जेठ और बैसाख की ये दोपहर,
तुमको अपने साथ अब भी खींच लाती है।
सामने अंबर तले धरती जले,
और हम तुम शांत थे महुआ तले।
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
तेरा आ पाना नही होता था जब,
दोपहर होती थी वो कितनी गजब,
तब जला करती थी खस की टांटियां,
अब भी वे यादें पसीना आ बहाती है।
श्रद्धेय श्री राकेश खंडेलवाल जी के संशोधन एवं आशीष के साथ।
तुमको अपने साथ अब भी खींच लाती है।
सामने अंबर तले धरती जले,
और हम तुम शांत थे महुआ तले।
प्रेम की शीतल छवि वह याद कर
ये धरा अब भी स्वयं का जी जलाती है।
लू हुई थी साँझ की मलयज पवन,
ताप यूँ पावन कि ज्यों दहका हवन,
पांव जलते, ले प्रतीक्षा की घड़ी,
घास की नर्मी का मन में सुख जगाती है।
झील के काई लगे उस कूल पे,
झाड़ का वो इक अजूबा फूल ले,
मेरी चोटी में सजाने की ललक,
आज भी मुझमें अजब सिहरन जगाती है।
तेरा आ पाना नही होता था जब,
दोपहर होती थी वो कितनी गजब,
तब जला करती थी खस की टांटियां,
अब भी वे यादें पसीना आ बहाती है।
श्रद्धेय श्री राकेश खंडेलवाल जी के संशोधन एवं आशीष के साथ।