Sunday, September 10, 2017

वर्तुल धारा

मैंने अपनी कार स्कूल के बाहर उस जगह लगा दी जहाँ हमेशा लगाती हूँ; जब-जब उसे देखने आती हूँ। 
 स्कूल की छुट्टी में एक जैसी पोशाक पहने बच्चों का ऐसा हुजूम निकल रहा था कि पहचानना मुश्किल... सब एक दूसरे को धक्का देते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। जिसे धक्का लगता है, वह बच्चा अपने बैग से, टाई से, बेल्ट से, पानी की बोतल से और कुछ नहीं तो हाथ से, धक्का देने वाले बच्चे पर पलट वार करता है या फिर दौड़ा लेता उस बच्चे को, फिर एक नई भगदड़ शुरू होती है, उसी भगदड़ में।
मगर वह धक्का खा कर थोड़ा सा हिलती है अपनी जगह से और फिर बस वैसे ही, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
वह आठ बरस की प्यारी-सी बच्ची। ताजे आटे की लोई-सा है उसका रंग। कभी जब ढेर सारी पूड़ियाँ बनानी होती थीं तब माँ पूरे चकले पर आटा बेल, उस पर कटोरी रख कर गोल-गोल पूड़ियाँ काट देती थी। वैसे ही कटोरी रख कर गोल चेहरा काटा है भगवान ने उसका और उस पर रख दी हैं दो बड़ी-बड़ी काली आँखें।
लम्बी-लम्बी बरौनियों के साथ ऊपर-नीचे होती उसकी पलकों में इस उम्र की चंचलता नहीं दिख रही। कोई खोज है उसकी नज़र में। जाने क्या तलाश रही है वह? उस तलाश में कौतुहल नहीं, अजीब बेचैनी है। बेचैनी कुछ पा कर स्थिर हो जाने की। चुप से होंठ, खेत के करौंदे जैसे गुलाबी। दांत अब तक दिखे ही नहीं, दिखते तो ज़रूर छोटी मोतियों की बेसर जैसे ही दिखते। सुनहले बाल की लटें उसके चेहरे पर आ-जा रही हैं और वह उलटी हथेली से उसे पीछे करती निर्विकार-सी एक कदम के बाद दूसरा कदम उठाती चली जा रही है। किताबों में कभी—कभी सिंड्रेला दिखती है ना! बस वैसी ही।
मैं अपनी कार की खिड़की से देखती रही और वह आगे बढ़ गयी। मन कह रहा है कि वह उदास है।
     कुछ देर तक काले शीशों के पीछे बैठी मैं, यंत्रवत कार स्टार्ट करती हूँ और जाने किधर को चलने लगती हूँ।
“इस बच्ची में बचपना क्यों नहीं दिखता?” मन सोच में अटका था।
मोबाइल की घंटी ने सोच के बहाव को अचानक रोका।
“हेलो।”
“मैम, हम आईसीआईसीआई बैंक से बोल रहे हैं, आपके लिए एक प्लान है।”
धत...! किसी भी नम्बर से कॉल कर लेंगे सब, पता ही नहीं चलता कि किसी जानने वाले का है या कंपनी का। झुंझला कर मोबाइल की दाहिनी तरफ की बटन पर अँगूठा दबाते हुए मन ही मन भन्नाई मैं।
सर्दियों की शामों की उम्र बहुत छोटी होती है। अभी रात तो नहीं हुई थी लेकिन बत्तियाँ झिलमिलाने लगीं थीं। मैंने कार रिंग रोड की तरफ बढ़ा दी। इस चौड़ी सड़क पर भीड़ हो भी तो कम पता चलती है। लेकिन ख़ुद के अलग-थलग पड़े होने के अहसास को और बढ़ा भी तो दे रहा है एकांत।
उस नन्हीं का चेहरा अब भी आँख के सामने है। क्या भाग्यशाली नहीं है वह कोख जिसमें वह आई?
कोख़...! इस कोख ने कहाँ-कहाँ नहीं भटकाया। मायके से ससुराल, ससुराल से सड़क, सड़क से यह चकाचौंध... सब, सब, सब इस कोख के कारण।
सामने से निकलते कुत्ते को देख ज़ोर का ब्रेक मारा था मैंने और अपने ख़्याल में उसी समय एक ज़ोरदार चाँटा पड़ा था मेरे गाल पर, “अंग्रेज़ी पढ़ा रही है हमको बुजरी! अपना जाँच कराएँ हम? हमको नामर्द कह रही है हरामज़ादी! तोरे महतारी के मुँह में घुसेड़ के बताएं का कि केहमा कमी है?”
वह चाहे जितनी बार मुझे बाँझ कहता, मुझे चुपचाप सुनना था। उसकी माँ, उसकी बहनें, ऐरा-गैरा, सब मुझे बाँझ कहते रहते। क्या-क्या इलाज़ नहीं कराया? क्या-क्या झाड़ फूँक नहीं की? क्या-क्या नहीं पिला दिया दवा के नाम पर? कौन-कौन से ताने नहीं मारे? लेकिन मैंने कभी इस तरह चाँटा नहीं मारा उसके गाल पर। जबकि मुझे तो पता ही था अपनी कोख के बारे में।
इसी कोख के कारण ही तो काकी ने जल्दी मचा दी थी मुझे ससुराल भेजने की।
दसरथ अच्छा लगता था। कहता था बाबूजी से झगड़ा कर के ले जायेगा हमें अपने साथ। जनम-जनम का रिश्ता बताता था हमारा और अपना। बसंत पंचमी वाले दिन दुर्गा जी के मन्दिर में माँग भर कर कहा था हमें अपना उसने। उसी रात यह भी समझाया था कि दुर्गा जी के सामने जब पत्नी बन गयी, तो पत्नी का धर्म भी निभाना शुरू करना होगा।
और मैं पत्नी का धर्म निभाते हुए उस मौसमी पति का कहा सब कुछ करती चली गयी। सब कुछ...!
माँ को कुछ नहीं समझ आया, मगर काकी को शंका हो गयी थी, “महीना कब हुई थी रे?”
बहुत दिन हो गये थे याद नहीं था मुझे. काकी को ही याद आया, “मकर संक्रांति पर पूजा करे में घाट पर नहीं गयी थी, उसके बाद कब हुई?”
फिर तो नहीं हुई थी शायद। दिमाग पर ज़ोर डाला, मगर बाद का याद नहीं आया।
बुआ की सहेली नर्स की ट्रेनिंग कर रही थी। रात के अँधेरे में ख़ूब सारे खून में सना एक लोथड़ा उस नर्स ने अपनी हथेली को मुट्ठी बनाते हुए खींच कर निकाला मेरे शरीर से और पीछे गूलर के पेड़ के नीचे दबा दिया गया उसे।
उफ्फ़...! असहनीय दर्द था। कितना तड़पी थी मैं। पैर से कमर तक दर्द कहाँ था समझ ही नहीं आ रहा था। और पूरे शरीर में कहाँ नहीं था दर्द, यह भी नहीं समझ आ रहा था। काकी ने मेरे दोनों हाथ पकड़ कर दबा रखे थे और बुआ ने दोनों पैर। उस नर्स ने लगभग पेट पर चढ़ते हुए पेडू और कमर दबा कर मेरी दोनों टाँगे फैला दी थीं। पूरी ताकत से चीखने वाली थी मैं तभी माँ ने आँसू भरी आँख के साथ अपने दोनों हाथ से मुँह दबा दिया था मेरा।
आह! आज भी एक-एक अंग पीड़ा से भर जाता है वह दिन याद कर के।
दूसरे दिन से काकी ने बप्पा और काका दोनों को जवान लड़की के घर में बैठी रहने की उलाहना और कर्तव्य बोध का पहाड़ा सुनाना शुरू कर दिया।
दसरथ की हिम्मत कहाँ कि दोबारा घर पर आये। मैंने कुसुम के हाथ चिट्ठी भेजी थी दसरथ को। मैं कहीं भी भाग कर जाने को तैयार थी। लेकिन दसरथ ने ना कोई जवाब दिया और ना कभी सामने पड़ा।
जवान लड़की के लिए लड़का ढूँढने की शर्त सिर्फ उसका मर्दज़ात होना ही तो थी, फिर मिलना कौन मुश्किल था?
वह मौसमी पति नहीं था, घर वालों का ढूँढ कर दिया हुआ सदाबहार पति था। मैंने अगर मौसमी पति की इच्छा का ख्याल रखा था तो इस सदाबहार पति के कहे को भी कभी नज़र-अंदाज़ नहीं किया था। बचपन से यही सीखाया-पढ़ाया गया था कि पति देवता होता है। वह जब, जो, जैसे कहता, मैं हाज़िर रहती।
एक साल पूरा हुआ शादी को और दूसरा भी आधा निकल ही गया, लेकिन इस बार महीना कभी ऊपर नहीं चढ़ा।
आश्चर्य इस बात का होता था कि अम्मा, बुआ, काकी सब को जब पता थी वह बात जिसके कारण मैं ख़ुद को बाँझ कभी नहीं मान सकती थी, तब भी वे सब गंडा, ताबीज़, टोना-टोटका क्यों भिजवाती रहती थीं?
     उस दिन बर्दाश्त की सीमा ख़त्म हो गयी थी। वह ओझा पहले तो बहुत कुछ सुलगा कर धुआँ मेरी नाक में डाल चुका था, मुझे पीठ पर अपनी मुगरी से मार रहा था मगर अब जब उसने कमरा बंद कर मेरी जाँघ के पास हाथ डाला तो मैं चिल्ला उठी। चिल्ला कर बोल दिया उस सदाबहार पति से, “एक बार ख़ुद की भी जाँच क्यों नहीं करा लेते?” और इसके बाद सिर्फ वह चाँटा नहीं मिला था, मुझे पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया था और फिर बेहोशी की हालत में मायके छोड़ दिया गया था।
     काकी का गुस्सा सातवें आसमान पर था। मुझे छोड़ गये इसलिए नहीं, बल्कि मैं वहाँ रह क्यों नहीं पायी, इसलिए। शादी के पहले पाप किया था, उसका फल था जो बच्चे नहीं हो रहे थे। पूजा-पाठ होता, कुछ दिन में देवता प्रसन्न ही होते। लेकिन अपने आदमी को नामर्द कह देना... कौन आदमी नहीं कूट के रख देगा इस पर?
 माँ को पता था, जीना दूभर रहेगा मायके में। वह लगातार समझाती रहती सब कुछ भूल कर ससुराल जाने को। मैं सब कुछ भूल भी जाती तो उस आदमी की फ़सल कैसे तैयार करती जिसका हल जुताई कितनी भी करे, बीज नहीं बो पाता।
     कोई हॉर्न बजाये जा रहा है। शायद इस सड़क पर बहुत आगे निकल आई हूँ और अपने खयालों में उतनी ही पीछे। ओह! इसका मतलब मैं अपनी पिछली दुनिया में इतनी खोयी हुई थी कि ड्राइविंग गलत करने लगी। अरे हाँ...! मैं तो रुक गयी हूँ। क्यों रुक गयी मैं? शायद ज़िंदगी अब रुकी ही हुई है, तो मैं भी रुक-रुक जाती हूँ।
मैंने कार किनारे कर ली।
मोबाइल पर फिर से बेल बज रही है। इन कम्पनी वालों का फोन शाम के बाद भी पीछा नहीं छोड़ेगा क्या?
देखा तो डाक्टर मैडम  का फोन है। अरे हाँ, डाक्टर मैडम को तो बताया ही नहीं था कि इधर चली आई हूँ। चिंता कर रही होंगी।
हॉर्न बजाने वाले सज्जन आगे निकल गये। उनके पीछे दो और भी।
फ़ोन उठा कर हेलो बोलती इससे पहले डाक्टर मैडम की झल्लाहट भरी आवाज़ आ गयी, “हो कहाँ तुम?”
“सॉरी मैडम! बताना भूल गयी। मैं इधर निकल आई थी। रिंग रोड से आगे बढ़ कर सहजपुर रोड पर। ड्राइव करते-करते ध्यान ही नहीं रहा। देर हो गयी शायद।”
“टाइम देखा है?”
“जी अभी-अभी देखा, 8 बज गये हैं।”
“वापस आओ! उस सूनी सड़क पर गाड़ी चलाना, वो भी योजिका को देखने के बाद? सुसाइड करने का और कोई तरीका नहीं मिला?”
“सुसाइड करना होता तो अब तक क्यों जीती?” मैंने फीकी हँसी के साथ जवाब दिया।
“अच्छा चलो, सेंटी मत मारो। वापस आओ। एक केस आ सकता है रात में। तुम्हारा मन होगा तो आना वरना सुनीता से बोल देना। तुम आराम कर लेना घर जा कर।”
“पता नहीं क्यों योजिका बहुत उदास लग रही थी डाक्टर मैम!
“ह्म्म...! मैं तुम्हें बताने ही वाली थी। योजिका की माँ अपनी देवरानी का बेटा गोद ले रही है और योजिका को अपने इन-लॉज़ के पास गाँव भेज रही है। बोल रही थी कि दो बच्चों को शहर में रख कर नहीं पाल पायेगी। हो सकता है योजिका  घर छूटने के डर से उदास हो। लेकिन तुम फ़िक्र मत करो, बाबा-दादी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, थोड़े दिन में यहाँ से भी ज्यादा ख़ुश रहेगी वहाँ। हाँ पढ़ाई-लिखाई सब रुक जायेगी बेचारी की। लेकिन अब क्या कर सकते हैं भला?”
मैंने फोन रख दिया। कुछ देर को स्टेयरिंग पर दोनों हाथ रख, सिर भी वहीं टिका दिया।
एक मैं हूँ, योजिका को देख कर मेरी साँसें तेज़ और दुरुस्त होती हैं और एक वे, उसके माँ-बाप...! जो उसे अपने साथ रख भी नहीं पा रहे। इतनी छोटी बच्ची। माँ-बाप से दूर गाँव में? करेगी क्या? अब से ही बाबा-दादी को खाना बना कर खिलाने, उनकी सेवा का अभ्यास शुरू करवा दिया जायेगा उसका और जब खाना बनाने, पानी भरने, सेवा करने में दक्ष हो जाएगी तो चाहे जितनी कम उम्र रहे, शादी। बस....!
कलेजे में बुरी तरह से हलचल मची हुई थी। सारे आँसू पलकों पर थे। फूट-फूट कर रोना चाह रही थी मैं। आँसू सम्भालने में गला दर्द हो रहा था, फिर भी आँसू निकलने ही लगे।
मैंने वापस लौटने के लिए गाडी स्टार्ट कर ली। गाडी के साथ मन भी वापस पीछे चल पड़ा।
मैं अम्मा से कह रही थी कि मुझे इंटर का फॉर्म भरा दें, मैं पढ़ूँगी और फिर कुछ नौकरी कर के अपना खर्च निकाल लूँगी। लेकिन जब पढ़ने का समय था, उस शादी के पहले, तब कोई नहीं पढ़ाना चाहता था तो अब कौन देता पैसे। मैं तो यह भी कह रही थी कि मुझे सिलाई सिखवा दो। मैं घर में ब्लाउज, फ्रॉक सिल कर ख़ुद  भर को पैसे निकाल लूँगी। लेकिन बाहर निकल कर जो करम किये थे मैंने कुँवारे में, उसके बाद कौन मुझे बाहर निकलने देने वाला था?
     ठाकुर साहब के घर उनकी बहन आयी थीं। बड़े शहर में रहती थीं।
बहिनी का नाम शालिनी था यह मुझे बाद में पता चला लेकिन बड़े ठाकुर साहब की बेटी और छोटे ठाकुर साहब की बहन होने के कारण उन्हें सभी बहिनी कहते थे। बहिनी हमेशा से हम लोगों में चौंध का कारण थीं। हम मतलब नाऊ, कहार, बारी, जो अछूत तो नहीं थे मगर ऊँची जात के भी नहीं थे। घर के कामों के लिए हमारा आना-जाना तो था ठाकुर साहब के घर। उनका रहन-सहन हमारे लिए बचपन से ऐसा स्वप्न था जिसे छू तो सकते थे मगर जी नहीं सकते थे। 
छोटी थी तब ही देखती थी, जब उन बड़ी ज़ात वालों के घर की औरतें भी पढ़ने नहीं जाती थीं, तब बहिनी सुबह ड्राईवर के साथ 20 किमी दूरी पर बसे शहर में पढने जातीं। सफेद शर्ट, नीली स्कर्ट, नीली बेल्ट, नीली टाई, गोरे चेहरे पर लटकती दो लम्बी चोटियाँ और चोटी के सिरे पर बंधे बेबी रिबन के फूल।
हम बच्चे उनकी गाड़ी के पीछे दौड़ जाते और वे शीशे के अंदर हँसती-मुस्कुराती दिखाई देती रहतीं। ऐसी ‘किंवदन्ती’ थी कि बहिनी जहाँ पढ़ने जाती हैं वहाँ हर कोई अंग्रेजी में बात करता है। हिंदी में बात करने पर ज़ुर्माना लग जाता है।
बड़े होने पर भी हम उन्हें ऐसे ही देखते जैसे कोई अजूबा हों, शिष्टता और फैशन का मिला-जुला रूप।
उनकी शादी पास के गाँव के जमींदारों के घर हुई थी, लेकिन जिनसे शादी हुई वे किसी बड़े शहर में इंजीनियर हैं तो बहिनी उसी बड़े शहर से आई थीं।
इस बार तीन महीने पेट से थीं। शहर में कहाँ मिलते हैं मनई-मजूर। डाक्टर ने पूरा आराम बताया है।
वे गाँव की किसी लड़की को एक साल के लिए अपने साथ ले जाना चाह रही थीं। बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दो-चार महीने का हो जायेगा तब वापस भेज देंगी।
बहिनी ने अम्मा से कहा था कि मुझे एक साल को उनके साथ भेज दें। अम्मा को इससे अच्छा अवसर मिलने वाला नहीं था। उन्हें पता था कि ससुराल मैं जाऊँगी नहीं, यहाँ कोई मुझे रखेगा नहीं।
     अम्मा ने हाथ जोड़ कर कहा था बहिनी से कि जो पैसा देना हो उसी में लड़की को किसी छोटे-मोटे स्कूल से इंटर का फारम भरा देना। हो सके तो सिलाई कोर्स भी करा देना।
उस दिन गाँव छूटा तो फिर ना कभी गाँव मिला, ना गाँव वाले। बप्पा, काका, काकी कोई नहीं तैयार था मुझे बहिनी के साथ भेजने को। एक साल बाद जब बहिनी वापस भेज देंगी तब कौन रखेगा? लेकिन ठाकुर साहब के ख़िलाफ़ बोले कौन?
जाते-जाते बप्पा ने कह दिया था, “अपने मन से जा रही हो तो आना मत। हमको जितना करना था कर दिए। अब हमाए औरो औलाद हैं। तुमका हमेशा सीने पर नहीं लादे रहेंगे।”
बहिनी के घर बीते दिन जैसे भी थे, उन दिनों से तो अच्छे ही थे, जो मेरे पिता और पति के घर बीते थे।
लेकिन उस घर में प्रवेश करने के दिन से ही जो चिंता शुरू हो गयी थी, वह यह थी कि यहाँ के बाद कहाँ जाऊँगी?
बहिनी जब अपना चेक अप कराने जातीं तो उनके साथ उस हॉस्पिटल में हमेशा जाती थी मैं। डॉक्टर भी पहचानने लगी थीं। वे बड़े प्यार से बात करती थीं। बहिनी से भी और मुझसे भी। कुछ मुलाकातों के बाद मेरे बारे में बहुत कुछ पता हो गया था उन्हें।
इंटर का प्राइवेट फॉर्म भरा दिया था मुझे बहिनी ने। काम ही कितना था उस घर में। बहिनी और जीजा जी, बस दो लोग। फिर शहर की सारी सुविधाएं घर में - गैस, फ्रिज, वाशिंग मशीन। बहिनी को चलना नहीं था ज्यादा। लेकिन उनको बिस्तर पर सब कुछ उपलब्ध कराने के बाद भी दोपहर में जब जीजा जी चले जाते तो फिर कोई काम नहीं बचता। बहिनी अपने पास बैठा कर पढ़ाती रहतीं। बच्चा होने के बाद मुझे सिलाई सीखने को बाहर भेजेंगी यह भी आश्वासन दे रखा था उन्होंने।
फिर बच्चा होने के समय डॉक्टर मैडम से और भी ज्यादा पहचान बढ़ी। मैं हर वक़्त बहिनी के साथ रहती थी। मेरे पढने और काम करने की ललक देख डॉक्टर  मैडम बहुत ख़ुश रहती थीं मुझसे। बहिनी ने उनसे सिलाई कोर्स करवाने की बात बताई थी। डॉक्टर मैडम  ने कहा था कि वे मुझे नर्सिंग कोर्स करा देंगी। इतनी सेवा करने की भावना हो तो नर्स बनना सबसे अच्छा।
उस दिन मैं और बहिनी बहुत देर से डॉक्टर मैडम के चैम्बर के बाहर इंतज़ार कर रहे थे। एक साधारण-से परिवार के पति-पत्नी बहुत देर से अंदर थे। बहिनी का बच्चा बहुत छोटा था और रो-रो कर परेशान हुआ जा रहा था मगर चैम्बर खुलने का नाम नहीं ले रहा था। अब ना तो हम वापस लौट सकते थे और ना ही अंदर जा सकते थे।
दरवाज़ा खुलने पर देखा कि जाते हुए जोड़े के चेहरे पर उदासी थी। पत्नी की आँख झर-झर बह रही थी।
अंदर पहुँचने पर पाया कि डॉक्टर मैडम भी कुछ उखड़ी हुई-सी ही थीं। बहिनी को देख कर अपनी कुर्सी से पानी पीने को उठते हुए बोलीं “सॉरी शालिनी! ऐसे लोग आ गए थे कि समझ ही नहीं आ रहा था कैसे डील करूँ?”
“इट्स ओके, डॉक्टर साहेब! बाय द वे प्रॉब्लम क्या थी कपल की?”
“कुछ नहीं यार! पत्नी बच्चा कैरी नहीं कर सकती। यूटरिन फाईब्राइड है। तो एक सरोगेट मदर की तलाश में हैं। अब सरोगेसी के रेट भी कितने ज़्यादा हैं? ट्रीटमेंट ही इतना मँहगा है। एक-एक इंजेक्शन, उस पर देखभाल, मेडिसिन। यही सब किसी मिडिल क्लास फेमिली के लिए अफोर्ड करना मुश्किल है। उस पर जो भी सरोगेसी के लिए तैयार होगा उसके रेट...! कोई औरत नौ महीने तक इतने सारे हार्मोनल डिसबैलेंसज़ से गुज़रेगी। फिजिकल ही नहीं मेंटल इंडलजेंस भी होता है पूरा-पूरा...! तो कुछ तो उसे भी मिलना ही चाहिए ना! वरना क्यों कोई अपना शरीर एक तरह से नौ महीने के लिए डिवोट ही कर देगा।” डॉक्टर मैडम एक सुर में बोले जा रही थीं।
“हाँ तो? अब समस्या क्या है?”
“समस्या ये है कि उनके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। वे किसी तरह दवा वगैरह का इंतज़ाम कर ही लें तो सरोगेट को देने के लिए पैसे नहीं। मुझसे कह रहे हैं कि इंतजाम कर दूँ। कहाँ से कर दूँ यार। भारत में तो यूँ भी बहुत कम रेट हैं सरोगेट मदर के। तभी तो सारे विदेशी यहीं आते हैं। अब उसमें भी क्या कम करा दूँ?”
अचानक डॉक्टर मैडम ने मेरी तरफ मुखातिब हो कर कहा, “कुसुमी तुम भी तो कर सकती हो ये काम?”
“मैं?” मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कहना क्या चाहती हैं डॉक्टर मैडम। “कौन सा काम?”
“यही सरोगेसी का?”
“सरोगेसी मतलब?”
“सरोगेसी मतलब उन दोनों का बच्चा तुम्हारे पेट में रख देंगे। क्योंकि फाईब्रोइड के कारण उसकी कोख छोटी पड़ गयी है, इसलिए बच्चा उसकी कोख में बढ़ नहीं पायेगा, तो उसे उठा कर तुम्हरी कोख में रख देंगे। तुम उसे अपने पेट में बड़ा करना और फिर पैदा होने के बाद उन्हें दे देना। बस्स।”
बड़ा अजीब सा लगा सुन कर। अपनी कोख में किसी बच्चे को पालना, कैसे हो सकता होगा ऐसा? बहिनी डॉक्टर मैडम से कह रही थीं, “पता है ना डाक्टर साब, कृष्ण के बड़े भाई बलराम भी ऐसी ही संतान थे। वसुदेव की पहली पत्नी रोहिणी की इच्छा थी कि वे वसुदेव की सन्तान को अपनी कोख से जन्म दें, मगर वसुदेव और रोहिणी का संसर्ग सम्भव नहीं था, तब उन्होंने यह रास्ता निकाला कि वे देवकी के सातवें गर्भ को अपनी कोख में ले आयीं।
हाँ तभी तो बलराम को संकर्षण भी कहते हैं।”
“संकर्षण? संकर प्रजाति?” मेरे मुँह से निकला। अभी कुछ दिन पहले ही तो सामाजिक अध्ययन के पहले पर्चे की तैयारी में पढ़ा था संकर प्रजाति के बारे में।
“नहीं पागल!” डॉक्टर मैडम हँस पड़ीं। “संकर्षण मतलब खींचना भी और दो चीजों को मिलाना भी. योगमाया ने देवकी का गर्भ खींच कर रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसलिए उन्हें संकर्षण कहते हैं। इसलिए भी क्योंकि वसुदेव की दो पत्नियों को एक कड़ी में जोड़ने वाले बलराम थे, इसलिए भी क्योंकि नन्द और यदु दो वंशों को साथ लाने की पहली कड़ी भी वही थे।”
“तो इस सरोगेट का प्राचीन नाम संकर्षण है?” बहिनी ने मुस्कुरा कर डॉक्टर  मैडम से पूछा।
“कह सकती हो।” डॉक्टर मैडम बहिनी को जवाब देते हुए मुझसे मुखातिब हुईं, “मुझ पर विश्वास है न?”
मैंने सिर हाँ में हिला दिया।
“तो विश्वास करो कि मैं तुम्हारा पूरा ख़्याल रखूँगी। तुम्हारे पति को लगता था कि तुम माँ नहीं बन सकती, लेकिन तुम्हें लगता था कि उसे गलत लगता है। अब तुम उन्हें झूठा प्रूव कर सकती हो। मुझे एक टेस्ट करना होगा तुम्हारा। एंड आय ऍम श्योर, यू विल गो थ्रू। नॉर्मली सरोगेट्स जो फीस लेती हैं उतनी तुम्हें ना भी दें वो मगर जितना भी देंगे, उससे तुम पैर तो जमा ही सकती हो ना इस शहर में।”
 “पैसे?” मैंने चौंक कर पूछा।
 “पैसा तो अलग बात बच्ची! बहुत पुण्य भी होगा इससे। हमसे पूछो, माँ ना बन पाना कितना बड़ा दर्द है? आस-पड़ोस, घर-परिवार, समाज-मोहल्ला, जिसे देखो वही दुखते फोड़े पर हाथ रख देता। उन सब की छोड़ भी दो तो अपने अंदर की औरत अधूरी सी लगती है माँ बने बिना। ऐसी तड़प होती है जिसे ना सह पाओ, ना बाँट पाओ किसी से।” बहिनी समझा रहीं थीं।
बात समझ आ रही थी मुझे। किस-किस तरह से, क्या-क्या कर के, क्या-क्या ना कर के मैंने कोशिश की थी माँ बनने की। लेकिन नहीं बन पायी थी और वह लोथड़ा जो आज भी गूलर के पेड़ के नीचे दबा होगा, कितना कोसता होगा मुझे। ‘जिस पेड़ को पानी देने का बूता ना हो उसे बोया ही क्यों, कहते हुए।
पेट के नीचे, जाँघों के बीच अचानक टीस उठ गयी थी उस खून सने मांस को याद कर के।
एक महीन-सी ट्यूब के जरिये मेरी कोख में बीज डाल दिया गया। वह बीज जिसका ना जायांग मेरा था, ना पुंकेशर। बस ज़मीन मेरी थी। इस ज़मीन में पड़ जाने के बाद जब वह बीज अपना एक सिरा मेरी कोख में धँसायेगा उसी समय से उसका एक सिरा उस आसमान की तरफ सिर उठा लेगा, जिसके पास उसका सच्चा अधिकार होगा।
धान की तरह इस बीज को बोया मेरी कोख में गया था और रोपा किसी और खेत में जाना था।
उस बीज की नाल मेरी नाभि से जुड़ने लगी थी। मैं ना चाह कर भी उलझने लगी थी उस नाल से। मैं वहीं रहती थी, बहिनी के घर। जीजा जी ने कोई विरोध नहीं किया था। मैं ट्रीटमेंट लेने अस्पताल भेज दी जाती और फिर वापस आ जाती बहिनी के घर।
     गर्भ तो पिछली बार भी पला था पेट में, मगर उस बार कहाँ था कोई खूबसूरत अहसास इस बात का कि कुछ पल रहा है मुझ में। लेकिन इस बार ख़ुद को विशेष-सा महसूस कर रही थी। पहले अहसास नहीं था कि बच्चा होता क्या है? इस बार के अनुभव बहुत सुंदर थे। उसका इधर से उधर चलना, सिर मार देना, अजीब गुदगुदी करता। पूरा शरीर सिहर जाता ख़ुशी से। जब भी बैठ कर बहिनी से कुछ बात करती तेज-तेज चलने लगता। मुस्कुरा कर हौले से थपकी दे कर डपट देती उसे, “बड़ा मन लगता है तुम्हारा बातों में। देखिये बहिनी, जब बात करो, इधर-उधर हिल के कान लगाने लगता है.” बहिनी मुस्कुरा देतीं।
मन होता कि उस  शख़्स के दरवाजे पर जाऊँ और चिल्ला-चिल्ला कर बताऊँ, “देख मैं नहीं हूँ बाँझ, बाँझ तू है, तू.. तू.. तू..!” जिसने मायके से ससुराल तक अपना कलंक मेरे माथे लगा कर ख़ुद को साफ़ बता दिया।
लेकिन उदास हो जाती यह सोच कर कि यह फल मेरा नहीं होगा, मैं बस निगरानी कर रही हूँ, दूसरे के बाग़ की।
डॉक्टर मैडम कहतीं, “उस ख़ुशी का इंतजार करो, जो तुम उन माँ-बाप को दोगी, जिनका बच्चा है। उनका चेहरा देखोगी तो बस सब भूल जाओगी।”
साथ में अक्सर यह भी समझातीं, “कुसुमी हमेशा याद रखना, बस उतना रिश्ता जोड़ना, जितने से दूसरे को ख़ुश कर सको, इतना नहीं कि ख़ुद  को दुखी  कर लो। पढ़ती रहा करो। बच्चा अचानक चला जायेगा तो खाली महसूस करोगी। पढ़ने की आदत रही तो बाद में भी मन बहलेगा। सब तैयारी कर रखी है। डिलीवरी के तुरंत बाद जैसे ही तुम्हारा शरीर थोडा स्वस्थ हुआ, नर्सिंग की ट्रेनिंग शुरू करवा दूँगी।”
डॉक्टर मैडम के ना रहने पर मैं धीमे-धीमे अपनी कोख सहलाती। उस अंजान से बात करती, ‘सुनो ज्यादा प्रेम मत बढ़ने देना मेरा। पैदा होना तो उस तरफ मुँह कर लेना। मैं समझूँगी तुम तोता-चश्म हो। काम निकला और आँखें फेर लीं। मोह छूटने में आसानी रहेगी।”
लेकिन उसने आँखें नहीं फेरी थीं। बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक देख रही थी मुझे। लम्बी-लम्बी आँखें। कितना मोह था उन आँखों में। उसे गोद में उठाये, हाथ में लिए, जाने क्यों बरसती ही जा रही थीं। मन भर चूमा उसे। सामने खड़ी डॉक्टर मैडम कुछ मुस्कुराती-सी, कुछ उदास-सी आँखों से देखती रह गयी थीं मुझे बस।
     दवाओं के नशे से जब मैं दोबारा जागी तो बच्ची जा चुकी थी। डॉक्टर मैडम कहती थीं कि जब तुम बच्चे को उनके हाथ में दोगी, उस ख़ुशी का इंतजार करो। मैं उसी पल के इंतजार में थी इतने दिनों से और वह पल आया ही नहीं। मैं समझौता नहीं कर पा रही थी इस सच से।
     डॉक्टर मैडम बस यह कहतीं कि वे लोग जल्दी में थे और तुम दवा के नशे में थी।  
     ओह... कैसी कचोट थी उस दुःख की। छातियों में दूध उतर आया था मेरे। वह दूध कटोरी में निकाल कर जब अस्पताल के उस छोटे से गुड़हल के पौधे में डालती तो दो लम्बी आँखों वाला चेहरा चिड़िया के बच्चे की तरह मुँह खोले दिखता सामने। जाने कौन सा दूध पी रही होगी वह बच्ची। कोई उस बॉटल में यह दूध डाल देता।
     छातियाँ कसमसाने लगीं। लगा फिर से ना दूध उतर आये। गाड़ी रोक दी मैंने। घर आ गया है। ताला खोल कर अंदर पहुँची तो सारे शहर का अकेलापन अपने घर में दिखाई दिया। रोज़ ही यह घर होता है, रोज़ ही यह मैं होती हूँ, मगर इतना ज़्यादा अकेलापन नहीं लगता। लेकिन जब-जब योजिका को देखती हूँ, हर बार अकेली हो जाती हूँ।
     योजिका के माँ-पिता मुझसे मिले बिना ही चले गये थे, यह तो एक बात थी, मगर पेमेंट भी आधा-अधूरा कर गये थे यह बात तो मुझे बहुत बाद में पता चली। उस समय तो डॉक्टर साहब ने ढेरों गिफ्ट दिखाए थे उनकी तरफ से। प्यारी-सी साड़ी, थैंक्स गिविंग ग्रीटिंग, अँगूठी का छल्ला और फीस जिसे डॉ साहब ने मेरी नर्सिंग ट्रेनिंग में लगाने के लिए अपने पास रख लिया था।
लेकिन यह सब डॉक्टर मैडम ख़ुद ले कर आई थीं, यह तो तब पता चला जब दूसरी बार सरोगेसी हुई।
     इस बार मैंने शुरू से ही इसे काम की तरह लिया था। अपने पर ध्यान दिया, कोख के बच्चे पर ध्यान दिया, लेकिन किसी भी तरह का मोह नहीं पनपने दिया उस बच्चे से। पिछले दुःख से मैं उबरी नहीं थी।
     इस बार जिनके लिए बच्चा पैदा करना था वे एन.आर.आई. थे। अमेरिका से कई गुना कम दाम जो उन्होंने मुझे दिया था, मेरी हैसियत से कई गुना ज्यादा था वह। जो सम्मान और प्रेम उन लोगों ने दिया, उसका तो कोई मूल्य ही नहीं।
 जो ख़ुशी मैं योजिका के माता-पिता के चेहरे पर देखना चाहती थी, वह मैंने उस एन.आर.आई. जोड़े के चेहरे पर देखी।
मेरे घर के अगल-बगल के लोग जो मुझे चरित्रहीन समझते थे, मुझे देख कर मुँह फेर लेते थे, मेरे सामने आते ही अपने बच्चों को कमरे के अंदर कर देते थे, उन सबके तानों, इशारों का दर्द कम हो गया, जब मैंने उस बच्चे की माँ को उसी तरह चूमते और आँख बरसाते देखा जैसे मैंने किया था यही सब कुछ योजिका के साथ।
तब बताया था मुझे डॉक्टर मैडम ने कि योजिका के माँ-बाप मध्यम आमदनी वाले लोग थे। वे एक बेटा चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी पूँजी और गाँव की कुछ ज़मीन बेच कर पैसा इकट्ठा किया था। बेटी की खबर सुन कर उनमें गजब आक्रोश था। वे बेटी ले जाना ही नहीं चाह रहे थे। नाराज़गी में चुपके से निकल जाना चाहते थे जब हॉस्पिटल के किसी कर्मचारी ने उन्हें देख लिया। पुलिस बुलाने की धमकी पर उन्होंने उतने रूपये दे दिए जितने उस समय उनके पास मौजूद थे, मगर बेटी फिर भी नहीं ले जाना चाह रहे थे। योजिका का बाप कह रहा था, “बेटी के लिए नहीं हम सब कुछ दाँव पर लगा दिए हैं। जब हर महीने अल्ट्रा साउंड हो रहा था तो डॉक्टर को बताना था कि लडकी है। हम बच्चा गिरवा देते। काहे इतना पैसा खर्च करते हर महीना। बिटिया मेरे किस काम की? बेटा तो करना ही पड़ेगा हमें, चाहे दूसरी शादी ही करनी पड़ जाये। तब इतने बच्चों का खर्चा उठाना हमारे बस की बात नहीं।”
डॉक्टर मैडम ने कलह ख़त्म करने कि गरज़ से जितने मिले उतने ही पैसे रखे और कानून, जेल का डर दिखा कर बच्ची उन्हें सौंपी।
     रात का सन्नाटा और ये सब बुरी यादें मेरे सिर पर हथौड़े-सी लग रही हैं। एक बार... बस एक बार समय का चक्र घूमे और योजिका के माता-पिता बच्ची छोड़ जाने की ज़िद कर लें और मैं समेट लूँ उस बच्ची को अपने आँचल में। कह दूँ कि ले जाओ अपना पेमेंट, इस बच्ची पे हजार पेमेंट कुर्बान।
     डॉक्टर मैडम सही कहती थीं, पैसा एक बार आ जाये, फिर पैसे से पैसा बनता जाता है।
     योजिका वह लक्ष्मी थी, जिसने मुझे यह ज़िंदगी दी। योजिका के बाद मुझे डॉक्टर मैडम ने नर्सिंग करायी और अपने हॉस्पिटल में ही रख लिया। मेरे काम उन्होंने कभी निर्धारित नहीं किये। मैं लोगों को ख़ुश रख के ख़ुश भी हूँ और व्यस्त भी। योजिका के बाद मैं दो बार सरोगेट मदर बनी। दोनों एन.आर.आई. थे। दोनों बच्चे विदेश में हैं। उनके माता-पिता मुझे होली-दीवाली ढेर सारा प्यार और उन बच्चों के एल्बम भेजते हैं।
     लेकिन योजिका... योजिका के माँ-बाप ने इसी शहर में रहते हुए मेरी कोई खबर नहीं लेनी चाही कभी। वह तो जब मुझे पता चला कि वे इसी शहर में हैं तो मैं छुप-छुप के देखने जाने लगी उस बच्ची को। जाने क्यों मैं उस गर्भ को भूल नहीं पा रही थी। जबकि न वह मेरा पहला गर्भ थी ना आखिरी।
     और आज यह खबर कि वह लड़की दूर चली जाएगी, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे दो बच्चों को नहीं पाल पाएंगे।
मगर मैं तो पाल लूँगी एक बच्ची.. मैं तो पाल लूँगी ना। यह बात बेचैन कर रही थी मुझे।
     रात के डेढ़ बज रहे थे। मैं निर्णय पर आ चुकी थी।
मुझे याद आया हॉस्पिटल में केस आने वाला होगा। मैंने हॉस्पिटल फोन किया। वे लोग केस ले कर पहुँचने वाले थे। मैं उनसे पहले पहुँच गयी।
ऑपरेशन की तैयारी करते हुए मैंने डॉक्टर मैडम से कहा, आप ने सबकी डील मुझसे की। एक डील मेरे लिए करेंगी?”
ज़ाहिर है डॉक्टर मैडम की समझ में कुछ नहीं आया। मैं सिर झुकाए ऑपरेशन टूल्स इकट्ठा करते हुए बोली, “योजिका की माँ से डील करा दीजिये मेरी। मेरे अकाउंट में जो भी पैसा है सब खाली कर दूँगी मैं। उनसे कहिये, वो बच्ची मुझे दे दें।”
     “पागल हो गयी हो?” डॉक्टर मैडम का मुँह आश्चर्य में खुला हुआ था।
     “उनके लिए योजिका की कोई कीमत नहीं, जिसकी कीमत है, उसे वो लाने वाली हैं। मगर मेरे लिए वह अनमोल है। आप ला दीजिये उसे मेरे लिए। आपने बहुतों को संतानें दीं, मुझे भी दे दीजिये। प्लीज़ डॉक्टर मैम! आप कह कर देखिये, मेरा मन कहता है, वे मान जायेंगे।”
     डॉक्टर मैडम सन्न सी थीं। मेरे चेहरे पर जाने क्या पढ़ना चाह रही थीं वे।
     दरवाजे पर आहट हुई, ऑपरेशन स्टाफ़ आ चुका था।
“मैंने टूल्स आपको दे दिए हैं डाक्टर मैम, आप ऑपरेशन शुरू कीजिए।”

डॉक्टर मैडम हल्का-सा मुस्कुरा दीं। पता नहीं क्यों मुझे विश्वास है कि ऑपरेशन सफल होगा। यूँ आमतौर पर मैं डॉक्टर मैडम के साथ ऑपरेशन थिएटर में होती हूँ, मगर आज मैं नहीं जा पायी। मुझे पता था कि आज मेरा मन ऑपरेशन में नहीं लगेगा। आज मेरी आँखों के सामने योजिका थी, कभी मेरी कोख से निकली और अब मेरी गोद में ही लौटती एक वर्तुल धारा।

Thursday, February 18, 2016

क्या सितम है कि हम लोग मर जायेंगे.


कितनी दिलकश हो तुम,कितना दिलजू हूँ मैं,
क्या सितम है कि हम लोग मर जायेंगे. 

सुबह 6 बजे से यह शेर गूँज रहा है दिल-ओ-ज़ेहन में. 

अम्मा और मौसी यूँ किसी देश, किसी शहर तो छोड़िये किसी गाँव के भी इतिहास में इनका नाम दर्ज़ होने वाला नहीं. लेकिन ये दोनों अपने पिता द्वारा किये गये 'गिलहरी प्रयास' का  सफल रूप रहीं.

उनके पिता यानी नाना जी. नाना जी जब सिंगापुर से भारत वापस आये तो और लोगों की तरह कालीनें, फ़ानूस, पैसा ले कर नहीं आये थे. वे अपने साथ कागज़ और क़लम ले कर आये थे. और ये कागज़ और क़लम कोई बिम्ब नहीं असलियत के कागज़ क़लम थे. 

१९४२ में जब अम्मा ९ साल की और मौसी १२ साल की थीं तब नाना जी स्वदेश वापस आये थे. इसके बाद उन्होंने गाँव-गाँव जा कर वो सारे  क़लम और दस्ती कागज़ बाँटे जो वे विदेश से ले कर आये थे. दुद्धी खड़िया, स्लेट, सब...!

उन्होंने अगल-बगल गाँव की लड़कियों के  माता-पिता को कन्विंस कर स्त्री-शिक्षा के लिए तैयार किया. उन्हें अपने पैरों पर खड़े  होने को प्रेरित किया. कहते हैं कि उस समय उस गाँव के अगल-बगल की बहुत सी लडकियाँ अध्यापिका की ट्रेनिंग ले कर आयीं. 

यह अलग बात है कि शादी के बाद उनमे से अधिकांश की नौकरी छुड़वा दी गयी. 

लेकिन नाना जी का वश अपनी बेटियों पर था. उन्होंने उनकी शादी उन्हीं वरों से की जो नौकरी के विरोध में नहीं थे.

अम्मा और मौसी उस पिछड़े इलाके वाले गाँव में उन दिनों की किंवदन्तियाँ थीं. 

१९४२ की बात छोडिये मेरे पास उस क्षेत्र के आज के भी अनुभव यह हैं कि एक पुत्र के लिए तीन-तीन शादियाँ की जाती हैं और ९ लडकियाँ पैदा की जाती हैं. उस समय में नाना जी ने अपना परिवार दो बेटियों पर सीमित करने का निर्णय लिया. तब भी, जब वे बहुत बड़ी सम्पत्ति के अकेले वारिस थे. 

जाने क्या सोच कर उन्होंने बेटियों को नाम भी थोड़े पुरुषीय ही दिए थे, 'कैलाश-विलास' और शुरू से पत्रों में लिख कर भेजा था कि उन्हें पढने भेजा जाये. 

नाना जी के सिंगापुर से आने के पहले उन दोनों ने पायल, आयल, कड़ा, पछेला, नाक के विभिन्न ज़ेवर जिनका नाम मैं भूल रही हूँ पहन रखे थे और  तेल लगा-लगा कर खूब लम्बे बाल किये थे. 

नाना जी ने आने के बाद एक दिन नई को बुलाया और दोनों लडकियों को उसके सामने बैठा दिया. उनके सारे जेवर उतरवा दिए गये, जो नहीं उतरे उन्हें कटवा दिया गया और फिर उनके लम्बे-लम्बे बालों को इतना छोटा कर दिया गया जितना उस समय लड़कों की जुल्फी होती थी. और इसके बाद दोनों से कहा," विद्यार्थी जीवन का श्रृंगार विद्या है और कुछ नहीं." 

और दूसरे दिन उनकी एकलाई धोतियों की जगह कुरते पैजामों ने ले ली. 

दोनों ने खूब डिबेट्स में भाग लिया. कविताओं का संग्रह किया. गीत-संगीत की सहभागी हुईं. शादी-विवाह में देशभक्ति की गालियों (जिसे सरकारी गाली) से महफिल लूटी. 

मैंने देखा उन दोनों के तेजस्वी दिनों को. जब उनके ओज में दमक थी. आवाज़ में ठसक. बच्चों में अनुशासन, बड़ों में सम्मान.

एक लम्बी उम्र बितायी उन्होंने इस तरह.

दोनों बहनों ने खूब साथ दिया. उन्होंने अपने माता-पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं जताया, लेकिन उनके प्रति कर्तव्य दोनों बहनों ने सामान्य रूप से निभाया.

मुझ उपेक्षिता को अगर कोई अपने घर बुलाता था तो वे मौसी ही थीं. बचपन में मौसी ही थीं जो गिफ्ट की सोचती थीं. हम सब बहनों ने १२-१३ की उम्र में सोने की बालियाँ मौसी की दी हुई पहनी और जिनकी शादी हुई उन्होंने ने नथ.

आज सुबह तीन बजे मौसी स्मृति-शेष रह गयीं.

इधर आँख से देखते-देखते सब कुछ उल्टा चलने लगा था या कहिये हर चीज़ अपने चढ़ान के बाद उतार पर आती है.  यूँ मौसी भी कहती थीं कि अम्मा की स्मरण-शक्ति मौसी से ज्यादा है. लेकिन मौसी की भी कम नहीं थी. मैंने देखा है अम्मा से कितने ही पहले पैदा हुए लोग अम्मा से अपनी उम्र कन्फर्म करते थे. अम्मा के पास सबका पत्रा था. 

लेकिन अब दोनों को कल की चीज़ें नहीं याद रहतीं. मैंने देखा बूढी काया में बच्चा पलने लगा. पल में बातें बुरी लगतीं और पल में सब सामान्य.

10-10 पन्ने की चिट्ठियों और बेसिक फोन पर दो-दो घंटे बात करने वाली अम्मा-मौसी अब बात करने में थक जातीं.

मैं ५ फरवरी को मौसी से मिली थी. उनसे कहा, "मौसी आप अब पैसे नहीं देतीं." उन्होंने लम्बी-लम्बी चलती साँसों के साथ बहू की तरफ देखा और 100 रूपये की थाती मेरे हाथ पर रख दी. मैंने वह रूपये वहाँ रख दिए जहाँ अम्मा के दिए २०० रूपये रखती हूँ, जब-जब कानपुर से आती हूँ. 

आज सुबह जब खबर मिली तो पहला ख्याल अम्मा का आया. एक लम्बी उम्र तक साथ निभाने वाली सखी उनकी थीं उनकी मौसी.

अम्मा, जिनके लिए यह मशहूर था कि जवार में किसी के घर लड़की विदा हो तो अम्मा तीन दिन तक खाना-पीना छोड़ देती हैं. वो अम्मा जो मोहल्ले-टोले की याद में आँसू बहा लेती थीं. 

वह अम्मा ग़ालिब का वह शेर बन गयीं कि 

रंज से खूँगर हुआ इंसा तो मिट जाता है रंज, 
मुश्किलें इतनी पड़ी मुझ पर कि आसाँ हो गयीं.

वे अम्मा जो बाबूजी के खत्म होने के दो साल बाद तक शाम छः बजे दरवाज़े पर खड़ी हो जाती थीं उस रस्ते पर नजर रखे हुए जिस से बाबूजी शाम को लौटते थे, वे अम्मा जो भईया के जाने के बाद घर के बायीं तरफ वाली सड़क को नहीं देखती थीं क्योंकि भईया वहीँ कुर्सी डाल कर बैठते थे, उन अम्मा को सुबह फोन किया तो उन्होंने शांत भाव से कहा," तुम्हारी मौसी भी चली गयीं. एक वही थीं, जो लम्बे समय से हमारा साथ दे रही थीं, आज वो भी गयीं."

सुबह से अजीब निस्पृह सा हुआ है मन, अजब वैरागी सा. जब अंत यही है तो भला शुरुआतें क्यों इतनी जगमग होती हैं ? जब अंत यही है तो भला इच्छाएं क्यों इतनी होती हैं ? एक दिन सब मिट जाएगा...सब, सब, यह धरती, यह सृष्टि... हम जानते हैं, फिर भी लगे हुए जैसे करोड़ों वर्ष का ठेका हमारे सर दे कर भेजा है किसी ने.

कबीर का 

साधो ये मुर्दों का गाँव...

शैलेन्द्र का 

दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी...

सब गड्ड-मड्ड हैं...! 





Thursday, January 14, 2016

बदजात


दुबली पतली सी वह, बड़ी सी आँखों वाले साँवले चेहरे और थोड़े से भरे होंठ के साथ, हाथ में चाय की ट्रे लिये सिमटी सकुचाई खड़ी थी। शायद हाथ काँप रहे थे उसके।

बिस्नू इधर-उधर हिल डुल कर थोड़ा संभल कर बैठने लगे थे। भईया जी ने उनके हाथ पर हाथ रखते हुए उन्हें सामान्य रहने का इशारा किया। फरवरी का अंतिम सप्ताह था, बहुत ज़्यादा स्वेटर, मफलर की ज़रूरत नहीं थी । लेकिन बिस्नू के कानों और कानों की मशीन को छिपाने के लिये भईया जी ने उनके कानों को लपेट कर ढकते हुए बहुत अच्छे से मफलर बाँध दिया था। 
मैने भईया जी को देखा, जो मेरे जेठ थे। वो मूँछों में मुस्कुरा रहे थे। फिर अपने पति की तरफ देखा, उनका चेहरा हमेशा की तरह तना हुआ था। दीदी, मेरी जिठानी, लड़की को एक टक देखे जा रही थीं। मेरी बिटिया, रिंकल खुद में ही मगन, अपने मत्थे पर मेहनत से लाये गये बालों के गुच्छे को बार बार सँवार रही थी और बिस्नू, कभी अपना नया-नया कोट खींच रहे थे, कभी मफलर सही कर रहे थे और कभी तन के बैठते हुए अपना मुँह सीधा करने की कोशिश कर रहे थे।
बिचवई, जो बिस्नू के मामा भी थे, उन्होने माहौल का चुप्पापन तोड़ते हुए भईया जी से कहा, " कुछ पूछना हो तो पूछ लीजिये पांडे जी।"
भईया जी ने मेरे पति की तरफ देखा। इन्होंने अपने चेहरे का खिंचाव बरकरार रखते हुए लड़की से पूछा, "प्रेज़ेन्ट टेंस कितने तरह के होते हैं ?"
मैं चौंक गई। इन्हे कैसे पता ? प्रेज़ेंन्ट टेंस के बारे में ? और उसमें भी कुछ तरह के होते हैं ? ये कैसे जान गये ? इनकी तरफ आश्चर्य से देखा तो पाया कि इनके बगल में बैठी रिंकल कुछ मुस्कुरा जैसा रही थी। ओह्ह्ह ! तो रिंकल ने यह प्रश्न सुझाया है।
लड़की ने सिर झुकाये हए कहा, " चार... प्रेज़ेंट इंडिफिनिट, प्रेज़ेंट कांटिनुएस, प्रेज़ेंट परफेक्ट, और प्रेज़ेंट परफेक्ट कांटिनुएस।"
रिंकल हर अल्पविराम के बाद सिर हिला दे रही थी। ये उत्तर सही होने की सहमति का इशारा था शायद।
उत्तर से लड़की की शिक्षा पता चली या नहीं, इस बात को ले कर तो मैं संशय में हूँ लेकिन प्रश्न पूछ कर मेरे पति गौरवान्वित महसूस कर रहे थे, इस बात में कोई शक नहीं। उनके चेहरे पर दर्प भरा संतोष था क्योंकि उनके अनुसार यह प्रश्न पूछना ही उनकी विद्वता दर्शा रहा था।
सभी फिर चुप हो गये। एक वृद्ध सज्जन, जो शायद लड़की की तरफ से ज्यादा सक्रिय थे, उन्होने अपनी तरफ से कहना शुरू किया, " मंजू की पढ़ाई-लिखाई में कोई कमी नहीं मिलेगी आपको पांडे जी। ११ साल की थी जब इसके पिता जी खतम हो गये। माँ इसकी बड़ी सुसील थी। जब तक वह रही, चाहे जितनी मुसीबत झेली, लेकिन बच्चों की पढ़ाई लिखाई, खान, पियन, पहनाव उढ़ाव में कोई कमी नहीं छोड़ी. बकिर ईस्वर बड़ा अजीब खेल खेले है कभी कभी। इसके पिता जी के जाने के ३ साल बाद माँ के भी पेट में पेट में कैंसर हो गया। किसी तरह तीन साल जिंदा रहीं और फिर वह भी चली गयीं। मंजू हमारी तब १७ साल की थी तब। तब से अपनी और दोनो भाई, सबकी साज संभाल यही कर रही है
        ...हमेशा अच्छे नंबर से पास हुई है बिटिया। दो साल पहले खुद सारी जिम्मेदारी उठा कर बड़कने की शादी करी है। अब जब निश्चिंत हो गयी अपने मायके की जिम्मेदारी से तब खुद शादी करने की सोची है। मनोबिज्ञान से एम०ए० किया है। ठीक सुविधा मिली होती तो सरकारी नौकरी का कंपटीसन निकाली होती। अभी भी जिस इंटर कॉलेज में पढ़ा रही है, उसमें ऐसे तो एढाक (एडहाक) पर है, लेकिन थोड़े दिन में जब नौकरी पक्की हो जायेगी, तब सरकारी के बराबर ही तनखाह मिलने लगेगी।"
"तनखाह की जरूरत है का हमें ? तुम्हैं का लगता है मिसिर ?" मेरे पति ने फिर अपना रौब दिखाते हुए कहा।
"अरे नहीं नहीं पांडे जी ! ये कहाँ कह रहे हैं हम। हम तो बस कह रहे थे कि इतने ऊँच- नीच से गुजरी है तो आप का घर बहुत अच्छे से संभाल लेगी और इसे भी एक सहारा मिल जायेगा।" बेचारे वृद्धजन सकपकाते हुए बोले।
"अरे हाँ हाँ ! वो तो है ही।" भईया जी ने बात संभाली। फिर लड़की की तरफ देख कर कहा, "जाओ बेटा, तुम अंदर जाओ।"
मैं बस देखती रही उस दुबली पतली काया के इर्द गिर्द लिपटी साड़ी को हवा से हिलते-डुलते, बहकते, संभलते अंदर जाते हुए
बिचवई (शादी के मध्यस्थ) और मिसिर, भईया जी और इनका मुँह ताक रहे थे। भईया जी ने मिसिर से कहा, "हम जरा बाहर टहल कर आते हैं।" और उठ खड़े हुए। उनके उठने में कुछ ऐसा इशारा था कि हम सब को पीछे से उठ खड़े होना था और उनके पीछे चल देना था।

बाहर आ कर भईया जी ने पूछा, "कैसी लग रही है तुम लोगों को ?"
दीदी एकदम से उत्साहित हो गईं, "हमें तो बहुत अच्छी लग रही है। बड़ी सीधी दिख रही है।"
रिंकल ने चहकते हुए कहा, "तुम्हे कैसी लगी बिस्नू भईया ?"
"क़ाऽऽ क़ाल क़ाली है।" बिस्नू का मुँह जो बड़ी मुश्किल से उन्होने सीधा रखने की कोशिश की थी, वो फिर से टेढ़ा हो गया।
बिस्नू की बात सुन कर भईया जी ठहाका मार कर हँस पड़े, "अरे एक शादी पहले काली वाली से कर लो। दूसरी गोरी से कर देंगे।"
बिस्नू ने शर्माते हुए खी खी खी कर अपना चेहरा हाथ से छिपा लिया।भईया जी मेरी तरफ देखते हुए कहा, "तुम का कह रही हो निसानपुर वाली ?"
मुझे बड़ी तसल्ली हुई कि आखिर मुझे भी अपनी बात कहने का मौका मिला। "हम बस यह कह रहे थे कि एक बार लड़की से भी उसकी राय पूछ लेते।"
"अरे लड़की की राय क्या पूछना ? उसकी राय के बिना थोड़े यहाँ बुलाया गया होगा हम लोगों को।" मेरे पतिदेव ने अकड़ कर मुझे मूर्ख साबित करना चाहा।
"बबुआ वईसे सहिये कह रहे हैं, फिर भी अगर तुम्हारा मन है तो तुमही पूछ लो।" भईया जी ने सोचा होगा कि मेरा भी मन रह ही जाये। बाकी परिणाम तो उन्हें पता ही था कि लड़की मना नहीं करने जा रही शादी से.

थोड़ी देर में हमें घर के अंदर एक कमरे में लड़की के पास पहुँचा दिया गया। हमने बड़ी सहूलियत से पूछा "बिस्नू बस हाईस्कूल तक की पढ़ाई किये हैं, पता है ना तुम्हें ?" लड़की ने हाँ में सिर हिला दिया। मैं कैसे कहती कि हाईस्कूल तो खाली नाम भर को है। गाँव के स्कूल से डिग्री मिलनी थी, जितने चाहें उतने नंबर की मार्कशीट बन जाती, वरना तो बिस्नू को अपना नाम लिखने के अलावा कुछ नहीं आता, वह भी हाथ काँपता रहता है।
"और भी सब जानती हो ना उनके बारे में। उनका सरीर..." मैं उस लड़की से खुल कर पूछ लेना चाहती थी कि कहीं बिचवईयों ने किसी धोखे में तो नहीं रखा लड़की को, लेकिन तब तक मंजू के छोटे भाई, बड़कऊ की पत्नी बोल उठी "सब जानती हैं। सब बता दिया है हम लोगों ने।"
मैने मंजू की तरफ देखा, उसने सिर झुकाये हुए कहा, " सादी तो करना ही है। छुटकन भी अब शादी लायक हो रहे हैं। बड़कऊ की तो दो साल पहले सादी कर ही दी। अब इन लोगों की गिरहस्थी है। इन लोग अपनी मलिकई, अपनी जागीर संभालेंगे। हम कब तक इन पर बोझा बनेंगे। फिर कहीं ना कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना।"
उसके इतना कहते ही बड़कऊ की पत्नी बोल उठी, "काहें का समझौता दीदी ? बाबूजी भी होते तो अईसा लड़का ना खोज पाते। सौ बिगहा में तो खाली गेहूँ बोआ जाता है पांडे जी के। झारन बुहारन से जाने कितने घर पल जायें।"
इसी के साथ  बड़कऊ की पत्नी ने जल्दी पकड़ ली, "आप चिंता ना करें. सब एकदम बढ़िया है. चलिए बाहर कुछ खा पी लीजिये, कुछ खाया नहीं आपने हम देख रहे थे और देखिये अगर सब लोगन की सहमति हो जाये तो अभी ही कुछ सुभ साईत कर लिया जाये. हमाये लोगों का भी जी तनी पक्का हो जाये औ आपौ अपनी बहुरिया लाये की तइयारी सुरू करौ... अरे सुनि रहे हौ।" बड़कऊ की दुलहिन ने बाहर की तरफ मुँह कर के आवाज़ लगाई और बड़कऊ तुरंत सामने खड़े पाये गये। हमें लग तो रहा था कि हम लड़की से खुल कर बात नहीं कर पाए, लेकिन हम अब कुछ कर भी नहीं सकते थे.

सब लोग बैठक में इकट्ठा हो गये। दीदी खुश हो कर बाहर खड़ी इनोवा से ज़ेवर के डिब्बे निकाल लायीं। उन्होने लड़की के गले में खुश हो कर हार डाल दिया और बड़े लाड़ से उसकी ठुड्डी पर हाथ रख, उसका चेहरा ऊपर कर, उसे आँखों मे भर लिया। मेरे हाथ में सोने की मोटी सीकड़ देते हुए मुस्कुरा कर मुझे आगे बढ़ने का इशारा किया। अजीब हूँ मैं भी। मंजू के गले में सीकड़ डालते हुए दो दिन पहले कमरुद्दीन के घर पर सजाया जा रहा बकरा जाने क्यों बार बार आँख के सामने कौंधने लगा। बकरीद अभी ही बीती है ना।
बिस्नू ने मंजू को तनिष्क की अँगूठी पहना दी़ । भईया जी कल ही शहर से लाये हैं। रिंकल ने कहा आज कल फैशन है, सगाई में तनिष्क की अँगूठी ज़रूरी है। मंजू ने सिर उठा कर देखा भी नहीं बिस्नू को।

जश्न खतम हुआ। सब इनोवा पर हँसते, मुसकुराते बैठ गये। सबके हाथ में उपहार के डिब्बे यह कह कर पकड़ा दिये गये थे कि "आपकी हैसियत के सामने कुछ नहीं लेकिन पान फूल जो है, स्वीकारें।" दीदी, भईया जी को खुशी-खुशी बहुत कुछ बता रही थीं। रिंकल मोबाइल पर खटाखट उँगली चला रही थी। बिस्नू थोड़ी थोड़ी देर पर कह देते "क़ाआ़ क़ाऽऽलीऽऽ हैऽऽ।" उनकी इस अदा पर सब ठहाके मार कर हँस पड़ते।
मैं गाड़ी की खिड़की से सड़क के किनारे चलते खेतों को देखे जा रही थी़। बिलकुल वैसे खेत, जैसे निसानपुर के। उस खेत में अचानक अपना चेहरा दिख जाता और फिर वो चेहरा मंजू का चेहरा बन जाता। मन घबरा जा रहा था मेरा। घबरा कर अंदर देखती, तो अंदर का जश्न ‌और ज़्यादा घबराहट पैदा करता। मैं फिर से देखने लगती खेतों की तरफ। खेतों के पार गाँवों की तरफ। गाँवों के बीच घरों की तरफ। उन घरों में दिखता एक घर गेयान तिवारी का। जिस घर में जाने कितने रंग थे। बाँसुरी, जन्माष्टमी की मृदंग, होली की ढोल। बहुत बड़ा सा दुआरा। दुआरे पर दण्ड पेलते गेयान तिवारी और उनके साथी। बड़ा सा आँगन, आँगन में लगी गेयान तिवारी औेर उनके साथियों की थालियाँ। थालियों में दो तरह की सब्जी, साग, सिकहरी वाली दही, अरहर की कऊरी दाल और इन सब के साथ हर थाली में ज़रूरी रूप से रखी थी एक एक कटोरी घी की।
उस बड़े से आँगन और बड़े से दुआरे  के बीच खड़े भईया कह रहे थे, "अम्मा दो बिटियन के बियाह बाबूजी किये औ दो खेत बेचे। अईसे बुजुरगन की निसानी बेच बेच बिटियन की सादी की जाती है का ? हम दोनों भाइन का कुछ सोचेंगे या बस चार बिटियन की शादी कर के अपने रास रंग में सारी जमीन खतम कर देंगे ?"

अम्मा बड़ी सी थाली में चने की दाल लिये उसमें से अक्सा निकाल कर फेंकते हुए बोल रही हैं " का करें हम ? किसी की सुने हैं आज तक तुम्हाए बाबूजी तुम भी तो लरिका नहीं धरे हो, कहें नहीं तुम ही ढूंढते"
"खोजे तो हैं, तभी तो बात कर रहे हैं। अब खेत ना बिकने देंगे अम्मा हम। फसल बिके उसी पइसे  में घर का खरच रख के बाकी पईसा लाजो की सादी में लगा देंगे.”
"करो तब... ठीकै है़। हम भी एक आध जेवर इधर उधर कर देंगे। लेकिन सादी देखे कहाँ हो ? घर दुआर ठीक है न ?"
"घर दुआर तो अम्मा अव्वल है। सौ बिगहा में तो उनके खाली गेहूँ बोवा जात है। पउनी परजा तो झारन बुहारन से पलि जाते हैं."
"अच्छा ? कउन गाँव है ?"
"पाडेंपुरा। उनही के पुरखन का बसावा गाँव है। घर तो इतना बड़ा है कि कोई छोट मोट गाँव बसि जाये। उस पे लड़का खुद सरकारी नौकर है। कोई चीज की कमी नहीं औ सबसे बड़ी बात कोई माँग नहीं।" भईया खुश हो कर बता रहे हैं। अम्मा का हाथ अक्सा ढूँढ़ते ढूँढ़ते विस्मय से रुक गया। भईया की बात नहीं रुकी " सरकारी दफ्तर मा चपरासी है। उनके बड़े भईया का बड़ा दबदबा है। खाली नाम को जाते हैं दफ्तर। कुछ करना धरना नहीं रहता।. घर बैठे तनखाह मिलती है ये जानो।" अम्मा अपने लाल पर वारी बलिहारी जा रही हैं।
"बस एक बात है जो तुमका खराब लग सकती है, वो ये कि लड़िका दुजहा (लड़के की एक शादी हो चुकी है) है।" भईया ने सारी सफेद पुताई पर काली सियाही वाली दवात उड़ेल दी हो जैसे।
"दुजहा ?"
"घबराओ ना अम्मा़। हम दुसमन नहीं हैं लाजो के। दुजहा खाली नाम के है। अभी दो साल पहिले सादी हुई थी। कहते हैं बच्चा होने में बहुत खून बहा मेहरारू के, उसी के कारन एक आध महीना बाद महारारू खतम हो गयी। दसेक महीने का बच्चा है।"
" बच्चौ है ? अरे मतलब तुम सीधे काहें नहीं अपनी बहन की गर्दन काट ले रहे हो, इस तरह काहें मार रहे हो।"
रात हो गई है। अम्मा के बगल में रीसू है और रीसू के बगल में हम। अम्मा लेटी लेटी हमारे बाल में उँगली फिरा रही हैं "भईया जिससे सादी करने को कह रहे हैं उसके लिए हाँ कभी ना करना, कहि देना कि दुजहे से सादी करोगे तो हम कुँआ इनार ले लेंगे।"
मैं चुपचाप साफ आसमान के चमकते तारे देख रही हूँ। सुग्गो दीदी की सादी हुई तो कितनी कलह हुई घर में। ताल पर का खेत बेच दिये थे बाबूजी। जीजा घर में पड़े रहते हैं। दीदी भाग के यहाँ आती हैं तो जीजा भी आ जाते हैं। भाभी कितना बड़बड़ाती हैं। अम्मा किसका किसका तो बरदाश्त करती रहती हैं। बाबूजी ने कभी उनकी सुनी नहीं। ज्यादा समय तो कहाइन काकी के पास ही गुजरता है उनका। भईया, बाबूजी का भी गुस्सा अम्मा पर ही उतारते हैं। भाभी चार चार ननदों का भार सँभाले खीझती रहती हैं। जिस खेत, संपत्ति पर उनकी शादी हुई थी वो तो हर ननद की विदाई के साथ कम हुई जा रही है। अम्मा सब खुद चुपचाप सहतीं और मुझे भी हमेशा कहती हैं, "धीरज औरत का सबसे बड़ा सहारा है।" आज पहली बार अम्मा ने इस सहारे को छोड़ने की बात की है।

भग्गो दीदी के देवर साथ ही पढ़ते थे। पहले मुझसे एक क्लास आगे थे, बड़ी माता निकल आने के कारण इम्तिहान नहीं दे पाये तो अब मेरे क्लास में आ गये थे। कोई ना कोई बहाना बना कर घर आ जाया करते थे, कभी कॉपी देने, कभी कॉपी लेने, कभी किसी प्रश्न को हल करने के बहाने बात कर लेते थे। मुझसे कभी कहा तो नहीं लेकिन लगता यही था की मुझे पसंद करते हैं। मजाक में एक बार भाभी ने भग्गो दीदी से कहा था, "बहुत चक्कर लगाये लगे हैं आपके देवर घर के। उनका कामै नही पूरा होता लाजो बीबी के बिना। सोच रहीं हैं कि इनसे कहि के गाजा बाजा के साथ आपै के घर पहुँचाय दें लाजो बीवी को। हमरो काम बने, आपौ का।"
भग्गो दीदी ने तुनक के कहा था "जितना पढ़ने में तेज हैं धीरू उतने ही सुंदर। पता नहीं कितने लोग तो अभी से दरवाजे पर हाथ जोड़े खड़े हैं। धीरू को तो जानो हमाए खुद के बेटा हैं वो। हमी को उनकी सादी में मलकई संभालनी है। तो किसी काली कलूटी से सादी नहीं करेंगे हम अपने देवर की, चाहे हमाई बहिन ही हो।"
मैं आसमान में उड़ते उड़ते जमीन पर आ गयी थी।

"ऐ लाजो ! सुनी कि नाहीं ?" अम्मा पूछ रही हैं।
" लड़का सरकारी नौकर है अम्मा ! तुम कहती हो कि भग्गो दीदी औ सुग्गो दीदी के दुलहा की नौकरी लग जाये तो उन लोगों का भाग भाग कर यहाँ आना छूट जाये।"
"अरे बउरही ! अब कहिते हैं। जब कोई राह नही देखाई देती। बकिर सरकारी नौकरी खातिर दुजहे से बियाह कर लेगी ? एक बच्चा है उसके । जाते ही सउरी संभालनी पड़ेगी। टट्टी पिसाब सब। एक्कौ दिन दुलहिन नहीं बन पाओगी मोरी बिटिया। अपने लड़िके बच्चे होंगे की नहीं ? औ कुच्छो कर लोगी, सउतेली महतारी का नाम हमेसा लगा रहेगा साथ।"
"काहें लगा रहेगा अम्मा ? रीसू का भी तो टट्टी पिसाब सब करते ही हैं ना। जइसे इन्हे पाल लेते हैं, उसे भी पाल लेंगे। सौतेली महतारी हम बनेंगे तब ना नाम जुड़ेगा ? आठ नौ महीने का लड़का क्या जाने सगा सतौला ?" हम आसमान देख देख कर बोले जा रहे हैं। जैसे उन्ही सितारों को इधर उधर कर के गणित बैठाना चाह रहे हों अपनी किस्मत की।
" अरे मोर धीया। काहें अपनी जिनगी पानी में बोर रही है ? मास्टर साहब कहि रहे थे बरहवे में अबकिर जिला टॉप करिहे आपकी बिटिया। इतना गुन ढंग, पढ़ाई लिखाई। काहें सब नास करे के सोचि रही हो।"
"कल्ला भी बड़ी हो रही है अम्मा। भईया को तो सबको निबटाना है। उनके भी तो बिटिया हो गई है अब। कब तक बोझ बने रहेंगें हम। कहीं ना कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना।"
कहीं ना कहीं तो समझौता करना ही पड़ेगा ना…" ये किस वाक्य की प्रतिध्वनि थी ? थोड़ी देर पहले मंजू ने यही बोला था न ? और बहुत दिनों पहले मैंने यह कैसे ? मैं और मंजू आवाज़ में भी एक हो गये थे। मैंने घबरा कर चेहरा इनोवा की खिड़की से अंदर बैठे लोगों की तरफ, अतीत से वर्तमान की तरफ घुमा लिया। अंदर भईया जी की आवाज़ थी, "उसका छोटा भाई कह रहा था कि जीजाजी का फोन नंबर दे दीजिये। हम मन मा कहे कि ससुर फोन नंबर अबहिने से ना लो। सुनो निसानपुर वाली तुम्हारा नंबर दे देंगे। ज्यादा बात खुदै करना। बिस्नू से ज्यादा बात ना करने देना। कुछ ऊँच-नीच हो तो ठीक नहीं। एक बार फेरा पड़ि जाये फिर चाहे जितना बतियायें।"
ओह फिर कुछ दोहराया सा जा रहा था। हम फिर से अतीत की तरफ पहुँच गये, निसानपुर की तरफ। कल्ला ने बड़े शौक से इन्ही भईया जी से अपने जीजाजी का पता पूछा था। भईया जी ने गाँव का पता दे दिया था। जहाँ ‘ये’ काम करते थे उस सरकारी दफ्तर का पता नहीं। तब भी डर था ना कि इंटर में पढ़ रही लड़की आठवें पास लड़के, वो भी अपने गाँव के उसी स्कूल से आठवाँ पास लड़के, जहाँ रिपोर्ट कार्ड खुद बनाये जाते थे, से चिट्ठी पत्री के बाद कोई ऊँच-नीच ना फैला दे। एक बार फेरा पड़ गया, फिर बस... !

इनोवा के रुकने से पता चला कि पांडेपुरा पहुँच चुके हैं हम। दूसरे ही दिन से घर में ज़ोर-शोर से शादी की तैयारियाँ हो गयीं। सिर्फ  दो ही महीने तो बचे थे। भईया जी कह रहे थे दो महीना बीतते  देर कहाँ लगती है और सच में देर नही लगी।
दो महीने बीत चुके हैं। बारात जा कर आज लौटने वाली है। हर तरफ अफरा तफरी है। लो बारात आ भी गई है। दुलहन उतारी जा रही है। लाल साड़ी पहने। ऊपर से लाल चुनरी डाले। सिर झुकाये। दीदी धार उतार रहीं हैं। सभी बड़े, बुजुर्ग, मान्य, रिश्तेदार, औरतें दुलहिन परछ रहीं हैं। हमको भी आगे कर दिया गया है। घूँघट के अंदर जाने कैसे मैं खुद को देखने लगी हूँ।
कोहबर में बैठायी गयी मैं। हँसी मजाक सुनती मैं। छेड़ छाड़ से गुज़रती। एक अँधेरे कमरे में पियरी पहना कर बैठा दी गयी मैं। चतुर्सी की पूजा हो गयी है। गाँव भर में सब भाभी लोगों को बहुत चिढ़ाया जाता था, चतु्र्सी की पूजा के दूसरे दिन। मुझे डर लग रहा है, लेकिन कुछ अच्छा जैसा भी लग रहा है।  
दीदी ने मेरी गोद में एक बच्चा डाल दिया है। हमने उसे बहुत प्यार से खुद से चिपका लिया। रीसू दो दिन से नहीं मिला था मुझसे। आवाज देने पर कोई हरकत नहीं कर रहा। कान कुछ अजीब से हैं। कुछ ज्यादा ही छोटे। वह रोये जा रहा है। “ऐसा क्यों ?” मैंने धीरे से पूछा। “ऐसा ही है यह।“ दीदी बता रही हैं, “शहर के डाक्टर बताये हैं दिमागी रूप से अपाहिज कहा जाता है इन बच्चों को। जब हुआ तब से सरीर थोडा फरक है सबसे।  डाक्टर साहब कहे हैं बहुत धीरे धीरे बढ़ेगा या कोई हरकत करेगा। बहुत हो जायेगी तो दस ग्यारह साल के बच्चे जितनी बुद्धि हो जायेगी।“ मैं सन्न हो गयी हूँ। मैं फिर से देख रही हूँ बच्चे को। वो मुस्कुरा रहा है। दीदी मेरी गोद से बच्चा ले कर चली गयी हैं। मुस्कुरा कर कहते हुए " बबुआ बेचैन हुए जा रहे हैं। लाओ लड़िका हमें दो।"
दीदी के जाते ही कोई कमरे में आ गया है। हाँ मेरे पति हैं। हम सिर झुकाए बैठे हैं। पिक्चर में देखा था हमने घूँघट उठाता है दूल्हा, दुल्हन शरमाई बैठी रहती है। मेरी धड़कन बढ़ गई है। साँकल चढ़ने की आवाज़ सुनाई दे रही है। दिया बुझ गया है। घुप अँधेरा। मेरी धड़कन और तेज हो गई । कोई बिस्तर पर आ गया है। अब शायद घूँघट उठेगा। नहीं...। अचानक किसी ने घसीट कर लिटा लिया मुझे। ब्लाउज़ की सारी बटन खोल दीं। साड़ी जहाँ जहाँ रोड़ा बनी खीझ कर हटा दी गई। छातियाँ मसलते हुए कोई हम पर सवार है। यहाँ-वहाँ हर जगह दाँत गड़ाता। ये चूमना तो नहीं था। मैं छटपटा रही हूँ। मैं चिल्लाना चाह रही हूँ। लेकिन फिर पता नहीं क्यों खुद ही वो चीख घोंट ले रही हूँ। मैं लहू लुहान हूँ। बगल में एक शरीर पस्त पड़ा है। उसे कोई मतलब नहीं मेरे दर्द से। उसे नींद आ गयी है।
ओह मैं बार बार कहाँ पहुँच जाती हूँ ?  फिर वही अतीत। वर्तमान में लौटने के लिए मैं गौर  से मंजू की तरफ देख रही हूँ। वो मुझे देख कर घूंघट के अन्दर से मुस्कुरा रही है। मैं उसकी तरफ से नज़र हटा लेती हूँ। सामने मुस्कुराते हुए पति खड़े हैं, बिस्नू की कालर सही करते हुए। सरकारी नौकर पति, जिसकी नौकरी करने में मुझसे पता नहीं क्या कमी हो जाती है और मैं हमेशा गालियाँ ही सुनती रहती हूँ. गाँव वाले इन्हें मोटी बुद्धि का कहते और इनके लिए मैं बिना बुद्धि की हूँ। गाँव वाले कहते, तुम मिली तो इनकी किस्मत खुल गयी और इन्हें लगता कि यह मिल गए तो मेरी किस्मत खुल गयी।
सामने खड़े बिस्नू शरमाये भी जा रहे हैं और झल्लाए भी। सब बिस्नू को देख देख खुश हैं। जब ये सब इतने खुश हैं तो आज इनकी माँ कितनी खुश होती। मैंने खुद को अपराध भाव से जाँचा। मैं उतनी खुश नहीं थी असल में। मैं कुछ उदास थी। उदास थी मंजू के लिए। जिसे मैं उस दिन सोने की चैन नहीं जिन्दगी भर के लिए जंजीर पहना आई थी।
लेकिन विस्नू की माँ भी तो...?? सभी एक सी मोटी खाल के तो नहीं होते ना। मेरी तो खाल ही मोटी है। बाद में पता चला था, शरीर की कमजोरी से नहीं, मन की कमजोरी से ख़तम हुई थी बिस्नू की माँ। पति अजीब बुद्धि का तो था ही साथ में शराबी भी था। एक उम्मीद थी कि बच्चे के सहारे जीवन कट जायेगा। उस बच्चे को डाक्टरों ने मानसिक विकलांग बता दिया। बच्चा घोषित था, पति अघोषित। सुना है कि चार महीने के बच्चे का मोह भी नहीं रोक पाया उस औरत को और किसी रात जाने कब पीछे के कुएँ में छलांग लगा दी।
मैं उस कुँए की तरफ नहीं गयी कभी। वो कुआँ बहुत डरावना है। पति की मार खा कर भी नहीं गयी। बेटी पैदा करने का क़ुसूर करने के बाद भी नहीं गयी। हर रोज़ उस कुँए में समायी औरत से तुलना में नीचा दिखाए जाने के बाद भी नहीं गयी। उसने पांडे खानदान को बिस्नु दिया था। वंश... मैंने ? रिंकल वहीं खड़ी थी, चेहरे पर बिन बात की मुस्कान लिए।
दीदी ने कंधा हिलाते हुए कहा," ए निसानपुर वाली ! कहाँ खोई रहती हो। दुलहनिया को तैयार कर दो ज़रा। उधर देख रही हो, बिस्नू कइसे बेचैन हो रहे हैं।" मैं चौंक कर फिर वापस लौटी आज में। बिस्नू की जुबान पर अब भी असर है। ठीक से बोल नहीं पाते। कान मे मशीन लगवाई है। उससे थोड़ा थोड़ा सुन पाते हैं। थोड़ा होंठ हिलाने के तरीके से समझ लेते हैं। इस साल २५ पूरे हुए। बुद्धि ११-१२ साल के लड़के जितनी ही हो पाई। लेकिन ११-१२ साल का लड़का भी तो लड़का ही होता है ना। एक बात तो सबको पता होती है। बीवी का मतलब क्या ? बिस्नू को भी पता है। बेचैन हैं वो, " एऽऽऽ मऽऽऽम्मीऽऽऽ भेऽऽजोऽऽऽ"
दीदी सहित सारी औरतें खिलखिला रही हैं। बिस्नू की रिश्ते की भौजाईयाँ उनसे मजाक कर रही हैं। एक भौजाई ने मंजू की बाँह पकड़ कर उठने का इशारा कर दिया है। चतुर्सी की पूजा हो गई है। पियरी पहने मंजू को उसी कमरे में ले जाया जा रहा है, जिसमे मैं गयी थी। वहाँ रिंकल ने फूल से कमरा सजाया है। सीएफएल जल रहा है। बेड के बगल में एक लैंप भी रखा है। मंजू कमरे में जा रही है। मेरी धड़कन तेज हो गई है। बिस्नू भी कमरे में चले गये हैं। मेरी धड़कन और तेज हो गयी है। दरवाजा बंद हो गया है। सिटकनी चढ़ने की आवाज़ आई है। खिड़की के शीशे से दिख रहा है, लाइट आफ हो गयी है। अचानक मेरी छातियों मे टीस उठ गई है। मेरे चेहरे, गरदन में दाँत गड़ने लगे हैं। मैं तड़फ उठी हूँ। जाने क्या हो गया है मुझे। मैं बंद कमरे के दरवाजे से कान लगा कर खड़ी हो गयी हूँ। मुझे लग रहा है कोई घुटी आवाज़ आ रही है कमरे के अंदर से।  मै जाने कैसे लहूलुहान सी हुई जा रही हूँ। और मुझे जाने क्या हुआ कि मैं दरवाज़ा भड़भड़ाने लगी हूँ "दरवाजा खोलो बिस्नू ! उसे छोड़ो। तुरंत छोड़ दो उसे।" मैं बेहोश सी चिल्ला रही हूँ। हर तरफ बुझी हुई बत्तियाँ चटाचट जल गई हैं। सब मेरे गिर्द इकट्ठा हो गये हैं। कोई समझ नहीं पा रहा कि मैं कर क्या रही हूँ। मै भड़ भड़ भड़ भड़ दरवाजा खटखटाये पड़ी हूँ। दीदी मुझे पकड़ रही है " ए निसानपुर वाली ! हुआ का है ? पगला गई हो का ?" मैंने दीदी का हाथ झटक दिया है। मैंने एक-एक रट लगा रखी है, "खोलो बिस्नू, जल्दी खोलो दरवाजा।" मेरे पति और भईया जी भी आ गये हैं। भईया जी की आवाज़ सुनाई पड़ रही है "ये क्या पागलपन है निसानपुर वाली ?" और "तड़ाक्" एक जोरदार थप्पड़ पड़ा है मेरे चेहरे पर। यह मेरे पति का हाथ है। " भाग साली ! अपना तो २४ साल से हर रात बरबाद कर रही है हमारी। आज लड़के की भी खोटी कर रही है कमीनी।" उस थप्पड़ से मैं रो नहीं रही हूँ। दर्द में तो मैं पहले से हूँ, थप्पड़ पड़ने से कहीं ज्यादा दर्द में। अचानक "धड़्ड़्ड़" दरवाज़ा खुल गया है, मंजू मुझसे लिपट गयी है। सब मुझे मंजू से अलग कर रहे हैं। मुझे जाने क्या हो गया है आज। वो जो २४ साल से नहीं हुआ था। मैं सबको झिटकते, धक्का देते हुए मंजू को आँगने में खींच लायी हूँ। आँगन के बीच-ओ-बीच मैं मंजू को ले कर बैठ गयी हूँ। मंजू मेरे गले से लगी सिसक रही है। उसके आँसू की धार मेरे कंधे भिगो रही है। मेरे आँसू की धार उसके कंधे भिगो रही है। मेरे पति की आवाज़ कमरों को पार कर आँगन तक आ रही है "बदजाऽऽत"

कंचन सिंह चौहान
18/333 इंदिरा नगर,

लखनऊ-२२६ ०१६