Tuesday, January 12, 2010

मुझे नज़र से डर लगता है।

प्यार तुम्हारा मुझ में रम कर,
नित मुझको सुंदर करता है,
मुझे नज़र से डर लगता है।

आँखों में काजल बन बैठे, होंठों पर लाली बन साजन,
तिल बन कभी कपोल सजाते,कभी दृष्टि बन पूरा तन मन,
कभी मुझे प्रतिबिंबित करते,
यूँ जैसे दर्पण करता है,
मुझे स्वयं से डर लगता है।

तुमने मन में फूल खिलाये, चुनने का अधिकार तुम्हे है,
रंगो रंग में और गंध में घुलने का अधिकार तुम्हे है,
मर्दन का अधिकार उसे है,
जो सर्जन का दम भरता है।
किसे अंत से डर लगता है ??

सुबह बहुत छोटी होती है, लंबी होती रात, दुपहरी,
कौन भला ऐसा जीवन है, जिसमें मधुॠत हर पल ठहरी,
मधुॠतु को सारथी बना कर,
पतझड़ अपना रथ धरता है,
अब बसंत से डर लगता है।

डर के सारे द्वार तोड़ कर, प्रिय तुम मेरा साथ निभाना,
अंतहीन अपनापन ले कर, विरहहीन इक मिलन सजाना,
वह इक मिलन सॄष्टि की रचना
का आधार हुआ करता है,
और मिलन से डर लगता है..!!

आभारः राकेश् खण्डेलवाल जी, शार्दूला दी एवं रविकांत जी जिनके कारण गीत पढ़ने काबिल हुआ