यूँ तो मैं पोस्ट लिखने में थोड़ा समय लेती हूँ.....पर कल के बाद आज फिर तुरंत अपनी पोस्ट दे रही हूँ, क्योंकि मुझसे पूँछा गया कि तुम जब लिख लेती हो तो लिखती क्यों नही....? प्रश्न थोड़ा जटिल था.... बात यूँ है कि मुझे लगता है कि मेरी सारी कविताएं एक ही मूड की होती हैं...और दस तरह से एक ही बात कह कर मैं अपने पाठकों को बोर नही करना चाहती हूँ... तथापि कम से कम कल तो अपनी ही कविता पोस्ट करूँगी ऐसा वादा किया मैने।
ये कविता अभी परसों ही लिखी है जब रात बड़ी देर तक नींद नही आ रही थी और लग रहा था कि कुछ जन्म लेना चाह रहा है...कवि ही जानते होंगे ये मानसिक स्थिति जब आप कहीं भी हों ..कुछ भी कर रहे हों और अंदर से बस कोई मजबूर करता है कि कलम उठाओ.... ! ऐसी ही मानसिकता में उस दिन दो कविता लिखी गई,...दूसरी की ज़रूरत इस लिये पड़ी क्योंकि एक ने संतुष्ट नही किया... वो दूसरी ही कविता आप के साथ बाँट रही हूँ।
दुनिया को समझ ना पाने पर,
जब जब खुद को समझाती हूँ।
और खुद को समझ ना पाने पर,
खुद प्रश्न चिह्न बन जाती हूँ।
जब मन आहत हो जाता है,
बुद्धि पत्थर हो जाती है,
मेरी लेखनि की आँखों से तब तब कविता बह जाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।
जब कोई सब कुछ ले कर के,
मन को धोखा दे जाता है,
और ये मन धोखा खाने की,
ज़िद पर फिर से अड़ जाता है।
जब लाख मनाओ इस मन को,
मन पर इक न चल पाती है
मेरी लेखनि की शाखों से तब तब कविता झर जाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।
जब दिल के सागर से उठकर के,
घन मस्तिष्क पे छाते हैं।
जब बहुत उमस बढ़ जाती है,
हम तड़प तड़प रह जाते हैं।
जब मन की धरती, चटक चटक,
बस प्यास प्यास चिल्लाती है।
मेरी लेखनि बादल बन के तब तब कविता बरसाती है।
ये दूर देश की वासिनि है हर रोज़ नही आ पाती है।