Sunday, August 5, 2012

वो चबूतरा....






  शाम का इंतज़ार करते हम और हमारा इंतज़ार करता चबूतरा। हमारी दिन भर की कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा वहीं तो खुलता था। खिलखिलाता, गुनगुनाता, एक दूसरे का मजाक उड़ाता, एक दूसरे के टेंशन से रात ना सोये जाने के किस्से भी सुनता।
त्यौहारों की ड्रेस, शादियों की तैयारी, मैचिंग्स की टेंशन, मेंहदी की डिज़ाइन सेलेक्ट किये जाने का साक्षी रहा है वो।

शाम बीत जाने पर, फिर शायद लाइट जाये और फिर से चहक उठे वो पत्थर इसका इंतज़ार हमें तो रहता ही था, उसे भी रहता ही होगा।



सबके चले जाने पर एक टीनएजर और एक बस टीन एज को छोड़ ,  उसी लाइन पर खड़ी दो नाहमउम्र सखियों की गुपचुप बातें सुनता वो... बरसात में कभी कभी जब बूँदे दिन भर नही टूटतीं, तो तलब ऐसा बुरा हाल करती कि भीग भीग कर बतियाया जाता। जाड़े की वो शाम, जो अब लिहाफ में भी कँपकँपाती है, उन दिनो सामने से आती खुले मैदान की सरसराती हवा में भी डरा नही पाती।

एक दूसरे के इमोशनल टेंशन आज बढ़ती मँहगाई के टेंशन से ज्यादा बड़े थे। बिना आगे पीछे सोचे एक दूसरे के लिये हाज़िर

भूल नही सकती जब फरवरी की ठीक दोपहर मैने श्वेता का गेट खटखटा कर कहा था "मंदिर चलोगी ?" और उसने बिना किसी प्रतिप्रश्न के कहा " चप्पल पहन लूँ।"


मेरी व्हीलचेयर को चलाती वो बिना किसी प्रश्न के मुझे मंदिर तकल ले आई। दोपहर में जब भगवान जी सोते हैं, तो सीढ़ियाँ खाली होती हैं। उन्हें उसी नींद में प्रणाम कर मैं, मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गई। वो बगल में बैठ गई। मैं रोती रही, रोती रही और उसने एक बार भी रोने का करण नही पूछा। जब जी भर गया तो मैने व्हीलचेयर की तरफ नज़र उठाई, बिना कहे व्हील चेयर मेरे पास ले आई वो और हम फिर से उसी चबूतरे पर। शाम की बैठक में हँसते, खिलखिलाते। बिना किसी को किसी खबर के, कि अभी एक सैलाब को बिना बाँध के बह जाने दिया गया है।

४ मई ,२००१ की एक शाम का साक्षी वो चबूतरा, जब हर शुक्रवार की तरह मंदिर से लौट कर इस चबूतरे की बैठक की तलब को कुछ उदासीनता के साथ मिटाया जा रहा था।


सब को मंजिल दूर लग रही थी। मेरा दार्शनिक स्वर  " अँधेरा बढ़ जाये, तो समझो सुबह आने वाली है।"
"और कितना अँधेरा दी ?" उस छोटी दोस्त ने चिढ़ कर कहा।
और उस सुबह के रोजगार समाचार ने हम सब को सुबह की पहली किरण दे दी। मेरा सेलेक्शन हो गया। कुछ ही दिनो में श्वेता को लखनऊ में इंजीनियरिंग कॉलेज मिल गया। पिंकी की शादी तय हो गई। हम से थोड़े छोटे पंछी भी अपने घोंसलो के लिये तिनके बटोरने निकल पड़े। सोनू होटल मैनेजमेंट में, आशीष और एकता बिज़नेस मैनेजमेंट में। अब तो सब को प्लेसमेंट भी मिल चुका है।

अगले छः महीनो में हम अपने सवेरे सँवारने निकल चुके थे।

आज जो कुछ हो रहा है, तब सब सपना लगता था। अब वो सब सपना लगता है जो तब हुआ करता था। सब के सब उन दिनो को कम से कम एक दिन तो उसी तरह जी लेना चाहते हैं। मगर......!!!


हम सब उड़ गये। हमे उड़ना सिखाने वाले बहुत खुश हुए और बहुत रोये। हम सब ने अपनी अलग अल॓ग दुनिया बना ली है। हम में से किसी को नही मालूम कि हमारा आज का सबसे अच्छा दोस्त कौन है। फेसबुक पर एकदूसरे के अपडेट्स लाइक कर के हम दोस्ती निभा ले रहे हैं।

मगर हमें उड़ने सिखाने वाले, फिर कोई दुनिया नही बसा सकते थे। वे सब बहुत अकेले हो गये। अब वो चबूतरा उनकी बातें सुनता है। हम सब की माँएं शाम होते होते वहीं इकट्ठी हो जाती हैं अब.... उसी चबूतरे पर....!!! वो सब एक दूसरे की बहुत अच्छी दोस्त हैं।


 

Friday, June 1, 2012

ना खुशी, ना ग़म....

पिछले ९ सालों में उस बाज़ार के सारे भिखारी अब शक्ल से पहचाने जाने लगे हैं।

वो बूढ़े दादा..जिनके पास गुदड़ियों का एक पूरा भंडार है। जिनकी दाढ़ी भी उलझ उलझ कर गुदड़ी ही बन गई है। वो तीखे नाक नक्श वाली उनकी गाढ़ी साँवली युवा पत्नी..जो उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर उनके धंधे में उनका पूर्ण सहयोग देती है।

" ए बहेऽन.. तुम्हारा भईया जियेगा बहेऽन.." अनसुना कर देने पर वजन डालने को वाक्य बदलती " तुम्हारा भंडार भरा रहेगा बहेऽन।" और अगर भूल से उस उपेक्षा के बीच घर का कोई हम उम्र पुरुष वर्ग, जो अंदर किसी दुकान से कुछ लेना गया हो और बाहर आ कर मुस्कुरा कर वो सामान पसंद कराने लगे तो चट से सबसे वजनी डायलॉग " तुम्हारा जोड़ा बना रहेगा बहेऽन।"

एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा लेने के बाद उसके अकाट्य वाक्य को काटते हुए जब आप कहते हैं " अरे जाइये दीदी ! नही देना है...! उसका जोड़ा अभी बहुत देर है बनने में और हमारा हमें बनाना नही।" ‌और गाड़ी स्टार्ट कर देते हैं, तो उस घर्रर्रर्र के बीच आप सुनते हैं उसकी स्पेशल बिलासपुरिया भाषा में बढ़ियाँ बढ़ियाँ शब्द जिससे आप इतना तो समझ ही लेते हैं कि ये कोई बहुत सुंदर सी गहन गाली है, जो आपके सम्मान में पढ़ी जा रही है।

थोड़े दिन में आप पाते हैं कि उसकी गोद का लाल आपसे " बहुत भूख लगी है" की दुहाई दे रहा है और वो तीखे नैन नक्श वाली अपने पति से तिहाई उम्र वाली नारी पूरे दिनो से है और अपने पेट की तरफ इशारा कर के आप से कहती है " ए बहेऽन... तेरा लाल जियेगा बहेऽन..दो दिन से कुछ भी नही खाया।"

आपका कसैला मुँह कहना चाहेगा, "जब खाने को नही है, तो ये रेल गाड़ी के डिब्बे..." मगर आपको याद ही हैं वो गहन शब्द.. तो आप या तो अपनी बाईक स्टार्ट कर जगह बदल देते हैं या फिर अपने देखने की दिशा....!!

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परसो उसकी शादी की पहली वर्षगाँठ है, मैं दोनो को पैसे देती हूँ, अपने पसंद का कुछ ले आने को। वो जिद करते हैं साथ चलने को। " कपड़े पसंद करने में आसानी रहेगी।"

अंदर शॉप में वो दोनो साड़ी पसंद कर रहे हैं... शीशे के पीछे से वो लोग दूर से ही दिखा रहे हैं साड़ियाँ और फोन पर सड़क से हाँ या ना बोल रही हूँ।

पसंद साड़ियाँ पैक कराने के बीच के गैप में तटस्थ अपनी कायनेटिक पर बैठे बैठे दुनिया देख रही हूँ। शनि महाराज एक लोहे के टुकड़े और 7-8 फूलों वाली माला के साथ कई लोगो का पेट पालने में सहायक बने हुए हैं।

एक बच्चा आता है। "आंटी.." कह कर हाथ फैलाता है।
मैं ना कर के मुँह घुमा लेती हूँ।

दूसरा बच्चा दिखता है। अपने अपने पतले पतले पैरों के साथ घिसटते हुए। मन में जो करुणा उपजती है, उसका नाम शायद "सम वेदना" है। हाथ पर्स की तरफ बढ़ता है और फिर रुक जाता है, कुछ सोच कर..नही ये ठीक नही, इस प्रथा को बढ़ावा देना...

वैसे उसने कुछ माँगा भी नही है। बस बाइक के अगले पहिये से सट कर बैठ गया है। थोड़ी देर में आवाज़ आती है।

 "अंटी"
"हम्म्म ?? "
" ये गाड़ी कित्ते रुपए में मिलती है ?"
" क्यों ? खरीदना है ?"
वो हाँ में सिर हिलाता है।
" तो पढ़ाई करते हो?"
वो शरमा कर ना में सिर हिला देता है।
" तब कैसे खरीदोगे ? इसे खरीदने के लिये तो बहुत सारी किताबें पढ़नी पड़ती है। देखो तुममें हममे कोई फरक थोड़े है। बस हमने पढ़ाई की तो हम अब ऐसी गाड़ी खरीद सकते हैं और तुम भी पढ़ोगे तो तुम भी खरीद लोगे..बल्कि किसी को खरीद कर भी दे सकते हो। बताओ ? करोगे पढ़ाई ? तो हम तुम्हे पढ़ा देंगे खूब ज्याद।" मैं अपने दोनो हाथ हवा में पसार देती हूँ, कायनेटिक पर बैठे बैठे ही।
उसने फिर सिर ना में हिला दिया।
 " नही.. ? क्यों ????"
"हमाअ् मन नही लगता है।"
"तब कैसे लोगे ये गाड़ी ? बिना पढ़ाई के तो नही मिल पायेगी।"
" ले लेंगे..।"
" कैसे ?"
" एक साल तक पइसा माँगेगे औ खरच नही करेंगे.. आ जईहै गाड़ी।"
मुझे हँसी आ जाती है सकारात्मक नकारात्मकता पर।
" अरे...? पइसा माँग माँग कर तुम गाड़ी खरीद लोगे ?"
"हाँअ्" वो भोले पन के साथ गर्दन टेढ़ी कर के कहता है।
" अच्छा.. ?? चलो गाड़ी खरीद भी लोगे, तो चलाओगे कैसे ? पेट्रोल का पैसा कहाँ से आयेगा ? वो भी माँग लोगे ?"
"हाँअ्" वो अपनी उसी अदा के साथ जवाब देता है।
"अरे पेट्रोल भराने को कौन देगा तुम्हें पैसा ?"
" दे देंगे..!" वो बड़े आत्मविश्वास के साथ जवाब देता है।
" कौन देगा ?? कोई नही देगा... हम तो नही देंगे।" मैने लगभग खीझते हुए जवाब दिया।
" तुम तो पहले भी कउन दे देती थी। सब तो कहिते हैं, ऊ चरपहिया स्कूटर वाली अंटी से ना माँगना कभौ देती नही हैं लेच्चर से अगल बगल वाल्यो भड़क जाउत हैं।"

मुस्कुराने के अलावा कर भी क्या कर सकती थी मैं... मगर आज १३ दिन हो गये...इस धंधे से जुड़े समाज के मनोविज्ञान को, उनकी दिनचर्या को, उनकी सुख दुःख को समझने और समझ कर उस पर कुछ लिखने के लिये अपने को बेचैन पा रही हूँ।

Monday, April 23, 2012

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी






पिछले वर्ष  लगभग इन्ही दिनों गुरू जी के ब्लॉग पर ग्रीष्म का तरही मुशायरा  हुआ था। वैशाख आया भी और जाने को भी है, तो सोचा लाइये ये मौसमी बयार यहाँ भी चले.....



दोस्त सी आवाज़ देती, गर्मियों की वो दुपहरी,
और रक़ीबों सी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

ओढ़ बैजंती के पत्ते, छूने थे जिसको शिखर उस,
ज़िद से करती होड़ सी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।

गुड़ छिपे आले में मटके में मलाई की दही है,
राज़ नानी के जताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

धप की आवाज़ों पे चौंके कान ले कर दौड़ती फिर,
फ्रॉक में अमिया छिपाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

शादियाँ गुड़िया की, गुट्टे और कड़क्को खेलने पर,
त्यौरियाँ माँ की चढ़ाती, गर्मियों की वो दुपहरी।

सर्दियों की रात भर माँगी थी हमने जो दुआएं,
उनको तासीरें दिलाती, गर्मियों की वो दुपहरी

आह में भी लू थी, मन में भी बवंडर धूल जैसे,
इश्क़ में दुगुनी तपी थी, गर्मियों की वो दुपहरी।





शाम को मिलने का वादा, करवटों में जोहती थी,

रात से ज्यादा सताती, गर्मियों की वो दुपहरी।

क्यों ना बैसाखी हवाओं पर चले आते हो तुम भी,
कयों ना तुमको भी सताती, गर्मियों की वो दुपहरी

शोर करती हर तरफ फिरती तुम्हारी याद जानाँ
और सन्नाटे में डूबी गर्मियों की वो दोपहरी





नोटः एक बात जो तब भी लिखी थी, पहला शेर समझने के लिये (मतले के बाद वाला)


गर्मियों को याद करो तो जो बात सबसे पहले याद आती है, वो है ४ साल की उम्र में कम से कम कपड़ो में बैजंती के पत्तों से ढके शरीर का जेठ की चटक दोपहरी में लिटा दिये जाना। उसे काटने का तरीका था, वो सपना जीना जो दीदी बताती रहतीं, बस थोड़ी देर और बस... फिर तुम भी ना माधुरी की तरह, मुन्नी की तरह दौड़ने लगोगी... जैसे बहुत सा कुछ.....मतले के बाद वाला शेर उसी पर लिखा है।


चित्रः साभार गुरू जी श्री पंकज सुबीर  

Wednesday, April 18, 2012

दिल वाले दुल्हनिया ले जाएंगे....

जिंदगी का सफर जब शुरू होता है, तब पता भी नही होता कि मंजिल तक पहुँचते पहुँचते कितने अंजान चेहरे अपने लगने लगेंगे। लगता ही नही कि सफर की शुरुआत में ये जिंदगी में थे ही नही।

ऐसा लगता है कि ये तो जमाने से हमारे साथ ही थे।

ऐसा ही एक चेहरा है मेरे लिये प्रकाश सिंह अर्श...

२८ अप्रैल, २००९ को एक पोस्ट लगाने के बाद इनबॉक्स में एक मैसेज मिलता है कि मुझे आप से कुछ चर्चा करनी है। ग़ज़ल के बारे में चर्चा और हमसे...?? हम इसी बात से खुश हो जाते हैं। हम ने खुशी खुशी उन महाशय को तुरंत अपनी जीचैट में ऐड कर लिया। चूँकि ये साहब गुरुकुल के पन्ने पर हमेशा दिखाई देते थे, तो किसी प्रकार का खतरा भी कम ही लगा। ऐड करते ही श्रीमान आनलाइन दिखे।

me: ji arsh ji dekhiye aap ne charch ki baat kahi
aur ham hazir
pro.singh@gmail.com: namskaar kanchan ji kaisi hai aap?
me: namskaar
2:36 PM mai theek hun aap kahen
pro.singh@gmail.com: main bhi thik hun aap batayen tabiyat kaisi hai aapki ab ???
me: aaram hai
pro.singh@gmail.com: aaj bahot dino baad aapki gazal padhee bahot hi achhe lagi
me: jee 2:37 PM aakhiri she'r ke kya kahane
me: thanks
pro.singh@gmail.com: bahot hi khubsurati se likhaa hai aapne
me: bahut bahut shukriya

और इसके बाद वो श्रीमान आ गये, उस बिंदु पर जिससे हम सबसे ज्यादा डरते हैं। मतलब ग़ज़ल के व्याकरण संबंधी चर्चा पर...! अब हम वैसे भी काफी दिन से ग़ज़ल कक्षा में नाम लिखाये थे। (ये अलग बात है कि जिस कक्षा में लिखाये थे, आज भी उसी कक्षा में है), तो कैसे कहते शूरू में ही कि हमको कुछ आता जाता नही है भईया। तो हमने क्या किया कि गुरू जी की इस्लाह की हुई ग़ज़ल जस की तस कॉपी पेस्ट कर दी और मन में सोचा "लो बख्शो भईया"

लेकिन जो बख्श दे वो प्रकाश सिंह अर्श कहाँ ?

किसी दूसरे दिन की चैट के अनुसार इनकी स्वीकारोक्ति

  4:30 PM me: :) achanak jaan pad gaya tha sorry boos ne bula liya tha
pro.singh@gmail.com: nahi nahi main maaf nahi karta

तो चर्चा आगे जाने की जिद पर थी।

pro.singh@gmail.com: ya hamse ke jagah pe hamsaa hoga ????
plz aap dekhe meri baaton ko anyathaa naa le aap its my reuest???????

me: are nahi bhai
  2:47 PM aap to Gurubhai ho hamare aap ki baato ka bura kya manana

  pro.singh@gmail.com: chalo isi bahaane mujhe ek bahan mil gayee guru bahan badhaayee is baat ke liye pahale to

me: aap ko bhi aur mujhe bhi
  2:51 PM aur jahan tak tumhare proffile se pata lagta hai, ki tum chhote bhi ho to finally turant se aap chhod rahi hun ( असल में बालक ने उस समय अपनी प्रोफाइल पर उम्र २० वर्ष लिख रखी थी और फोटो भी उसी हिसाब की :) I mean छोटा तो है ही, लेकिन उतना भी नही जितना मैं समझ रही थी ;) )

pro.singh@gmail.com: ha ha ha
  thik hai
bahano ke ye hak hai aapko
me: vaise bhi chhoto ko bahut der aap kah nahi paati
pro.singh@gmail.com: main to aap hi kahunga
me: aur kya tumhe to kahana h hai aap :)
pro.singh@gmail.com: jo hukam
bahan bante hi hukum chalaane lage
  jaise aagaya
2:54 PM ha ha ah a

3:00 PM me: hmm

pro.singh@gmail.com: aakhiri sher bahot hi kamaal ka hai
3:08 PM jitni taarif karun kam hai
aapse pahali baar baat ho rahi hai achha lag rahaa hai
isi bahaane mmujhe ek bahan milgayee

me: jab ki us sher ko lekar mujhe bahut doubt tha
3:09 PM pro.singh@gmail.com: nahi nahi bahot hi clear hai aur utnaa hi mukammal

me: mujhe lag raha tha, ki aadhi matra ki galati hogi
ye jab bhi tumhe tumhare shabd aata hai mai confuse ho jaati hun

pro.singh@gmail.com: tumhaare pe aapka doubt tha?
ha ha ha
nahi nahi aisi koi baat nahi hai

3:10 PM me: mai ghazal vazal likh nahi paati hun na itani mehanat kar pati hun

pro.singh@gmail.com: ha ha ha magar jab likhti hai to kamaal ka
  me: itani mathapachchi
pro.singh@gmail.com: yahi uche logon ki pahchaan hoti hai

me: ha ha
3:11 PM pro.singhgmail.com: aur kya sahi to kah rahaa hun
me: tum me bhi chhote bhi ke gun aa hi gaye turant
pro.singh@gmail.com: wo kaise?
kaisa gun ?
3:12 PM me: are yahi turant bahan ki taarefo ke pul bandhane lage
pro.singh@gmail.com: ha ha ha
bahan jee ko pata rahaa hun taaki kuchh sikh sakun
ha ha ha
  3:14 PM me: ghalat jagah bayaana liya hai
bahan khud hi abhi nausikhiya hai :)

और इस तरह सफर में जुड़ता है एक और मुसाफिर ...!

ऐसा मुसाफिर जो मेरा छोटा भाई बन के जुड़ा मुझसे।

इसके बाद तो मीठी मीठी बातें... पिछला रिकॉर्ड देखती हूँ तो पाती हूँ कि कभी मैं भी नाराज़ हुआ करती थी। (अब तो जमाने बीत गये.... खाली अगला ही नाराज़ होता है)

अप्रैल से शुरू हुई पहचान के बाद १६ जून को भाई साहब का पहला फोन प्राप्त हुआ। २० साल के लड़के जैसी आवाज़ तो लगी नही। आवाज़ लगी एक मैच्योर व्यक्ति की...! अच्छी या बुरी ये तो समझ नही पाई, ये समझ में आया कि मैं जिससे बात करती हूँ, उसकी आवाज़ तो नही ही है ये, तो मैने कहा कि मै अभी तुम्हारी आवाज़ और तुम्हे को-रिलेट नही कर पा रही, इसलिये फिर बात करती हूँ।

बीच में वीर जी की मुलाकात भी हुई इन साहब से, तो उन्होने बताया कि वो गीत बहुत अच्छा गाता है और इन्ही बातों में जाने कैसे हँसी हँसी में ये बात होने लगी कि इसकी तो शादी मुझे ही करानी है।

 मैं हमेशा हँस कर कहती कि तलाश रही हूँ।

मेरे जन्मदिन पर मेरी ग़ज़ल को आवाज़ दे कर चौंका दिया था इसने।

और फिर बातों बातों मे पता चला कि बहुत शौक था कि एक बहन हो दोस्त जैसी, मिली बहुत मगर निभा ना पाईं....!

अरे हम तो एक बार जुड़ गये तो फेवीक्विक की तरह चमड़ी निकल कर ही छूटते हैं और हमने पहली राखी भेजी। कहीं छूट के भाग ना जाये, इसके लिये एक नाज़ुक मगर मजबूत बंधन....!!

०४ सितंबर को रूबरू पहली मुलाकात हुई .

फिर जाने कैसे और कब सारी बातें नोंक झोंक में बदल गयीं।

पहले मुझे शिकायत थी कि यार ये बंदा कुछ ज्यादा ही मीठा बोलता है और अब .... कुछ ज्यादा ही हार्श है....!!

दुनिया भर के सामने सीधा सादा। मितभाषी....! कूल....!

जब मेरे सामने होता है, तब पता नही कितना टेढ़ा मेढ़ा...! मुझे एक शब्द ना बोलने देने वाला... गर्म मिजाज़...!

हाँ ..! एक बात खास है। पब्लिक के सामने चाहे जितना बोल लो, वो एक भी जवाब नही देता। लेकिन याद सब रखता है। जब आमने सामने आप और वो हों तब तो समझो आपकी खैर नही। नही सुननी, तो नही सुननी....!

चुप रहने के सिवाय और कोई चारा नही बचता हम जैसों के सामने।

भाई साहब को शिकायत कि मैं खुश हूँ कि तूने मुझे हाशिये पर रखा है....

और मुझे लगता है कि पूरे पन्ने पर हाशिया ही हाशिया रह गया है.....!! :) :) :)

जाने कैसे ऐसा हुआ कि मिलने के भी बहाने मिलने लगे। कभी सिद्धार्थनगर, कभी सीहोर, कभी कानपुर....!!


और फिर हम सपरिवार जुड़ गये।
माँ ... कितने प्यार से कहती है " जब भोजपुरी मे बतियाएलू, तो सचिये लागेला कि हमार आपन बेटी बिया जेसे मन के सऽब सुख दुख कहि सकेनी।"

" अ त आपन बेटी आपन ना लागी तो केकर लागी माँ।" मैं इठला के जवाब दे देती हूँ।

अधिकार पूर्वक माँ का कथन " ए कंचन ! तूही ना देखा अपने भाई के पसंद के बेटी... एतना फोटू आइल बा, एतना जने दुआर छेकले बाड़ें,बकिर तोरे भाई के कउनो बिटीये ना पसंद आवेले।"

" रऊआ चिंता काहें करतानि माँ ! हम कहतानी ना कि हम खोजि के लाएब।" मैं माँ को धीरज बँधाती।

मगर असल में खुद भी नही पता था कि ये वादा पूरा कैसे करना है।

और देखिये ना जैसे सब कुछ लिखा पढ़ा था, पहले से। शायद ये बातें हो ही रहीं थीं इसलिेये कि माध्यम कहीं न कहीं बनना था।

रंजना दीदी से बात होती है, तो बात चलती है ननद की बेटी की। सुघर है, सुशील है, पढ़ी लिखी है... अच्छा लड़का चाहिये।

"एक तो अर्श ही है दीदी।"

"डिटेल...??"

"मै भेजती हूँ।"

और बात पर बात बनती जाती है। चट मँगनी पट ब्याह जैसा कुछ....!! २२ साल में पहली बार कोई फंक्शन अटेंड किया ७ फरवरी को वर्ना इस तारीख पर उत्सव नही मनाती। वो उत्सव था , प्रकाश की सगाई का


और बस आज निकल रही हूँ, उसके साथ, उसकी दुल्हनियाँ लेने...! आप जब ये पोस्ट पढ़ें, तब शायद मैं, अपने
 भाई की शादी के गीत गा रही होऊँ....!!




तो जम के आशीष दीजिये...मन से आशीष दीजिये....!!

  कि " दूल्हा दूल्हन की जोड़ी सलामत रहे.....!!" हम तो चले .....!  

Thursday, April 5, 2012

चुवत अन्हरवे अजोर

लगभग १० माह..... और गवाक्ष के कपाट खुले ही नही.....इस वर्ष की शुरुआत के बाद चौथाई से अधिक वर्ष भी बीत गया.... बस इसलिये कि खिड़कियाँ खोलूँ, तो शायद कुछ ताज़ी हवा मिले, कुछ राहत हो दम घुटते माहौल से....

जाते हुए चैत को विदा देते हुए....




चुवत अन्हरवे अजोर ओ रामा, चईत महिनवा,

अमवा मउरि गईलें, नेहिया बउरि गईले,
देहिया टुटेला पोरे पोर हो रामा,
चईत महिनवा...

चुवत अन्हरवे अजोर......

उड़ि उड़ि मनवा, छुएला असमनवा,
बन्हला पिरितिया के डोर हो रामा,
चईत महिनवा...
चुवत अन्हरवे अजोर......

अँखिया न फर धरे, निंदिया उचटि पड़े,
पगिया भईल लरकोर हो रामा,
चईत महिनवा...