Friday, October 30, 2009

यूँ ही



सुबह से रोक रही हूँ खुद को, मगर नही रुक पाई आख़िर....! बस लिखती चली जा रही हूँ जुनून में...यहाँ क्यों लिख रही हूँ ? पता नही.... सुबह से कई जगह दिमाग लगाना चाहा मगर नही.... यही आ कर लग जता है।

बार बार प्रश्न आ रहे हैं। क्या जिंदगी का कोई फॉर्मूला भी होता है ? क्या जिंदगी के shortcut भी होते हैं ? अगर होते हैं तो क्या long lasting होते हैं ?? क्या हर चीज के करने के पहले कोई कारण होता है ??? क्या हम रिश्ते बनाने के पहले ओहदे देखते हैं ???? ये सोच कर किसी से जुड़ते हैं कि इससे रिश्ता बनाना भविष्य में ये फल दे सकता है और क्या रिश्ते इतने सुविचारित हों सकते हैं?????

नही..नही ...नही... नही...!!! फिर...??फिर ऐसा क्यों लगा ?????

पता नही...! पता नही कि मैं आखिर लिखना क्या चाह रही हूँ। मगर बस इतना जानती हूँ, कि जिंदगी जैसी दिखती है वैसी ही नही है। हर होने के पीछे कितनी बार का ना होना होता है उसका ज़िक्र नही होता...नही किया जाता...!! और नही किया जाता इसका मतलब ये नही कि जो हुआ वो दूसरे के साथ आसानी से हो गया। उसे भी वो चीज़ उतनी ही कठिनाई से मिली है जितनी आपको। बस उसने ढिंढोरा नही पीटना चाहा। उसने नही चाहा कि असफलता पर लोगो की संवेदनाएं मिले। क्यों कि संवेदनाएं १०० में सिर्फ २ ही सच्ची होती है। बाकि औपचारिकता और पीछे उपहास..बस यही होती हैं...!

लोग कहते हैं कि मैं अक्सर रोने धोने वाली बात लिखती हूँ...! सब कहते हैं तो सच ही कहते हैं। मगर जहाँ तक मुझे याद है मैने कभी अपनी किसी व्यक्तिगत त्रासदी का ज़िक्र नही किया होगा। कुछ अपनो की पुण्यतिथि के अलावा, क्योंकि उस दिन इतना तो अधिकार है कि अपने पन्ने को अपने रंग में रंग सकूँ। मगर जिंदगी के फलसफे इतने आसाँ भी नही थे। मगर क्या करना है उन बातों का ज़िक्र करके....! ज़िक्र तो ये है कि आप सब हैं आज। आप सब का साथ है। कुछ सच्चे मित्र हैं। उनका प्रोत्साहन है ...!! मगर ज़िक्र ना होने का अर्थ घटित ना होना नही, ये सबको समझना चाहिये। कोई भी हो.. वो जिस स्थान पर है वो उसकी अपनी मेहनत है। वैसे तो सीढ़ियों तक आने के रास्ते ही बहुत कठिन होते है...मगर फिर भी अगर मान लीजिये एक बार कोई सीढ़ी तक पहुँचा भी देगा तो उन्हे चढ़ने की ऊर्जा तो खुद ही लगानी होगी..! और बुलंदी पर पहुँच कर फिर उसी जगह पर बने रहने का कोई शॉर्टकट नही है। वैसे तो जहाँ तक मुझे पता है न सीढ़ियाँ आसानी से मिली, ना उन तक के रास्ते....!!!

सब को मेरा रहन सहन और खाना पीना दिखता है,
हमने कितने कच्चे पक्के सपने बेंचे उनका क्या...?


सब सिर से ऊपर गुज़र रहा है ना आप लोगों के..?? जाइये कहाँ फँस गये मुझ झक्की के चक्कर में..! मैं भी जा रही हूँ कुछ दिनो को ब्लॉगजगत से दूर...! बिटिया (भाजी) की शादी है तैयारी करनी है भाई....! मगर कहीं कहीं झाँकती मिलूंगी बीच बीच में...! :)

Thursday, October 22, 2009

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है,तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....




कुछ दिन हुए .....पता नही किस के ब्लॉग पर पढ़ा था "अग़र किसी जगह से आपकी मीठी यादे जुड़ी हों तो वहाँ दोबारा कभी नही जाना चाहिये... " बात सच थी क्योंकि यादे वहीं रह जाती हैं, और वक़्त आगे निकल जाता है। हम सब कुछ यादों के अनुसार ढूँढ़ते हैं... छोटी छोटी बातों को भी बिलकुल वैसे ही दोहराना चाहते हैं और ये अपने वश में होता नही....! वक़्त सब कुछ ले के आगे बढ़ गया होता है। मगर ऐसे में जब उस जगह मजबूरन पहुँचना ही पड़ जाये, तो जो होता है वो दिखता नही, जो दिखता है वो होता नही.....! दिखता है वो सब जो कभी हो चुका है....! ऐसे हालातों में लिख गई ये नज़्म.....!!!! ऐसी ही किसी सीढ़ी पर.....! जैसी ऊपर चित्र में है (साभारः गूगल)


बदल गये हैं सभी सड़के इमारत लेकिन,
शहर में आ के मेरे दिल का धड़कना है वही,
तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

ज़रा सी दूरी बना कर यहीं पे बैठै हो,
कि बार बार हाथ, बढ़ के थम से जाते हैं,
कहीं से कोई कोई आ के झाँक जाता है,
औ आते आते सभी लब्ज़ ठहर जाते हैं।

तुम इर्द गिर्द हो के दूर बहुत लगते हो,
मै खुद को पाती हूँ मज़बूर बहुत फिर से यहाँ,
जहाँ भी देखूँ वहाँ तुम ही नज़र आते हो,
मगर मिलने के लिये तुम से जगह ढूढ़ूँ कहाँ ?


ये कैसे सारी की सारी अवाज़ें जिंदा हुईं,
ये कैसे सारे पुराने दरख्त फिर हैं हरे,
ये कैसे उठ के खड़े हैं वो पुराने मंज़र,
ये कैसे आँख में पुरनम से ख़ाब फिर हैं भरे।

नज़र मिला के बिना बोले कोई कहता है,
नज़र के सामने मेरे नज़र भरी फिर क्यों?
मैं साथ साथ हूँ तेरे, मैं इर्द गिर्द ही हूँ
औ मेरे रहते ये तनहाई की बातें फिर क्यों ?

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

Friday, October 16, 2009

वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी


पिछली दीपावली पर गुरू जी के ब्लॉग पर एक कविता दी थी... इस बार अपने ब्लॉग पर वही कविता लगा रही हूँ....!



आप सभी को दीपावली की जगमग जगमग शुभकामनाएं



जिस रात नयन के दीवट में, भावों का तेल भरा होगा,

आँसु की लौ दिप-दिप कर के, सारी रजनी दमकायेगी,


तुम दीपमालिका बन कर के जब लौटोगे इस मावस में,


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।



आँखों के आगे तुम होगे, तन मन में इक सिहरन होगी,


मेरी उस पल की गतिविधियाँ, क्या फूलझड़ी से कम होंगी?


तेरी बाहों में आने को इकदम बढ़ कर रुक जाऊँगी,


मैं दीपशिखा जैसी साजन बस मचल मचल रह जाऊँगी



वाणी तो बोल ना पाएगी, आँखें वाणी बन जायेगी


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।



तुम एक राम बन कर आओ, मैं पुर्ण अयोध्या बन जाऊँ,


तुम अगर अमावस रात बनो, मैं दीपमालिका बन जाऊँ।


तुम को आँखों से देखूँ मैं, मेरा श्री पूजन हो जाये,


हर अश्रु आचमन हो जाये, हर भाव समर्पण हो जाये।



लेकिन तुम बिन पूनम भी तो मावस काली बन जायेगी


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।


Sunday, October 11, 2009

कबिरा को रामान्द मिलें,हमको बस गुरु का प्यार मिले- गुरु जी के जन्म दिन पर

११ अक्टूबर का ये आज का दिन, जब तारीख की इकाई दहाई एक ही होती है, एक समान... अंक ज्योतिष में सुना है कि इस तारीख को इसी कारण से शुभ मानते हैं और शुभ मानने के साथ ही अमिताभ बच्चन जी का उदाहरण भी दे दिया जाता है कि कैसे इस तारीख ने उन्हें शहंशाह बना दिया है...! नही नही भाई कोई बवाल ना कीजिये इस बात पर... मैं ये कहाँ कह रही हूँ कि जिस शख्स की बात मैं कर रही हूँ वो ब्लॉग जगत का शहंशाह है, मैं तो बस ये बता रही हूँ कि हमारे गुरु जी का भी आज ही जन्मदिन है..आज....जिस दिन शहंशाह का भी जन्मदिन होता है... पता नही ये बात कितनी सच है कितनी झूठ कि ये अंक भाग्यशाली है मगर हाँ दिलों का शहंशाह तो ये बनाती ही है....!!!

तो सबसे पहले तो मेरे साथ मिल कर बधाई दीजिये मेरे गज़ल गुरु एवं अग्रज श्री पंकज सुबीर जी को उनके जन्मदिन की। चूँकि गुरु जी ने बताया कि टॉम एण्ड जेरी उनका प्रिय कार्टून है और घर में मेरे झगड़े की प्रवृत्ति के कारण मुझे अक्सर जेरी की उपाधि से नवाज़ा जाता है तो इस जेरी की तरफ से



गुरु जी की पुस्तक ईस्ट इंडिया कंपनी मुझे वीर जी द्वारा राखी बँधाई मे मिली थी। भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित इस सजिल्द कथा संग्रह में कुल १५ कहानियाँ है, जिनमें से मात्र ६ कहानियाँ ही कल तक पढ़ी थी। ये तो परसो रात में सोते समय लगा कि क्यों ना गुरु जी के जन्मदिवस पर उनकी ही कृति के विषय में लिखूँ ? तो लिखने के पहले ज़रूरी था विषय को पढ़ना... तो कल सुबह से पहले तो बची हुई कहानियों को पढ़ा और अब आधी रात में पढ़ने के बाद उपजे विचारों को लिखने का प्रयास कर रही हूँ। प्रयास इस लिये कि किसी चीज को लिखना और समझना दोनो दो स्तर का होता है। लिखने वाला अपने मानसिक स्तर पर जा कर लिखता है और पढ़ने वाला अपने मानसिक स्तर पर गिर कर समझता है। साथ ही गुरु जी की कहानियाँ अधिकांशतः प्रतीकों के माध्यम से लिखी गई है, अब इन प्रतीकों को लिखते समय गुरु जी ने किस तरह समझाना चाहा और मैने किस तरह समझा ये तो ....

इस संग्रह के विषय में नीरज जी ने पूर्व में सारी जानकारी यहाँ दे रखी है।

तो कहानी संग्रह की पहली कहानी है क़ुफ्र..! बात बात में धर्म के लिये लड़ने वाला आदमी... धर्म के नाम पर मानवता का संहार करने वाला आदमी कैसे समझौता कर लेता है, अपने आप से जब बात दो जून रोटी की हो। हर क़ुफ्र जायज़ हो जाता है, जब लगने लगे कि इस के बिना बच्चो का पेट भरने का कोई उपाय ही नही। एक हक़ीकी कहानी। यथार्थ दर्शाती।

दूसरी कहानी अँधेरे का गणित। समलैंगिकता जैसे विषय पर इतनी सफाई से लिखा जाना मुझे इस कहानी को कथा संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी कहने पर मज़बूर करता है। आज जब कुछ पत्रिकाओं को उठाने के पहले ही पता चल जाता है कि उसमे कहानी छपी होने का मतलब एक खास विषय की अनिवार्यता है, तब ऐसे ही खास विषय को सफाई से बयाँ भी करना और श्लीलता बनाये रखना मुझे लगता है कठिन के साथ चुनौतीपूर्ण कार्य भी है।

तीसरी कहानी घेराव सामान्य छेड़ छाड़ पर सांप्रदायिकता का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद हुए हश्र की कथा है। और जब मरने मारने वालों के नाम हिंदु और मुसलमान मात्र रह जायें तब जनता, प्रशासन और मीडिया पर अलग अलग इसकी क्या क्रिया प्रतिक्रिया होती है इसका हाल ए बयाँ है ये कथा।

आंसरिंग मशीन को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं। तथाकथित साहित्यकारी में विद्यमान तथाकथित विद्वानो के गणित की कहानी, जिसमें ईमान को ताले में बंद कर के रखना ही आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिस्थति में नये नये आये सुदीप का इस माहौल से सामंजस्य बिठाने के क्रम को दर्शाती है ये कथा।

ईस्ट इण्डिया कंपनी जो कि कहानी संग्रह नाम भी है, एक अद्भुत कहानी है जिसमें खड़े पति और खड़ी पत्नी को ईस्ट इण्डिया कंपनी का रूपक बना कर अनोखा व्यंग्य प्रस्तुत किया गया है।

हीरामन एक संवेदनशील कहानी है। आधुनिक कथा हेतु आवश्यक तत्वों का समावेश इसमें भी बखूबी किया जा सकता था। मगर कहानी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ती है। मालिक के प्रति वफादार हरिया का खुद की नज़रों में गिर कर भी नमक का कर्ज़ अदा करना और स्वयं खाली हाथ रह जाना। कहानी अंत की ओर जैसे जैसे बढ़ती है रोमावलियों में सिहरन पैदा हो जाती है।

घुग्घू कहानी में घुग्घू को प्रतीक बना कर नारी के गूढ़ मन की तुलना करना, मुझे तो बहुत भाया। ये कहानी भी मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छी लगी। "एक छोटा सा कीड़ा घुग्घू जो जब भी धूल में घुसता है तो ऊपर एक शंकु के आकार का गडढा छोड़ जाता है, और इसी शंकु के अंतिम सिरे पर धूल में कहीं गहरा छुपा होता है घुग्घू " वाक्य से जिस घुग्घू का परिचय कराया गया उससे मैं स्वयं असल में परिचित नहीं हूँ। मगर बच्चों के लाख प्रलोभनो और तीली घुमा घुमा कर ढूँढ़े जाने के बावजूद बाहर ना आने वाले घुग्घू की शालिनी के संस्कारिक मन से तुलना कहीं स्त्री विमर्श का सटीक रूप लगती है।

तस्वीर में अवांछित कहानी में दुनियादारी के फेर में फँसा वो व्यक्ति जो खुद के घर में अपरिचित हो गया है। प्रतीको का भरपूर प्रयोगा इस कहानी में भी किया गया है। आदमी के अंदर बैठे दूसरे आदमी की उहापोह, कुंठा और मंथन इस कहानी के अंग हैं।

एक सीपी में तीन लड़कियाँ रहती थीं, हरी, नीली और पीली कहानी में भी प्रतीकों का अनोखा खेल है। हरी, नीली और पीली लड़कियों के माध्यम से तीन व्यक्तित्वों की चर्चा और तीनों का अंत एक ही होना, कहीं फिर से नारी विमर्श नही तो कन्या विमर्श की श्रेणी में तो आता ही है।

ये कहानी नही है के मुख्य पात्र मैँ ने जो देखा वो सहजता से बयाँ किया... पढ़ने वाले अपने अपने अर्थ लगा सकते हैं।
रामभरोस हाली का मरना भी एक सामान्य घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने के कथानक को ले कर बनाई गई कहानी है। इस कहानी में विशुद्ध गाली को पढ़ना मुझे चौंकाता है, वरना तो बहुत सी ऐसी जगह भी बच के निकल गये हैं जहाँ कहानी की माँग के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा सकता था।

तमाशा
एक विद्वान बाप की अनपढ़ पत्नी की संतान को दिया गया नाम है। जिसने शादी के मौके पर पिता को कन्यादान ना देने का आग्रह इस आधार पर किया है कि दान की वस्तु का अपना होना आवश्यक है और पलायनवादी इस पिता ने लड़की को कभी अपना नही बनने दिया। ये एक संवेदनशील कथा है।

शायद जोशी कहानी में एक कहानी के साथ पूरे गीत की समीक्षा का प्रयोग अनोखा प्रयोगा है। मेरे जैसे चटू लोगो के बात करने पर लोग क्या करते होंगे इसका थोड़ा बहुत अनुभव हुआ इस कहानी के साथ। जिसमें शायद जोशी जैसे व्यक्ति के समस्या पुराण को प्रत्यक्ष में सुनने वाला मन ही मन शंकर हुसैन फिल्म के गीत
अपने आप रातों में चलमने सरकती है,
चौंकते हैं दरवाजे सीढ़िया धड़कती है

के मुखड़े सहित तीनों अंतरों का सुंदर विश्लेषण करता है।

छोटा नटवर लाल कहानी मैँ अब तक नही पढ़ पाई। अतः उस संबंध में कुछ नही कह पाऊँगी।

और कहानी मरती है भी मुझे विशेष रूप से पसंद आने वाली कहानी में से एक है। जिसमें कहानी के पात्र असली बन कर स्वयं की नीयति से विद्रोह करते है और एक लेखक के ऊहापोह को दर्शाते हैं।

तो ये थी मेरी त्वरित प्रतिक्रिया ईस्ट इंडिया कंपनी के विषय में।

चलते चलते पढ़िये वो कविता जो मैने बी०ए० प्रथमवर्ष में अपने संगीत गुरू श्री काशी नाथ बोड्स के लिये उनके जन्मदिन पर लिखी थी। पाँच अंतरों वाली इस कविता का आगाज़ और अंजाम ही याद रह गया है अब। आज गुरु जी के जन्मदिन पर पुनः उन्हे संबोधित करते हुए...!



मिले राम को विश्वमित्र,, एकलव्य को द्रोणाचार्य मिलें,
कबिरा को रामान्द मिलें, हमको बस गुरु का प्यार मिले।

यदि विश्वमित्र ने रघुवर को शिक्षा का कोई दान दिया,
प्रभु ने भी उनकी रक्षा में वन में धनु का संधान किया।
आचार्य द्रोण ने शिक्षा के बदले में अँगूठा माँग लिया,
तो रामानंद ने भी कबीर पर पैर धरा तब ज्ञान दिया।
हम से सर उन ने कुछ लिया नही,
बस प्यार दिया, बस प्यार लिया
हमको भाविष्य में भी उनसे
ये प्यार भरा आगार मिले।

कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस गुरु का प्यार मिले।

होंगे कितने ही शिष्य, आप पर है अधिकार अनेकों का,
इस तुच्छ चीज़ सी कंचन को पर दे दें इतना सा मीका,
जब नेह सभी को बाँट चुकें,छोड़े से गुरुवर हाथ रुकें,
एक नेह दृष्टि दीजेगा डाल, जिससे मेरा संसार खिले,
कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस सर का प्यार मिले।

Wednesday, October 7, 2009

घटनाओं के पीछे-श्रीमती गौतम राजरिशी (संजीता भाभी) के लिये - करवाचौथ पर



२२ सितं० और आज ०७ अक्टूबर... बीच मे बहुत कुछ गुज़रा... जाने क्या क्या... ठीक से दर्ज़ भी नही है..याद करूँ तो कहीं से कुछ और कहीं से कुछ उग आता है।

बहुत कुछ २२ सितंबर से भी पहले का..लगता है कि ये जो उस दिन हुआ था.... वो जो उस दिन कहा था क्या सब इस २२ सितंबर की भूमिका थी उस सूत्रधार द्वारा। या जो २२ सितंबर को हुआ वो सब कहीं आगे कहानी बढ़ने का एक अंक है ..... कुछ समझ में नही आता...! जिंदगी अजब हादसे कराती है खुद में। जब ये होना था उसी के कुछ दिन पहले अचानक ये क्यों हुआ ? और उस दिन भी ... उसके पहले भी बार बार मन को बुरा भला कहा..नकरात्मक क्यों सोचता है ये ..?? अचानक फोन कर के कहना "देखो इस दिन ये ना करना...ये ठीक नहीं।" और दूसरी तरफ ठहाका लगना.... दो चार बार पागल कहना और फिर अगले दिन वो काम बिना मुझे बताये ही छोड़ देना क्योंकि बात अपने नही उस दूसरे पागल के विश्वास की है...!! अचानक दुआओं मे किसी का नाम आ जाना...! उस दिन भी कितनी चीजें करना या ना करना सिर्फ अपने शुभ अशुभ के वहमों के चलते औ‌र सब के बावज़ूद अचानक ये हो जाना....!

समझ नहीं आ रहा कि मेरे बार बार विपरीत सोचने से ये हुआ या ये होना था इसलिये मैने विपरीत सोचा या बस इतना ही हो कर रह जाये इसके लिये पहले से मन में शंकाएं आईं और प्रार्थना की मात्रा बढ़ा दी गई......! पता नहीं..मुझे कुछ पता नहीं...!

मैं उनकी बात नही कर रही...उनके विषय में तो सबने खूब लिखा...सबने दुआएं की.... सबने प्रेम दिया..! वाक़ई अच्छा भी लगा और गर्व भी हुआ कि जिससे रक्षा का वचन लिया वो इस क़ाबिल है-

दिलवर के लिये दिलदार हैं वो
दुश्मन के लिये तलवार हैं वो


बात उनकी करूँगी जिस का इस समर में नाम भी नही और योद्धा भी महान है जो...जिसके हाथ में तलवार भी नही मगर लड़ाई जीतने का जज़्बा जिससे होकर जाता है।

उस दिन जब ये सब हुआ जो आप सब को पता है, तब..बार बार ये अफसोस हुआ कि वीर जी के दो तीन बार ज़िक्र के बावज़ूद संजीता भाभी का नं० लिया क्यों नही ?? बात उनसे हुई थी कई बार और वीर जी के माध्यम से संदेशे अब भी इधर उधर भेजे जाते थे..मगर फोन नं देहरादून का नही था। खबर जो मेरे पास थी यूँ तो पता था कि विश्वसनीय है, मगर जिसने बताई थी वो हमेशा हर बड़ी बात को बहुत हलका कर के बताता है। (असल चोट तो अभी दो दिन पहले पता चली है) वरना बस ठीक है, ज्यादा नही लगा है।

तो लग रहा था कि भाभी को फोन करने से सही स्थिति पता चल जायेगी... दिमाग को शांत कर के राह ढूँढ़ी तो राह ये मिली कि गुरु जी से संजय चतुर्वेदी जी का नं० माँगा और संजय जी से भाभी का। फोन पर
"हाँ भाभी मै कंचन बोल रही हूँ।"
"हाय कंचन ..कैसी हो ??"
"ठीक हूँ भाभी आप कैसी है..?"
"मै ठीक हूँ..." के साथ शायद उनके दिमाग में कुछ आया और उन्होने पूँछा
"भईया से तुम्हारी बात हुई ?"
"कहाँ भाभी"
"ओह..तभी तुम ऐसे बात कर रही हो...! कुछ नही हुआ भईया को कंचन। he is very fine.बस हलका सा छिल गया है। उन्हे आई०सी०यू० मे रखा है ना इसलिये बात नही हो पा रही उनसे। तुम बिलकुल चिंता ना करो बच्चे..!"

बाप रे... खुद पे शर्म आने लगी। जो बात मैं जान रही हूँ, वो ये भी जान रही हैं। जिनसे मैं ६ माह से जुड़ी हूँ उनसे वो १४ साल से जुड़ी हैं। जो बात मुझे लग रही है उससे १०-२० गुना ज्यादा इन्हे लग रही है। फिर भी बस एक बात कि जिस शख्स से बात रही हैं वो उस से जुड़ा है जिससे वो जुड़ी हैं। बस इस बात के चलते अपनी बात किनारे और ऐसा सामान्य और प्रेम भरा व्यवहार।

मैने कितनी बार प्रणाम किया उन्हे..!क्या इन्ही महिलाओं की कहानी सुनी है मैने इतिहास में। जिनके बारे में कल्पना करती हूँ, कि वो कैसी होंगी..??

सच बहुत शर्म आई खुद पर। अभी विचार ही कर रही थी कि दूसरा फोन। "तुम ने कुछ खाया कि नही बच्चे..! देखो अपना खयाल रखो वरना भईया को अच्छा नही लगेगा ना..! अभी राज ने खुद अपने हाथ से मुझे मैसेज किया है कि साब ठीक है।"

मुझे सच में समझ नही आ रहा था कि क्या कहूं,क्या करूँ..मैं बस यंत्रवत कह रही थी "हाँ भाभी अब आफिस जा रही हूँ। मैने खा लिया।

दो दिन बाद मैने फोन किया तो.."अभी भईया ज्यादा बात नही कर पा रहे ना कंचन..! सब से कम बात तो मुझसे होती है। तुम्हारा जब जी घबराये तो मुझसे बात किया करो। तुम मेरी ननद हो, अपने को सिर्फ ब्लॉगर कभी न समझना।"

हम सब के लिये जो घटना सिर्फ गौतम राजरिशी के ठीक हो जाने से ठीक हो जाती है। गौतम राजरिशी के लिये वो बहुत सारे झंझावत ले के आती है। जिसने अपनी आँख के सामने सूरी को शहीद होते देखा और दो जवानो को भी। अपने जिंदा रहने और आपरेशन सफल होने की बधाई उन्हें व्यथित करती है..! सूरी चला गया और मुझे बधाई.... ये बात ना वो कह पा रहे हैं और न सुन पा रहे हैं। उनका ये रूप पत्नी संजीता ने तो देखा है मगर उनकी जिंदगी मे नई आई उनकी बहन कहीं इसस बात से परेशान न हो इसका खयाल पत्नी को है। वो मैसेज कर के इस नये शेड के प्रति आश्वस्त करती रहती है।

मैं फिर से एक बार उन्हे प्रणाम करती हूँ " आप बहुत अच्छी हैं भाभी..! and truely brave lady."
"बस बस..चुप्प्प्प..! I'm saying bye..!पिटोगी तुम मुझसे। भईया सच कहते हैं तुम्हारे, तुम बहुत बाते करती हो।"

वो अपनी प्रशंसा सुनना नही चाहतीं।

वो असल में बहुत भावुक हैं। बस मेरी तरह उत्सव नही मनाती हर दुख का। वीर जी से ढेरों किस्से सुने हैं उनकी भावुकता के। वे कविताएं भी कहती हैं।मगर सिर्फ वीर जी के लिये। वो सुने और वो सुनायें। मैने माँगी थी। मगर फौजौ की बीवी की ना का मतलब ना। :)

एक अच्छी बहू जिसे खयाल है कि मेरे कहने से कुछ नही होगा जब तक उनका बेटा खुद फोन नही करता अपने घर वो वीर जी से खुद बात करने को कहती हैं। जिससे सहरसा माँ,पिता जी को संतुष्टि मिले। बड़ी दीदियों को समझाती हैं, वो अपने भाई के लिये चिंता ना करे। एक अच्छी माँ, जिसकी घड़ी पिहू (तनया)के हिसाब से फिट है। और सबके पीछे एक समर्पित पत्नी। जिसने पति के साथ उसका सब कुछ अंगीकार कर लिया है। उनका जॉब, उनके सपने, उनके रिश्ते..सब



आज करवाचौथ के दिन..जबकि पता है कि बिहार में करवाचौथ नही होती, उनको नमन करती हूँ, क्योंकि वो जो कर रही हैं, वो बहुत बड़ा व्रत है अपने पति के लिये। एक दिन नही..साल दर साल..उम्र भर..जन्मो तक के लिये..! भारत के लिये समर्पित एक सपूत की इस पत्नी का हार्डवेयर हो सकता है दिखने पश्चिमी लगे मगर सॉफ्टवेयर पक्का हिंदुस्तानी है..समर्पित भारतीय नारी..ट्रैडीशनल व्यू..!


तो भाभी ने तो मना कर दिया अपनी कविता देने को मगर लीजिये पढ़िये वीर जी के ये कविता जो उन्होने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान तब लिखा था जब इनकी good morning होती थीऔर उनकी good evening ....!



हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है
तू बैठी है सीढ़ी पर, छज्जे से धूप उतरती है

इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है एक सवेरा
मीलों दूर कहीं छत पर इक सूनी शाम टहलती
है

एक हवा अक्सर कंधे को छूती रहती "तू" बनकर
बारिश भी तेरी गंध लिये जब-तब आन बरसती है

अक्सर देखा है हमने हर पेड़ की ऊँची फुनगी पर
हिलती शाख तेरी नजरों से हमको देखा करती है

यादें तेरी, तेरी बातें संग हैं अपने हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक इक साँस बिखरती है

सात समंदर पार इधर इस अनजानी-सी धरती पर
तेरे जिक्र से मेरी ग़ज़ल थोड़ी-सी और निखरती है


नोटः मेजर सूरी के लिये भी लिखना चाह रही थी..मगर लिख नही पा रही। वीर जी की पोस्ट का वाक्य "वो ज़िद अगर न होती तो क्या मैं यहाँ ये पोस्ट लिख रहा होता" मुझे मेजर सूरी का लोगो से अधिक ऋणी बनाता है। अचानक पल्लवी जी का चेहरा सामने आता है और दिल काँप जाता है।

वो दोनो जवान भी किसी के पति थे जिनका नाम मैं नही जानती। टी०वी० पर किसी के पिता कह रहे थे कि मेरे और बेटे होते तो मैं उन्हे भी देश की सेवा मे लगाता। क्या कलेजा है पिताओं का..इन माताओं का, इन पत्नियों का, इन बहनों का...!

ज़िक्र करूँगी मेजर कमलेश का भी जो वीर जी के साथ वाले बेड पर हैं। उन्हे दाहिने हाथ और कमर में गोली लगी है। आप सब उन्हे भी अपनी शुभकामनाएं भेजें। किसी अखबार में किसी चैनेल पर, किसी ब्लॉग पर उनका जिक्र नहीं हुआ..!

और एक धन्यवाद वीर जी आप अपने बड्डी को पहुँचाइयेगा जिसने ५‍.३० से ११.०० बजे तक उम्मीद बँधाये रखी। आपको भी शायद पता नही कि "जब मैने ५.३० बजे आपको मैसेज किया कि अगर आप ठीक हैं तो एक मिस कॉल करिये" तो एक मिस काल मेरे पास आ गई थी। फिर बहुत देर तक फोन ना उठने और कश्मीर से विपरीत खबर के फ्लैश आने पर कई मैसेज के जवाब ना आने पर जब मैने झल्ला कर लिखा था कि "आप एक मिनट में फौजी बन जाते हैं। पीछे भी कुछ है।" तो मेरे पास एक मैसेज आया "सब ठीक है।" और थोड़ी निश्चिंतता फिर हुई। ये तो तब पता चला जब आप ने बताया कि आप तो तीन बजे से १० बजे तक होश मे ही नही थे