भर एकड़ा, वेकड़ा सुन कर थके कान २४ घंटे में तीन बार ही सही लेकिन अपनी भाषा सुन पाते थे तो विविध भारती से। चित्रलोक उतना मोहक नही था। कुछ ही गाने रिपीट हो कर सुनायी देते। लंच में चावल चढ़ा कर विविध भारती आन। शुक्र है तब हिंदी गाने सुनायी देते और फिर एक बार रात को सोते समय। जब मन माँ, भईया, भाभी सहेलियों के साथ अपने घर में होता तो कानों मे मिठास घोल रहा होता विविध भारती।

२००३ जनवरी में जब मैं वापस उत्तर प्रदेश लौटी, घर तो नही, घर के पास, लखनऊ में। तब विपुल के पास जो रेडियो था, उसमें विविध भारती नही था। एफएम....! मेरा रेडियो छूट गया। अब सुनने का कोई चाव नही था। लोगो के पास रिक्शे में, कार में, मोबाइल में हर जगह एफ०एम० था। बस विविध भारती नही था। मुझे अब कोई चार्म नही था रेडियो का। मोबाइल पे गाने सुने गये। रेडियो नही।

अभी सिर्फ २ महीने पहले अचानक फिर मिल गया सर्च करते हुए विविध भारती। मेरे ही मोबाइल पर। अब फिर से लंच मनचाहे गीत के साथ होता है। हाँ मगर शिकायत है उससे, वैसे ही जैसे हर बिछड़े साथी से बहुत दिन बाद मिलने पर होती है। वक्त ने उसका भोलापन छीन लिया....!!

जन्मदिन मुबारक़ दोस्त.....!!

Sunday, September 22, 2013

लंचबॉक्स, विवाह संस्था और जाने क्या क्या

 
यूँ कहने को तो हर आदमी अकेला ही है। किसी से भी पूछ लीजिये वो भरे पूरे परिवार और समाज के साथ भी खुद को अकेला ही बता देगा। हर कोई खुद को उस शेर से जुड़ा हुआ पाता है कि
 
हर तरफ, हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी।
 
और उस शेर से भी कि
 
सबके दिल में रहता हूँ पर दिल का दामन खाली है,
खुशियाँ बाँट रहा हूँ मै और अपना ही दिल खाली है।
 
मगर सच तो ये है कि हमारे आपके इर्द गिर्द बेशुमार आदमी हैं, बहुतों के दिल में हम रह भी रहे हैं किसी ना किसी तरह।
 
पर सोचिये ज़रा उस औरत के बारे में जो सुबह से शाम तक एक घर के कुछ कमरों और कुछ दरवाजों के बीच है। दुनियाँ की नज़र में बिलकुल अकेली नही। खुश रहने को क्या नही है उसके पास। एक खाता, कमाता, स्मार्ट पति एक नन्ही मुन्नी, प्यारी सी बच्ची और क्या चाहिये खुश रहने को भला और अगर इस पर भी उसे कुछ चाहिये तो फिर उसकी डिमांड ग़लत है। उसे नही पता कि जिंदगी में बस उन्ही चीजों में खुशी ढूँढ़ लेनी चाहिये, जो हमें मिली हैं।
 
इला, हर दूसरे घर में पायी जाने वाली एक सामान्य महिला है। कहने को सुंदर। फिट। हनीमून पर पहनी गई ड्रेस आज भी थोड़ी ढीली ही है। फिगर, जैसे का तैसा। सुबह पति को भेजने के बाद शाम को पति के इंतज़ार तक़ काम ये कि कि पति को खुश कैसे किया जा सकता है। इसलिये क्योंकि खुद इला के खुश रहने की चाभी उस पति के ही पास है। सुबह से शाम तक की गई इन कोशिशों में नाक़ामयाब इला ना ही पाति को खुश कर पाती है और ना ही खुद की खुशी पाती है।
 
देखती हूँ, तो अपने इर्द गिर्द जाने कितनी इला दिखाई देती हैं। सुबह पाँच, साढ़े पाँच बजे उठ कर पति और बच्चों के लिये लंच बनाना, उनके सामान सही जगह पर रख कर उनके तैयार होने तक उनकी असिस्टेंट बनी रहना। उन्हे प्यार से विदा करना और उनका मशीन की तरह विदा ले लेना। उसके बाद शाम पाँच बजे तक जिंदगी में कोई गतिविधि नही। साहेब आफिस में है और उन्हे सबसे ज्यादा डिस्टर्ब पत्नी का फोन करता है। पत्नी जानती है ये ग़लत बात है। वो डिस्टर्ब करती भी नही। उसकी आगे की गतिविधि बस ये है कि वो घड़ी की सुई देखती रहे बस और इंतज़ार करे छः बजने का। छः बजने के कुछ देर पहले वो खुद को सही कर लेती है (वैसे अधिकांश पत्नियाँ ये भी नही करतीं, क्योंकि उन्हे पता होता है कि शादी के २ साल होते होते पति की रुचि उसकी खूबसूरती में रह ही नही गयी) दरवाज़ा खोलने के बाद उसे पता है कि अभी उसे कुछ नही बोलना है, क्योंकि साहेब पूरे दिन जिस तरह थक कर आये हैं, उसके बाद उन्हे ना ही कुछ बोलने का मन है ना ही सुनने का। चाय,नाश्ता, टी०वी के बीच घड़ी साढ़े नौ बजा देती है और डिनर का टाइम हो जाता है। साहेब का मूड थोड़ा हलका हो चुका होता है। लेकिन इतना भी नही कि वो पत्नी की समस्याए सुनें। उन्हे खुश रखने की मुहिम में लगी बीवी़ चुन चुन कर इर्द गिर्द की वो खबरे लाती है, जो सुखद हों। साहेब उखड़े उखड़े रिएक्शन के साथ सुनते हैं और सोने चल देते हैं। सुबह फिर वही दिनचर्या।
 
इस पर अगर इला जैसी महिला हो, जिसका शहर  मुंबई है, तो अकेलेपन में कुछ अधिक ही वृद्धि होना स्वाभाविक हैं।
 
२४ घंटे के इस अबोलेपन की कल्पना करना ही तक़लीफदेह है। उसमें कहीं से भी अगर कोई ऐसा मिल जाता है़ जिसके साथ थोड़ा भी कुछ बाँटा जा सकता है, तो वो जीवन का सबसे बड़ा सुख होता ही होगा। कैसा अजीब सा दुःख होता है जब हम नायक से सुनते है कि "कोई बात सुनने वाला नही होता, तो हम बहुत कुछ भूल जाते हैं।"
इर्द गिर्द कितने ही रिश्ते जो मैसेज के अपडेट्स पर टिके हुए हैं, मुझे याद आ जाते हैं। मुझे याद आता है कि वे भी बहुत दूर हैं एक दूसरे से। मगर हर थोड़ी देर की अपडेटेशन उन्हे सुख देती है, इस बात का कि कोई है जो उनके पल पल की खबर रखना चाहता है।
 
और देखिये ना कि वो जिससे हम अपने अकेलेपन को भरने की माँग कर रहे हैं, वो जो हमारा सो कॉल्ड पार्टनर है, अकेला वो भी है। कहीं दूसरी जगह की मैसेज अपडेट उसके भी खालीपन को भर रही है। अजीब बात है ना ये।
समझ ही नही पाती कि क्यों है ऐसा। विवाह जैसी संस्था में ऐसा क्या होना चाहिये कि ये अपने आदर्श रूप में स्थापित हो ? क्या ये संस्था बेकार हो गई है या फिर कुछ सुधार की माँग है इसमें ? पति या पत्नी संतुष्ट क्यों नही ? ये मनचाहा बंधन, अनचाहा कैसे हो गया है ?
 
या फिर इंसानी फितरत ही है भागते रहने की ? ढूँढ़ते रहने की ? वो जो सहज उपलब्ध है, उससे संतुष्ट ना होना ये स्वभाव है क्या उसका ? ऐसा तो नही कि उपलब्धता चीजों का मूल्य घटा देती है। वो प्रेमिका जिसके कितने कितने चक्कर काट कर, कितनी कितनी मनौनी, चिरौरी कर के अपना बनाने को राजी किया गया था। पत्नी बनते ही उसके बाद किसी और की दरकार क्यों हो जाती है ? वो पति जो लोगों के लिये प्राप्य है वो खुद को संतुष्ट क्यो नही कर पाता ?
 
क्या कहा ? ये सब बातें लंच बॉक्स से संबंधित तो नही। अरे नहीं, नही सब बाते कहाँ है लंचबॉक्स से संबंधित। ये तो वो बातें है, जो मेरे मन में आईं लंचबॉक्स देखने के बाद।
 
खैर प्रश्न तो और भी आये ये भी कि ये असहज से रिश्ते कितने दिन तक सुकून दे पायेंगे। ये रिश्ते जिनकी नींव कुछ मैसेज होते हैं, उन पर खड़ी दीवारों की उम्र क्या होती होगी ? और फिर क्या ये भी एक जगह जा कर उसी एकरसता का शिकार नही हो जाते होंगे ? ना होते तो वक्त की माँग पर यही रिश्ते लीगल हो जाते।
 
कुछ लोंगों को फिल्म के अंत को ले कर शिकायते हैं। असल में लोग प्ले और मूवी में अलग अलग उम्मीदों के साथ जाते हैं। यहाँ कुछ प्ले जैसा माहौल था। सबका अपना अपना नज़रिया, मगर मुझे लगा कि इन असहज रिश्तों का सहज अंत संभव भी नही था।
 
मूवी और भी कई जगह संवेदनाओं को हिलाती है। वो आंटी, जो मूवी में सिर्फ अपनी आवाज़ के साथ है, वो माँ जो कितने दिनो से पड़े पिता की एक ही तरह से सेवा कर रही है। इस महीने का इंतजाम कर के अगला महीना भगवान भरोसे छोड़। ये सारे लोग भले ही अलग से लगते हों, लेकिन हैं हमारे आपके बीच।
 
आंटी का ओरिएंट पंखा जमाने से नही बंद हुआ। वो चलते पंखे की सफाई कर देती हैं, क्योंकि अगर वो पंखा बंद हुआ तो कोमा में पड़े अंकल की साँसे बंद हो जायेंगी। सोचिये, किसी को बिस्तर पर ही सही, देखते रहने के लिये हम क्या क्या जतन करते हैं। ये हम मनुष्यों का कितना अजीब स्वभाव है।
 
लंग कैंसर से जूझ रहे पति की सेवा करती एक और औरत उसकी मृत्यु के बाद कितने सहज अंदाज में कहती है "बहुत भूख लगी है, मन हो रहा है कि पराँठे खाऊँ।" दिल दहल जाता है, उस औरत के वक्तव्य पर। वो बिलख कर रोती तो उतनी संवेदनाएं ना उपजतीं, जितनी उसके ऐसा कहने पर उपजती है।
 

शेख का कहना " हाँ सर अनाथ तो हैं हम। लेकिन मेरी माँ ऐसा कहती थी के साथ बातें कहना बात का वज़्न बढ़ाता है।" बड़ी सीधी सच्ची सी बातें। बिना किसी लाग लपेट। दिमाग को बहुत सारे विचार दे गई ये मूवी, मेरे लिये बस इसलिये भी विशेष हो जाती है, क्योंकि बहुत दिनो बाद लगातार सवा घंटे किसी चीज पर लिख पाई।