Tuesday, February 24, 2009

दिल्ली ६ मेरी नज़र से


अभिषेक बच्चन कुल मिला कर अच्छे ही लगते हैं हमको और कोशिश होती है कि उनकी फिल्में देख ही ली जाये, मगर ऐसा भी नही है कि सारी फिल्म उनकी देखी ही है मैने..!

फिलहाल भूमिका बना रही हूँ दिल्ली 6 की, जो कि मैने २१ फरवरी को निपटाई। रंग दे बसंती का जो राकेश ओम प्रकाश मेहरा प्रभाव था, उसके कारण देर नही करना चाह रही थी, फिल्म देखने में और ये भी जानती थी कि अगले हफ्ते शायद देख भी ना पाऊँ। यूँ बहुत अच्छे रिव्यू नही आ रहे हैं फिल्म के विषय में, पर मुझे पता नही क्यों बहुत अच्छी लगी।

शुरुआत में ही दिल्ली के मोहल्ले का जो माहौल दिखाया गया, वो शायद अब दिल्ली में भी न हो और कानपुर में भी नही। लेकिन मुझे अपने कानपुर का मोहल्ला याद आ गया।

रोशन कहता है कि यूँ तो दादी अपनो को छोड़ कर आ गई हैं, लेकिन यहाँ कौन अपना नही है ये पता नही चल रहा। वाक़ई यही माहौल तो होता है मोहल्लों का। जहाँ ज़रा ज़रा सी बात पर झगड़े भी जम कर होते हैं और जरा सा दुख पड़ने पर सब सबके लिये हाज़िर भी उसी शिद्दत से होते हैं। आज जब अपने ही शहर के रिश्तेदार खाना नही भेज पाते अपनी रफ्तार वाली जिंदगी में,तब वो माहौल याद आता है, जब पिता जी के न रहने पर हर घर से १० दिन तक चाय, पानी, खाना आता रहता था। हॉस्पिटल में रहने वालों का,खाना पहुँचाने वालों का ताँता। कोई भईया, कोई चाचा, कोई बुआ और सब में स्नेह। मुझे अपना कानपुर याद आ गया, जो अब ऐसा नही रहा। सब कुछ बदल गया, फिर भी औरो की अपेक्षा अच्छा है। अब में भी त्योहारों में ही पहुँचती हूँ और छूटे लोग भी, तो फिर उतने दिन वही माहौल हो जाता है।

इण्टरवल तक ये परिचय और छोटे छोटे घटनाक्रम ही चलते रहे। हालाँकि लंच में भाजे ने कहा कि मौसी अभी तक कुछ स्टोरी नही बनी। लेकिन मैं तो अब तक स्टोरी में पहुँची भी नही थी। फिर भी मैने कहा रंग दे बसंती में भी सेकंड हाफ में ही कहानी बनती है। अब शुरू होगी। और कहानी बाद में ही बनी भी।

फिल्म इस लिये भी बहुत पसंद आई, क्योंकि छोटे छोटे कई संदेश दे गई ये। छुआछूत....! जलेबी जो कहती है उसकी भाषा थोड़ी ठेठ हैलेकिन सच है। ठाकुर साहब या पंडित जी की मिस्ट्रेस भले नीच जाति की हो, लेकिन छूना वर्ज्य है उसका। ये बात बहुत बार मैं खुद भी सोच चुकी हूँ। अभी हाल में रास्ते की उस पागल औरत को देख कर भी जिसके शरीर के नुचे कपड़ों पर एक लिहाफ डालते सबको घृणा आ रही थी, मगर उसके कपड़े जब नुचे तब वो घृणा पता नही कहाँ थी। उस दिन आँखें बंद करो तो वही दृश्य घूम जाता, बंद आँखों में

धार्मिक दंगे....! पता नही कौन करता है, ये दंगे। जब दीवाली आती है, तब फुलझड़ियाँ मेंहदी हसन हमसे ज्यादा खरीदता है, जब होली आती है, तो हम अगर काम में व्यस्त हों तो तहसीन भाभी रंग लगाने पहले पहुँच जाती हैं। ईद पर हम अपनी सब से नई ड्रेस पहन कर सिंवईया खाने निकलते हैं...! मगर ये दंगे...??? ये एक दिन में ऐसा क्या कर देते हैं कि अपने घर में,अपनों के बीच हम असुरक्षित हो जाते हैं। हनुमान भक्त मंदू दादी के बीमार होने पर मुस्लिम होते हुए भी उन्हे हनुमान जी का झण्डा हाथ पर बाँधता है। मगर दंगा होने पर वो दोस्त जिसका कहना था कि मंदू की दुकान मेरी दुकान, वही आग लगा देता है....! मंदू का रिऐक्शन काबिल ए तारीफ है।

काला बंदर जैसी चीजें भी अक्सर आ ही जाती हैं। अभी हाल में मुँह नोचवा चला था सिद्धार्थनगर, बस्ती में जितने लोग उतनी अफवाह...!सब ने देखा लेकिन किसी ने भी नही देखा...!

साथ में एक सीख कि काला बंदर हम में ही कहीं है....! मेरी व्तक्तिगत रॉय है कि फिल्म का समाज पर असर पड़ता है। आज जब फिल्मों में रिआलिटी के नाम पर सब सब कुछ जायज जैसी चीजें चीजें दिखाते हैं तब आम जनता पर कहीं न कहीं असर ये आता है कि "यार ये तो ह्यूमन साईकॉलॉजी है, फलाँ फिल्म मे देखो कितना सही दिखाया गया था।"

फिल्म के दो गीत जो मुझे बहुत पसंद आये। दोनो ही बिलकुल अलग मूड के हैं। एकभक्ति भावना से सराबोर...! दूसरा ससुराल पहुँची नवोढ़ा की चुहल...! पहले सुनिये ये गीत जिसमें आवाज़े हैं जावेद अली, कैलाश खेर और कोरस की और संगीत रहमान का, स्वर शायद प्रसून जोशी ने दिया है लेकिन इस विषय में मैं बहुत निश्चित नही हूँ, यदि कोई सज्जन जाने तो कृपया सही कर दें। इस गीत को सुनने के बाद सच में बहुत सुकूँ मिलता है मुझे।


अर्जियाँ सारी चेहरे पे मै लिख के लाया हूँ,
तुम से क्या माँगूँ मैं.
तुम खुद ही समझ लो मौला

मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला

तेरे दर पे झुका हूं मिटा हूँ, बना हूँ
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला

(जो भी तेरे दर आया,झुकने जो भी सर आया,
मस्तियाँ पिये सबको झूमता नज़र आया ) -2
प्यास ले के आया था, दरिया वो भर लाया
नूर की बारिश में भीगता सा तर आया
नूर की बारिश में भीगता सा तर आया

मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
(जो भी तेरे दर आया,झुकने जो भी सर आया,
मस्तियाँ पिये सबको झूमता नज़र आया ) -2

(एक खुशबू आती थी)-2
मैं भटकता जाता था, रेशमी सी माया थी
और मैं भटकता जाता था
(जब तेरी गली आया, सच तब ही नज़र आया)-2
मुझमे वो खुशबू थी, जिससे तूने मिलवाया
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला

टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है
टूट के बिखरना मुझको ज़रूर आता है
पर ना इबादत वाला शऊर आता है
सज़दे में रहने दो, अब कहीं ना जाऊँगा
अब जो तुमने ठुकराया तो सँवर ना पाऊँगा
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला

सर उठा के मैने तो कितनी ख्वाहिशें की थीं
कितने ख्वाब देखे थे, कितनी कोशिशें की थीं
जब तू रूबरू आया
जब तू रूबरू आया, नज़रें ना मिला पाया
सर झुका के एक पल में ओऽऽऽऽऽऽ
सर झुका के एक पल में मैने क्या नही पाया
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला
(मोरा पिया घर आया, मोरा पिया घर आया)-2
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
मौला मौला मौला मेरे मौला
दरारें दरारें है माथे पे मौला
मरम्मत मुकद्दर की कर दो मौला


और दूसरा ये गीत जो कि माटी की खुशबू लिये हुए है और मुझे इस तरह के लोकगीत पसंद भी बहुत हैं। इस गीत के लिरिक्स का श्रेय कैसेट में किसी को नही दिया गया है। ये एक लोकगीत है जिसमें रहमान जी ने संगीत की थोड़ी बहुत फेरबदल के बाद बहुर सुंदर बना दिया है। इसक खूबी ये भी है कि बड़ी बिटिया नेहा की शादी तय होने के बाद छोटी सौम्या इसे गा कर दिन भर उसे छेड़ती है और बड़ी को जबर्दस्ती शर्माने की ऐक्टिंग करनी पड़ती है :) इस में आवाजें रेखा भारद्वाज, श्रद्धा पंडित, सुजाता मजूमदार और कोरस की है





ओओ ओओ ओओ ओओ
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ है व्यापारी, चले हैं परदेस,
सुरतिया निहारूँ, जियरा भारी होवे
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
बुशट पहिने खाइ के बीड़ा पान
पूरे रायपुर से अलग है सईयाँ जी की शान
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देवै, देवर समझा लेवै
ससुराल गेंदा फूल
सईयाँ छैड़ देवै, ननद जी चुटकी लेवै
ससुराल गेंदा फूल
छोड़ा बाबुल का आँगन भावे डेरा पिया का होऽऽऽ
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओय होय होय ओय होय होय
ओओ ओओ ओओ ओओ


मुझे पता है इस गीत को सुनने में बहुत समय देना पड़ेगा. ऐसा कोई ज़रूरी भी नही है कि आप सुनें जरूर। कभी फिर सुन लीजियेगा, जब समय हो या कहीं और सुनाई दे रहा हो। मैने तो बस अपनी डायरी मेनटेन की है, ताकि सनद रहे :)

Saturday, February 14, 2009

साथी तेरे नाम एक दिन जीवन कर जायेंगे--सुनिये मेरे साथ ये ढाई आखर महसूसता गीत



साथी तेरे नाम एक दिन जीवन कर जायेंगे--सुनिये मेरे साथ ये ढाई आखर महसूसता गीत

ये वो गीत है, जो मेरे लिये प्रेम के समर्पण का प्रतीक है...! कुछ कहने की ही बात नही बस महसूस करने की...! सब के लिये..जिन्हे भी चाहो, जिन्हे भी मानो,
अपने पहले प्यार दीदी से ले कर बच्चों तक...! बस गाती हूँ और झूमती हूँ, महसूस करती हूँ, गूँगे का गुड़...आप भी सुनिये ना....!ये गीत लिया गया है फिल्म उस्तादी उस्ताद से , गीतकार हैं दिलीप ताहिर, संगीतकार हैं राम लक्षमण और सुरों से सजाया है भूपेन्द्र और आशा भोसले ने....! (विविध भारती स्टाईल) वैसे इसमें नेट में अलग अलग स्थान पर अलग अलग जानकारी मिली है इस गीत के गीतकार संगीतकार के विषय में, जिन्हे सही पता हो वे कृपया बताए





साथी तेरे नाम एक दिन जीवन कर जायेंगे,
जीवन कर जायेंगे
तू है मेरा खुदा, तू ना करना दगा,
तुम बिन मर जायेंगे, तुम बिन मर जायेंगे...

पूजता हूँ तुझे पीपल की तरह,
प्यार तेरा मेरा, गंगा जल की तरह,
धरती अम्बर में तू, दिल के मंदर में तू
फूल पत्थर में तू और समंदर में तू

तू है मेरा खुदा, तू ना करना दगा
तुम बिन मर जायेंगे

खुशबुओं की तरह तू महकती रहे,
बुलबुलों की तरह तू चहकती रहे,
दिल के हर तार से आ रही है दुआ,
तू सलामत रहे बस यही है दुआ

Saturday, February 7, 2009

आफ्टर ट्वंटी ईयर्स आफ योर डिपार्चर आई स्टिल लव यू


पहले यूनियन लीडरशिप में और अपने सस्पेंशन में, फिर दीदी लोगो की शादी ढूँढ़ने में अक्सर ही तो बाहर जाना होता था उनका, गुड़िया के दिन पूरी तरह से जाते इससे पहले ही तो वो खुद चले गये। और मैं अब भी, आज बीस साल बाद भी यही कहती हूँ

चाहे गुड़िया ना लाना, पर पापा जल्दी आ जाना।

उस समय जब मैं छोटी थी बाबूजी कभी कोलकाता, कभी दिल्ली जाते थे और वापसी में गुड़िया भले ना हो कोई ना कोई खिलौना ज़रूर होता था उनके हाथ में।

कल से सोच रही हूँ, कहीं कोई रिमाइंडर तो नही लगा रखा है मोबाइल में फिर भी ये तारीख आने के पहले क्या क्या याद दिलाने लगती है। उनका हँसते हुए आना, मुझे देखते ही आह्लादित होना, सायकिल की गद्दी से उतरने से पहले ही मेरी तहकीकात. "सुबह कहा था, पेन लाने को लाये ???" और फिर शाम की सुइयों के साथ सड़क पर रखे कान..... मोपेड का हॉर्न....... और शिकायतों का पुलिंदा........! उनको देखते ही बातो में झगड़ालूपन अपने आप आ जाता था। मैं जितना लड़ के बोलती वो उतना मुस्कुराते। दुनिया की सबसे सुंदर, सबसे इंटेलीजेंट, सबसे वर्सेटाईल, सबसे विट्टी बेटी उनकी है ....ये उनकी आँखे बताती थीं। और मैं खुद में फूली नही समाती थी। सारी दुनिया मिल के उपेक्षा करे फिर भी, उनका प्यार मुझे उपेक्षित नही होने देता था।
हर बार याद आता है वो स्वप्न, जो मैने उनके जाने के १३ साल बाद देखा था और गोद में बैठ के उन्हे बार बार रोकते हुए कहा था कि after thirteen years of your departure I stiil love YOU ........दिनों की संख्या बदलती जाती है और मैं अब भी वही वाक्य उतनी ही शिद्दत से दोहराती हूँ कि after twenty years of your departure I stiil love YOU



पिछले दिनो नीरज जी की पोस्ट पढ़ी तो लगा कि आलोक श्रीवास्तव ने मेरे बाबू जी के लिये लिखी है ये कविता



घर की बुनियादें दीवारें बामों-दर थे बाबू जी


सबको बाँधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबू जी



तीन मुहल्लों में उन जैसी कद काठी का कोई न था


अच्छे ख़ासे ऊँचे पूरे क़द्दावर थे बाबू जी



अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है


अम्मा जी की सारी सजधज सब ज़ेवर थे बाबू जी



भीतर से ख़ालिस जज़बाती और ऊपर से ठेठ पिता


अलग अनूठा अनबूझा सा इक तेवर थे बाबू जी



कभी बड़ा सा हाथ खर्च थे कभी हथेली की सूजन


मेरे मन का आधा साहस आधा डर थे बाबू जी



बस हथेली की सूजन का वायस कभी नही बने मेरे लिये, ...!



अनुराग जी का बरगद का पेड़ जैसे मेरे ही मन की आवाज़ थी, बस फर्क इतना था कि मैं अक्सर ही उन्हे I Love YOU बोल लेती हूँ। उस समय का ऐसा कुछ असर था उनके ऊपर कि अंग्रेजी जितनी अच्छी व्यक्ति उतना ही प्रभावशाली। याद नही कब से तो उनसे अंग्रेजी बोलने लगी थी। और आज भी जब वो सपने में आते हैं तो मेरा वो स्वप्न इंग्लिश मे ही होता है।



लावण्या दी जब जब अपने पिता जी के विषय में बात करती हैं तो लगता है, कि भले मेरे बाबूजी को इतने सारे लोग ना जानते हों लेकिन बातें तो सब उन्ही की करती हैं दी ......!!!




यूनुस जी की पोस्ट से कितने लोग जुड़े, मुझे नही पता, लेकिन मैं उससे टूटी ही नही थी......! फिर सुनती हूँ...फिर सुनती हूँ.....! और फिर सुनती हूँ...!




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सात समंदर पार से,


गुडियों के बाज़ार से,
अच्छी सी गुड़िया लाना,






गुड़िया चाहे ना लाना


पापा जल्‍दी आ जाना,





तुम परदेस गये जब से,


बस ये हाल हुआ तब से


दिल दीवाना लगता है,


घर वीराना लगता है,


झिलमिल चांद-सितारों ने,


दरवाज़ों दीवारो ने


सबने पूछा है हमसे,


कब जी छूटेगा हमसे,


कब होगा उनका आना,





पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।





मां भी लोरी नहीं गाती,


हमको नींद नहीं आती,


खेल-खिलौने टूट गए,


संगी-साथी छूट गये,


जेब हमारी ख़ाली है,


और आती दीवाली है,


हम सबको ना तड़पाओ,





अपने घर वापस आओ और


कभी फिर ना जाना,





पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।





ख़त ना समझो तार है ये,


काग़ज़ नहीं है प्‍यार है,





ये दूरी और इतनी दूरी,


ऐसी भी क्‍या मजबूरी,


तुम कोई नादान नहीं,


तुम इससे अंजान नहीं,


इस जीवन के सपने हो,


एक तुम्‍हीं तो अपने हो,


सारा जग है बेगाना,





पप्‍पा जल्‍दी आ जाना ।।