Monday, May 18, 2009

तुम सा कौन पुजारी होगा,


पता नही मौसम का असर है या माहौल का कुछ लिखा नही जाता आजकल या फिर सोचा ही नही जाता होगा....! मशीनी जिंदगी क्या सोचे..?? जब सोचती भी है तो बस पुराना सोचती है। तब ऐसा था..अब ऐसा है..! तब ऐसा क्यूँ था..?? अब ऐसा क्यूँ है..?? अतीतजीवी हो गई हूँ शायद। लीजिये उसी अतीत की एक कविता सुनिये। बस यूँ ही लिखी हुई नागफनी सी.. जिधर चाहा बाँहें फैला दी...! जिसे भी चुभे इन्हे फर्क नही पड़ता। और सब से ज्यादा तो ये अपने बाग को ही चुभती हैं। जो इन्हे सँवार भी नही सकता और उखाड़ भी नही सकता.....!


तुम जैसा एक मीत ढूढ़ना चाहा तो मैने सौ बार,
हर प्रयास निष्फल पर निकला,
बैठ गया मन बस थक हार

धीमी गति हमारी लख कर डरते हैं सब संग चलने से,
कौन तुम्हारी तरह पकड़ कर हाथ चले मंजिल की ओर,
जहाँ नही मिलता कोई दो शब्द खुशी के कहने को,
कौन तुम्हारी तरह भला पोंछे भीगे नयनो के कोर
हाथ बढ़े अब भी फैले हैं, आँखों मे आँसू अम्बार
कोई नही तुम्हारे जैसा, देख लिया हमने संसार

अवगुन का तालाब मात्र हैं, हम सारी दुनिया की नज़र में
तुम ने झूठ बताया हमको, कि हम हैं मीठा सोता
तुमने करी इबादत तो वो खुद को खुदा समझ बैठा,
जो था दुनिया की नज़रों रस्ते का पत्थर छोटा,
तुम सा कौन पुजारी होगा, जो ले कर पत्थर अंजान
बिना तराशे ही मंदिर में , दे दे देवों का स्थान




चित्र साभार : कुश चैट :)

Tuesday, May 5, 2009

घर की तामीर चाहे जैसी हो, इसमें रोने की एक जगह रखना।


घर की तामीर चाहे जैसी हो,
इसमें रोने की एक जगह रखना।

निदा फाज़ली

सच घर में एक कोना तो ऐसा होना चाहिये, जहाँ इंसान जी भर के रो सके। फूट फूट कर ज़ार ज़ार। जहाँ कोई ना हो। हम हों.... हमारे आँसू हों। हमें कोई चुप ना कराये बल्कि अंदर से कोई बार बार कहे, "और रो लो, जी भर के रो लो।" दुनिया के द्वारा दी गई क्लेश की गंदगी इस खारे पानी के साथ बहा लो.....! ऐसी जगह तो ऋर में होनी ही चाहिये।

सबके सामने रोना मुझे भी अच्छा नही लगता। लोग कमजोर समझने लगते हैं। दया का पात्र मानाने लगते हैं और एक यही दया का भाव है, जिससे मुझे बचपन से घृणा है। पता नही कब से ऐसा होता है... शायद जब से मैने होश संभाला तभी से होता है ये मेरे साथ कि किसी के चेहरे पर मेरे लिये दया के भाव आये नही कि मन में अजीब सी वितृष्णा उठने लगती है, पता नही कैसा लगता है मुझे..! मैं खुद नही समझ पाती, लेकिन बहुत खराब लगता है.....! मगर अक्सर ये आँसू ऐसे समय पर आते हैं, जब इन्हे नही आना चाहिये। तब मुझे बहुत गुस्सा आता है अपने आप पर। क्यों रो देती हूँ मैं सबके सामने। बहुत से लोगो के मन में जो बात बात पर रोने वाली लड़की की छवि बनी है ना मेरी मुझे बिलकुल अच्छी नही लगती।

फिर भी मैं रोना चाहती हूँ। मुझे रो लेने के बाद बहुत शांति मिलती है। लेकिन रोना तब चाहती हूँ जब मैं ही रोऊँ, मैं ही सुनूँ और मैं ही सुनाऊँ और जी भर के रो लेने के बाद मैं ही स्वयं को चुप कराऊँ, स्वयं से ये कह कर कि " क्यों रो रही हो ? रोने से क्या होगा ? इस परेशानी का कुछ हल ढूँढ़ो..! कोई ना कोई रास्ता तो होगा जो मंजिल तक ले जायेगा। कोई रास्ता न दिखे, तो ईश्वर से प्रार्थना करो कि वो कोई रास्ता दिखाये। वो परमपिता है। तुम उसकी संतान हो। वो तुम्हारी खबर कब तक नही लेगा। कभी ना कभी, कोई ना कोई रास्ता वो अपने आप बनायेगा।" खुद से इतना कहने के बाद जब मैं आँसू पोंछती हूँ, तो एक नई शक्ति, एक नई आशा जागने लगती है। बहुत सुकून मिलता है।

यही कारण है कि बात बात पर रोने वाले लोग मुझे कम समझ आते है, जो लोग कभी रोते ही नही, वे मुझे बिलकुल समझ नही आते। मुझे पत्थर जैसे लगते हैं वो। और मुझे पत्थर नही अच्छे लगते। उनसे अच्छे तो वो पहाड़ होते हैं। पत्थरों को चाहे जितना तोड़ लो, उस पर सिर भी पटक लो तो बी कुछ नही मिलता। बहुत अधिक होगा, तो उसमे से चिंगारियाँ निकलने लगेंगी, जो बस जलाना जानती हैं। पत्थर सिर्फ राह चलते लोगो को गिराना जानते हैं, वे ना हँसना जानते हैं और ना रोना। मुझे पत्थर बिलकुल अच्छे नही लगते। और वहीं उन पहाड़ों को देखिये, कितना विशाल लगता है उनका अस्तित्व। यूँ तो पत्थर उनमे भी है, मगर उनमें बर्फ की शीतलता भी है, पेड़ों की हरीतिमा भी है, और पत्थरों की स्थिरता भी। जैसे लगता है कि कभी वे हँस रहे है...लोगो को सुख दे रहे है और कभी बस गंभीर से हो जाते हैं। उनके अंदर झाँक के देकौ तो एक नदी होती है उनके अंदर... भावनाओं की..संवेदनाओं की...! वो अपनी कहानि स्वयं कहते हैं, बिना कुछ कहे ही। वे लोगो को ऊँचाइयाँ देते हैं, वे हमेशा हँसते रहते हैं और अंदर से आँसुओं की नदी से भीगे रहते हैं। मुझे पहाड़ बहुत अच्छे लगते है...! बहुत अच्छे..!

नोटः आज सुबह अचानक याद आया कि आज वो दिन है, जिसने ८ साल पहले दुनिया की नज़र में मेरा अस्तित्व बनाया था। मैं इस दिन के पहले भी ऐसी ही थी। बल्कि और पवित्र .....और साफ .... और स्पष्ट...! मैं तब भी लिखती थी और अधिक लिखती थी...! संवेदनाएं शीघ्र असर करती थीं। तब मैं सोचती थी कि काश मैं कुछ कर पाती, दुनिया भर के लिये...! लेकिन तब मैं सब के लिये ऐसी नही थी। क्योंकि मुझे सर्टिफिकेट नही मिला था। आज जब लोगो को मैं सफल लगती हूँ, तब मुझे कभी कभी लगता है कि बहुत बड़ा मूल्य चुकाया मैने....! एक परिष्कृत आत्मा, जो ईश्वर के बहुत नज़दीक थी। एक ऐसा मन जो हमेशा दूसरों की सोच सकता था। साफ नदी सा..जैसे पहाड़ों से निकल के बस अब आई ही हो और अब जैसे मैदानों का कितना सारा कूड़ा कर्कट इकट्ठा हो गया।
मगर ज़रूरी था ये भी। बड़े लोगो के दाँव लगे थे। तो सुबह सुबह आठ साल पहले की आज की डायरी देख रही थी कि उस के कुछ ही दिन पहले के ये वैचारिक उतार चढ़ाव मिले। सोंचा कि आप से बाँटू उन दिनों को जब कोई बनावट नही होती थी....! और दुआएं लूँ आप से फिर से अपनी नैसर्गिकता बनाये रखने की।