Friday, August 28, 2009

कितने काग कबूतर भेजूँ, इक खत हर पल होता है।



ये गीत जिसे मैने गज़ल बनाया था, अचानक जैसे पैदा हो गया था। कमज़ोर गणित के कारण बिल्स सम्मिट करने का काम हमेशा मुझे तनावपूर्ण ही लगता है और उस तनाव में अचानक जाने कहाँ से इन्हे जन्म लेने की ज़िद आ गई। मैं मना कर रही हूँ, मगर ये बस अभी की जिद लगाये पड़ी है। जल्दी से मुखड़ा कागज पर उतार कर दूसरा काम करना शुरू किया और घर पहुँचते ही पूरा किया। अब ये भी पता था कि ये बहर में नही है। बहर में लाने के लिये छूने चलो तो ये बिगड़ैल बच्ची की तरह हाथ झटक देती। मैं कहती आ सँवार तो दूँ और ये फिर हाथ झटक कर कोने में खड़ी जाती। नईईई कह कर। अब अभी अभी जन्मी इसकी जिद ना मानूँ तो कैसे और मानूँ तो कैसे। मुझे पता था कि ये ऐसे ही अगर बाहर निकल आई तो इसका तो कुछ नही, मेरे ऊपर गुरु जी के डंडे पड़ जायेंगे। इनका क्या ये तो वाह वाह देख कर इतराती रहेंगी। यहाँ गुरुजी का ना बोलना भी बहुत कुछ बोल जायेगा।

खैर तीन दिन बाद मैने गुरु जी से इजाजत माँगी कि क्या इनकी जिद पूरी करी जा सकती है तो गुरु जी ने कहा कि इसे गीत बना दो। और इनका दूसरे तरीके से इलाज़ किया उन्होने। तो अब ये जो पैदा हुई तो गज़ल थी मगर जींस शर्ट पहना कर अब गुरु जी ने इसे गीत बना दिया है...! और जहाँ जहाँ ये पावडर लिपिस्टिक दिख रहा है भूल से वो इनका गज़लापा झलक जा रहा है।

तो लीजिये पढ़िये ये गीत। जो हरी लाइनें हैं वो गुरु जी ने बढ़ाई है। हर अंतरे कि पहली और तीसरी पंक्ति मेरी है। अब इतनी जिद तो माननी ही पड़ेगी ना इसकी...! क्या करें जैसी भी है अपनी है ....



मेरे संग ही होता है या तेरे संग भी होता है,

अब तन चाहे जहाँ कहीं हो मन तेरे संग होता है


बात करें तो करें कौन सी, बातें होती कोई नही,

और छुपानी हो तुमसे बातें ऐसी भी कोई नही

लेकिन बातें तुमसे हों दिन रात, यही मन होता है।


सूरज, चंदा, रात, दोपहरी सब वैसे के वैसे हैं,

पर्वत, सागर, नदिया, बादल भी जैसे के तैसे हैं

पर कुछ है जो बदल रहा है, ये संशय क्यों होता है ?


भोर भये से रात गये तक एक अजीब सी हलचल है,

मन को लाख संभाला लेकिन होता फिर भी बेकल है

कुछ है जो मिलता है हर पल और कुछ हर पल खोता है।


छोटे छोटे संदेशे हर पल तुमको पहुँचाने हैं,

लिक्‍खे अनलिक्‍खे काग़ज़ तुमको कितने भिजवाने हैं

कितने काग कबूतर भेजूँ, इक खत हर पल होता है।


रोने को हो काँधा तेरा, हँसने को हो साथ तेरा,

गिरने से पहले ही मुझको आकर थामे हाथ तेरा

तेरे साथ रहूं जब भी तो असर दुआ में होता है



नोटः चित्र में जो बच्ची है वो मेरे बहुत ही प्यारे रमेश भईया की बेटी है....., जो मुझे छोड़ कर लंदन चले गये हैं...! इसके पैदा होने के दो साल पहले ही इसका नाम मैने उदिशा रख दिया था। और ये भी तमन्ना थी कि इसके नाम के आगे सिंह नही सूर्यवंशी लगे जिस से पता तो चले कि हम मातृ पक्ष से राम जी के खानदानी हैं। तो ये हैं उदिशा सूर्यवंशी...! घर में इसे सब मिष्टी बुलाते हैं...! ये जो गीत बना वो भी इसी सा नटखट लगा मुझे..! देखिये ना कैसे बिना कपड़ों के खुश है...! जिद्दी...! और जब सँवारो तो कैसा मुँह बना रही है..! इसे नही पता कि इसके भले के लिये ही कहा जा रहा है सब...!

Monday, August 17, 2009

पत्थरों का गीत



८ साल पहले एक पत्थर की आँख में आँसू देख कर ये कविता लिखी थी। बाद में ये कुछ लोकल पत्रिकाओं में छपी भी। मगर जैसा मैने लिखा था वैसा इसे समझा नही गया। इसलिये ब्लॉग पर लगाने का मन नही हुआ। बहुत दिनो बाद फिर अभी पिछले रविवार इस गीत को फिर किसी पत्थर के सामने गाया और दो पंक्तियाँ गाते ही, पत्थर नम हो गया....! मुझे लग रहा है ये गीत बना ही पत्थरों के लिये है शायद......!

दस्तक हुई द्वार खोला तो देखा द्वार खुशी आई,
किंतु हाय मजबूरी मेरी, बंद किवाड़े कर आई।


बार बार उस खुशी ने फिर भी द्वार हमारा खटकाया,
किंतु हमारी मजबूरी से कोई ना उत्तर पाया।

मैं नारी करती क्या आखिर खुशी तो चीज़ पराई थी,
मज़बूरी मेरी अपनी थी. साथ सदा दे आई थी।

मंदिर मंदिर जा कर जिसकी खातिर जोत जलाई थी,
वही मेरा घर मान के मंदिर, जोत जलाने आई थी।

पहली बार हुआ था ऐसा कैसा आर्द्र नज़ारा था,
हाय खुशी ने आँखों में आँसू भर मुझे पुकारा था।

देख खुशी की आँख में आँसू हृदय हमारा भर आया,
बता नही सकती, कि कैसे खुद पर फिर काबू पाया।

खोल दिये दरवाज़े मैने खुद पर जब काबू पाया,
झड़क दिया उस खुशी को मैने कड़े शब्द में समझाया,

"कैसी मेरी शुभचिंतक है, ये क्या करने आई है,
नारी और खुशी की जग में प्रीत भला निभ पाई है ?
हृदय धड़कता है सीमा में. सीमा में देखे दृष्टि,
जीवन के समझौतों में ही मुझको मिलती संतुष्टि।
घर मेरा मर्यादाओं का लगी रवाज़ों की देहरी,
अपनी सहज भावनाओं की मैं हूँ बनी स्वयं प्रहरी।
बड़ा सहज होता है जग में, तुम से रिश्ता कर लेना,
पर नारी के जीवन में है कहाँ सहजता से जीना।"

लौट गई धीमे कदमों से बात समझ उसके आई,
नारी और खुशी की जग में प्रीत भला कब निभ पाई।

भर आई आँखों की कोरें दूर, तलक देखा उसको,
कौन सांत्वना देता आखिर खुद ही समझाया खुद को,
बंद किये दरवाजे मैने और चुपचाप चली आई
बता नही सकती कि खुद में कितनी संतुष्टी पाई

नोटः ब्लॉगिंग शुरु करने के पहले मनीष जी के सुझाव पर मैंने कुछ दिनों तक परिचर्चा मे अपनी कविताएं डाली थी। उसी समय यह भी कविता डाली थी। जिस पर कुछ लोगों को नारी को इतनी अबला दिखाने पर ऐतराज़ हुआ था। उन सब लोगो से पहले ही क्षमा..! मेरा ऐसा कोई उद्देश्य नही है..! परंतु ये कविता मेरे मन के बहुत करीब है।

दूसरी बात जब मैने ये कविता लिखी थी तो मुझे लगा था कि बड़ी हिम्मती कविता है ये, क्योंकि अपनी सुख सुविधाएं बटोर लेने से ज्यादा हिम्मत का काम है पा कर भी त्याग देना...!

Sunday, August 2, 2009

मेरा पहला दोस्त



ये संजोग ही था कि मेरे जन्म के कुछ पहले से जो त्रासदियाँ परिवार के ऊपर आई थीं वो लवली के जन्म के साथ ही सुधरीं। जिसका कभी न मुझे ताना मिला ना उसे बधाई।

वो मुझ से तीन साल छोटा है। अपनी जनरेशन में मैं सबसे छोटी और अगली जनरेशन में वो सबसे बड़ा। मेरा सबसे बड़ा भतीजा। हमेशा से बहुत हिम्मती। शुरु से ही इंजेक्शन लगने पर भी रोता नही था। बड़े बच्चों के साथ खेलते हुए जब सिर फूट गया तो बुलंदी से कहा "ये देखो ये हिम्मत का खून है।" सिर में छः टाँके और रोने का नाम नही। क्रांति फिल्म देखने में एकदम से उत्साह आ जाता है उसे "कलांति लिख दूँगा।"

हम साथ साथ खेले। दीदी वाला खेल। मै दीदी बनती और वो और पिंकी मेरे छोटे भाई बहन। मैं घर में खाना बनाती और वो पायलट बनता। जहाज उड़ाता और घर आ कर कहता खाना दो जल्दी।

तब वो एकदम सच बोलता था। कुछ भी झूठ नही और मैं कल्पनाओं की दुनिया में रहती, दिन भर झूठ बोलती। पता नही कब बदलाव आया, जब उसे लगा कि झूठ के बिना दुनिया में गुजारा नही है और मुझे लगा कि झूठ बोलना पाप है। शुरुआती दौर में समस्या तो मेरे ही साथ थी। अम्मा कहती वो झूठ बोलता ही नही है और ये बहुत झूठ बोलती है और मैं पिट जाती :)।

साथ में भी खूब झगड़े होते। वो मारता और जीत जाता, मैं थोड़ी सी धूल झाड़ कर उसके शरीर की हार जाती। मेरे पास एक हथियार था। खुट्टी..! और उसकी एक ही कमजोरी। वो बिना बोले रह नही सकता था मुझसे। ..और मैं हार कर जीत जाती।

मेरा एड्मिशन सीधे चौथी में हुआ, वो वहीं नर्सरी बी में। धूप में बच्चो की बेंच लगा कर स्वेटर बुनते हुए मेरी क्लास के बगल में जब माधुरी मैडम उसे स्केल पर स्केल मार रही थीं और ये जान कर कि मैं उसे देख रही हूँ, वो हलका सा सी बोल कर हाथ हटा ले रहा था, तो उसके बदले आँसू मैं गिरा रही थी और जब माधुरी मैडम से मैने कहा था कि मैडम उसके तो पहले से बुखार रहता है उसे मत मारा कीजिये तो कई दिन तक व्यंग्य सुनने पड़े थे मुझे उनके।

हम लोग १० पैसे में पाँच टाफियाँ खरीदते और ढाई ढाई बाँट लेते। बाबूजी उसको शेक पिला कर लाते और कहते कि गुड्डन को ना बताना। तो वो बार बार मेरे सामने आ कर डकारें लेता और मुँह पोंछता तब तक जब तक मैं पूछ ना लूँ कि कुछ खिलाया क्या बाबूजी ने और वो कहता "हम नही बतायेंगे बाबा ने मना किया है।" ... इतना तो बहुत था मेरे रोने के लिये।

अब उसके पास सायकिल आ गई। वो मुझे आगे बैठा कर शाम को टहला लाता। दूर दूर तक जहाँ तक मैं कहती। मेरी सहेलियों के घर, अपने दोस्तों के घर, विकास की दुकान पर से हेयरबैड और कापियाँ भी दिला देता।

हमारी दुनिया बदल रही थी। हम इस बदलती दुनिया के गूढ़ रहस्य भी सबसे पहले आपस में ही पूछ लेते। और अपनी ताकत भर कोई एक दूसरे को निराश ना करता। अब मन ही मन हँस भी लेते हैं, उन बेवकूफियों पर।

सुबह से चल रहा था...... वो चलते हुए एक टीप मार देता और आगे बढ़ जाता। फिर मैं अपनी बुद्धि का प्रयोग कर के किसी तरह एक बार मारती, २ मिनट बाद वो फिर मार कर आगे बढ़ जाता। मैं शांत हो गई। वो कॉलेज जा रहा था। मुझे दरवाजा बंद करना था। मैंने सीधा निशान साध कर चप्पल फेंकी और झट दरवाजा बंद कर लिया। अब क्या करोगे ? अब तो शाम को आना है। और मैजिक आई से अपनी विजय का नजारा देखा तो वो अपने दोस्त के साथ हँस रहा था और दोस्त धूल झाड़ रहा था। वो हट गया था, चप्पल दोस्त को लगी थी। बहुत दिनो तक वो दोस्त आने पर कहता "बुआ चप्पल पूछ कर चलाना।"

रात को उसने मेरी फोटो पर माला चढ़ा दी। सुबह दिखा दिखा कर हँस रहा था। मैं भी मुस्कुरा रही थी। झूठ मूठ का चिढ़ कर। तभी विक्की आता है, उसका दोस्त मैं अंदर चली गई थी थोड़ी देर को। फोटो देखते ही चौंक जाता है " अरे ये क्या....??" वो आज ही जयपुर से आया है। लवली सीरियस हो जाता है " तुम जयपुर में थे।" " अरे यार बताना तो चाहिये था।" कहते हुए गला भर आता है विक्की का। तब तक चीजों से अंजान मैं बाहर निकल आती हूँ। और विक्की टूट पड़ता है लवली पर।

उसने मुझे बताया कि एक लड़की उसे बहुत अच्छी लगने लगी है। मैं उसके घर फोन कर के उसे बुला दूँ। मैने झट फोन कर के बुला दिया। वो भी जब घर पर फोन करती तो मुझे ही बुलाती फिर मैं लवली को बुला देती। मेरी तो सारी सहेलियाँ उससे बात करती थीं। इसमे किसी को पूछना भी नही था।

भईया की शादी तय थी। मुझे इस बार खूब तैयार होना था। मनोरमा और गृहशोभा बताते थे कि बाहर अम्मा के काजल और छोटी सी बिंदी से अलग भी बहुत सी चीजें हो गई हैं। सुबह जब वो स्कूल जाता तब मैं उसे पैसे पकड़ा देती और शाम को वो शर्ट के अंदर से आई लाइनर और लिपस्टिक निकाल लाता अकेला पा कर।

वो रात में देर से आता। घर में भईया गुस्से में आग बबूला रहते। एक आध पड़ते पड़ते मैं धीमे से अम्मा से बताती और अम्मा कसम दिला कर छुड़ा लातीं। वो खाना लेता और थाली लिये मुस्कुराते हुए मेरी रजाई हटा देता। उसे पता होता कि मैं सोई नही हूँ। और वो मुसकुरा देता। "पागल हो तुम, तुम्हे डर नही लगता।" वो हँस के कहता "क्या करेगे मारेंगे ही ना..??" " ढीठ" मैं मन मे कहती। और वो कहता " अच्छा सुनो” और सिरहाने बैठ जाता पूरे दिन की कहानी सुनाने "किसी को बताना नही" कह कर बहुत कुछ बताता।

एक दिन फोन वाली लड़की के विषय में मैने पूछा "क्या तुम उसके साथ दूर तक जा सकोगे। घर से विरोध कर के। अगर हाँ तो कोई बात नही, अगर ना तो बात बिगड़ने के पहले संभाल लो" और उसने कहा ना और बात बिगड़ने के पहले संभाल ली। फोन वाली लड़की उसे और मुझे और अधिक चाहने लगी।

फिर रोज के किस्से। जाने कितनी नई लड़कियाँ, जाने कितने लेटर, जाने कितने गिफ्ट। मेरे पास सब इकट्ठा। मेरा अपना सीक्रेट था उसका सीक्रेट संभालना। उस छोटे से घर में। एक तो वो सुंदर था, दूसरे बात करने में बहुत चतुर। लाइन क्यों ना लगती।

उसने कराटे ज्वॉइन किया। दरवाजे, खिड़कियाँ, दीवाल और जितना बर्दाश्त हो सके उतना मैं उसके प्रैक्टिस क्षेत्र बने। " आज मैने ब्रिक तोड़नी सीखी"
"अरे तो पतली वाली ना"
"अरे पतली मोटी क्या" और वो घर के बाहर से तीन ईंटे ले आया, दो पर एक को रखा और एक जोरदार हाथ के साथ ईंट टूट गई। वाह...!!!! मैं चकित...!!मगर कुछ दर्द भी हो रहा है हाथ में। एक्सरे कराया गया। हाथ भी टूट गया है। आपरेशन करना पड़ेगा, रॉड डालनी पड़ेगी।

मैं उसे देखने हॉस्पिटल जाती हूँ वो हँस देता है मैं भी हँस देती हूँ " जॉनी आपके दाँत बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर मत रखियेगा।" वो अपने अंदाज में कहता है।
उसके दोस्त की मम्मी मुझे एकटक देख रही हैं। थोड़ी देर में पूछती हैं "कोई एक्सीडेंट हो गया था ? "
"नहीं..! पोलियो..!"
" तो दाँत कैसे टूट गये।"
"दाँत...?? दाँत टूट गया क्या मेरा ?" मैने हड़बड़ा कर शीशा ढूँढ़ना चाहा।
"वो कह रहा है ना ..नकली दाँत...!!!" उन्होने कन्फ्यूज़ होते हुए कहा।
ओह याद आया " जॉनी आपके दाँत बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर रखियेगा।" उन्होने समझा नये दाँतो का सेट है, लड़का मुझे हिदायात दे रहा है। ठहाका..! ज़ोर ज़ोर से ठहाका लगा रहा है वो। और मैं अपनी हँसी दबाते हुए उन मम्मी जी की सिचुएशन संभाल रही हूँ...!
" मेरे साथ भी हो जाता है।" कह कर।

उसके कोच आते हैं " अविनाश ये क्या बेवकूफी है ? नेशनल टूर्नामेंट सामने है और तुम ये बेवकूफी कर रहे हो।"
" अरे सर टूर्नामेंट को तीन महीने हैं और ये एक महीने में फिट।"
टूर्नामेंट होता है। वो भारत दौरा करता हुआ सारे राउंड निकालता हुआ फाईनल ट्राफी ले कर घर लौटता है। गले में मैडल हाथ में ट्राफी। और वही हाथ मेरे पैर छू रहे हैं। मैं गदगद हूँ।

कॉलेज से रिक्शे से लौट रही हूँ। पीछे से कोई सायकिल की घंटी बजा रहा है। मुझे लग रहा है कि मैं सुन ही नही रही। कोई बनावटी खाँसी से ध्यान आकृष्ट कर रहा है। मैं फिर भी नही मुड़ती। कोई व्हिसिल के साथ धुन निकाल रहा है "रुक जा ओ जाने वाली।" मेरा खून खौल रहा है। कान से गरम गरम हवा निकल रही है। धड़कन तेज, बहुत तेज। अब तो मोहल्ला शुरु होने वाला है। अब क्या होगा ? कोई समझेगा थोड़े ना कि मैं इसे नही जानती। तो क्या हुआ कि अम्मा ने मना किया है इन जैसे लोगो के मुँह लगने को। आज तो पानी सिर से ऊपर गुजर गया है। मैं गुस्से में पलटती हूँ। देखती हूँ कि वो मुसकुरा रहा है। "बदतमीज" धड़कन कंट्रोल होती है और गुस्सा बढ़ जाता है। " पागल हो क्या तुम" गुस्से में समझ ही नही आ रहा क्या कहें। वो हँसे जा रहा है। घर आ गया, वो मुझे सहारा दे कर उतार रहा है। "हटो यहाँ से" कह कर मैं गुस्सा दिखा रही हूँ। "हुआ क्या" अम्मा पूछ रही हैं। "कुछ नही अम्मा, इन्होने कहा था कॉलेज लेने पहुँच जाना हम नही पहुँच पाये।" मैं कुछ नही बोलती गुस्से में। अंदर मुझसे पहले पहुँच कर भाभियों को बता बता कर खूब हँस रहा है " आज बुआ को खूब परेशान किया।" भाभी लोग हँस हँस कर उस पर गुस्सा हो रही हैं।

भईया ने उसे बाईक दिलवा दी। मेरा घूमने का क्षेत्र बढ़ गया।

कालेज में उसने झगड़ा कर लिया। घर में सब नाराज हैं। वो रात भर घर नही आया। मुझे रात भर नींद नही आई। दूसरे दिन जब आया मैने बात नही की।
"अरे यार हमने कुछ थोड़े ना किया था।"
मैं चुप। वो पता नही क्या क्या बताता है़, मुझे लगता है, उसने सच में कुछ नही किया था।

वो तनाव में है। "मै कुछ भी कर दूँगा"
"ये ठीक नही है, कुछ सोचा समझा करो।"
"हे भगवाऽऽऽऽऽन" वो चिढ़ कर हाथ जोड़ कर मत्थे पर लगाता है। " हमसे ये उपदेश वाली भाषा दूर रखा करो।"
मैं चुप हो जाती हूँ। सुबह वो वही करता है जो मैं कह रही थी।


मुझे आपरेशन कराने गोरखपुर जाना है। "तुम जरूर आ जाना...! आपरेशन वाले दिन वहीं रहना..! ठीक..!"
"हम्म्म् ठीक"
मैं स्टेशन के लिये जा रही हूँ। वो अचानक दौड़ता हुआ आता दिखता है। मैं रिक्शा रुकवाती हूँ। वो हाँफता हुआ आ कर कहता है " ये लो ये जब जब अचानक बोलेगी ना समझ लेना कि हम तुम्हे याद कर रहे हैं।" और वो दिल के शेप की की रिंग के बीच में लगी बटन को दबा देता है, आवाज आती है "आई लव यू" मैं मुस्कुरा देती हूँ। "लेकिन आना जरूर" कह कर उसे भेज देती हूँ।

मैं आपरेशन थियेटर में जाने वाली हूँ, वो नही आया। सिरहाने वो की रिंग रखी है। लोगो के आने जाने या बैठने पर वो अचानक बोल उठती है "आई लव यू" मुझे उसकी याद और गुस्सा एक साथ आता है। वो नही आया। होश में आने पर आधी बेहोशी में वो आवाज़ सुनाई देती है। दूसरे दिन किसी का हाथ लगता है, की रिंग टूट जाती है। मैं रोने लगती हूँ....!

दीदी मुझे केयर के लिये अपने साथ ले गई हैं। फोन की घंटी बजती है, मैं लेटे लेटे हेलो बोलती हूँ
"हेलो" उधर से आवाज़ आती है।
"दुष्ट, नालायक, बदतमीज..तुम रखो फोन"
"आई लव यू यार"
"तुम रखो बस...!"
"अरे बस बस..! समझा करो...!"
और मेरा रोना शुरू......! सिसक सिसक कर..! लीगल गालियाँ दे दे कर।

हम दोनो का १० दिन से अबोला चल रहा है। समझ में ही नही आता कब चिढ़ जाये। अब नही बात करूँगी मैं। काम से काम बस....! सुबह सुबह मेरा रिज़ल्ट निकल आता है। मेरी सर्विस लग गई। उसे खबर लगती है, तो दौड़ कर आता है। हम दोनो गले लग जाते हैं। वो हँस कर कहता है " कुछ तो अच्छा किया करो यार हम लोगो के लिये। अब ताना मिलेगा हम लोगो को। देखो वो इतने के बावजूद कंपटीशन निकाल ले गईं और तुम लोग..!!!" हम लोग फिर हँसने लगते हैं।

पोस्टिंग आंध्रा आई है। इतनी दूर...! अम्मा भेजने को राजी नही हैं। " रोज पेपर पढ़ते हो, कैसे जाने दें ? अरे ये तो अपनी रक्षा भी नही कर पायेगी।"

वो मेरे साथ जायेगा। अपनी पढ़ाई और काम छोड़कर। हम आंध्रा पहुँच जाते हैं। हम दोनो.....। यहाँ कानपुर में सुबह आठ बजे से रात १२ बजे तक उसके पैर में चक्की लगी रहती थी। वहाँ कोई जान पहचान नही। भाषा की समझ नही। वो सुबह मेरी व्हीलचेयर को धक्का लगाता हुआ आफिस पहुँचाता है। व्हीलचेयर छोड़कर जब मैं खड़ी होती हूँ, तो मेरे दुपट्टे में पीछे से गाँठ देता है। और आफिस के रूम तक पहुँचा कर वापस आ जाता है। घर लौट कर स्केच बनाता है।
फिर १ बजे पहुँच जाता है लेने। मैं घर लौट कर चावल चढ़ाती हूँ। हम दोनो खाना खाते है..! मैं उसके बनाये स्केच को एक शेर देती..! और वो फिर मुझे ले कर आफिस छोड़ने जाता है २ बजे। फिर ५.३० बजे पहुँच जाता है लेने। यही उसकी दिनचर्या है। वो कभी शिकायत नही करता। मगर अगर उसे नींद आ गई है और १० मिनट लेट है तो मैं गुस्सा हो जाती हूँ।

कहीं घूम कर आते हैं सॉउथ में। उसका बैंग्लौर जाने का मन है। मेरा तिरुपति। वो कहता है तिरुपति चलो। हरी भरी पहाड़ियाँ...! मैं सब देखे जा रही हूँ और वो मुझे देख रहा है। वो गोद में उठा कर मुझे तिरुपति दर्शन कराता है। शाम को सीढ़ियों पर बैठे हैं। मैं खुश हूँ..! "वो देखो लवली" "इधर देखो" कह रही हूँ। वो सब देखता जा रहा है।
"मेरा मन होता है कि मैं तुम्हे गोद में ले कर उस सबसे ऊँची पहाड़ी पर ले चलूँ। कभी तुम्हे ये ना लगे कि तुम नही जा पाई" अचानक वो कहता है। मैं इस वाक्य को अपने मन में कैद कर लेती हूँ। मुझे लग रहा है कि मै दुनिया की सबसे ऊँची पहाड़ी पर बैठी हूँ।
उसकी परीक्षा है। मैं मेडिकल लगा कर आ जाती हूँ। जाती हूँ तो जिद कर के उसके साथ नही जाती मैने अपना इंतजाम कर लिया है। मैं रह लूँगी अब।

मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया। उसने दिल्ली में कंपनी ज्वॉइन कर ली। कानपुर हम दोनो से छूट गया।

मैने कायनेटिक खरीद ली है और उसने कार...!

" अरे यार..! तुम तो उड़ाती हो गाड़ी...! दुनिया से बदला ले रही हो क्या ?"
"तुम पागल हो। चुप रहो...!" मैं अपना सधा सधाया जवाब देती हूँ।


वो मुझे कानपुर से लखनऊ छोड़ने आता है। हम लोग अपनी गाड़ियाँ छोड़कर रिक्शे पर घूमते हैं...! पुरानी बातों पर हँसते हैं।

उसकी शादी देखी जा रही है। वो कहता है तुम लोग देख लो। मुझे नही देखनी। मेरी पसंद से तो अच्छी ही है तुम लोगो की पसंद। भाभी ने लड़की पसंद कर ली है। हम लोग देखने गये हैं। जब मैं लड़की के ही घर पर हूँ तभी उसके दोस्त का फोन आता है। "हम्म्म् ... देख ली लड़की..??
मुझे पता है स्पीकर आन होगा। "हाँ" मैं कहती हूँ
“कैसी है ?”
"अब मुझसे सुंदर तो तुम जानते ही हो....!"
"कि सब होते हैं..! आगे बताओ..??
" तो जाओ फिर जो सुंदर है, उसी से बात कर लो"
" अरे मतलब समझो.. कि तुम से सुंदर तो कोई हो ही नही सकता। मगर उसके बाद फस्ट रनर अप हैं ना।"
"हाँ वो है।" और फोन ठहाकों से गूँज जाता है।


उसका तिलक है...! मुझे सबसे पहले तैयार हो कर खड़े रहने की हिदायत मिली थी। मगर मैं नही हो पाई। साड़ी पहननी थी। बहुत देर लगती है। फिर स्पेशली तैयार भी होना था। सब चिल्ला रहे हैं। फोन मैने सायलेंट पर लगा दिया है। भीड़ को हटाती हुई पहुँचती हूँ...! वो तैयार हो चुका है। कितना खूबसूरत लग रहा है। हमारी नज़र मिलती है।


नज़र मिलते ही मैं आदतन आँख दबा कर अँगूठे और तर्जनी का गोला बना कर सुपर्ब का इशारा करती हूँ और ठीक उसी समय बिकलकुल वैसा ही इशारा उस तरफ से होता है। हमें अपनी बेवकूफी का अहसास भी एक साथ होता है और हम दोनो एक साथ जीभ काट लेते हैं। कैमरे अचानक ये कैद करने को मुड़ जाते हैं....! मगर जो होना था वो तो हो चुका...!सब हँसने लगते हैं। पारुल (होने वाली बहू) के पास पहुँचने पर ये बात उसके भाई हँस हँस कर बताते हैं। वो भी हँसती है। "वो बुआ जी तो उनकी बेस्ट फ्रैंड हैं।" कह कर

कल उसकी शादी है। मैं बहुत व्यस्त हूँ। गाना बजाना..! कल की तैयारी करना ड्रेस संभाल कर रखना। कोना कोना मेहमानो से भरा सब को इंटरटेन करना। अचानक वो आता है और मुझे उठा कर कही ले जाने लगता है।
" अरे पागल हो क्या ? कहाँ ले जा रहे हो ? अभी अम्मा गुस्सा होने लगेंगी।"
वो कुछ नही बोलता। चुपचाप अपनी कार में बैठा कर शीशे चढ़ा देता है। गाड़ी स्टार्ट हो जाती है।
"कर क्या रहे हो ?"
"घूमने चल रहे हैं हम लोग..!" कार एक भीड़ भरी मार्केट के बीच में खड़ी हो जाती है।
"यहीं घूमना था?"
"तुम क्या समझ रही थी, पार्क चलेंगे ?"
वो बाहर से चाट ले आता है। शीशे चढ़ा कर फिर हम हँसते हैं " अजीब है यार..! तुम हमेशा हमें झेलती रही। हमारी गलतियों को। हमारी बेवकूफियों को। हम झल्ला गये कितनी बार ? कितनी बार तुम्हे गलत बोल दिया और तुम नाराज़ नही हुई। हम तो कभी थैंक्स भी नही दे पाये तुम्हे ? "
मैं कुछ नही बोल पाती " पागल हो क्या" मैं फिर से कहती हूँ। और उसके कंधे पर सर रख के अपने आँसू छिपाने की कोशिश करती हूँ। वो मेरे आँसू पोंछता रहता है। हम शांत उस कार के अंदर बैठे हैं।

और पता नही कितना कितना कितना कुछ घूम रहा है। पारुल हम दोनो को देख कर खूब खुश होती है। हम अब भी वैसे ही लड़ते हैं और वैसे ही प्यार करते हैं।

होली पर उसने बताया था कि उसका ट्रांसफर जयपुर होने वाला है। मैने कुश से वादा किया था कि मैं घूमने आऊँगी जब वो वहाँ आ जायेगा। अम्मा ने बताया कि उसका ट्रांसफर हो गया। मुझे बहुत गुस्सा आया। मुझे बताया भी नही। मई से उसका कोई फोन नही। फोन नं० तो बदल गया होगा। मैं चाहूँ तो फोन नं० ले लूँ किसी से ? मगर क्यों लूँ ? बस मुझे ही गरज हैं क्या ? उसे मेरी याद नही आती तो मैं ही क्यों याद करूँ ?

मेरा बर्थडे...सब सरप्राईजिंगली कमरे में आते हैं केक कट रहा है। फोन पर फोन आ रहे हैं। अचानक उसका नाम डिसप्ले होता है। मैं हेलो की जगह कहती हूँ " अरे तुम्हारा नं० नही चेंज हुआ ?"
" मैनी मैनी हैप्पी रिटर्न्स आफ द डे...!"
"अरे"
"छोड़ो वो सब..तुम फोन कर के कर लेना वो सब बातें..! फिलहाल तो सुनो..! I LOVE YOU...! I MISS YOU....LOVE YOU THE MOST..MISS YOU THE MOST..AND CAN NEVER FORGET YOU...!
" तुम मुझे रुला रहे हो..! आज मेरा जनमदिन है।"
"NOT AT ALL BABY...! लो पारुल से बात करो...."

आज जब अपने दोस्तों को याद करने को सोचा, तो लगा कि सबसे पहले उसका नाम ना लूँ तो बेइमानी होगी....! उसे गुस्सा बहुत आता है। वो मूडी है। झूठ भी बोलता है। अचानक गायब हो जाता है। but he is my first friend ......FIRST BOY FRIEND .....:)





नोटः दोनो स्केच आंध्रा में लवली के बनाये हुए हैं। ये सीढ़ी वाला उसने मेरे लिये बनाया था। मैने उस पर शेर लिखा
"बस किसी के वास्ते गिरते संभलते चल दिये,
और जब मंजिल पे पहुँचे, साथ बस वो ही ना था।"

उसने कहा मेरी सारी सकारात्मकता की दिशा ही बदल दी तुमने। फिर मैने उस पर ये शेर लिखा। उसके स्केच पर लिखे शेरो मेंबस एख वो ही मेरा था। बाकी ना जाने किसके है ? बस मेरी मेमोरी में थे।