Thursday, March 27, 2008

कविता कैसे बन जाती है ?


यूँ तो मैं पोस्ट लिखने में थोड़ा समय लेती हूँ.....पर कल के बाद आज फिर तुरंत अपनी पोस्ट दे रही हूँ, क्योंकि मुझसे पूँछा गया कि तुम जब लिख लेती हो तो लिखती क्यों नही....? प्रश्न थोड़ा जटिल था.... बात यूँ है कि मुझे लगता है कि मेरी सारी कविताएं एक ही मूड की होती हैं...और दस तरह से एक ही बात कह कर मैं अपने पाठकों को बोर नही करना चाहती हूँ... तथापि कम से कम कल तो अपनी ही कविता पोस्ट करूँगी ऐसा वादा किया मैने।


ये कविता अभी परसों ही लिखी है जब रात बड़ी देर तक नींद नही आ रही थी और लग रहा था कि कुछ जन्म लेना चाह रहा है...कवि ही जानते होंगे ये मानसिक स्थिति जब आप कहीं भी हों ..कुछ भी कर रहे हों और अंदर से बस कोई मजबूर करता है कि कलम उठाओ.... ! ऐसी ही मानसिकता में उस दिन दो कविता लिखी गई,...दूसरी की ज़रूरत इस लिये पड़ी क्योंकि एक ने संतुष्ट नही किया... वो दूसरी ही कविता आप के साथ बाँट रही हूँ।





तुम पूँछ रहे थे न मुझसे कविता कैसे बन जाती है,
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।


दुनिया को समझ ना पाने पर,
जब जब खुद को समझाती हूँ।
और खुद को समझ ना पाने पर,
खुद प्रश्न चिह्न बन जाती हूँ।
जब मन आहत हो जाता है,
बुद्धि पत्थर हो जाती है,
मेरी लेखनि की आँखों से तब तब कविता बह जाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।


जब कोई सब कुछ ले कर के,
मन को धोखा दे जाता है,
और ये मन धोखा खाने की,
ज़िद पर फिर से अड़ जाता है।
जब लाख मनाओ इस मन को,
मन पर इक न चल पाती है
मेरी लेखनि की शाखों से तब तब कविता झर जाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।


जब दिल के सागर से उठकर के,
घन मस्तिष्क पे छाते हैं।
जब बहुत उमस बढ़ जाती है,
हम तड़प तड़प रह जाते हैं।
जब मन की धरती, चटक चटक,
बस प्यास प्यास चिल्लाती है।
मेरी लेखनि बादल बन के तब तब कविता बरसाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।

Wednesday, March 26, 2008

मान जाओ प्रिय ना जाओ और दो घड़ी अभी।

आजकल कल कानपुर में हूँ .... अपने बचपन के घर में ..... कल किताबों की अलमारी उलटते पलटते एख किताब दिखी फटी सी..क्या पता कौन लाया होगा इसे लेकिन इसके पन्नों की कविताओं पर कहीं मेरे और कहीं भईया के हस्ताक्षर हैं जो हमारी पसंद होने का द्योतक हैं.... आपसे बाँट रही देवी प्रसाद "राही" की लिखी वो कविता जिस पर हम दोनो भाई बहन के हस्ताक्षर हैं...!




मान जाओ प्रिय ना जाओ और दो घड़ी अभी।

चाँद कह रहा गगन से, मैं अभी न जाऊँगा
थोड़ी देर और चाँदनी के गीत गाऊँगा,
रात है उसी की जो लुटाये मुफ्त रोशनी,
सो गया तो फिर ना जिंदगी का मीत पाऊँगा,
काट दो अधूरी रात और बात बात में
धीरे धीरे दुख बँटाओ और दो घड़ी अभी।


मेरी प्यास बचपने से कैद काटती रही
रोज़ रोज़ आँसुओं के कर्ज़ पाटती रही
गाँव गाँव जोगिनी सी ले सितार गीत का
मेरी पीर द्वार द्वार प्यार बाँटती रही
आ गई है आँसुओं को नींद थोड़ी देर से
धीरे धीरे मुस्कुराओ और दो घड़ी अभी।


मोड़ दो हृदय की ओर जिंदगी की धार को
रीति नीति से न बाँधो आदमी के प्यार को
बंधनों में बँध सकी कहाँ प्रणय की भावना
कौन है जो चाहता नही दुलार प्यार को
मोम सा विरह पिघल रहा, मिलन के ताप से
धीरे धीरे लौ बढ़ाओ, और दो घड़ी अभी।

Sunday, March 23, 2008

नीरज की प्रतिनिधि कविताओं में एक-मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा।

नीरज के फिल्मी गीत तथा उनके नॉन फिल्मी गीतों को समानांतर रूप से साथ ले कर चलें तो अधिक मज़ा आयेगा शायद.... अतः उनके गीतों की श्रृंखला में प्रस्तुत है उनका एक बहुचर्चित गीत



मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा,

रोज रात को नींद चुरा ले जाएगी पपिहों की टोली,
रोज प्रात को पीर जगाने आएगी कोयल की बोली।
रोज दुपहरी में तुम से कुछ कथा कहेंगी सूनी गलियाँ,
रोज साँझ को आँख भिगो जायेगी वे मुरझाई कलियाँ।
यह सब होगा पर न दुखी होना तुम मेरी मुक्त केशिनी

तुम सिसकोगी वहाँ, यहाँ यह पग बोझीला हो जाएगा
मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा।

कभी लगेगा तुम्हें कि जैसे दूर कहीं गाता हो कोई,
कभी तुम्हें मालूम पड़ेगा आँचल छू जाता हो कोई,
कभी सुनोगो तुम कि कहीं से किसी दिशा ने तुम्हे पुकारा,
कभी दिखेगा तुम्हे कि जैसे बात कर रहा हो हर तारा।
पर ना तड़पना पर ना बिलखना, पर ना आँख भर लाना तुम,

तुम्हे तड़फता देख विरह शुक और हठीला हो जाएगा
मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा।

याद सुखद बस जगा में उसकी, हो कर भी जो दूर पास हो,
किंतु व्यर्थ उसकी सुधि करना जिसके मिलने की न आस हो।
मैं अब इतनी दूर कि जितनी, सागर से मरुथल की दूरी,
और अभी क्या ठीक कहाँ ले जाएं जीवन की मजबूरी
गीत हंस के साथ इसलिये मुझको मत भेजना संदेशा,

मुझको मिटता देख, तुम्हारा स्वर दर्दीला हो जाएगा
मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा।

मैने कब यह चाहा मुझको याद करो, जग को तुम भूलो,
मेरी यही रही ख्वाहिश, बस मै जिस जगह झरूँ तुम फूलो,
शूल मुझे दो, जिससे वह चुभ सके न किसी अन्य के पग में
और फूल जाऔ, ले जाऔ, बिखराओ जन जन के मग में,
यही प्रेम की रीत कि सब कुछ देता किंतु न कुछ लेता है,

यदि तुम ने कुछ दिया, प्रेम का बंधन ढीला हो जाएगा
मुझे न करना याद तुम्हारा आँगन गीला हो जाएगा।

Tuesday, March 18, 2008

नीरज के गीतों का कमाल फिल्म "शर्मीली" में

नीरज के गीतों की तलाश इंटरनेट पर करते समय पाया कि १९७१ में प्रदर्शित हुई फिल्म शर्मीली के गीत भी नीरज द्वारा ही लिखे गये हैं... यूँ तो इस फिल्म के हर गीत के बोल अलग अलग मानसिक स्थिति के हिसाब से क़माल करते हैं ...और साथ में जब संगीत दिया हो एस० डी० वर्मन ने तो वही समस्या जो हमेशा आती है कि चुनें तो किसे..?



प्यार का नशा जब अपने आस पास हर तरफ नज़र आता है, ऐसी स्थिति में नीरज का नायिका से कहलाना कि


आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन,
बिना ही बात मुस्कुराए रे मेरा मन।



और फिर उसी नायिका का विरहावस्था में कहना


मेघा छाये आधी रात बैरन बन गई निंदिया
नायक की छेड़छाड़ और नायिका को संबोधित ही शर्मीली से करते हुए गाना


ओ मेरी शर्मीली


और फिर प्यार मे धोखा खाने के बाद कहना


कैसे कहे कि प्यार ने हमको क्या क्या खेल दिखाए
यूँ शरमाई किस्मत हमसे, खुद से हम शरमाए



और दार्शनिकता से भरा गीत


खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को
मिलते हैं दिल यहाँ, मिल के बिछड़ने को



सभी उम्दा...लेकिन जब सुनवाना हो अपनी एक पसंद तो खिलते हैं गुल यहाँ खिल के बिखरने को और मेघा छाये आधी रात बैरन बन गई निंदिया में टाइ हो जाता है और राग भीमपालासी पर आधारित गीत मेघा छाये आधी
रात की तरफ मेरा व्यक्तिगत झुकाव थोड़ा अधिक हो जाता है तो सुनिये यही गीत।

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मेघा छाये आधी रात, बैरन बन गई निंदिया
बता दे मैं क्या करूँ,


सब के आँगन दिया जले रे
मोरे आँगन जिया,(२)
हवा लागे शूल जैसी,
ताना मारे चुनरिया
आई है आँसू की बारात
बैरन बन गई निंदिया
बता दे मैं क्या करूँ,

रूठ गए मेरे सपने सारे
टूट गई रे आशा,(२)
नैन बहें गंगा मेरे,
फिर भी मन है प्यासा,
कासे कहूँ मैं मन की बात
बैरन बन गई निंदिया
बता दे मैं क्या करूँ,

मेघा छाये आधी रात, बैरन बन गई निंदिया


नीरज से संबंधित पिछली पोस्ट यहाँ देखें
http://kanchanc.blogspot.com/2008/03/blog-post_14.html
http://kanchanc.blogspot.com/2008/03/blog-post_12.html
http://kanchanc.blogspot.com/2008/02/blog-post.html

नोटः पिछली पोस्ट में मनीष जी ने ध्यान दिलाया था फिल्म और गीतकार का भी जिक्र करने के विषय में...पिछली पोस्ट को तो नही संपादित किया ..इस बार ध्यान दिया है

Friday, March 14, 2008

सुबह न आई, शाम न आई...नीरज का एक गीत

जब "नीरज जी" के बारे में लिना शुरू किया तो ऐसा कोई इरादा नही था कि किसी प्रकार की सिरीज़ दूँगी, क्योंकि नीरज जैसे रचनाकारों की रचनाओं मे best चुनने से अधिक दुष्कर कार्य मेरे जैसे लोगों के लिये कम ही होते होंगे...! तो अभी भी यही है के बीच बीच में खुद को खुश करने के लिये उनकी पसंद देती रहूँगी...! लेकिन पढ़ने वालों का उत्साह देख कर मन उत्साहित हुआ कुछ और देने को

बहुत दिन से सोच रही थी नीरज जी का कोई गीत पोस्ट करने को.. सिद्धेश्वर जी ने उस चिंगारी को हवा दे दी...तो फिलहाल तो सुनिये वो गीत जो मुझे बहुत पसंद है..खण्डहर ताजमहल हो जाता, गंगाजल आँखों का पानी.. सुनने के बाद प्रेम की पवित्रता की पराकाष्ठा महसूस करती थी, सोचती थी कि इसे शब्दों में उतारने वाला कौन होगा...और बहुत दिनो बाद पता चला कि वो नीरज थे..! ऐसा कई बार हो जाता है, कल जब इस गाने को तलाश कर रही थी तब भी ऐसे कई गीत मिले जिनके विषय में मुझे ये तो नही पता था कि ये गीत नीरज का है लेकिन पसंद मुझे वो गीत बहुत थे...! तो ऐसे ही गीतों के साथ आती रहूँगी ..मगर आज तो सुनिये ये गीत...!


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सुबह न आई, शाम ना आई,(2)
जिस दिन तेरी याद न आई ,याद न आई,

सुबह न आई, शाम ना आई

कैसी लगन लगी ये तुझसे, कैसी लगन लगी ये,
हँसी खो गई, खुशी खो गई,
आँसू तक सब रहन हो गए,
अर्थी तक नीलाम हो गई(2)
दुनिया ने दुश्मनी निभाई,याद न आई
सुबह न आई, शाम ना आई

तुम मिल जाते तो हो जाती, पूरी अपनी राम कहानी,
खण्डहर ताज़महल हो जाता, गंगाजल आँखों का पानी,
साँसों ने हथकड़ी लगाई,याद न आई
सुबह न आई, शाम ना आई

जैसे भी हो तुम आ जाओ, (2)
आग लगी है तन में और मन में
एक तार की दूरी है (2)
बस दामन और कफन में
हुई मौत के संग सगाई,याद न आई

आ जाओ. आ जाओ, आ जाओ

Wednesday, March 12, 2008

इसीलिये तो.......!गीतकार नीरज की एक और रचना


लीजिये पढ़िये मेरे प्रिय गीतकार नीरज की एक और रचना जो मुझे बेहद प्रिय है......

इसीलिये तो नगर नगर बदनाम हो गये मेरे आँसू,
मै उनका हो गया कि जिनका कोई पहरेदार नही था।

जिनका दुख लिखने की खातिर,
मिली न इतिहासों को स्याही,
कानूनो को नाखुश कर के,
मैने उनकी भरी गवाही।

जले उमर भर फिर भी जिनकी
अर्थी उठी अंधेरे मे ही
खुशियों की नौकरी छोड़कर,
मै उनका बन गया सिपाही,

पदलोभी आलोचक कैसे, करता दर्द पुरस्कृत मेरा,
मैने जो कुछ गाया उसमें करुणा थी श्रृंगार नही था।

मैने चाहा नही कि कोई,
आकर मेरा दर्द बँटाये,
बस यह ख्वाहिश रही कि
मेरी उम्र जमाने को लग जाये,

चमचम चूनर चोली पर तो
लाखों ही थे लिखने वाले
मेरी मगर ढिठाई मैने
फटी कमीजों के गुन गाये,

इसका ही यह फल है शायद कल जब मैं निकला दुनिया मे
तिल बर ठौर मुझे देने को मरघट तक तैयार नही था।

कोशिश भी की किंतु हो सका,
मुझसे यह न कभी जीवन में,
इसका साथी बनूँ जेठ में,
उससे प्यार करूँ सावन में,

जिसको भी अपनाया उसकी
याद संजोई मन में ऐसे
कोई साँझ सुहागिन दीवा
बोले ज्यों तुलसी पूजन में

फिर भी मेरे स्वप्न मर गये अविवाहित केवल इस कारण,
मेरे पास सिर्फ कुंकम था कंगन पानीदार नही था।

दोषी है तो बस इतनी ही
दोषी है मेरी तरुणाई,
अपनी उमर घटा कर मैने
हर आँसू की उमर बढ़ाई

और गुनाह किया है कुछ तो
इतना सिर्फ गुनाह किया है
लोग चले जब राजभवन को
मुझे याद कुटिया की आई

आज भले कुछ भी कहलो तुम, पर कल विश्व कहेगा सारा
नीरज से पहले गीतों में कुछ भी था पर प्यार नही था।


नोटः नीरज से संबंधित मेरी पिछली पोस्ट आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

Monday, March 10, 2008

इसे चाहिये आपका आशीर्वाद...!


अभी जैसे कल ही की तो बात है जब इधर मेरा बी०ए० का परिणाम आया था और उधर मेरी ये भतीजी जो फोटो में है, आने की तैयारी में थी .....! अभी तो हम इसे ही कविता समझ रहे थे..अचानक इसमें कहाँ से कविता करने के भावों का अंकुरण हो गया....? बात करना इसने बहुत जल्दी सीखा था। भावुक वो शुरू से ही है..! मुझे उस जैसा कोई लगता भी नही था ..इसलिये मैने उसे नाम दिया अनन्या ... घर मे उसे सब हिमांशी बुलाते है... अभी जुलाई में हमने उसका १० वाँ जन्मदिन मनाया है...!



पिछले कुछ महीनो से माँ सरस्वती के आशीर्वाद से वो कविता करने लगी है....! उसकी ये प्रतिभा सकारात्मक रूप से पुष्पित पल्लवित हो इस हेतु जरूरत है आप सबके आशीर्वाद की.... !


पढ़िये उसकी आड़ी बेड़ी भावनाएं... उसी के तरीके से बिना किसी प्रकार के संपादन किये हुए...! और दीजिये उन्हें नियमित, संयमित और विचारशील होने का आशीर्वाद

1

बचपन में जिस माँ ने तुझे चलना सिखया था,
आज उसी माँ को चलाने का वक्त आया था....!
बचपन में जो सिखाती थी तुझको चलना
आज तुम्ही ने शुरू किया उसे छलना...!
अगर दूध का कर्ज़ न चुकाया होता,
तो कम से कम बेटे का फर्ज़ तो निभाया होता।
माँ का अर्थ तुम क्या जानो वो तो माँ ही जानती है,
माँ ही एक माँ, बेटी और दोस्त का फर्ज़ पहचानती है।
छुपन छुपाई में भी तू अगर छिप जाता था,
तो भी माँ का बुरा हाल हो जाता था,
दरवाजे पर बैठ कर जो करती तेरा इंतजार,
उसी दरवाजे से निकाला तूने उसको और सोचा भी ना एक बार।
बचपन में तुम्हारे लिये जिसने इतना दुःख झेला,
उसी माँ को समझता है, अब तू एक झमेला।
बचपन में जब तू करता था सवाल,
माँ भी उत्तर देती थी बार बार
आज जब माँ ने किया तुमसे एक सवाल ,
तूने कहा उससे मत करो परेशान बार बार
मगर आज भी कहीं वो माँ तेरे लिये दुआ करती है,
तेरे खुश रहने की कामना बार बार करती है।

2.
ढल गया सूरज, ढल गई शाम,
ढल गया एक अनोखा नाम।
नया साल जो देख ना पाई,
बेनज़ीर था उसका नाम।
तात भ्रात की हत्या देख, जो न हुई की निराश
ऐसी महिला के मरने की न थी अभी किसी को आस।
इतनी खुशी के माहौल में लगी थी जिसको इतनी गोली,
जिसने भी मारा था उसको खेली उसने खून की होली।
रोते थे बच्चे और पति रोते थे उसके,
मरने पर दहला था पूरा देश जिसके।
काँपी धरती हृदय हिल गए,
सब लोगों के दिल दहल गए।
नीला सूट सफेद चुन्नी, गले में ओढ़े दुशाला,
गुलाब और चमेली की पहनी थी जिसने माला।
सोचा था जिसने कि देखेगी वो नया साल,
क्या पता था उसे कि पास आ रहा है उसका काल।
आज हमारे बीच नही है वो बहादुर बाला,
जिसने हमेशा पहनाई पाक को सम्मान की माला....!

Friday, March 7, 2008

नारी मुक्ति


अभी जुलाई में अचानक घर शिफ्ट करना पड़ा...जाते ही पहली समस्या थी काम की.... घर देखने गई थी तभी देखा था कि servent room में एक नवविवाहित जोड़ा रहता है.... आंटी (landlord)से बात की तो उन्होने कहा कि एक बार उसी से बात कर के देखो...संजोग से नाम उसका भी कंचन ही था...!

गोरा रंग..बड़ी बड़ी आँखें..जो खींचतीं थी..और जिसका उसे अहसास भी था, इसीलिये तो बातें करते हुए उन आँखों को बीच बीचे में भोलेपन से झपकाती सी रहती थी...

मैने उसे और उसके पति को एक साथ बुलवाया और काम के लिये पूँछा..उसने चट से हामी भरते हुए कहा कि " लेकिन दीदी जब हमें काम करना था तो रंजीत का काहें बुलायो..?"

अरे .. ? समाज के इस तबके में नारी मुक्ति, नारी सशक्तिकरण और आत्मनिर्णय लेने की ये भावना... मैं तो दंग रह गई। फिर भी बात टालने की गरज़ से कहा कि " अरे तुम दोनो मियाँ बीबी हो, दोनो को ही एक दूसरे से पूँछ कर ही फैसले लेने चाहिये ना"

" तो का भवा..हम अपना काम करिबे, रंजीत अपना काम करें।" उसने तुनक कर जवाब दिया और रंजीत बस मुस्कुराता ही रहा..!

मन ही मन बहुत प्रसन्न हुई मैं इस आपसी सामंजस्य को देख कर, आज जब मध्यमवर्ग की आत्मनिर्भर औरतें भी ९९ प्रतिशत फैसले कल पर यही कह कर छोड़ती है कि ज़रा इनसे पूँछ लूँ फिर बताऊँ। वहाँ वो अनपढ़ लड़की किस आत्मविश्वास के साथ कह रही है कि मेरे फैसले मैं खुद लेने में सक्षम हूँ..!

खैर दूसरे ही दिन से कंचन का काम पर आना शुरू हो गया..काम भी साफ और बाते भी लच्छेदार..मैने बातों ही बातों में अपनी शंका का समाधान कर लिया " क्यों कंचन तुम्हारी love marrige है क्या?"

कहते ही उसके चेहरे पर लालिमा आ गई, उसकी सुंदर आँखें यूँ झपकीं कि उसे मुँह से जवाब देना ही नही पड़ा कि "हाँ"

"घर वाले नही राजी हुए थे क्या?" मैने अपनी अगली जिग्यासा सामने रखी।

"रंजीत के घर वाले तो राजी थे दीदी, लेकिन हमारे घर वाले नही राजी थे, वो रंजीत हमसे छोटी जात का था ना दीदी !...तबै..! बताओ जात से कुछ होता है दीदी..?"

"ऊँहुह्" कह कर मै अपना काम करने लगी.! फिर अलग अलग दिन की बातों से पता चला कि किसी दिन रंजीत के साथ चोरी से घूमने गई कंचन की चोरी का पता चल जाने पर उसकी बिरादरी के लोग उसके घर पर रंजीत को मारने के लिये इकट्ठा हो गये ‌और जब इन दोनो को पता चला तो ये दोनो डर से उस रात घर पर नही आये... दूसरे दिन खबर मिली कि इनके खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट कर दी गई है तो उनके पास यही रास्ता था कि वे रंजीत के पिता के पास दिल्ली चले जाएं और वही उन्होने कोर्टमैरिज कर ली और रोटी पानी के जुगाड़ मे लखनऊ आ गए.... कंचन पढ़ी लिखी नही थी, रंजीत हाईस्कूल पास था..सो वो मजदूरी करता था और कंचन आंटी और मेरे घर काम।

१०-१२ दिन तो सब ठीक चला लेकिन इसके बाद अचानक कंचन का आना कम होने लगा और मेरी रूटीन्ड लाईफ में तो कुछ भी इधर उधर होने की गुंजाइश होती नही...! मैं आवाज लगाती और ऐसा लगता कि सुन के अनसुना कर दिया जा रहा है...! अब हालात ये थे कि ना तो मैं कंचन के बिना मैनेज कर सकती थी और न ही उस की तरफ से कोई निर्णय मिले बिना दूसरी मेड रख सकती थी...! खीझ इतनी लगती कि क्या कहें...? हर काम लटकने लगा..खाना, बरतन सब..! जब सामने पड़े तब तो बात की जाये..यूं तो बगल के ही पोर्शन में रहती थी लेकिन उसे आवाज़ दो तो रंजीत निकल कर कहता कि " उसकी तबियत खराब है वो काम पर नही आएगी"

उस में एक दिन कंचन के रोने और रंजीत के चिल्लाने की आवाज सुनाई दी, तो लगा कुछ गड़बड़ है। उसी के दूसरे दिन अचानक कंचन सूजी आँखों के साथ, हाथ में कटोरी लिये रसोई की तरफ आई। मैने उसकी तरफ प्रश्नपूर्ण निगाहों से देखा.." क्या हुआ कंचन"

" दीदी रंजीत तुम्हरे हियाँ काम करे का मना कर रहे हैं"

" क्यों..?"

"......"


ओह मामला अब कुछ कुछ समझ में आने लगा था मुझे.."क्या कहता है.."

" दीदी ऊ हमाए ऊपर सक्कात है"

असल में मेरे साथ मेरे दो nephews भी रहते हैं दोनो ही बड़े हो चुके हैं....! मैने बात को समझते हुए कहा " हम्म्म्म ..फिर...?"

" हम कहा दीदी कि दूनो भईया लोग तो हमसे बातौ नही करते है....दीदी का हमाई बहुत जरूरत है....! बकिर...." कहते हुए उसने अपने कंधे से कुरता जरा सरका दिया... और कंधों पर का कालापन दिखने लगा ...! " कल तो मारा भी दीदी..कहता है कि तुम खुदै चहती हो हुँआ जाना.." और उसकी आँखें भर आईं।

उफ..सिहर गई मैं...अपनी मनगढ़ंत कुंठा के चलते कितना निर्दयी हो गया ये बंदा...! सच जानने समझने की कोई कोशिश नही..! और इसके लिये ये अपना घरबार छोड़ कर आ गई....? मारते समय ये भी खयाल नही आया उसे..!

मैं कमरे से दवा की टयूब ले आई...उसके कंधे पर लगाते हुए मैने कहा " और तुम कहती हो कि ये तुम्हे प्यार करता है? ऐसे किया जाता है प्यार?"

"दीदी रंजीत मारत हैं..तो दुलरउते भी है...बप्पा औ भईया जब मरते थे तब हम रात भर रोआ करें हमका पूँछे भि नही अऊते थे...! हम से खाली काम करउते थे औ तनुखाह धर लेते थे... हम खावा कि नाही कबौ नही पूँछा...कम से कम रंजीत भूखा तो नही सोने देते.... मरद की जात है तो गुस्सा तो अईबे करी..... लेकिन गुस्सा उतरे पर मनईबौ तो करते है"

मेरे हाथ उसके कंधों पर यंत्रवत् चल रहे थे.... कुछ समझ नही आ रहा था कि क्या कहूँ..... जिसने आज तक कड़ी धूप के शिवाय कुछ देखा ही न हो, वो मूसलाधार बारिश की माँग करे भी तो कैसे । वो तो चंद बूंदों से ही खुश है...! बाहरी आवरण ही बहुत है उसके लिये...... बराबरी का दावा करने तक तो उस औरत की सोंच जा भी नही सकती यही कहाँ कम है कि पैरों के नीचे रौंदी नही जा रही.... पहले दिन का सामंजस्य देखने के बाद अभिभूत हुई मैं आज की घटना से सिर्फ भावहीन हो गई थी...मेरा कोई भी अभिभाषण काम आने वाला नही था, अतः दवा लगाने के बाद मैने पास रखा अपना पर्स उठाया और उसका हिसाब करते हुए कहा " कोई बात नही कंचन, तुम अब मत आना मैं दूसरे किसी को देखती हूँ...!"

Monday, March 3, 2008

मुलाकात गवाक्ष के प्रेरक पवन मनीष जी से

२९ फरवरी का दिन, जो कि ४ साल में एक बार ही आता है... और जो भी चीज rarely हो वो खास तो हो ही जाती है, लेकिन मेरे लिये ये तारीख खास इसलिये थी क्योंकि यह ले के आई थी उस शख्स को जिसने आप सबसे मेरा परिचय कराया. मेरी खुशकिस्मती यह थी कि मेरी पहल ब्लॉगर्स मीटिंग उसी व्यक्ति के साथ हो रही थी जिसने मुझे यहाँ आने के लिये प्रेरित किया...! वह प्रेरक व्यक्ति थे एक शाम मेरे नाम के मनीष जी की जिन्होने अपनी एक दोपहर करी थी मेरे नाम !




जैसा कि मैने अपने बारे में बताया कि एक साधारण से परिवार की साधारण सी लड़की मै, बिलकुल अनभिग्य थी इस ब्लॉग नामक चीज से और  ई-मित्रता एवं चैटिंग जैसी चीजें तो खैर टोटल बकवास ही थीं...! भला मेरे जैसी so called कवयित्री, इन चीजों में indulge हो भी कैसे सकती थी ? किसी को हो न हो मुझे तो अपनी कदर है ना...! :)

ऐसे में जब नाम सुना आर्कुट का, तो यह भी सुना कि बहुत दिनों के बिछड़े मित्र इसमें मिल जाते हैं.  यूँ तो हमने दर्जा ८ तक की पढ़ाई जहाँ से की थी वहाँ कुल मिला कर ५ लड़कियाँ थीं, जिसमें से आगे की पढ़ाई मात्र ३ लोगो को ही करनी थी. उन तीनो से मेरा आज भी मेल मिलाप है. इसके बाद हाईस्कूल से लेकर एम०ए० तक का भी हाल यही कुछ था कि आर्कुट में तो तब ढूँढ़ें जब किसी को फोनियाना छोड़ा हो. लेकिन फिर भी लगा कि शायद कोई निकल ही आये. मुझे नही तलाश हो तो शायद उसे ही हो. फिर भाई-भतीजे इतनी दूर दूर तक फैले हैं उनसे रोज hi करने के लिये भी श्रेयस्कर था यह आर्कुट. तो यही सब सोच कर हमने भी खाता खोल ही लिया.

अब वहाँ पहुँची तो कम्युनिटीज़ भी ज्वाइन की. उसमें एक थी गोपाल दास नीरज की जो कि मेरे बहुत प्रिय कवि थे और वहीं से शायद मनीष जी ने मुझे पाया...! शुरुआत इसी बात से हुई, " क्या आप अपना चिट्ठा बनाना चाहती हैं ?"
अब यह चिट्ठा क्या बला होती है ये मुझे क्या पता...? लेकिन कुछ लिखने से संबंधित चीज़ है शायद तो मैने खुशी- खुशी कहा कि हाँ-हाँ करना तो चाहती हूँ''

लेकिन समस्याएं बहुत सारी थीं जैसे मेरे पास यूनीकोड सॉफ्टवेअर नही था, घर पर पी०सी० नही था, कंप्यूटर में भी इतनी कुशलता नही थी कि कुछ किया जा सके..लेकिन हाँ चस्का ज़रूर था..! वही कमजोर नस शायद पकड़ में आ गई थी मनीष जी को तो उन्होने उस समय लिंक दिया परिचर्चा का. वहाँ रोमन में कविता के लिखने के बाद जो चस्का लगा तो चाह कर भी उतर नही पाया

१२ जून को मैने जिस ब्लाग के जरिये इस विश्व मे कदम रखा उसकी असलियत यह है कि मैं उस का क ख ग घ भी नही जानती थी. शायद मैं खुद भी नही जानती थी कि मैं यहाँ लिखने का समय निकाल पाऊँगी.

मनीष जी ने ही एक ब्लॉग बना कर मुझे गिफ्ट कर दिया. हाँ ब्लॉग का नाम वह था जो मुझे भविष्य में आने वाले अपने कविता संग्रह को देना था.  इस ब्लॉग की जो पहली कविता पोस्ट हुई वह मनीष जी ने ही पोस्ट की और इसके बाद कभी फोन कभी चैट से मैने सीखी एक-एक बातें....! कभी बच्चों की तरह उत्साहित हुई तो कभी निराश...और मनीष जी ने बताया, "यह सब तो इस दुनियाँ के नियम हैं जी...!"

ऐसे व्यक्ति से मिलने का मन क्यों न होगा ? मैं तो मौके की तलाश में ही थी। जब पता चला कि महोदय कानपुर से लखनऊ बाराती बन कर आ रहे हैं लेकिन मेरे घर से काफी दूर होने के कारण मुझसे नही मिल पाएंगे उन्होंने समझाया,  " क्यों इतना परेशान होंगी ? फोन पर तो बातें वगैरह हो ही जाती है..!"

अब कौन समझाये कि फोन फोन ही होता है. सो मैने कहा कि आप बस ये बताओ कि आना कहाँ तक है ? और पता चला कि स्टेशन तक.अब आगे काम मुझे करना था. इसके लिये मेरे लखनऊ के घर के दोनो सदस्यों की मदद चाहिये थी. खैर अच्छा था कि दोनो मेहरबान थे और मनीष जी के नाम से खुश भी. तो अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर के वो मनीष जी की सेवा में लग गए.


सबसे अच्छी बात यह थी कि मिलने के बाद भी उनके भरम नही टूटे और जाने के बाद मुझसे ही बार-बार कहा गया कि फोन कर के पता तो कीजिये कि रास्ते में कोई परेशानी तो नही हुई. :)

तो चूँकि मुझे आफिस अटेंडेंस के बाद परमीशन ले कर मिलने आना था तो घर पर तो बुला नही सकती थी अतः बीच में एक रेस्तराँ मे मिलने का फैसला लिया गया जहाँ मेरा पिंकू मनीष जी को ले कर आये और मैं पहुँची दीदी के बेटे विजू के साथ.

समझ में नही आ रहा था कि बाते कैसे शुरू की जाएं कि दोनो enclosures भी न बोर हों और हम भी. इसलिये ब्लॉग की बातों से बचना चाह रहे थे लेकिन बातें प्रवाह में आईं तो तभी जब ब्लॉग की एक पोस्ट की चर्चा हुई. मनीष जी को घर वालों द्वारा बताया गया कि ये जो ब्लॉग पर एंटी विमेन के रूप में प्रसिद्ध हो गई हैं वो असल में घर में नारी सशक्तीकरण का प्रतीक है.

 comment आया कि "हाँ वो तो मुझे भी पता है कि गलत बायाना ले लिया है...!" और हमारी फिर से वही स्थिति कि कैसे समझाएं कि न हम नारी विरोधी हैं और न ही सशक्तीकरण के प्रतीक. हमें तो जब जो उचित लगता है वो बोल देते हैं. मुझे कभी इससे अलग भी रख के देख लिया जाए.  खैर हम इतनी शालीनता का परिचय दे रहे थे तब भी इल्जाम आया, " पता लग रहा है कि आप घर में dominate करती हैं"

खैर मेरे खयाल से जाते-जाते तो यह भरम टूट ही गया होगा जब रास्ते में बाईक तेज चलाने पर मुझे सड़क की चिंता किये बगैर गाड़ी रोक कर पिकू ने खूब लथाड़ लगाई .....!


मुझे आश्चर्य हो रहा था कि मेरा विजू कैसे चुप है.लेकिन आश्चर्य बरकार रहा उसने मनीष जी के जाने तक बस बस मंदमंद मुस्कुराहट ही देने का काम किया...!

११.३० बजे शुरू हुई मीटिंग १.३० बजे समाप्ति की और बढ़ने लगी. चूँकि मनीष जी की भी ट्रेन थी और मुझे भी कार्यालय पहुँचना था.

तो मीट को एक शुभ विश्राम देते हुए अगली बार सपत्नीक मिलने का आमंत्रण दे कर और वादा लेते हुए हम ने विदा ली ...

इस मुलाकात की कहानी मनीष जी की ज़बानी पढ़ने के लिये यहाँ जा सकते हैं। मुलाकात की यादें कुछ इस तरह हैं