Monday, December 24, 2007

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,



२१ दिसंबर, २००७ को तेजी बच्चन ने दुनिया छोड़ दी..... तेजी बच्चन...वो तेजी बच्चन जो मुझे इसलिये नही पसंद थी क्योंकि वो महानायक अमिताभ की माँ थीं बल्कि इसलिये पसंद थी क्योंकि उन्होने न सिर्फ भारत को बल्कि विश्व को अमिताभ सा सपूत दिया था..!

वो तेजी बच्चन जो मुझे इसलिये नही पसंद थी क्योंकि वो मधुशाला के कवि डॉ० हरिवंशराय बच्चन की पत्नी थी, बल्कि इसलिये पसंद थीं क्योंकि मधुशाला के कवि की क़लम के निराश कवि ने जब उनसे पूँछा कि "क्या करूँ संवेदना ले कर तुम्हारी क्या करूँ मैं?" तो द्रवित होकर उन्होने उसे गले लगा लिया और जीवन साथी बन कर ऐसी प्रेरणा दी कि आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से डॉक्टरेट की उपाधि पाकर उन्होने दशद्वार से सोपान तक का सफल सफर तय किया।

डॉक्टरेट की उपाधि पाकर लौटे बच्चन जी को जब पता चला कि तेजी ने क्या क्या न बता कर उनका शोध पूर्ण कराया तो वे अभिभूत हो गये ...और माना कि अगर उन्हे ये सब पता चल जाता तो वे शोध अधूरा छोड़ कर लौट आठे होते! यहाँ सरकार की मदद बंद हो गई थी और तेजी ने अपने जेवर बेंच कर उनकी फीस का इंतजाम किया था और कहा था कि

एक जुआँ के दाँव पर हम सब दीन्हि लगाय
दाँव बचे, इज्जत रहे जो राम देय जितवाय।


कितनी बार बच्चन जी ने कहा कि मेरे अंदर की स्त्री तेजी के पुरुषत्व से आकर्षित रहती है भारत कोकिला से लेकर इंदिरा गाँधी तक को तेजी ने ही मोह रखा था.....!
ऐसी पत्नी...ऐसी माँ...ऐसी स्त्री को मेरी श्रद्धांजली उन्ही के नायक के शब्दों में.....!


इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का,
कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का,
तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है,
जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है,
स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है;
ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको,
कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा,
करने वालों की परवशताहै ज्ञात किसे, जितनी हमको?
कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं,
उस पार अभागे मानव का अधिकार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न किया था जब उसका, उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार दिए धर कंधों पर, जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर जर्जर खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी, दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर उस क्रूर कठिन को कोस चुके;
उस पार नियति का मानव से व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

संसृति के जीवन में, सुभगे ऐसी भी घड़ियाँ आएँगी,
जब दिनकर की तमहर किरणे तम के अन्दर छिप जाएँगी,
जब निज प्रियतम का शव, रजनी तम की चादर से ढक देगी,
तब रवि-शशि-पोषित यह पृथ्वी कितने दिन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का अस्तित्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

दृग देख जहाँ तक पाते हैं, तम का सागर लहराता है,
फिर भी उस पार खड़ा कोई हम सब को खींच बुलाता है;
मैं आज चला तुम आओगी कल, परसों सब संगीसाथी,
दुनिया रोती-धोती रहती, जिसको जाना है, जाता है;
मेरा तो होता मन डगडग, तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहुँचूँगा मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा!

Friday, December 7, 2007

आज हाथ थाम लो, एक हाथ की कमी खली।

लीजिये सुनिये वो गीत जिसने आज सुबह से ही मुझे अपनी गिरफ्त में ले रखा है।
गीत है कल से अखिल भारतीय स्तर पर प्रदर्शित होने वाली सुधीर मिश्रा द्वारा निर्देशित फिल्म खोया खोया चाँद। अब फिल्म कैसी होगी ये तो कल ही पता चलेगा, लेकिन गीत ने मुझको बाँध लिया है।

चाँद से आगे जाने की ख्वाहिश और सितारों के फेर में पीछे रह जाने का ग़म.... एक आम सी बात लेकिन खुद के लिये खास महत्व रखती है और हर एसे पल में ज़रूरत महसूस होती है उस शख्स की जिससे हम कह सकें कि

आज हाथ थाम लो, एक हाथ की कमी खली।





हम सब जो बाहर से बहुत बहादुर दिखते हैं कहीं न कहीं बहुत कमज़ोर होते हैं, लेकिन बहुत ताकत मिल जाती है अगर अपने अंदर अहसास हो कि जब हम गिरने लगेंगे तो एक हाथ है जो हमें सम्हाल लेगा। और बस यही अहसास है जो हमें दुःखी होने पर सबसे बड़ा सहारा देता है। फिर वो हाथ चाहे जिस रूप में हो।
खैर फिलहाल तो सुनिये मेरे साथ ये गीत

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आज शब जो चाँद ने है है रूठने की ठान ली,
गर्दिशों में है सितारे बात हमने मान ली!

अंधेरी स्याह जिंदगी को सूझती नही गली,
कि आज हाथ थाम लो इक हाथ की कमी खली

क्यूँ खोये खोये चाँद की फिराक़ में, तलाश में, उदास है दिल,
क्यूँ अपने अपने आप से खफा-खफा ज़रा ज़रा सा नाराज़ है दिल

ये माजिलें भी खुद ही तय करे,
ये फासले भी खुद ही तय करे
क्यूँ तो रास्तों पे फिर सहम सहम सम्हल सम्हल के चलता है ये दिल

क्यूँ खोये खोये चाँद की फिराक़ में, तलाश में, उदास है दिल,


जिंदगी सवालों के जवाब ढूँढ़ने चली,
जवाब में सवालों की इक लंबी सी लड़ी मिली।
सवाल ही सवाल हैं सूझती नही गली,
कि आज हाथ थाम लो इक हाथ की कमी खली!

जी में आता है, मुर्दा सितारे नोच लूँ
इधर भी नोच लूँ, उधर भी नोच लूँ !

एक दो का ज़िक्र क्या मैं सारे नोच लूँ !

इधर भी नोच लूँ, उधर भी नोच लूँ !
सितारे नोच लूँ मैं सारे नोच लूँ


क्यूँ तू आज इतना वहशी है, मिज़ाज में मज़ाज़ है ऐ गम ए दिल
क्यूँ अपने अपने आप से खफा-खफा ज़रा ज़रा सा नाराज़ है दिल

ये माजिलें भी खुद ही तय करे,
ये फासले भी खुद ही तय करे
क्यूँ तो रास्तों पे फिर सहम सहम सम्हल सम्हल के चलता है ये दिल

दिल को समझाना कह दो क्या आसान है,
दिल तो फितरत से सुन लो न बेइमान है
ये खुश नही है जो मिला, बस माँगता ही है चला

जानता है हर लगी का, दर्द ही है बस इक सिला।

जब कभी ये दिल लगा, दर्द ही हमें मिला,
दिल की हर लगी का सुन लो दर्द ही है इक सिला !

क्यूँ नये नये से दर्द की फिराक़ में, तलाश में, उदास है दिल,
क्यूँ अपने अपने आप से खफा-खफा ज़रा ज़रा सा नाराज़ है दिल

ये माजिलें भी खुद ही तय करे,
ये फासले भी खुद ही तय करे
क्यूँ तो रास्तों पे फिर सहम सहम सम्हल सम्हल के चलता है ये दिल

क्यूँ खोये कोये चाँद की फिराक़ में, तलाश में, उदास है दिल,
कयूँ अपने अपने आप से खफा-खफा ज़रा ज़रा सा नाराज़ है दिल

ये माजिलें भी खुद ही तय करे,
ये फासले भी खुद ही तय करे
क्यूँ तो रास्तों पे फिर सहम सहम सम्हल सम्हल के चलता है ये दिल

Monday, December 3, 2007

तुम बेसहारा हो तो किसी का सहारा बनो

एक गीत जो बचपन में ही जब से सुना तब से बहुत सहारा देता है और आज के मेरे जीवन का शायद सबसे बड़ा दर्शन है, मुझे निराशा के क्षणों से बहुत जल्दी उबारता है ये गीत। आप के साथ साथ बाँटना चाहूँगी, ये गीत मैने सिर्फ गुनगुनाया नही है, बल्कि जिया है।

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Wednesday, November 28, 2007

गुरू जी का ब्लॉगिया कवि सम्मेलन

गुरु जी पंकज सुबीर से वादा था कि २४ अक्टूबर को हुए ब्लॉगिया कवि सम्मेलन के विषय में अपने ब्लॉग पर विस्तार से चर्चा करूँगी ऐसे कुछ संजोग पड़े कि समय ही नही मिला। दिन भी काफी व्यतीत हो गये तो सोचा चलो रात गई, बात गई, लेकिन आज जब गुरू जी के ब्लॉग पर पढ़ा कि १५ दिन से वो क्लॉस नही ले रहे लेकिन किसी भी शिष्य ने उनका हाल नही लिया तो सचमुच अपने पर ग्लानि हुई। हम ब्लॉगर मित्र भले एक दूसरे को सीरत से न पहचानते हों लेकिन कहीं न कहीं बँधे तो हैं ही और ऐसे में जब भी हम किसी समस्या में पड़ते हैं तो अपने अन्य मित्रो के साथ ब्लॉगर मित्रो की याद आना स्वाभाविक ही है, तो गुरू जी से सार्वजनिक रूप से क्षमा माँगते हुए, मैं उनका आभार व्यक्त करती हूँ कि उन्होने ब्लॉग पर ही सही मुझे कवि सम्मेलन मे शामिल होने का पहला मौका दिया, जो कि मेरे लिये एक स्वप्न ही है।..ब्लॉग के मंच पर लाते हुए जब उन्होने कहा कि

और अब आ रहीं हैं कंचन सिंह चौहान इनके लिये चार पंक्तियां

जिसको देखो वो मीत हो जाए ,
सारा आलम पुनीत हो जाए,
तुमको लय छंद की ज़रूरत क्‍या,
जो भी गा दो वो गीत हो जाए आ रहीं हैं कंचन


तो पढ़ कर मुझे लगा कि मैं बहुत बड़े कवि सम्मेलन के मंच पर चढ़ रही हूँ और संचालक मुझे नवाज़ रहे हैं इन शब्दों से। रात मे जब माँ को फोन पर ये लाइने पढ़ कर सुनाई तो वे भावुक हो गई और सुबह तक मोहल्ले के हर व्यक्ति के मुँह पर लाइने चढ़ गई थी....और वो कविता जो मैने वहाँ बाँटी थी वो कुछ इस तरह थी,






स्वर्ण नगरिया तेरी द्वारिका, कोने-कोने सुख समृद्धि,
फिर भी कभी कभी स्मृतियाँ, गोकुल तक ले जाती है क्या?


दूध दही से पूरित तो है, रत्न जड़ित ये स्वर्ण कटोरे,
भाँति भाँति के व्यंजन ले कर दास खड़े दोनो कर जोड़े,
लेकिन वो माटी की हाँड़ी, वो मईया का दही बिलोना,
फिर से माखन आज चुराऊँ ये इच्छा हो जाती है क्या?

बाहों में है सत्यभाम और सुखद प्रणय है रुक्मिणि के संग,
एक नही त्रय शतक नारियाँ, स्वर्ग अप्सरा से जिनके रंग।
लेकिन वो निश्चल सी ग्वालिन, प्रथम प्रेम की वो अनुभूति,
राधा की ही यादें अक्सर राधा तक ले जाती है क्या?

एवं



देख रहे हैं ऐसा सपना जो सच होगा कभी नही,

हम जाने को कहते हैं और वो कहते हैं अभी नही!
ढूढ़ रही हैं उनकी आँखें भरी भीड़ में मुझको ही,

और हमरी आँखें देखें निर्निमेष सी उनको ही,

और अचानक ही हम दोनो एक दूजे से मिलते है,

आँखें सब कुछ कह जाती है , मगर ज़बानें खुली नही।


दूर कहीं सूरज ढलता हो, छत पर हम दो, बस हम दो,

एक टक वो देखें हो मुझको और मेरी नज़रें उनको,

दिल की धड़कन हम दोनो की तेज़ ही होती जाती है,

कहे हृदय अब नयन झुका लो, मगर निगाहें झुकी नही।


Wednesday, November 21, 2007

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?



खुशी मरी उत्साह मर गया जीने की हर चाह मरी,
ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?

कितना नीर भरा मेघों में किन्तु स्वाति की प्रतीक्षा,
पागलपन ये नही अगर तो क्या है चातक की इच्छा
मरुभूमि को नीर समझना और भ्रमों के पीछे दौड़,
ये दुर्भाग्य नही हिरनी की सोची समझी ढिठाई है।

मना मना कर हारे मन को मना किया है कितनी बार,
चाँद पकड़ने की ज़िद मत कर इस प्रयास में मिलेगी हार।
वो जो है ही नही जगत में उसको ही पाने का वर,
भला भरे कैसे ईश्वर जो खाली झोली आई है।

वो क्षण जो कुछ क्षणों मात्र को आये, और फिर ना आये,
जो बादल सुख भ्रांति बन कर छाये और फिर न छाये,
रात कहा करती है मुझसे अब वो सब ना लौटेगा,
पर ये बैरन भोर हमारी आस जगाने आई है।

ये उम्मीद नही मरती जाने क्या खा कर आई है?

Thursday, October 25, 2007

माला मुखर्जी की दो कविताएं

ये कविताएं है मेरी सखी माला मुखर्जी की, माला मैम जिनके विषय में कुछ बोलने चलूँ तो विष्णु प्रभाकर की उपन्यास त्रयी के एक उपन्यास स्वप्नमयी की नायिका सामने आ जाती है, माला मैम बिलकुल सहज, जिन्होने बचपन को अभी अपने पास से जाने नही दिया है, (मैम मुझे क्षमा करें) क्योंकि मेरे लिये तो उनमे मातृत्व की भावना है..

कभी कभी ही लिखती हैं लेकिन जब लिखती हैं मन को छू जाता है। आपके लिये लाई हूँ उनकी दो कविताएं

आँसू


डोल रहे आँसू नयनों में, और अश्रु पर आशा,
मिट्टी के जीवन की, छौटी नपी तुली परिभाषा।

रंग नही होते आँसू के पर होते सतरंगी,
भाव रंग हैं अलग अलग, एकाकीपन के संगी।

शिलाखण्ड सा बिझ उठाए, हृदय अतीत की यादें,
मिले नेह का मेह तो बरसें नैनों की बरसातें।

फूलो पर शबनम है आँसू, सीपी में मोती भी आँसू,
मरीचिका का भ्रम भी आँसू, आँसू मन की भाषा।

सजल नयन में तैर रही है, जीवन की प्रत्याशा।।


मेरी गुड़िया


मेरी गुड़िया.....!
चाय का कप छू कर
चिल्ला उठती है,
और सारा घर सर पर उठा लेती है।
अपनी उँगलियाँ घर भर को दिखाती है,
दिन भर सबकी सहानुभूति बटोरती है।
पूरे दिन किसी काम को
हाथ भी नही लगाती है।

शाम को हाथ जलने का हर्जाना माँगती है,
पिता के कार में आइसक्रीम खाने जाती।
लौटती बार टैडी बियर और चिप्स लेकर आती है,
गर्म कप छू जाने भर से इतना शोर मचाती है।

मेरी गुड़िया ब्याही जाती है,
ससुराल में जलती सिगरेट,
और प्रेस से हर रोज दागी जाती है,
पर खामोश रहती है।
मेरी गुड़िया अब सयानी हो गई है,
दोनो कुलों की लाज बचाती है,
अस्सी प्रतशत जली अस्पताल पहुँचाई जाती है,
और विकृत कंठ से पूरे प्रकरण को महज़ हादसा बताती है
मेरी गुड़िया गर्म कप छू कर चिल्ला उठती थी,
और आज....
दहेज़ की चिता में जलकर,
सदा के लिये खामोश हो जाती है...


Tuesday, October 9, 2007

आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!


कमरे में घुसते हुए मैने पिंटू से आदेशात्मक स्वर में कहा,"बाहर निकलो मूझे काम है"... वो अपनी कॉपी किताबें समेटने लगा..."अरे ये सब बाद में कर लेना" मैने कहा तो अब उसे बाहर निकलना ही था। उसके निकलने के बाद मैं अलमारी से कपड़े निकाल कर बेड की तरफ मुड़ी तो देखा कि रज़िस्टर के पन्ने पर कुछ लिखा हुआ है, ये आज कौन सी पढ़ाई कर रहा है, देखने के लिये मैने कॉपी उठाई तो लिखा पायाटूटती शाख का एक हिस्सा हूँ, क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।


बड़ा अच्छा सा लगा लेकिन आगे की लाइनें कुछ बेतरतीब सी थीं जो रिदम में नही आ रही थीं। ये अक्सर होता है उसके साथ, भाव तो अच्छे होते हैं लेकिन लय नही बन पाती... पर पहली पंक्ति मुझे इतनी छू रही थी कि मैं इसे अधूरा नही देखना चाह रही थी, मैने पास रखी पेन उठाई, थोड़ा सा दिमाग पिंटू की सोच की तरफ घुमाया कि किन भावनाओं के तहत उसने ये लिखा होगा और लिखने लगी.... विश्वास मानिये २० मिनट बाद जब मैने दरवाज़ा खोला तो कविता पूरी हो गई थी, ऐसा कम ही हो पाता है मेरे साथ लेकिन इस कविता के साथ ऐसा ही हुआ है कि मैने दूसरे के मन की बात उसे समझते हुए लिखने की कोशिश की है, मुझसे अधिक खुश तो पिंटू हुआ.... कविता आपके सामने है...
टूटती शाख का एक हिस्सा हूँ,
क्यों लिपटती है भला तू मुझसे,
कब गिरा देगी मुझको तेज़ हवा,

और बिछड़ जाऊँगा मैं खुद मुझसे।

और तू एक लता नाज़ुक सी,

कैसे मैं तेरा वो दरख़्त बनूँ,
जो सहारा दे तुझको बाँहों का,

और ले ले तेरी वफ़ा तुझसे।
चाहता मैं भी हूँ कि बाँहें तेरी,

सदा गले का मेरे हार बने,
मेरा सीना हो और तेरा सिर हो,

ये शमा रोज़ बार बार बने।
मै भी तो इतने दिन से तन्हा था,

खड़ा अकेला था इस जंगल में,
सोंचता था कि कोई अपना हो,

जो बाँध लेता मुझे बंधन में।
जब ये होता था तब नही थे तुम,

आज तुम हो तो पास वक़्त नही
आज जंगल को भला कौन कहे,

पास मेरे मेरा दरख़्त नही।
आज है पास मेरे आँधी ये,

जो अमादा है तोड़ने पे मुझे,
और नज़रों के सामने तू है,

जो टूटने भी नही देती मुझे!
मुझे गिरने दे तू सलामत रह,

लिपटना छोड़ परे हट मुझसे,
अगर फिर कोई कलम बन के फिर दरख़्त बना

ज़रूर आ के मिलूँगा तुझसे

आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!
आज लेकिन लिपट न तू मुझसे!!

फिर कही हमराज बनने का मेरे दावा करो तुम।


पंद्रह वर्ष की अवस्था में लिखी गई मेरी यह कविता मेरी पहली कविता तो नही है लेकिन कुछ मायनो में यह मुझे अपनी पहली ही कविता लगती है, इससे पहले की कविताएं यदि घर‌-परिवार या सामाजिक विषयों पर नही होती थी और कविता लिखने का आवेग आ ही जाता था तो किसी पुराने पन्ने पर लिख कर कही छुपा दी जाती थी और दो चार बार पढ़ कर फाड़ दी जाती थी, इस डर से कि बड़े लोग जो कि मेरी दूसरी कविताओं की पुरजोर प्रशंसा करते थे, वे क्या सोचेंगे मेरे विषय में कि मैने किसके लिये लिखी है ये कविता.....? बहुत से प्रश्न जिनका मेरे पास कोई उत्तर नही था आ जाएंगे और मै कटघरे मे खड़ी हो जाऊँगी।

इन्ही परिस्थितियों मे मुझे मेरी दीदी ने एक डायरी दी, यह कहते हुए कि तुम इसमें अपनी कविताएं लिखा करना और मैने डरते डरते उसके पहले पन्ने पर ये कविता लिख दी, बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करती रही कि अब शायद डाँट पड़ेगी... अब शायद मुकदमा चलेगा.....! लेकिन किसी ने बहुत अधिक ध्यान ही नही दिया। और मेरी डायरी के पन्ने भरते चले गये.....! वो मुकदमा मुझ पर आज भी नही चला....!

ये कविता मैने जब लिखी तब मेरे बाबू जी जिनसे मैं जीवन में सबसे अधिक जुड़ी हुई थी का आकस्मिक निधन हो गया था teen age वैसे भी बहुत सारे बदलाव ले कर आती है और मेरी जिंदगी में वो कुछ अधिक ही बदलाव ले कर आई थी। ऐसे में जब मैं दिन रात दुःखी रहती थी, मुझे कक्षा की सबसे अधिक खुश रहने वाली लड़की माना जाता था.......... और मेरे मन में यही आता था कि........


खिलखिलाहट की सुबह में ढूँढ़ लो अश्कों की शबनम,
फिर कही हमराज बनने का मेरे दावा करो तुम।

आज मेरी मुस्कुराहट ने तुम्हें मोहित किया है,
मोतियों से दंत की आभा ने आकर्षित किया है,
गौर से देखो ज़रा इन चक्षुओं को किन्तु मेरे,
वेदना की ज्योति ने ही यूँ इन्हे दीपित किया है ।

ढूँढ़ लो मेरे नयन में उस छिपी सी इक अवलि को,
उस दिवस से दम भरो फिर मित्र बनने का मेरे तुम ।।

संग मेरे मुस्कुराने को मुझे लाखों मिलेंगे,
सुख मेरे सारे बँटाने को मुझे लाखों मिलेंगे।
गाऊँगी मेहफिल में जब मैं गीत इक रोमांचकारी,
संग मेरे गुनगुनाने को मुझे लाखों मिलेंगे।

जिंदगी की क्रूरता छूते हुए नग्मे को मेरे,
शांत से वातावरण में गुनगुना हमदम बनो तुम ।।


लोग कहते हैं कि वो जब मुस्कुराये अश्रु निकले,
हम तो तब तब मुस्कुराये, जब भी अपने अश्रु निकले।
और उस मेहफिल में जा के तब ही हमने गीत गाये,
जब अकेले में हुआ महसूस कि अब अश्रु निकले।

बाँध रखा हे कई वर्षों से हमने अश्रु-सरि को,
टूटने पर बाँध के, गर भीग लो तो संग चलो तुम़ ।।


तुम गये कल बाग में जिस हम भी उस बगिया में थे,
तुम हुए कोयल से आकर्षित और हम पपिहा से थे।
नापते थे तुम तरंगों की उँचाई उस दिवस,
जिस दिवस हा मग्न हो, गहराइयों को मापते थे।

हैं मुझे सहने हमेशा, वक्त के ज़ालिम थपेड़े,
साथ रह कर तुम भी उनको सह सको तो संग चलो तुम।।

अश्रु इतने मिल गये कि खिलखिला कर हँस दिये हम,
दाग इतने मिल गये बेदाग जिनसे हो गये हम़
मिल गये आनंद के विलोम हम में हाय जबसे,
क्या कहे आनंद का पर्याय तब से हो गये हम।

इस विरोधाभास को सुन खिलखिला कर हँसने वाले,
खाक समझोगे मेरे अंदर छुपे जज़्बात को तुम।।

Tuesday, September 11, 2007

संदीप की पुण्य तिथि पर

आज तुम्हारी पुण्यतिथि पर मैं अपनी डायरी की जगह इस झरोंखे पर तुमसे बात कर रही हूँ क्योंकि मुझे अभिव्यक्ति के लिये एक और कोना मिल गया है, जहाँ मैने कुछ अपने भी बनाये हैं, और चाहती हूँ कि तुम भी उनसे मिलो!

ये गाना सुनो

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कुछ याद आया... नहीं तुम्हे कहाँ कुछ याद रहता है.... तुम तो बस आपको तो याद होगा ना... कह कर छूट जाते हो..लेकिन मैं...मुझे तो सब याद रहता है..... हाँ मुझे दिखने लगा है वो लॉन जहाँ मैं तुम्हारी तरफ पीठ कर के नाराज़ हो कर बैठी हूँ...... आज फिर झगड़ा.... कितना समझाया, ये सब मत किया करो...लेकिन सुना कभी.... हर जगह से शिकायत....और मेरे सामने आते ही ऐसे सीधे बन जाते हो जैसे कुछ जानते ही नही जैसे दुनिया का सबसे भोला भाला व्यक्ति.....नहीं करनी मुझे तुमसे बात...! और तुम

"मौसी...मौसी इधर देखिये तो, मेरी गलती नही थी" कह कर बुला रहे हो।
"वो तो कभी नही होती"

"इस बार सच में नही थी।"

"चलो आज एक बात clear हुई ना..कि पिछली बार थी, पिछली बार भी तो तुम यही कह रहे थे।"

"च् आप तो बातों में फँसा लेती हैं।....... मौसी.... अब नही होगी ऐसी गलती....pl.....इस बार माफ कर
दीजिये"

और मैं चुप, जबकि मुझे भी पता है कि अभी तुम मना लोगे, जब तक बुलवा नही लोगे तब तक हिलोगे नही, लेकिन अपना विरोध भी तो मुझे दर्ज़ करना है....! और तब तक पीछे से मेज के तबले के साथ आवाज आती है....

"आवारा हवा का झोंका हूँ, आ निकला हूँ, पल दो पल के लिये,
तुम आज तो पत्थर बरसा लो, कल रोओगे मुझ पागल के लिये।"

मैं अब भी तटस्थ, मन में सोचते हुए, कि नया नाटक......!

और फिर आवाज आवाज आती है....

" दौलत ना कोई ताज़महल छोड़ जाएंगे, हम अपनी यादगार गज़ल छोड़ जाएंगे,
तुम आज चाहे जितनी हमरी हँसी उड़ाओ, रोता हुआ लेकिन तुम्हे कल छोड़ जाएंगे"

और तुम सच में मुझे रोता हुआ छोड़ गए...मुझसे बदला ले रहे हो तुम मेरी नाराज़गी से इतने नाराज़
और फिर आवाज आती है,


“पहचान अपनी दूर तलक छोड़ जाऊँगा,
खामोशियों की मौत गँवारा नही मुझे, शीशा हूँ टूट कर भी खनक छोड़ जाऊँगा।“

हाँ सच कहा तुम्हारे टूटने की खनक बहुत दूर तक गई और मुझे तो अपने साथ तोड़ ही गई!

और फिर मुस्कुराते हुए आती है तुम्हारी आवाज़

“फूल के साथ साथ गुलशन में सोचता हूँ बबूल भी होंगे,
क्या हुआ उसने बेवफाई की, उसके अपने उसूल भी होंगे।“

धत् हँसी है कि रुक ही नही रही, इस दुष्टता पर, लाख चाहने पर भी होंठ पर आई जा रही है, और तुम्हें तो बस शायद इसी का इंतज़ार था, पीछे से उठ के सीधे मेरे बगल में...

" एक बात पता है,
ये आइने जो तुम्हे कम पसंद करते हैं,
इनको मालुम है, तुम्हे हम पसंद करते हैं।"

अब भला किसे हँसी ना आ जायेगी वो व्यक्ति जो कभी बड़ा भाई बन जाता है, कभी बेटा और कभी सबसे अच्छा दोस्त वो कुछ भी कर के आया हो बाहर मेरे पास तो यही रूप लेकर आया है, और दुनियाँ भर का दुलार लियेमुँह से निकलता है

" अच्छा हटो यहाँ से तुम मुझे आँसू के शिवा दे दे भी क्या सकते हो?"

और तुम पूरी अदा के साथ जवाब देते हो

"खुशबू नही सही रंगत न सही, फिर भी है वफा का नज़राना,
सेहरा से चुरा के लाया हूँ, दो फूल तेरे आँचल के लिये।"

और मैं उसी सेहरा के फूल से खुश थी, लेकिन कहाँ...वो फूल भी तो छिन गया मुझसे.....!

"जिंदगी भर के लिये रूठ के जाने वाले मैं अभी तक तेरी तस्वीर लिये बैठी हूँ।

तुम बहुत बुरे थे, लेकिन मैं अब तक तुम्हे नही भूल पाई, और प्रार्थना करती हूँ ईश्वर से कि वो तुम्हे मेरी नज़र से देखे, नाराज़ हो, बिगड़े, लेकिन अंत में अपना सारा स्नेह देते हुए तुम्हें क्षमा कर दे.....!

मेरा आशीर्वाद

Monday, September 3, 2007

मुक्ति-अंतिम भाग

" क्या मतलब ?"

"मतलब तो तुम ही जानती हो शायद ! उन सब बातों का मतलब जो तुम्हारे लिये होती हैं। ऐसी बातें सब क्यों करते हैं तुम्हारे लिये ?" सारिका ने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए कहा और मैं उस दृष्टि का सामना नही कर पाई। मैं दूसरे कमरे में जा के फफक कर रोने लगी। मैं अपनी छोटी सी बेटी को इतनी बड़ी सच्चाई कैसे बताऊँ ? वो ज़बान कहाँ से लाऊँ ?

मैं उसी कमरे में पड़ी रोती रही, रात होने पर सारिका आई और मेरे सिरहाने बैठ गई। मेरे आँसू पोंछते हुए वो बोली " मैने तुमको बहुत दुःखी कर दिया ना ! मैं सबकी बातों में आ गई और तुमसे ऐसे पूँछ बैठी। मुझसे गलती हो गई माँ। अब मैं तुमसे कुछ नही पूछूँगी। बस एक बार मुझे माफ कर दो।" कह कर वो मेरे सीने से लग गई और सुबकने लगी।

मैने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, " नही बेटा तूने कुछ भी गलत नही किया, मैने ही बताने में देर कर दी। मैं हिम्मत नही कर पाती थी, क्या करूँ ? लेकिन अब आज ही बता दूँ तो ठीक होगा क्यों कि फिर पाता नही दोबारा इतना साहस बटोर पाऊँगी कि नही ?"

और इसके बाद मैने रो रो कर किसी तरह सारिका को सब कुछ बता दिया। सारिका मेरे साथ रोती जा रही थी " कैसे तुमने सब कुछ सह लिया माँ ! तुममें कितनी ताकत है ? कितना धैर्य है ? सब कुछ मेरे ही लिये तो झेल गई न तुम माँ ! ... और मैने आज तुमसे कैसे ऐसी बात पूँछ ली ? .... ये भी नही सोचा कि तुम्हे कितना कष्ट होगा ।"

मैं सारिका को समझाती रही उसके आँसू पोंछती रही। तब तक सामने कुँवर जी प्रकट हो गए।" ई कौन नौटंकी चलत बाय, हम कही कि आज एतनी देर होइ गै खाब काहें नाही मिला ?" उन्होने तेज़ गर्जना के साथ कहा और मैं खड़ी हो गई।
तभी संजीव ने अंदर आते हुए कहा, " माँ की तबियत खराब है इसलिये खाना नही बनाया।"

" तोसे पूँछन हैं का रे ?"

"लेकिन मैं बता रहा हूँ न !"

" काहें बतावत हए बिना पूँछे" उन्होने कहा और सारिका की तरफ मुड़ते हुए कहा " औ तैं ? तहूँ बेराम हए का
रे ?"

"दीदी माँ के पास बैठी थी, बीमारी में किसी की जरूरत भी पड़ती है।"

"यै दूनो बइठि के नौटाकी करिहै औ खाब एकर नानी आई के बनाई का ?"

मुझे बोलना पड़ गया, " खाब हम बनाये जात हई बकिर लड़ीकन के आगे बोली आपन सही राखा करा।"

"बहुत जबान बढ़ि गै बा रे तोर ! हमरे बल पे खात हए, ऐस करत हए औ हमही से गुर्रात हए। रुक आज तोर पीठ तोड़ि दी सब ठीक होइ जाय।" कहते हुए वो मेरी तरफ झपट रहे थे कि संजीव ने उनका हाथ कस के पकड़ते हुए उन्हे पीछे की और ढकेल दिया।

" ऐसी हिम्मत अब मत कीजियेगा, वर्ना लोग तमाशा देखेंगे कि बेटे ने बाप पर हाथ उठा दिया और खाने की धमकी मत दीजिये. एक एक कौर और एक एक दाने का सौ गुना ज्यादा दर्द आप उन्हे दे चुके है। आपने किया ही क्या है ? सिर्फ मर्द होने की धौंस ही दी है न उन्हें.. शर्म आती है मुझे कि मैं आपका बेटा हूँ। कई पापों का फल मिला है मुझे कि आप मेरे बाप हुए। लेकिन कोई एक पुण्य हो गया था शायद कि जन्म मेरा इस कोख से हुआ़।....अब एक मिनट में आप इस कमरे से निकल जाइये और फिर कभी मेरी माँ से बात मत कीजियेगा क्योंकि जिस छत्रछाया के बदले आप इतनी गुलामी करा रहे थे उसके लिये अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मैं रहूँगा हमेशा उनके साथ। निकलिये... तुरंत निकलिये !"

कुँवर जी उनमे से नही थे जो सक्षम से भिड़ें, वे दबे हुए को दबाना जानते थे और संजीव के तेवर कह रहे थे कि वो किसी से दबने वाला नही था। इसलिये कुँवर जी तुरंत बाहर निकल गए।

संजीव सारिका के पास जा कर खड़ा हो गया और उसके आँसू पोंछते हुए उसके कंधे को धीरे से थपथपाया और सारिका उससे लिपट गई, संजीव उसे एक संरक्षक की तरह सहारा देता रहा। जब मैं सारिका को आप बीती बता रही थी तो संजीव ने सब सुन लिया था और उसके पिता के साथ उसके तेवर उसी का परिणाम थे। उसने सारिका को बैठाते हुए कहा, " मैं हमेशा सोचता था कि हर घर में लड़कों को अधिक दुलार दिया जाता है, मेरी माँ तो इतनी अच्छी है, फिर वो मुझसे प्यार क्यों नही करती ? आज मुझे सब समझ में आ गया, माँ मुझसे प्यार कैसे कर सकती है ? यही कहाँ कम है कि वो मुझसे नफरत नही करती।" कहते कहते उसका गला भर गया।

सारिका ने झट उसके मुँह पर हाथ रख दिया " न! न! ऐसी बातें क्यों करते हो ? तुम तो माँ का सहारा हो, और मेरा भी।"

सारिका और संजीव दोनो रो रहे थे और दोनो ही एक दूसरे को समझा रहे थे। मुझे लग रहा था कि वर्षों की कड़ी धूप के बाद आज बादल हुए हैं। मैने उन दोनो के सर पर हाथ रखा और अपने आँचल में छुपा लिया।

इसके बाद मैने सारिका और संजीव दोनो के मुँह से कभी पापा शब्द नही सुना। उन दोनो ने फिर कभी उनसे बात नही की।

लेकिन मैं पहले की ही तरह काम करती रही। जिंदगी भर का दुर्व्यसन बुढ़ापे में तो निकलना ही था। उस व्यक्ति को ये कभी नही लगा कि मैं उसकी सेवा करती हूँ, लेकिन अगर कुछ कमी रह जाती थी तो तुरंत उसे पता लग जाता था। उसके बदले में मुझे कितनी गालियाँ को मिलतीं इसका कोई भी हिसाब नही लगाया।

६ माह से वो सन्निपात में है, उसे कुछ भी नही याद है शिवाय मुझे गालियाँ देने के। और मैं ६ माह से इसी अस्पताल में हूँ। सारिका पास के एक कस्बे में सरकारी अध्यापिका हो गई थी, रोज घर ना आ कर वहीं रहने लगी थी और संजीव लखनऊ में प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहा था।

आज अचानक उनकी साँसे तेज चलने लगीं। मैने दौड़ कर डॉक्टर को खबर की। डॉक्टर उन्हे आई०सी०यू० में ले गए और आ कर कहा " आप अपने बच्चों को खबर कर दीजिये, कुछ भी हो सकता है।"

मैने सारिका और संजीव को खबर कर दी।

सुबह होते होते दोनो ही आ गये।

वार्ड के बाहर बेंच पर मै बैठी हुई थी। सारिका और संजीव मेरे अगल बगल बैठे हुए थे, तभी डॉ० मेरे पास आये और बोले, " देखिये मैडम आप हिम्मत से काम लीजियेगा। आप जिस तरह से इतने दिन से मरीज की सेवा कर रही थी उससे साफ पता लग रहा था कि आपको अपने पति से बेहद लगाव था। लेकिन ज़रा सोच कर देखिये तो ६ माह से सिर्फ उनकी साँसे चल रही थीं और शरीर को तो बेहद कष्ट था। हम लोगों ने आपकी सेवा को देखते हुए आज भी बहुत कोशिश की कि उन्हे थोड़े दिन और बचा लिया जाये, लेकिन हम सफल नही हुए। वैसे आप भावनात्मक रूप से थोड़ा सा हट कर देखेंगी तो आपको लगेगा कि आज उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिल गई"

मैं डॉक्टर को निर्निमेष सी देखती रही और भावहीन वाणी में मेरे मुँह से निकला, " हाँ..... मुक्ति तो मिल गई।"

डॉक्टर कमरे से चले गए और सारिका, संजीव मेरे चेहरे को एकटक देखने लगे, जैसे पूँछ रहे हों

" किसे मुक्ति मिली माँ!........उन्हे......या तुम्हे ?"

समाप्त

Monday, August 27, 2007

कितने हसीन रिश्ते हैं यहाँ पर.....!

राखी का मौसम आया औ‌र मन हुआ आपसे अपना एक खूबसूरत सा अनुभव बाँटा जाए? अपनी धारावाहिक कहानी मुक्ति को थोड़ा सा विराम देते हुए इस शीर्षक पर बात करने के लिये क्षमा चाहती हूँ। लेकिन क्या करूँ रोक नही पाई खुद को...!

प्रदीप से मिली थी मैं जुलाई २००२ में। वो शांता अम्मा का बेटा था। SSC परीक्षा द्वारा हिंदी अनुवादक पद पर चयन होने के पश्चात मुझे पहली पोस्टिंग मिली थी अनंतपुर, आंध्र प्रदेश में। सन् २००१ का अंत मेरे लिये ऐसे घटनाक्रमों का वर्ष था जो मेरी सपनो की तो सीमा में था लेकिन कल्पनाओं की सीमा से परे था। क्योंकि सपने तो मेने देखे थे अपनी व्हीलचेयर से उड़ान भरने के, अपनी बैसाखियों से बुलंदियों की सीमा सीढ़ियाँ छूने की! लेकिन कल्पना नही की थी कि घर की चार दीवारी को अपनी दुनिया समझने वाली मैं एक दिन घर से २००० कि०मी० दूर रहने का निर्णय लूँगी और डट जाऊँगी।

खैर वो बातें फिर कभी! आज तो बात करनी है प्रदीप की.! तो शांता अम्मा मुझे आफिस कैम्पस में मिले क्वार्टर से आफिस और आफिस से क्वार्टर मेरी व्हीलचेयर से ले जाया करती थीं। ऐसे में अक्सर लगभग १८ वर्ष का ६ फुटा, दुबला पतला, पक्के साँवले रंग का किशोर दौड़ता हुआ और लगभग हाँफता हुआ आता और अम्मा से मेरी व्हीलचेयर अपने हाथ में ले लेता। रास्ते में बहुत अधिक बातें तो होती नहीं थी। बस मेरे प्रश्न और उसके उत्तर और उसी प्रश्नोत्तरी में मुझे पता चला कि २-३ बार में हाई स्कूल पास करने के बाद प्रदीप ने से आगे पढ़ने की कोशिश नही की। गलत संगत में पड़े उस लड़के की दो कमजोरियाँ थी। एक उसका किशोरावस्था का एक पक्षीय प्रेम जो मात्र मृगतृष्णा था लेकिन वो २४ मे ४८ घंटे उसी फेर में पागल रहता था और दूसरी उसकी पान मसाले की लत जो वो २४ घंटे में ९६ पुड़िया खाता था। उसकी जीभ,तालु हमेशा कटे रहते थे लेकिन वो उसे छोड़ने में असमर्थ था। अलग प्रांत, अलग शहर, अलग संस्कृति से आई हुई मैं कह भी क्या सकती थी। बस दुःख होता था शांता अम्मा पर जिनका अतीत था उनका शराबी पति जो शराब में डूब कर खतम हो चुका था और उन्हे कर्ज में डुबो गया था और भविष्य था यह लड़का।

ऐसे में आया राखी का त्यौहार, भावना प्रधान होने के कारण मेरा सबसे प्रिय त्यौहार। पर इस बार मैं घर से बहुत दूर थी। सुबह से ही मेरे आँसू बह रहे थे। खाना नही बनाया.... बिना भाईयों को राखी बाँधे आज तक कहाँ खाया था जो आज खा लेती।

शाम को मैं घर पहुँची तो प्रदीप एक राखी का धागा लिये चला आया "क्या दीदी मेरे रहते तू रो रही है, चल बाँध मुझे राखी और अच्छा-अच्छा खाना बना कर खिला।

अहा! मैं तो खुश हो गई। झट से टीका बना लाई। बगल की आंटी ने टिप्पणी की " वो क्रिश्चियन है, टीका नही लगवाता" मैने उसकी तरफ देखा वो मुस्कुराया " अभी तो मैं सिर्फ तेरा भाई हूँ दीदी!"

हम दोनो ने मिल कर खाना खाया। मैने खाना खाते समय उससे कहा " तूने मेरी राखी बँधाई नही दी?"

" हाँ दीदी..!" कहते हुए उसने जेब में हाथ डाला और दस रुपये का नोट मुझे पकड़ाने लगा।

" दस रुपये तो कल ही खतम हो जायेंगे।" मेरे इस जवाब ने उसे उदास कर दिया और वो दबे स्वर में बोला " इससे ज्यादा तो मेरे से होगा ही नही दीदी !"

" तो रुपये देने को बोल कौन रहा है ?"

"........?"

" मुझे तो एक प्रॉमिस चाहिये।"

"promise....?" कछ सेकण्ड के मौन के पश्चात वो बोला " देख दीदी मैं जानता हूँ तू दो में से एक चीज माँगने वाली है मुझसे और मैं भी ना तू जो माँगेगी वो दे दूँगा तुझे..... ललेकिन तू भी दीदी जरा सोच समझ के माँगना।"

अब इतने भोलेपन से कही गई बात के बाद मैं उसकी मृगतृष्णा तो उससे माँग नही सकती थी.... सो दूसरी चीज ही माँगी जानी थी। एक दाँव ही खेलना था, वर्ना कितने ही लती इससे पहले मिल चुके थे जो
"रोज़ तौबा उठाई जाती है रोज़ नीयत खराब होती है" के ढर्रे पर चल रहे थे।

तो मैने उससे माँगा पान मसाला ना खाने का वचन। ये सोच कर कि छोड़ेगा नही तो कम से कम सोचेगा तो छोड़ने की.... फिर अब भाई बन गया है तो देख लेंगे धीरे -धीरे।

उसने कहा saturday last दिन दीदी, उस दिन एक पार्टी है, फिर कभी नही लूँगा।

इतनी छूट देना तो मेरी मजबूरी थी। खैर उसने कहा कि वो अब पान मसाला नही खाता.... और मैं मन में ये सोच कर कि बोल रहा है तो कुछ कम तो किया ही होगा, चुप रह जाती।

एक दिन मैं घर पर बैठी थी तब तक कुछ किशोरों ने दरवाजा खटकाया हाथ में फूल लिये साँवले सी लगान फिल्म जैसी टीम खड़ी थी। मैं क्या पूछूँ समझ मे नही आ रहा था... तभी उसमे से जिसको हिंदी बोलनी आती थी उसने बोलना शुरू किया " दीदी हम आपको thank you बोलने आया दीदी ! प्रदीप तो कैसे भी सुधरने वाला नही था दीदी ! पर अभी तो वो एकदम बदल गया। आपका बहुत respect करता वो दीदी ! हम सब को भी आपका भाई बनाएगा दीदी...?"

मैं भाव विभोर सी उन सब को देख रही थी...राखी के धागे ने ये कमाल कर दिया.... मुझे खुद नही पता था।

जनवरी २००३ मे मेरा स्थानांतरण लखनऊ हो गया। प्रदीप को अब भी राखी भेजी जाती है।

मैने कभी भी उससे उसकी मृगतृष्णा नही माँगी..... लेकिन जब मैं लखनऊ आ रही थी, लोग विदाई में ढेरों उपहार दे रहे थे.... वो आया और उसने मेरे हाथ में एक कागज थमा दिया.... ये वो कागज़ था जिस पर उसने उस लड़की के साथ अपनी शादी का सपना बनाया था ..... एक शादी का कार्ड...!

ये मैं तुझे दे रहा हूँ दीदी...! ये सब सच्ची बात नही है....! सच्ची बात वो है जो तू बोलती है.....! प्यार तो प्यार होता है और तुझसे ज्यादा प्यार कौन कर सकता है मुझे"

उस साल उसने इण्टर का फार्म भरा और पास हो गया, अभी वो ग्रेजुएशन कर रहा है। हच में सर्विस कर रहा है और कंपटीशन तैयारी कर रहा है। अब वो ये सोचता है कि माँ का कर्ज कैसे कम किया जाये.....!


और ये सब किया है एक राखी के तार ने .....!


विश्वास मानिये मेरा...........!

Wednesday, August 22, 2007

मुक्ति भाग‍ -५

मैं आगे बढ़ कर पीछे के रास्ते निकली और पड़ोस का पिछला दरवाजा खटखटाने लगी गाँवों के लिये तो उस समय आधी रात का समय था। एक अधेड़ उम्र की महिला ने दरवाजा खोला। मैने उन्हे देखते ही सारिका को उनके पैरों पर रख दिया।

"चाची जिऊ ! एकर जिनगी बचाइ लें।"

" का भै ?"

" हमरे इजती पे आइ गै है चाची जिऊ ! कुँवर जी हम्मै बरबाद करै चाहत हिन। हमसे ई पाप नाही होई। हम तो मरे के तैयार हई चाची जिऊ ! बकिर एकर का करी ? हम्मै अपने घर के एक कोना में जगह दइ दीन जाये। आपके हियाँ मजूरी कइ के हम आपन औ यह बिटिया के पेट पालि लेब। एकर जिनगी बनि जाये, फिर हम कहूँ कुँआ ईनार लई लेब।" कहते हुए मैने उनके पैर पकड़ लिये थे। लेकिन जिस पर दीन दयालु ईश्वर को दया नही आई उस पर ला सामान्य मनुष्य को दया क्यों आती ?

चाची जी ने मुझे बरे प्यार से समझा दिया था " देखा दुलहिन ! ई पट्टीदारी के मामला बाय। काल्हि के पूरा गाँव कही कि हम तोहरे आदमी के जमीनी के खातिर तुहैं अपने घर में राखे हई। तोहरे कुँवर ज्यू से बिना मतलबै मे दुश्मनी होइ जाई। नीक होई कि घर के बात घर हि मे सुलझाइ ल्या।"

मेरे लिये सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। मैं पीछे के ही रास्ते से फिर से आ गई। आँगन में पहुँची तो सामने ही कुँवर जी खड़े थे। आँखे लाल थीं। जो इस बात का परिचायक थीं कि शराब की कई बोतलें खाली हो चुकी हैं। उन्होने मेरी बाँहें पकड़ते हुए मुझे घसीटा। " हमरे साथ रहे में तोर इज्जत जात है, आधी रात में दुसरे के घरे मुँह मारत तोर इज्जत नाही जात।"

उन्होने सारिका को एक कमरे में बंद कर दिया..... वो चीखती रही...... और फिर मेरे साथ क्या हुआ......? नही !...नही...! मैं आज भी वो नही बता पाऊँगी। जो मैं झेल गई वो मैं कह नही पाऊँगी...! वो मैं याद भी नही कर पाती हूँ ..... और एक क्षण को भी मेरी जिंदगी उससे मुक्त भी नही हो पाती। आज २५ साल बाद भी वो ज़ख्म छुआ जाता है तो उतना ही तेज दर्द होता है।

उस वक्त भी ऐसा नही था कि मैं सब सामान्य रूप से सह गई थी। बहुत विरोध किया था। बहुत छटपटाई थी। लेकिन क्या तड़फती मछली को देख कर खाने वालों को उस पर दया आती है....? उन्हे तो बस उसके स्वाद से मतलब होता है। बस आत्मतृप्ति से...........!

अपने ही शरीर से नफरत हो गई थी मुझे। एक एक अंग काट कर फेंक देने का मन होता था। लेकिन बस..... बस मन ही होता था.....कर नही पाई कुछ भी। कौन विश्वास करता मेरा ? सबके लिये तो बस ए चटकारे दार खबर थी, " अमीन के मेहरारू अपने देवरे पे बइठि गईं।" कैसे पिघले शीशे जैसा वाक्य था। वो चाची जी जिन्होने एक रात का भी सहारा नही दिया था उन्होने कितने चाव से घोर कलजुग की ये गाथा पूरे गाँव को सुनाई थी।

"अरे अईसन जवानी आगि लागे बहिनी ! मर्दे के मरे के सालौ पूर होये के इंतिजार नाही किहीं।"

" अरे बियाह तो खाली नाव के लिये है, सुन्यू नाही सरिकवा के जोड़ा लागे के तईयारी होत बाय।"

मैं कैसे बताती ? किसे बताती ? कि ये रिश्ता बनाना तो मेरी मजबूरी थी। मुझे पता चला कि मैं गर्भवती हूँ तो मैं क्या करती ? मैं घर में कितने दिन तक बच कर रह सकती थी ? सारिका आज छोटी थी कल बड़ी होगी तो मैं क्या जवाब दूँगी ? इस लिये शादी का नाम इस रिश्ते को देना मेरी मजबूरी थी। मैं किस रूप में विख्यात थी मुझे पता था। लेकिन मेरे पास कोई रास्ता भी नही था।

समय बदल रहा था लेकिन मेरी किस्मत नही बदल रही थी। शारीरिक शोषण और साथ में शारीरिक प्रताड़ना मेरी रोज की जिंदगी में शामिल हो चुके थे। मुझे सब कुछ मौन हो कर सहना था।

सारिका पे मैं अपना सारा प्यार लुटा देना चाहती थी। वहीं संजीव मेरी कोख से जन्म लेने के बावजूद मेरे लिये सौतेला हो गया था। उसके साथ मैं उतना ही कर पाती थी जितना मेरा कर्त्तव्य होता था। लेकिन सारिका का उसे खूब स्नेह मिलता था और वो व्यक्ति जो अब मेरा पति था वो तो पता नही किस धातु से बना था उसका स्नेह न सारिका पर था, न संजीव पर और मुझ पर तो सवाल ही नही था। उसे मतलब था सिर्फ अपनी जरूरतों से।

सारिका बहुत कुशाग्र बुद्धि की थी। हर क्षेत्र में आगे। शुरू में उसे गाँव के पास के एक स्कूल में डाला गया। फिर वो सरकार की तरफ से स्कॉलरशिप पाने लगी। वो अपनी व्यवस्था खुद ही कर लेती थी। बहुत छोटी उम्र में ही बड़ी हो गई थी वो। कहाँ पढ़ना है ? क्या पढ़ना है ? वो खुद ही कर लेती थी और साथ में संजीव की भी व्यवस्था बना लेती थी। संजीव के लिये माँ का दिल तो उसके पास ही था। मुझे सारिका से अवकाश मिला तो मैने खुद को धर्म में व्यस्त कर लिया। दुःखों से निपटने का शायद इससे सरल उपाय कोई नही है। सब कुछ सहना आदत बन जाता है, स सह कर भी संतुष्टि बनी रहती है।

सारिका अब २० वर्ष की हो गई थी और संजीव १६ का। जीवन धीरे धीरे ऐसी नदी बन गया था, जिसमें पत्थरों के पड़ने से भी हलचल नही होती थी। लेकिन अचानक फिर हलचल हुई, जब सारिका कॉलेज से आई और मुझसे बिना कुछ बात किये ही जा कर अपने कमरे में लेट गई। मैने उसे खाना खाने के लिये बुलाया, लेकिन वो नही आई। मैं खाना ले कर उसके कमरे में गई लेकिन वो नही उठी। मैने लाड़ से उसे उठाना चाहा तो उसने मुँह फेर लिया। सारिका ऐसी थी ही नही। वो बहुत समझदार थी मुझे कुछ समझ में नही आ रहा था। लेकिन जल्द ही समझ में आ गया जब वो अचानक उठी और मुझसे पूँछा " मेरे पापा कौन हैं माँ..? "

क्रमशः

Monday, August 20, 2007

मुक्ति भाग‍-4

ससुराल में आने के बाद कभी-कभी ओसारे में बाबू जी को खाना देने आती थी। वो भी तब जब ये नही होते थे। वो मेरी आखिरी सीमा रेखा थी। लेकिन आज मुझे अपनी कोई भी सीमा रेखा नही याद थी। मैं नंगे पैर ही उधर दौड़ पड़ी जहाँ से गाँव भर की आवाजें आ रही थी। गाँव में मुझे देखा बहुत कम लोगो ने था। इसलिए मुझे कोई पहचानता तो नही था लेकिन मेरी दशा देख कर शायद जान सब गए थे कि मैं उनकी पत्नी ही हो सकती हूँ जो वहाँ पर खून से नहाया पड़ा हुआ है। इसलिए भीड़ मुझे खुद रास्ता देती गई। मुझे नहीं याद कि मेरे रास्ते में कौन कौन आया, कौन कौन हटा, किसने क्या कहा ? मुझे इतना याद है कि अचानक मेरे सामने वो शरीर खून से लतफत पड़ा था जो सुबह जल्दी आने का वादा कर गया था। देखते ही मेरे मन में आया कि "क्या ये अब कभी नही उठेंगे ?" और इस विचार के साथ ही शायद मैं खुद ही गिर गई। जब आँख खुली तो मेरे इर्द गिर्द गाँव की औरतें थीं। मैं चीख पड़ी। सब मुझे पकड़ने लगी, लेकिन मैं सबसे खुद को छुड़ा कर बाहर की तरफ भागी। वहाँ उननका शरीर पड़ा हुआ था। पास में बाबूजी बिलख रहे थे। मैं इनके शरीर पर गिर गई। मैं फिर बेहोश हो गई। इस बार मुझे जब होश आया तो मैं अस्पताल में थी। मुझे ग्लूकोज़ चढ़ रहा था।जब होश आया तो मेरे मायके से आये मेरे पिता जी और बड़के बाऊ जी मेरे पास खड़े थे।

मैं बिलखने लगी। पिता जी दूर खड़े मुँह पर अँगौछा रखे सुबक रहे थे। बड़के बाऊ जी जी मुझे समझाने लगे, "हमरे लोगन के कऊनो बहुत बड़ा पाप उदित भा बिटिया जऊन भगवान एतना बड़ा कष्ट डारिन। अपने भाग पे केहू के बस नाही है। अब तू धीरज धरा। एक बिटिया बाय इहीक् सम्हारा।"

पिता जी जाते समय तक मुझसे कुछ नही बोले। शादी के इतने दिन बाद मैने पिता जी को देखा था तो ऐसे समय में जब ना वो कुछ बताने की स्थिति में थे और ना मैं कुछ पूँछने की।

तब से आज तक दुबारा मायके की एक चिड़िया भी नही देखी मैने। क्या क्या बीत गया इस शरीर पर कोई सांत्वना देने को कौन कहे, उलाहना देने भी नही आया।

अब मुझे सारिका का होश आया था। मैने घर जाने की इच्छा व्यक्त की। मुझे बताया गया कि मैं तीन दिन से बेहोश थी। ससुर जी पुत्र शोक नहीं सहन कर पाये थे और पुत्र के साथ ही अपनी अंतिम यात्रा तय कर ली थी।

मैं सोचती रहती थी कि मैं क्यों नही मरी ? उनकी आत्मा क्या सोच रही होगी मुझे देख कर, कि मुझे अपना जीवन कितना प्यारा है ? मैं कितनी स्वार्थी हूँ? ये खयाल आता और मै फिर बिलखने लगती।

घर धीरे-धीरे खाली हो गया। मैं रात-रात जगती रहती। मुझे सन्नाटे से बहुत भय लगता। घर में अब सन्नाटे के अलावा सिर्फ कुँवर जी थे, जिनसे मुझे सन्नाटे से भी ज्यादा डर लगता था। दो डरावनी चीजों में मुझे जब एक को चुनना हुआ तो मैने सन्नाटे को ही चुना।

लेकिन मेरे चुनने न चुनने से क्या होता था ? दुर्भाग्य ने तो अपने सारे भयानक तमाशे दिखाने के लिये मुझे ही चुना था न।

सारिका सो रही थी। मैं बगल में बैठी आँसू बहा रही थी। अचानक कमरे में कुछ आहट हुई। मैने सर उठाया तो देखा वही व्यक्ति खड़ा है जिसके लिये मैं सशंकित थी। मैं उन्हे देखते ही काँप गई। मुझे उनकी पशुता की पराकाष्ठा की कल्पना नही करनी थी.. वो सब तो मैं हक़ीकत में झेल चुकी थी।
मैं बिस्तर से खड़ी हो गई और गिड़गिड़ाते हुए बोली " हमसे नाही डेरात्या कुँवर जी तो दुनिया से डेरा, दुनियौ के डर नाही बाय तो भगवान से डेरा। अपने भईया के धरोहर पे नीयत खराब करिहैं तो भगवान छिमा नाहीं करिहै। एतना बड़ा पाप ना करैं।"

" यह में पाप के कौन बाति है, ई तो बहुत दिन से होत आय बा। बड़े भाई के मरे के बाद अगर छोटे के बियाह ना भै होय तो उमिर भर बिधवा होई के जिये के जगही छौटे से बियाह होई जात है।"

" लेकिन जब हम चाही तब ना..!हमार जिनगी आपके भईया से जुड़ी रही ..बस्स्स् ! अब हम्मै केहू और के सुहागन बने से ढेर नीक बाय उनके बिधवा बनिके जिनगी गुजारब...... हमरे ई एक बिटिया बाय। हम इही के देख के जौन दुइ चार रोज जिनगी के बाय बिताइ देब। लेकिन ई पाप ना करें कुँवर जी! यह बिटिया के ऊपर दया करें कुँवर जी!"

" इहै कुल तो तुहैं सोचे के चाहीं। यह बिटिया के जिनगी तू कइसे पार कइ पइबू, अगर हम ना सहारा देब ? औ हम एतना सतजुगी नाही हई कि बिना कौनो कीमत के सबके पार लगाई।"

राक्षसों के सचमुच दस सिर या सींग या कोई और भयानक आकृति नही होती होगी। मुझे पता चल गया था कि ऐसे ही राक्षस होते होंगे जो दिखने में बिलकुल इंसान ही लगते होंगे।

" हम आज जात हई। लेकिन तू सोचि ल्या।"

कह कर वो राक्षस चला गया। मैं क्या करूँ मेरे सामने अब बस एक शरणस्थली थी। गाँव के पास बहने वाली नदी।.... मेरे बाद सारिका का क्या होगा ? इस आदमी की नीचता की कोई सीमा नही है। ये पता नही किसके साथ क्या करे ? ये सोच कर मैने सारिका को गोद में उठाया और नदी की तरफ चलने को तैयार हो गई। दरवाजे की तरफ बढ़ने के साथ ही मैं मेज से टकराई और मेज से एक किताब गिर कर मेरे सामने आ गई। उसके सामने आते ही मेरी आँखों के सामने सारिका के पापा का चेहरा आ गया और याद आ गया सारिका के लिये उनका स्वप्न..! "मैं ये क्या करने जा रही हूँ उनके सपने का मूल ही खतम करने।" मैने सारिका को कस लिया। वो जाग गई थी और ध्यान से मेरी तरफ देख रही थी। वो क्या जाने कि उसका वर्तमान उसके भविष्य के साथ कैसा खिलवाड़ कर रहा है ? उसे जब कुछ समझ में आया तो मेरे आँसू पोंछते हुए बोली " तोत लग गई माँ " " नही बेटा" कह कर मैने उसे कंधे से लगा लिया। उसे क्या बताऊँ किस्मत ने कैसी चोट दी है उसे और मुझे दोनो को।

अब मै क्या करूँ कैसे इस नन्ही सी जान को मार दूँ ? और अगर अकेली मर जाऊँ तो ये तो वैसे भी मर जायेगी।

क्रमशः

Friday, August 17, 2007

मुक्ति भाग‍-3

ये आवाज तो इनकी थी। मैने सारिका को जहाँ का तहाँ छोड़ा और दौड़ कर दरवाजा खोलते ही इनसे लिपट कर फिर उसी बेग से रोने लगी। ये कुछ भी समझने में असमर्थ थे।

ऐसी स्थिति अब तक कभी नही हुई थी। इन्होने मुझे पकड़े हुए ही दरवाजा धीरे से लगाया और एक मजबूत रक्षक की तरह मेरे शरीर के गिर्द अपने हाथों के घेरे का कवच बना दिया। मेरा डर अब धीरे धीरे कम हो रहा था। इन्होने मुझे धीरे से बिस्तर पर बिठाया और मेरे आँसू पोंछते हुए बोले "पहले तो तुम शांत हो! फिर बताओ कि हुआ क्या ?"

मेरी हिचकियाँ बँध गईं। मेरी समझ में नही आ रहा था कि मैं कैसे इन्हे इनके ही भाई की पशुता बताऊँ ये क्या सोचेंगे ? अगर कहीं इन्हे क्रोध आ गया तब तो अनर्थ हो जाएगा ? जो बात रात के अँधेरे में दब गई वो पूरे गाँव में फैल जाएगी। चार लोग कुँवर जी को गलत कहेंगे तो चार मुझे भी कहेंगे। और कुँवर जी के ऊपर चार लोगों की सच्चाई का उतना दाग नही लगेगा, जितना मेरे ऊपर एक झूठे आरोप का। मैं क्या करूँ मेरे कुछ समझ में नही आ रहा था।

इनका प्रश्न बार-बार आ रहा था, "हुआ क्या कुछ पता तो चले।"

मैने बिलखते हुए कहा "देखीं हम जौन कुछ बताइब आप नाराज ना होवा जाई !"

"बताओ तो पहले।" इन्होने धैर्य के साथ कहा।

मैने अपनी बात कहनी चाही, लेकिन उसके पहले ही फिर आँसू उमड़ पड़े "हम कईसे बताई, हमरे मुँहा से नाही निकरत बाय।"

इस वाक्य के पूरा होते ही इनके चेहरे की रंगत बदल गई, "कल छोटे आए थे क्या " इन्होने मेरी तरफ चिंता के साथ देखते हुए कहा।

इस वाक्य को इनके मुँह से सुनते ही मैं इनका हाथ पकड़ कर बिलखने लगी। हाँ का शब्द मेरे मुँह से निकल ही नही रहा था।

"मुझे नही पता था कि मैं जो सुन रहा हूँ वो सच है।" कहते हुए इन्होने मुझसे हाथ छुड़ा लिया।

इससे पहले कि ये आगे बढें मैं दौड़ कर दरवाजे के पास गई और कुंडी लगा कर दरवाजे से लग कर खड़ी हो गई "ना ना बाहर ना जायें आप। हमार किरिया है।" कहते हुए मैने इनके पैर पकड़ लिये " देखें अबहीं ले त कुछ नाही भै। ऊ देखीं... ऊ हसिया बाय ना, उहै उठाय लेहे रहेन हम। कुँवर जी आगे नाही बढ़ि पाइन। बकिर अब आप बाहर जाई के रिसियइहैं त गउँवा भर में ऊ बात फईलि जाई जौन भईबे नाही कीन। गाँव के मनई मेहरारुन के तो आप जनिबै करथिन। तनी हमरे इजती के सोची सारिका के पापा। आपके सारिका के मूड़ेक् किरिया।" आवेग के साथ कही जा रही मेरी बात उनकी समझ में आ गई थी। इन्होने धीरे से अपना हाथ छुड़या और सारिका के बगल में जा कर लेट गए।

इन्होने कुँवर जी से क्या कहा, मुझे नही पता। लेकिन कुँवर जी अब खाने के लिए भी अंदर नही आते थे। कुँवर जी को ईश्वर की तरफ से काला रंग, मोटी नाक, छोटी छोटी आ¡खें, मिली थीं। इसके बाद जो अपनी तरफ से बनता है वो होता है स्वभाव उसे कुँवर जी ने अपनी सूरत से भी अधिक खराब बना लिया था। जब इन्होने पढ़ाई की कुँवर जी ने गाँव के बिगड़ैल लड़कों के साथ आवारगी की। इन्हे जब नौकरी मिली, कुँवर जी तब तक भाँग, गाँजा, ताड़ी लेने के आदी हो गए थे। उनके चरित्र के विषय में खबर कान में पड़ चुकी थी, लेकिन गाँव में तो बिना आग के ही धुँआ होने लगता है, यह सोच कर मैं इस बात पर ध्यान नही देती थी। कुँवर जी की सूरत और सीरत के कारण कोई लड़की वाला रिश्ता ले कर नही आता था।इस बात की चिंता शायद इन्हें भी थी। लेकिन उनकी नीचता की हद यहाँ तक होगी यह कोई नही जानता था।

ये घटना कुछ दिनों तक मेरे दिमाग से उतरी ही नही, लेकिन इन्होने अपने मौन स्नेह से धीरे-धीरे मुझे सामान्य कर दिया।

मैं अपनी सारिका में रम गई। अब तो मैं जोड़ जोड़ कर अंग्रेजी भी पढ़ लेती थी। सारिका ढाई साल की थी तब। अपनी तोतली भाषा में खूब बातें करने लगी थी वो। इन्होने मुझे सारिका से किताबी भाषा (जिसे गाँव में अड़बी तड़बी कहा जाता था) बोलने का निर्देश दे रखा था!उस दिन शाम को जब मैने उससे दूध पीने को कहा तो वो बोली "पापा हाथ छे पीना ऐ"

उसकी बोली के साथ साथ ही मेरी ढेर सारी ममता उमड़ पड़ती। मैने उसे चूमते हुए कहा "पापा तो रात में आएंगे" उसने सिर हिलाते हुए कहा "नई दल्दी आएंगे।"

वो रोज अपने पापा से जाते समय जल्दी आने का वादा लेती थी और उसके पापा अपना वादा निभाने की कोfशश भी करते थे। अब वो जितनी जल्दी हो सके अपनी बिटिया के पास आ जाते थे। आज वो पास के ही गाँव में गए थे, मुझसे भी कहा था जल्दी आने को। इसीलिए मैने सारिका को दूध पीने के लिए अधिक बार नही कहा और प्यार से उसके गाल हिला कर दूध रखने चली गई।

इन्हे जल्दी आना था, इस हिसाब से कुछ खाना बनाने की तैयारी कर रही थी तभी बाहर से शोर सुनाई दिया। मैं ड्यौढ़ी तक आई लेकिन कुछ भी समझ में नही आया कि हुआ क्या है।

ओसारे में बाबूजी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। वो पूरी तरह से दूसरे पर आश्रित थे। सब शोर के साथ भाग गए थे और वे अकेले चिल्ला रहे थे। मैने घूँघट खींचा और और ओसारे की चौखट पर पहुँच कर धीमे से बोली "का भै बाबू जी ? "
बाबूजी चिल्लाते हुए बोले "कुछ नाही, कुछ नाही भै। सब अईसे कहत है। क्यौ अऊर होई। अरे भगवान एतना निर्दई नाही हईन। ऊ हमरे बुढ़ापा में हम पर अईसन पहाड़ नाही गिरईहै।"

बाबू जी की सांत्वना से मैं अंदर तक सिहर गई। क्या कह रहे हैं बाबूजी ............? क्या सारिका के पापा को कुछ हो गया ? मेरा स्वयं पर से नियंत्रण छूटने लगा। मैं ओसारा पार कर के दरवाजे पर दलान में पहुँच गई। गाय भैंस की मड़ईया के पास कँहार का लड़का खड़ा था। मैने उससे पूँछा "का भै रे किसना ? "

"सब कहत हैं कि बड़का भई या के डकईत गोली मार दिहिन।"

" है S S S" और मैं अपनी सुध-बुध खो बैठी।

Monday, August 13, 2007

मुक्ति (भाग‍‍-२)

कितनी सुंदर थी वो गोल भरा सा मुँह बड़ी सी काली.काली आँखें, घुँघराले बाल, मैं मुग्घ हो गई थी अपनी ही कृति पर। मुझे जीवन में खुश रहने का सहारा मिल गया था। मैं उसी को सोचती, उसी को जीती।

मुझे नही पता, मेरे पति भी खुश थे या नही लेकिन कभी-कभी सारिका अकेले पड़ी होती और वे उसे बड़े प्यार से निहार रहे होते और मैं पहुँच जाती तो यूँ आँखें चुराने लगते जैसे कोई गलत काम कर रहे हों, मुझे हँसी आ जाती और मैं मुस्कुराती हुई कहती "काँहें अपने बिटिया के खेलाइब कौनो चोरी है का" और वो बाहर चले जाते।

लेकिन एक दिन उन्होने अपने भाव व्यक्त किए "सुनो! मेरे साहब के एक ही बिटिया है लेकिन उन्होने उसे लड़के की तरह रखा है। खूब पढ़ाया लिखाया है और सारी खुशी दी है। हम अपनी बिटिया को भी ऐसा ही बनाना चाहते हैं।

मैने चूल्हे में पड़ी रोटी को निकालने से अपना हाथ रोक लिया। इनका मुँह देखते हुए आश्चर्य से बोली "सच्ची...?"

"हाँ"

`"बकिर अपने एतना पइसा कहाँ है.....?

"तो क्या हुआ हम तो हैं।..........लेकिन! ....... उसके लिए तुम्हे बदलना होगा।"

`"हम्मै...?"

`"तुम्हा तो सबसे अधिक उसके साथ रहोगी। बच्चा माँ का दर्पण होता है, पता है तुम्हे ? "

`"हम्मै ई कुल बड़ी‌‌‌ - बड़ी बात नाहीमालूम।"

``"तो तुम उसे कैसे बताओगी ?"

ये तो मेरे लिए सबसे बड़ा प्रश्न था। मैं कैसे बताऊँगी ....... सच में मुझे तो कुछ भी पता नही, मैं कैसे बता पाऊँगी .........लेकिन एक ही पल पहले कितनी खुशी हुई थी ये सुनकर कि मेरी मेरी बिटिया भी लड़को के साथ पढ़ेगी, कितना अच्छा सपना था ये। मै कितना चाहती थी कि भईया के साथ मैं भी झोला और कलेवा ले के स्कूल जाऊँ, लेकिन बड़के बाबूजी नही जाने दिये। किसी ने मुझसे कहा नही मगर मैं जानती थी मगर बड़के बाबू जी सभी लड़कियों के लिये यही कहते थे कि कलक्टर थोड़े न बनना है, जो लड़कियों को पढ़ने भेजा जाये। वैसे कलक्टर तो भईया भी नही बने, लेकिन मैने ये बात समझ ली कि लड़कियाँ स्कूल नही जातीं.... लेकिन मैं तो इस काबिल ही नही हूँ, कि अपनी बिटिया को पढ़ा सकूँ मैं उदास हो गई।

`"तुमने पढ़ाई क्यों नही की अपने मायके में ?" उन्होने पूँछा।

मैं उनका मुँह देखने लगी। आज ये कैसे कठिन कठिन प्रश्न पूँछ रहे हैं, जो
पूँछते हैं उसी का उत्तर नही होता मेरे पास।

`"हम पढ़ाऐ तो पढोगी तुम ?" ये था उनका अगला प्रश्न लेकिन ये उतना कठिन नही था।

`"यह उमिर में पढ़ब तो कुछ अइबो करी ?" मैने आश्चर्य से पू¡छा।

`"क्यों नही ? तुम चाहोगी तो सब आएगा। नही चाहोगी तो कुछ नही आएगा।"

बात सिर्फ मेरी होती तो मैं शायद ना नुकुर करती, लेकिन इसका संबंध मेरी एकमात्र खुशी से था, जिसके लिए मैने अभी-अभी बड़ा प्यारा सा सपना देखा था। वो सपना इतना खूबसूरत था कि सत्य परिणिति के लिए कुछ भी किया जा सकता था।

`"लेकिन आप कब पढ़इहैं हम्मै? दिन भर तो आप नौकरी पर रहत हिन।"

`"रात में तो घर पर रहते हैं।"

मैं कुछ नही बोली। बस फिर से चूल्हे की लकड़ी खिसकाने में लग गई। लेकिन कुछ कहने की जरूरत भी नही थी। उन्हें मेरी मौन स्वीकृति मिल चुकी थी।

रात में वो मुझे आधे घंटे में जो कुछ पढ़ाते, मैं पूरे दिन में जब- जब समय मिलता उसका अभ्यास करती। मुझे लिखना पढ़ना छ: महीने में ही आ गया। सारिका मेरी पढ़ाई के साथ साथ ही बढ़ रही थी। ये मुझे किताबें ला कर देते और मैं काम से समय मिलते ही उन्हे आत्मसात करने लगती, इस भावना के साथ कि जल्द ही मुझे सारिका में ये सब डाल देना है।

उस दिन ये अभी लौटे नही थे। गाँवों में वसूली का काम था। अक्सर देर हो ही जाती थी। सारिका सो गई थी और मैं सारिका के बगल में बैठी किताब पढ़ रही थी। दरवाजा खुला ही था। सामने से देवर जी ने प्रवेश किया। मैं उन्हे देख कर खड़ी हो गई।

उन्होने कहा "भईया नाही अइहैं आज । जऊने गाँव मा उसूली खरती गए रहिन उहाँ रिश्तेदारी है तो वै सब रोक लिहिन। एक आदमी आय रहा खबर लई के।"

मैं बिना कुछ बोले सर पर पल्ला सम्हालती रही, जिसका अर्थ था 'मैने सुन लिया।' मैं उनसे अधिक बात नही करती थी। देवर होते हुए भी उनकी उम्र मुझसे बड़ी थी अत: मैं उनका सम्मान करती थी।

अपनी बात कह लेने के बाद उन्हे चले जाना था लेकिन वो पास की कुर्सी पर बैठ गए। मैने कनखियों से उन्हे देखा, तो वो एक टक मुझे निहार रहे थे। नारी में नीयत पहचानने की एक जो इन्द्रिय होती है वहाँ कुछ कंपन हुई। इस क्रिया के साथ प्रतिक्रिया होती है स्थिति को समझदारी से संभाल लेने की। मैं इसी कोशिश में काम याद आने के बहाने बाहर निकलने लगी। लेकिन इतने में कुँवर जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मेरा पूरा शरीर झनझना उठा। मैने उन पर नज़र डाली तो एक बेशर्म हँसी के साथ वो मुझे देख रहे थे। एक झटके में अपना हाथ छुड़ाते हुए मैं दूर जा खड़ी हुई और काँपती हुई आवाज में चिल्ला उठी " होश में नाही हईन का कुँवर जी। "

वो अभी भी उसी तरह मुस्कुरा रहे थे "एतना चिल्लाओ ना! बाबूजी दुआरे पर हईन आवाज नाही पहुँची।" कह कर वो कुर्सी से उठे और उनके कदम मेरी तरफ बढ़ने लगे।

मैने विस्तर के पास पड़ी हँसिया उठा ली "आगे ना बढ़िहैं कुँवर जी। हम गर्दन अलग कई देब। औरत के इज्जती पे आइ जाए तो कुच्छू कई सकत है। ई बात धमकी ना समझिहैं कुँवर जी।" मेरे अंदर इतनी शक्ति ना जाने कहा¡ से आ गई थी। मैं जान लेने और देने दोनो को तैयार थी।

कुँवर जी समझ चुके थे कि बात सिर्फ धमकी तक नही सीमित थी। अगले क्षण ही कही गई बातें सच हो सकती थीं। वासना तो अपने आप में सबसे बड़ी कायरता होती है, ऐसी कायरता रखने वाला आगे बढ़ने की हिम्मत कैसे कर सकता था। वो बाहर निकल गए। उनके निकलते ही मैने दौड़ के दरवाजा बंद किया। कुंडी, सिटकिनी सब लगा दी। देखा तो सारिका चिल्ला चिल्ला के रो रही थी। मैने दौड़ के उसे उठाया और सीने से लगा कर खुद भी फूट कर रोने लगी। मेरी सारी शक्ति जैसे निचुड़ गई थी। मैं काँप रही थी। मेरे रोने का वेग रात भर कम ना हुआ। सारिका मेरी गोद पा कर सो गई थी। मैं उसे लिए रात भर रोती रही। थोड़ी थोड़ी देर में कुँवर जी की कुटिल हँसी वाला चेहरा सामने आ जाता और मेरे आँसुओं में ज्वार आ जाता। पता नही कितनी देर बाद दरवाजा खटका। मैं फिर भीतर तक काँप गई। सारिका को मैने जोर से चिपका लिया। दरवाजा फिर खटका और साथ में आवाज आई `"सारिका!"

क्रमशः

नोटः मनीष जी एवं उड़न तश्तरी की सलाह के अनुसार गुरुवार के पूर्व ही प्रस्तुत

Thursday, August 9, 2007

मुक्ति

हास्पिटल के उस कमरे के बेड पर पड़ा वो शरीर जिसमें खून की बोतल चढ़ रही है, उसके शरीर के रोम-रोम में सुइयों का दर्द है। उसे कुछ भी नही याद। पिछली सुबह कब हुई थी, अगली शाम कब होगी! महीनों से उसे कुछ पता नही। वो सन्निपात के दौर में है। लेकिन एक चीज वो अब भी उसी तरह करता है जैसे पचीस बरस पहले..........मेरा नाम ले कर दस गालियाँ उसके मुँह से अब भी उसी तरह निकलती है और मैं पचीस बरस पहले की तरह आज भी उन गालियों के जवाब में देखने लगती हू¡ कि अब मेरी सेवा में क्या कमी रह गई है।

नही..नही! आप सभी लोग बिलकुल गलत समझ रहे है। मै कोई पतिव्रत धर्म निभाने या भारतीय नारी की आदर्शवादिता सिद्ध करने के लिए ऐसा नही करती हूँ। असल में ये वो मजबूरियाँ हैं जो अब आदत बन चुकी हैं।

मैं भी कभी अल्हड़ हुआ करती थी। कितने कम दिन के लिए पर कितना प्यारा था वो सुख। माँ बथुए तोड़ने का आदेश देती और मैं अपने खेत से दीनू चाचा के खेत तक दौड़ आती। बथुआ, पालक सोया, मेथी जो-जो मिलता, जहाँ जहाँ, मिलता, आसरे काका की सीख, कुसुमा काकी की फटकार समेत आधा सड़क पर बिखेरते, आधा अपनी चुन्नी में समेटते, दालान से आँगन तक पहुँचती तो बड़की अम्मा के चेहरे पर गुस्सा और चिंता दोनो झलक जाते,

"अरे कपड़ा सम्हाल मलिच्छिन!"

कहती हुई वो सर पर हाथ धर कर दादी को देखती हुई कहतीं, "बारह की पूरी होइ के तेरहे में लागि गईं औ भगवान
अक्किल
अबहींनौ नाही दिहिन"
और मैं ठुनकती हुई दादी की खटिया पर जा बैठती, क्योंकि वही मेरी सुरक्षित शरणस्थली थी। दादी के गले में हाथ डाल कर जब मैं उनकी तरफ शिकायत भरे लहजे में देखती तो वो तुरंत मेरी तरफ से बोल उठतीं " मेहरारुन का तो वइसे जिनगी भर अक्किल के काम करे के होत है। बाद में तो सब बिटियन के भाग एक्कै कलम से लिख्खा जात है।" कहती हुई दादी धीमे से मुस्कुरा कर बात का रूख मोड़ने की गरज से कहतीं "जब बियाह कई के आए रह्यू तो केतना कपड़ा सम्हारि लेत रह्यू तूँ "

" हमार बात तो छोड़ि दें अम्मा जी। दस के होते आपके घर मा आइ गै रहेन औ एतनी उमर में तो कूटे पीसे से लई के गिरहस्ती के सारा काम आप हमरे सिरे छोड़ि दिहे रहीं" और इसी के साथ झुँझलाहट बढ़ जाती बड़की अम्मा की "हम्मै का करेक है अइसे रहिहैं तो अपुनै भुगतिहैं।" इतना कह कर बड़की अम्मा काम करने लगतीं और मै दादी की चादर से मुँह ढक कर ऐसे पड़ जाती जैसे कुछ हुआ ही नही था।

माँ जब खाना परोस कर बुलाती तो धीमे से समझाती "काँहे रे! काँहे हम्मै सबसे बोली सुनवावत हे! तोरे उमिर के बिटिये आधा काम सम्हारि लेत हीं गिरिहस्ती के।"
मैं तुनक के खाना छोड़ देती "सुरू होइ गयू बड़की अम्मा के तरह।"
माँ फटाक से हाथ पकड़ लेतीं "अरे तो बड़की अम्मौ तोरे भलईये खातिर कहत हीं। तोसे दुई महीना बड़ी बाय मलतिया, लेकिन देख कईसे धीरा पूरा रहत है।........... अच्छा खाना न छोड़। अन्न के निरादार नाही करेक् चही। ई देख केतना बढियाँ परवर भूजे हई तोहरे खातिर।

फिर ढेरो मान-मनावन के बाद मैं खाना शुरू करती। वो मान मनावन, वो मीठी झिड़कियाँ वहीं खतम हो गईं एक बार घर से निकली तो दोबारा बुलाई भी नही गई।
कौन बड़ी दूर शादी हुई थी। चार घंटे का सफर था, वो भी बैलगाड़ी से लेकिन चार युग तक शायद कोई ना याद करे। माँ कितना प्यार करती थी। मैं गुस्से में भूखी सो जाती तो रात में मेरा पेट टटोल कर देखती। उसने सुनी तो होगी ना मेरी व्यथा-कथा। कैसे शांत रही होगी वो...... शायद उसने भी अपनी सोच को समाज के अनुसार ढाल लिया होगा! लेकिन मैं तो उसका अंश थी। मेरे विषय में वो गलत धारणा कैसे बना पाई होगी
और अगर बना भी ली होगी तो कितना कष्ट हुआ होगा उसे! शायद मुझसे अधिक उसे अपने आप से घृणा हुई होगी। इतना समझाने सिखाने के बाद भी लड़की संस्कारों से गिर गई। कितना घुट-घुट कर रही होगी वो! लोगों के ताने सिर्फ सुनती होगी और जवाब ढूँढ़ ही नही पाती होगी वो।

पता है ? बहुत खुश थी मै ये सुनकर कि मेरी शादी होगी अब। गाँव में शादी होती थी तो खूब मिठाई बनती थी। ढेरों रिश्तेदार आते थे। शामियाना डाला जाता था। वो सब अब मेरे घर में भी होगा। मेरे ससुराल से भी जेवर आएंगे। सावित्री को कितना तैयार किया गया था। मुझे भी तैयार किया जाएगा। जेवर पहनूँगी, पियरी पहनूँगी, गाना होगा। सब कुछ सोच-सोच कर खुश हो रही थी।

गेहूँ बीनने, धान कूटने, चूरा कूटने के लिए मेरे घर में अब गाँव भर की बहू-बेटियाँ इकट्ठी होने लगी थी। खूब हँसी-मजाक होता। गाने होते। मैं भी उनके साथ गाने लगती। सब खूब हँसती और बड़की अम्मा दौड़ कर मुँह पर हाथ रख देती "अरे पगलिया! गाँव भर मा हँसी करवाई का"
रिश्ते की भाभियाँ चुटकी काट कर कहतीं "अब जाइ के अमीन साहब के सुनायू आपन गीत"
मुझे उन पर खूब गुस्सा आता। अपना तो सब खूब हँस रही हैं, गा रही हैं, मैं जरा सा वही काम करती हूँ तो सब मुझ पर गुस्साने लगते हैं। अब तो दादी भी मेरे पक्ष में नही बोलती। मैं चुप-चाप अपनी कोठरी में चली जाती।

लेकिन एक बात मुझे न समझ में आती थी, इतनी खुशी के माहौल में भी माँ, दादी और अक्सर बड़की अम्मा भी अपनी आँखें क्यों पोंछती रहती हैं...? वो दिन भी आ गया जब मुझे खूब तैयार किया गया। आज की तरह ब्यूटीशियन तो नही आईं थी, लेकिन गाँव की लड़कियों और बहुओं को जितना ज्ञान था उस हिसाब से पूर्ण श्रृंगार किया गया। पहले तो खुशी हुई लेकिन जब रात भर घूँघट डाल के जाने क्या क्या करना पड़ा और उस पर नाउन थी कि जरा सा सिर उठाओ तो फिर से धँसा देती। उफ! गर्दन दर्द होने लगी थी। बड़ी अम्मा का डर न होता तो मैं तो नाउन को धक्का दे देती।

जब सवेरा हुआ तब जा कर छुट्टी मिली। दूल्हे की खूब बड़ाई हो रही थी। लड़कियाँ औरते सब उनसे खूब मजाक कर रही थी।
" ई बताएं मेहमान! आप तो इतना सुंदर हईं बकिर ई आपके भई एतना करिया कइसे होइ गईन ?"
" काले रंग पे तो सब गोपी निछावर थीं। और आप सब भी तो हमसे जादा हमारे भाई को ही निहार रही हैं।" दूल्हे का तुरंत जवाब आया।
" हे भागवान! ई तो बड़ा तेज हईन।" एक महिला का स्वर आया और कई खिलखिलाहटें मिल गई उससे।

एक दिन जनवासा रोकने के बाद तीसरे दिन विदाई हो गई। मेरे साथ कई बक्से जा रहे थे। मैं खुश थी कि अभी मुझे डोली में बैठाया जाएगा। कँहार मुझे उठा के दूसरे गाँव में ले जाएंगे। मैने तो गाँव के दूसरे टोलों के अलावा कुछ देखा ही नही था। आज घूमने को मिलेगा। माँ आई और मुझे पकड़ कर चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगी। उसे चुप कराने जो भी आया वही अविरल आँसुओं के संग आया इतनी रूलाई देख कर मुझे भी रोना आ गया। छोटे बच्चे भी तो मा को रोता देख कर बिना कारण समझे रोने लगते हैं। बस उसी तरह।

फिर मैं ससुराल आ गई। पता नही कैसे ? लेकिन उसी दिन शायद मैं बड़ी हो गई। यहाँ भी वही भीड़ भाड़ थी जो मैं मायके में अभी छोड़ कर आ रही थी। लेकिन यहा¡ सब अपरिचित थे। वहाँ गाँव के भी लोग अपने लगते थे, यहाँ घर के भी लोग पराए लग रहे थे। कौन रिश्तेदार है? कौन गाँव का? कौन परिवार का ? कुछ पता ही नही चल रहा था। मैं घूँघटमें मशीन की तरह सब कुछ करती जा रही थी। सबको जल्दी थी दूल्हन देखने की। घूँघट खोलने के बाद अलग अलग तरह की आवाजें आतीं। कोई कहता "दुलहा दुलहिन के जोड़ा बढ़िया लाग है।" तो कोई आवाज आती "ठीक तो भऊज्यू हईं बकिर हमरे भईया यस नाही हईं" अगली बार घूँघट उठता तो आवाज आती "दुलहिनिया लड़िका से इक्कीसे पड़ी उन्नीस नाही।"
जितने लोग उतनी प्रतिक्रियाएं। इससे पहले मैं कभी डरी नही थी।आज मुझे इन सब लोगों से डर लगने लगा था।

फिर शुरू हुआ मेरे जेवरों और मेरे बक्सों का जायजा। "सीकड़ केतना हलकी बाय। "
"दुलहिन तोहार बाप यस सुनार कहाँ पाइ गइन जे एतना हल्लुक सीकड़ बनाइ दे।"
"सास के लिए जौन साड़ी आए बा ऊ तो जैसे परजौती होय।"

आँखें के आगे तो घूँघट का पर्दा था और कान में तरह तरह के तानों की आवाज। रात होते-होते मैं रोने लगी। आज मैं सचमुच रोई थी। दु:खी हो कर कैसे रोया जाता है, मुझे आज पता चला था और इसके बाद तो वो सिलसिला बन गया।

धीरे-धीरे घर खाली होने लगा। घर में बचे लोग थे, मेरी सास( जो मेरी दादी से कुछ ही कम उम्र की थी ), मेरे ससुर( जो मेरी दादी से भी अधिक उम्र के थे ) मेरे पति जिनको मैं बहुत दिनों बाद शकल से पहचान पाई (क्यों कि वो जब आते तो कमरे की ढिबरी बुझ गई होती थी और सुबह उजाला होने के पहले वो दरवाजे पर पहुँच गए होते थे) और एक मेरे देवर थे (जो मुझसे करीब ५-६ साल बड़े होंगे)

ससुर मेरे बीमार ही थे। उनकी पूरी सेवा मेरी सास को करनी होती थी। लेकिन अचानक सास भी बीमार पड़ गईं। सास के रहते मुझे काम भले ही करने पड़ते थे लेकिन जिम्मेदारी कुछ खास नही पड़ी थी। लेकिन उनके बीमार पड़ने के साथ ही काम तो दोगुना बढ़ा ही जिम्मेदारियाँ भी आ गई। अम्मा जी को फालिज का अटैक पड़ा था। वे पूरी तरह बिस्तर पर पड़ गईं थीं। पिता जी तो पहले ही दमा के कारण अपना ही काम बड़ी मुश्किल से कर पाते थे। मैने तीन महीने तक अम्मा जी की अपने हिसाब से भरपूर सेवा की लेकिन उनका खाना छूटता चला गया और एक दिन वो शरीर भी छोड़ गईं।

पति देव माँ और पिता जी की सेवा के कारण अब घर में समय देने लगे थे। अब मेरा भी परिचय उनसे बढ़ चुका था। मेरी झिझक भी उनसे खुल चुकी थी क्योंकि इधर कुछ भी अम्मा जी के माध्यम से न कहला कर स्वयं कहना होता था।

अम्मा जी के जाने के बाद ही मुझे पता चला( बल्कि पड़ोस की काकी ने बताया) कि मुझमें कोई जीव पलने लगा है। अब तो याद भी नही कि उस समय कोई खुशी या उत्साह हुआ भी था या नही। लेकन ये याद है कि सारिका हुई तो मुझे जो खुशी मिली वो मेरी जिंदगी की पहली खुशी थी, याद तो ऐसा ही आ रहा है कि शायद आखिरी भी थी।

क्रमशः
फिर मिलिये अगले गुरुवार …..!

Thursday, July 26, 2007

♥ वो और जिंदगी ♥

वो जिंदगी की तरह उलझने ही देता है,
पर उसके छूटने के नाम से जी डरता है।
इसी आदत पे उसे जिंदगी है नाम दिया,
वो अपना हो के भी बस दुश्मनी निभाता है।

ये जिंदगी अपनी, जिंदगी में वो अपना,
मैने उम्मीद बड़ी रखी है इन दोनो से।
मुझे पल भर की खुशी देके बाँध रखा है,
अजब बंधन है छूट सकते नही दोनो से।

ये खुशियाँ लम्हों को देते हैं, दर्द सालों को,
ये नाउम्मीद मुझे बार.बार करते हैं।
मुझे मालूम है ये दोनो मेरे हैं ही नही,
अपनी चीजों में इनका क्यूँ शुमार करते हैं।

वो जिंदगी की तरह मेरे है करीब बहोत,
पर इनकी दीद की खतिर भी जी तरसता है।
वो जिंदगी में, मेरी जिंदगी उसमें गुम है,
मेरा वजूद इन्ही दोनो में भटकता है।

Friday, July 20, 2007

कुछ सत्य

सारा जीवन टिका हुआ है, बड़े खोखले खंभों से,
कब तक आखिर दिल बहलाएं हम बिंबों प्रतिबिंबों से।

मन तो करता है कि हम भी कुछ परसेवा कर जाएं,
समय नही मिल पाता है बस अपने झूठे दंभों से।

घटती जाती मानव संख्या, जनसंख्या बढ़ती जाती,
जनजीवन में उथल पुथल है, इन्ही चंद हड़कंपों से।

दर्द दिया जिसने जिसने भी, वो सब थे हमदर्द मेरे,
हमने बड़ी ठोकरें पाईं जीवन के अवलंबों से।

पीर पराई राई जैसी, दर्द हमारा पर्वत सा,
सबको अपना दर्द लगे है गहरा दूजे ज़ख्मों से।

कौन पराए आँसू पोंछे, कौन बँटाए दर्द भला,
किसे यहाँ छुट्टी मिलती है अपने गोरखधंधों से।

राम बने तो वन वन भटके, कृष्ण बने रणछोड़ हुए,
ईश्वर भी तो बच न पाया, जीवन के संघर्षों से।

प्रगतिवाद के मूल्य और हैं, इस मन की कुछ रीत है और,
हमको नित लड़ना पड़ता है अपने ही आदर्शों से।

Wednesday, July 11, 2007

अनछुई छुअन से सिहर गई पगली....एक वर्षा गीत


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पेड़ों के काधों पे झुकी हुई बदली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

तन कर खड़े हैं तरू, पहल पहले वो करे,
बदली ने झुक के कहा, अहं भला क्या करें ?
तुम से मिले, मिल के झुके नैन अपने,
झुकना तो सीख लिया, उसी दिन से हमने,

ये लो मैं झुकी पिया, शर्त धरो अगली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

तेरे लिए घिरी पिया, तेरे लिए बरसी,
तुझे देख हरसी पिया, तेरे लिए तरसी।
तेरे पीत-पात रूपी गात नही देख सकी,
सरिता,सर,सागर भरे, इतना आँख बरसी,

तुझे देख मैं जो हँसी, नाम मिला बिजली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है

नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |

माँ तुमने जब नाम दिया तो तुमको क्या मालूम नही था..?
पीतल की ही धूम यहाँ है, वो होती तो अधिक सही था|
अब तो जो कोई आता है, आँखों में शंका लाता है,
क्या तुम सचमुच ही कंचन हो..? मुझसे प्रश्न किया जाता है|
मैं अपनी बातों में जितना सच भर सकती हूँ भरती हूँ,
मै कंचन हूँ.......! कंचन ही हूँ.......! तुमको क्या पीतल लगती हूँ....?
मेरी बातों की सच्चाई उनको कहाँ नजर आती है?
बल्कि आँखो की शंका में कुछ वृद्धि ही हो जाती है,

अब मैं निस्सहाय होती हूँ.... क्या फिर से वो ही होना है...?
एक परीक्षा फिर होनी है उसमें फिर शामिल होना है?
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|

फिर मैं थोड़ी सी खुश हो कर उसकी ओर निगाह करूँगी,
ये मेरे गुण का ग्राहक है ऐसा एक विचार करूँगी
फिर.....! ढेरों निर्णय आएंगे, फिर ढेरों बातें आएंगी,
नही बहुत कीमती है ये, मुझसे नही धरी जाएगी,
पीतल मे भी यही चमक है, बल्कि कुछ ज्यादा ही होगी,
अंतर कहा पता चलता है, उसकी कीमत भी कम होगी|

मैं अपनी सच्चाई ले कर, अपने आदर्शों को ले कर,
पुनः अकेली रह जाऊँगी, पर पीतल बन पाऊँगी.......!
ये कितनी ही बार हुआ है,कितनी बार और होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |

Monday, June 25, 2007

एक मौत

एक शख्स की मौत हुई थी, सारी दुनिया की खातिर,
लेकिन कुछ लोगो की दुनिया, उससे बसती थी आखिर |

आसमान रोया है तो, धरती का मान क्यों भीगा है,
इतने दूर बसे लोगों को, कौन जोड़ता है आखिर ?

पता तुम्हारा पूँछ रहे हैं, बस ये पता लगाने को,
मेरी आह निकलती है तो कहाँ पहुँचती है आखिर ?

कौन कह रहा हर मिट्टी को, मिल जाते हैं काँधे चार,
लावारिस बैरक में इतनी लाशें सड़ती क्यों आखिर ?

किसकी रातें फिर तन्हा हैं ? मेरी नींद उड़ी है क्यों ?
बिना छुए, दिल के तारों को कौन छेड़ता है आखिर ?

वैलेंटाइन डे का, सेलीब्रेशन था इक होटल में,
बाहर श्यामू रोटी ढूँढ़े, अपनी रधिया की खातिर !

तुम चाहो तो झूठ समझ लो, मेरी तो सच्चाई है,
हमको नित मरना पड़ता है, जिन्दा रहने की खातिर|

Friday, June 22, 2007

इस रैना को जीवन कर लो

कम से भी कम दिन कि खातिर है साथ तुम्हारा जीवन मे,
सो खुद को खुद ही रोक रही, तुमको न बसाऊँ इस मन मे |
मन कितना व्यथित हुआ करता है, कभी कभी कुछ बातो मे,
है सब कुछ है जान रह फिर भी है बिका पराए हाथों मे |
है पता मुझे, तुम रमण कर रहे एक तपस्वी जैसे हो,
मुझसे हजार स्तर ऊँचे, तुम एक मनस्वी जैसे हो |
मै एक छोटा सा गाँव जहाँ कुछ दिन को तुम्हारा डेरा है,
मै जान रही फिर भी लगता जैसे तू वासी मेरा है |
तुम चलते फिरते राही हो, तो ओसारे मे बैठ रहो,
मन ड्यौढ़ी मे घुसते आते, है ये भी कोई बात कहो ?
तुमको पा कर सारी दुनिया कितनी शीतल सी लगती है,
कितनी प्यारी तरंग है जो, मन मे हल्चल सी रहती है |
मन करता मै पंछी बन कर तुमको लूँ अपना नीड़ बना,
बस रहूँ तुम्हारे घेरे मे, हो दूर जमाना भीड़ भरा |
तुम पर्वत से लगते मुझको, मै चरणो मे बन नदी रहूँ,
तुम युग की गाथा बने रहो, मै तुममे शामिल सदी रहूँ |
पर ये सब तो मन कहता है, अत्मा और कुछ कहती है,
मन की बातो मे मत आना मुझको समझाती रह्ती है,
मेघो से मोह करोगी तो केवल मरुथल बन जाओगी,
स्वाती की चाह करोगी तो, केवल चातक बन जाओगी |
हर सुन्दर नगर बसेरा हो ये बात कहाँ हो सकती है ?
इसको अपनी किस्मत मानो एक रात यहाँ कट सकती है,
इस एक रात की याद ह्रदय मे जितना भर पाओ भर लो,
जीवन का साथ नही माँगो इस रैना को जीवन कर लो।

Tuesday, June 19, 2007

मै देवी नही थी

सहज सा हृदय था, सहज भावना थी,
ललक थी, तड़प थी, खुशी थी, व्यथा थी,
गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

सुबह शाम जल के हैं जो अर्घ्य मिलते,
मैं शीतल से अब सर्द होने लगी हूँ |
हवन के अगन की तपन है ये इतनी,
जलन से उठा दर्द रोने लगी हूँ|

मुझे मित्रता का सहज साथ चहिये,
ये अर्पण, समर्पण की बातें न बोलो,
मुझे हैं प्रशंसा के दो बोल काफी,
ये आरती, ये स्तुति न कानों में घोलो |

ये इतना चढ़ावा, ये झूठा दिखावा,
जो परसाद में फिर तुम्हे ही है मिलना,
ये दो अक्षरों का नया नाम दे कर,
नये एक तरीके से यूँ मुझको छलना |

मुझे चाहिये पात्र मृदुजल लबालब,
तो दो बूँद गंगाजली ही मिली थी,
ये चाँदी के फाटक, ये सोने के गोपुर,
मैं एकांत मंदिर की भूखी नही थी,

गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

Monday, June 18, 2007

भाग्यहीन कौन

अट्ठाररह दिन प्रलय मचा कर, खत्म हुआ जब कुरुक्षेत्र रण,
अंत एक सबका दिखता था हों अभिमन्यु या दुर्योधन |
द॓ख देख लीला विनाश की, बहुत व्यथित था इक व्याकुल मन,
"मुझको इसी बात का डर था", बिलख बिलख कहते थे अर्जुन.
"कृष्ण कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मैं या दुर्योधन ?"

"तात भ्रात की लाशों पर मैं, राज भला क्या कर पाऊँगा?
नर से हीन धरा ले कर के क्या नरेश मै कहलाऊँगा ?
यही सोच गांडीव धरा था, पर तुमने ही विकाल करा था,
गीता का उपदेश सुना कर, एक विराट रूप दिखला कर,
तुमने क्यों कर बदल दिया था बोलो कान्हा ये मेरा मन
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

"स्वर्ग मिला करता है उनको, वीरगति जिनको मिलती है,
और बचे वीरों की खातिर वीरभोग्या ये धरती है |
तुमने ये उपदेश दिया ‍पर बोलो किसका भोग करूँ मै ?
इतनी मौतें देख देख, मन तो करता है जोग धरूँ मै |
इन आँखों के आगे मेरे तात सदृश गुरु द्रोण को मारा,
वो मेरा अपना भाई था, हाय निहत्था कर्ण बेचारा |
रोम रोम बिंध गया पितामह का मारे मैने इतने शर,
किया शिखंडी को आगे मै हाय हो गया इतना कायर |
इतने अपनों की मौतों का भार सहूँ कैसे मधुसूदन,
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

"मैं कैसे कह दूँ दुर्योधन भाग्यहीन था तुम्ही कहो,
तात, भ्रात पुत्रों के संग मे जिसने जीवन जिया प्रभो!
और मौत है अंत सभी का, वीरगति है वर क्षत्रिय का,
पर जीवन भर तो दुर्योधन ने हमको हर कदम पे जीता |
फिर चाहे वो लाक्ष्यागृह हो या कि द्यूत खेल भगवन,
हमको ही हर बार भटकना पड़ा बताओ क्यों वन‌‌‍‍ वन ?
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

पुत्रहीन मै, पित्रहीन मै, भाग्यहीन सबसे बढ़ कर,
खुद से प्रश्न किया करता हूँ, युद्ध किया मैने क्यों कर ?
सूनी गोद पांचाली की, गोद सुभद्रा की सूनी,
सूनी माँग सुभद्रा की है, और मेरी नजरें सूनी |
राजतिलक मे कहो कन्हैया, कौन कहे आशीर्वचन ?
मैने इन्ही हाथ से तो है मार दिये अपने गुरुजन |
गँवा दिया अभिमन्यु मैने गए पांचालीनंदन,
किसको मै युवराज बनाऊँ, तुम्ही कहो हे नंनंदन!
दुर्योधन की मौत भली है या अर्जुन का ये जीवन,
जिसको जी कर के मरना है मुझको हर क्षण और हर पल,
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"


सिसक रहे अर्जुन कहते थे, प्रभु कुछ ऐसा कर जाना,
एक नई गीता लिख कर के इस समाज को दे जाना,
लिख देना ये युद्ध नही देता है शांति का उपहार,
इसके बाद मिला करता है जीवन को बस हाहाकार,
शांति, शांति और शांति मात्र ही है शांति का एक विकल्प,
लिख देना अब शांति धर्म पालन का सब ले लें संकल्प |
न कोई अर्जुन सा जीते, ना दुर्योधन सा हारे,
ना कोई पुत्रों की बलि दे ना कोई साजन वारे,
क्या पूरा कर पाओगे प्रभु तुम ये मेरा मधुर सपन,
अब ना युद्ध करें धरती पर कोई भी मैं ना दुर्योधन!

Monday, June 11, 2007

मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है...

तुम अपनी परिभाषा दे लो, वो अपनी परिभाषा दें लें,
मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।

वही नेह जो गंगा जल सा सारे कलुष मिटा जाता है,
वही नेह जो आता है तो सारे द्वेष मिटा जाता है।

वही नेह जो देना जाने लेना कहाँ उसे भाता है,
वही नेह जो बिना सिखाए खुद ही त्याग सिखा जाता है।

वही नेह जो बिन दस्तक के चुपके से मन में आता है,
वही नेह जो साधारण नर में देवत्व जगा जाता है।

शबरी के जूठे बेरों को, जो मिष्ठान्न बना देता है,
केवट की टूटी नैय्या को जो जलयान बना देता है,

मूक भले हो बधिर नही है, धड़कन तक को गिन लेता है,
जन्मों की खातिर जुड़ जाता, जुड़ने मे एक दिन लेता है।

झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........?
झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........वही नेह है तुमसे मुझको,
और मुझे ये नहीं पूछ्ना मुझसे है या नही है तुमको,
मुझको तो अपनी करनी है तुमसे मुझको क्या लेना है,
मै अपने मे बहुत मगन हूँ मेरी एक अलग दुनिया है,

उस दुनिया की कड़ी धूप मे तू ही मेह हुआ करता है
मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।