नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है। माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है...!
Tuesday, April 28, 2009
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।
जहाँ तक याद है कि पिछले डेढ़ साल से गुरु जी की गज़ल क्लासेज़ ले रही हूँ, लेकिन सिवाय तहरी मुशायरों या होमवर्क के कभी भी गज़ल लिखने की खुद से हिम्मत नही पड़ी। हाँ ये ज़रूर है कि गज़ल समझ के जो लिखती थी उसे भी लिखना छोड़ दिया, क्योंकि पहले तो उतना ही जानती थी अब जानबूझ कर गलती करते नही बनता।
मगर पिछले दिनो थोड़ी अस्वस्थता में जब घर में रही तो हिमाक़त की और कल गुरू जी के पास भेजी तो पास भी हो गई। अब इसे मेरी पहली मुकम्मल गज़ल समझें। लीजिये आपसे भी बाँटती हूँ--
जैसा कि गुरू जी ने मेल में बताया ये
बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफाएलुन-फएलातुन-मुफाएलुन-फएलनु/फालुन
और मात्रा है 1212 1122 1212 112
कहीं कहीं अंत में ११२ की जगह २२ हुआ है, मैने गुरु जी से पूँछा हे कि क्या ये गज़ल का दोष माना जाता है जैसे ही उत्तर आया तुरंत आप लोगो से बाँटूगी, फिलहाल तो पढ़िये
ज़मीन छोड़ चले आसमान पा न सके
परिंदे हमसे कोई घोसला बना ना सके।
फक़त नसीब नही था कहीं पे हम भी थे,
हमी चराग तले का निशान पा न सके।
वज़ह हवा हि बता दूँ मगर ये मालुम है,
असल में पंख मिरे थि कि जो उड़ा ना सके।
तुम्हारे साथ बहुत दूर तलक जाना था,
तुम्हारे तेज़ क़दम से क़दम मिला न सके।
Saturday, April 25, 2009
स्वागत करें प्रेरणा का
यह पोस्ट मुझे पिछले हफ्ते ही दे देनी थी और मन की गति देखूँ तो अभी भी नही।
कुछ पारिवारिक और मानसिक उलझनो के चलते ना दे सकी। फिलहाल ब्लॉग परिवार ऐसा परिवार है जिसकी याद अब अपने अपनो के साथ ही आती है और इस बार भी आई और जितनी मदद हो सकती थी मिली भी। डॉ० अनुराग से, नीरज जी और अनीता दी से। चूँकि मेडिकल प्रॉबलम थी, तो अनुराग जी से सबसे अधिक और फिर कहना पड़ा ये डॉ० चमड़े के नही दिल के ही हैं, बल्कि भावनाओं के। समस्या लंबी है समाधान शायद देर से हो..!
खैर आप स्वागत कीजिये इस http://ajeetfirdausi.blogspot.com/का जिसके कर्ता धर्ता हैं श्री अजीत श्रीवास्तव (अजित नही लिखूँगी, क्योंकि वे स्वयं ee का प्रयोग करते हैं।)
अजीत जी को मैं जानती थी आर्कुट के माध्यम से। तब, जब ये जर्मनी में थे किसी स्कॉलरशिप के लिये। इनके मित्र अनुज वर्मा ने मुझे सर्फिग में कहीं पाया और वहीं से शायद इन्हे भी मेरा पता चला। अजीत जी का पहला ही स्क्रैप इनकी संवेदनशीलता का परिचायक था। मैने ढूँढ़ने की कोशिश की मगर शायद किसी दिन सफाई में मैने वो हटा दिया होगा। अजीत जी से स्क्रैप्स का आदान प्रदान कभी भी नियमित नही रहा, मगर जितना रहा उस से ये लगा कि अत्यंत संवेदनशील एवं विनम्र शख्स हैं (जैसे मैं, जिन्हे इर्द गिर्द के लोग ही समझ सकते हैं)
कभी कभार इनकी रचनाओं से अवगत होने पर मैने इन्हे ब्लॉग बनाने का सुझाव दिया। मगर ये अपनी पढ़ाई का बहाना बना कर टालते रहे।
लगेहाथ ये भी बता दूँ कि सुल्तानपुर की सरज़मी पर जन्मे अजीत जी ने एन०आई०टी०. रुड़की से बी०टेक० आई०आई०टी०, कानपुर से एम०टेक० किया है और इस समय आई०आइ०टी०,चेन्नई से रिसर्च कर रहे हैं। जर्मनी में ये स्कॉलरशिप के लिये गये थे
अजीत जी मेरे जैसे लोगो में नही है, जिन्होने पहले ब्लॉग बनाया और फिर ब्लॉगजगत को जाना। ये लगभग डेढ़ साल से ब्लॉग जगत को जान रहे हैं और टिप्पणी भी करते हैं कभी कभी।
और तो और दिग्गजों की पोस्ट पर छद्म नाम से अधिक सच वाली टिप्पणी करने वाले इन सज्जन के कारण विवाद भी हो चुके हैं। अब नाम नही बताऊँगी अन्यथा वो लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जायेंगे :) :)।
खैर अब ज्याद कुछ मैं नही कहूँगी...कहेंगे अजीत जी के लेख...! आप बस उत्साहवर्द्धन कीजिये....! और पहुँचिये प्रेरणा पर
कुछ पारिवारिक और मानसिक उलझनो के चलते ना दे सकी। फिलहाल ब्लॉग परिवार ऐसा परिवार है जिसकी याद अब अपने अपनो के साथ ही आती है और इस बार भी आई और जितनी मदद हो सकती थी मिली भी। डॉ० अनुराग से, नीरज जी और अनीता दी से। चूँकि मेडिकल प्रॉबलम थी, तो अनुराग जी से सबसे अधिक और फिर कहना पड़ा ये डॉ० चमड़े के नही दिल के ही हैं, बल्कि भावनाओं के। समस्या लंबी है समाधान शायद देर से हो..!
खैर आप स्वागत कीजिये इस http://ajeetfirdausi.blogspot.com/का जिसके कर्ता धर्ता हैं श्री अजीत श्रीवास्तव (अजित नही लिखूँगी, क्योंकि वे स्वयं ee का प्रयोग करते हैं।)
अजीत जी को मैं जानती थी आर्कुट के माध्यम से। तब, जब ये जर्मनी में थे किसी स्कॉलरशिप के लिये। इनके मित्र अनुज वर्मा ने मुझे सर्फिग में कहीं पाया और वहीं से शायद इन्हे भी मेरा पता चला। अजीत जी का पहला ही स्क्रैप इनकी संवेदनशीलता का परिचायक था। मैने ढूँढ़ने की कोशिश की मगर शायद किसी दिन सफाई में मैने वो हटा दिया होगा। अजीत जी से स्क्रैप्स का आदान प्रदान कभी भी नियमित नही रहा, मगर जितना रहा उस से ये लगा कि अत्यंत संवेदनशील एवं विनम्र शख्स हैं (जैसे मैं, जिन्हे इर्द गिर्द के लोग ही समझ सकते हैं)
कभी कभार इनकी रचनाओं से अवगत होने पर मैने इन्हे ब्लॉग बनाने का सुझाव दिया। मगर ये अपनी पढ़ाई का बहाना बना कर टालते रहे।
लगेहाथ ये भी बता दूँ कि सुल्तानपुर की सरज़मी पर जन्मे अजीत जी ने एन०आई०टी०. रुड़की से बी०टेक० आई०आई०टी०, कानपुर से एम०टेक० किया है और इस समय आई०आइ०टी०,चेन्नई से रिसर्च कर रहे हैं। जर्मनी में ये स्कॉलरशिप के लिये गये थे
अजीत जी मेरे जैसे लोगो में नही है, जिन्होने पहले ब्लॉग बनाया और फिर ब्लॉगजगत को जाना। ये लगभग डेढ़ साल से ब्लॉग जगत को जान रहे हैं और टिप्पणी भी करते हैं कभी कभी।
और तो और दिग्गजों की पोस्ट पर छद्म नाम से अधिक सच वाली टिप्पणी करने वाले इन सज्जन के कारण विवाद भी हो चुके हैं। अब नाम नही बताऊँगी अन्यथा वो लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हो जायेंगे :) :)।
खैर अब ज्याद कुछ मैं नही कहूँगी...कहेंगे अजीत जी के लेख...! आप बस उत्साहवर्द्धन कीजिये....! और पहुँचिये प्रेरणा पर
Wednesday, April 15, 2009
गीत बंदिनी के -अतिम भाग
और अब बारी है मेरी पसंद की...! यूँ तो बंदिनि फिल्म के सारे ही गीत बहुत ही अच्छे हैं, अतः भाग १ और भाग दो में भी मेरी ही पसंद के गीत थे, मगर कुछ गीत होते हैं, जो आपकी जिंदगी का हिस्सा होते हैं। उन्हे कितनी ही बार गुनगुना कर आप अकेले में रोते/हँसते है और सुकूँ पाते हैं। आज के तीनो गीत मेरे लिये उन्ही गीतों मे हैं।
सबसे पहले ज़िक्र करूँगी उस गीत का जिसने मुझे कितनी ही बार रुलाया है और अब भी अगर अकेले में मन से सुन लिया जाता है, तो रुला ही देता है। हमेशा के लिये छोड़ के जाने वाले से एक गुहार कि " हो सके तो लौट के आना.....!" एस०डी० वर्मन के संगीत और शैलेंद्र के शब्दों को जिस गीत में आवाज़ दी है मुकेश ने..... सुनिये
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ये हाट तू ये बाट कहीं भूल ना जाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
बचपन के तेरे मीत तेरे संग के सहारे,
ढूढ़ेंगे तुझे गली गली सब ये गम के मारे,
ढूँढ़ेगी हर इक आँख कल तेरा ठिकाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
फिर जाये जो उस पार कभी लौट के ना आये,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना!
और इसके बाद वो गीत जिसकी आवाज़ ही में मुझे बड़ी कशिश सी लगती है। एस०डी० वर्मन साहब की आवाज़, वो आवाज़ है, जिसमें मुझे रूहानियत महसूस होती है उनके सारे गीत मुझे बहुत अलग तरह से पसंद आते हैं। और ये गीत जिसमे एक ऐसी औरत की पश-ओ-पेश दिखायी गयी है जो कि बंदिनी पिया की है और संगिनी साजन की ...! इस का हर शब्द मुझे छूता है
मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना
या
गुन तो ना था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना
या
मुझे आज की विदा का मर के भी रहता इंतज़ार
या
मेरा खींचती है आँचल, मन मीत तेरी हर पिकार
सारी पंक्तियाँ एक दूसरे से जुड़ी हो कर भी अलग अलग भाती हैं, और हर पंक्ति में इतना दम कि आँख गीली कर दे। और साथ ही मेरे प्रिय कवि कबीर का आत्मा परमात्मा के मिलन की छटपटाहट को भी अपरोक्ष रूप से इस गीत में महसूस किया जा सकता है।
ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मत खेऽऽल, मत खेऽऽल
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मैं बंदिनी पिया की मैं संगिनी हूँ साजन की,
मेरा खींचती है आँचल, मेरा खींचती है आँचल,
मनमीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
और अंत में वो गीत जिसे मैं कितनी बार सुनती थी गुनती थी...सुनती हूँ, गुनती हूँ...!
वो गीत जो पिता के घर जाने को बेचैन एक ऐसी लड़की की पीड़ा है, जिसे अपना बचपन नही भूलता। फिल्म में चक्की पीसती ये महिला और उस पर लता जी का ये स्वर..द्रवित कर देता है।
बाबूजी के जाने के बाद, क्यारी के बगल में बैठ कर उनके लगाये फूलों को देखती हुई, इसी गीत की धुन पर मैं गुनगुनाती थी
कितने भये दिन तुम को ना देखा
आ जाओ बेटी बुलाये रे,
पहले तो बाबुल इतने निरदयी ना थे,
कहाँ गई वो ममता हाय रे
और टेप रिकॉर्डे पर रिवर्स कर कर के एख लाईन बार बार सुनती थी
बाबुल थी मैं तेरी नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे
बीते रे जुग कोई, चिठिया ना पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
सुनिये...!
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दीजो संदेसवा भिजाय रे।
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
अमवा तले फिर से झूले पड़ेगे,
रिमझिम पड़ेगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल,
सावन की ठंडी बहारे,
छलके नयन, मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब आये याद रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे,
बीते रे जुग कोई चिठिया न पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
सबसे पहले ज़िक्र करूँगी उस गीत का जिसने मुझे कितनी ही बार रुलाया है और अब भी अगर अकेले में मन से सुन लिया जाता है, तो रुला ही देता है। हमेशा के लिये छोड़ के जाने वाले से एक गुहार कि " हो सके तो लौट के आना.....!" एस०डी० वर्मन के संगीत और शैलेंद्र के शब्दों को जिस गीत में आवाज़ दी है मुकेश ने..... सुनिये
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
ये हाट तू ये बाट कहीं भूल ना जाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
बचपन के तेरे मीत तेरे संग के सहारे,
ढूढ़ेंगे तुझे गली गली सब ये गम के मारे,
ढूँढ़ेगी हर इक आँख कल तेरा ठिकाना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
दे दे के ये आवाज़ कोई हर घड़ी बुलाये,
फिर जाये जो उस पार कभी लौट के ना आये,
है भेद ये कैसा कोई कुछ तो बताना
ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना!
और इसके बाद वो गीत जिसकी आवाज़ ही में मुझे बड़ी कशिश सी लगती है। एस०डी० वर्मन साहब की आवाज़, वो आवाज़ है, जिसमें मुझे रूहानियत महसूस होती है उनके सारे गीत मुझे बहुत अलग तरह से पसंद आते हैं। और ये गीत जिसमे एक ऐसी औरत की पश-ओ-पेश दिखायी गयी है जो कि बंदिनी पिया की है और संगिनी साजन की ...! इस का हर शब्द मुझे छूता है
मन की किताब से तू मेरा नाम ही मिटा देना
या
गुन तो ना था कोई भी अवगुन मेरे भुला देना
या
मुझे आज की विदा का मर के भी रहता इंतज़ार
या
मेरा खींचती है आँचल, मन मीत तेरी हर पिकार
सारी पंक्तियाँ एक दूसरे से जुड़ी हो कर भी अलग अलग भाती हैं, और हर पंक्ति में इतना दम कि आँख गीली कर दे। और साथ ही मेरे प्रिय कवि कबीर का आत्मा परमात्मा के मिलन की छटपटाहट को भी अपरोक्ष रूप से इस गीत में महसूस किया जा सकता है।
ओ रे माँझी, ओ रे माँझी, ओ मेरे माँझी,
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मत खेऽऽल, मत खेऽऽल
मत खेल जल जायेगी, कहती है आग मेरे मन की,
मैं बंदिनी पिया की मैं संगिनी हूँ साजन की,
मेरा खींचती है आँचल, मेरा खींचती है आँचल,
मनमीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन है उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माँझी, अबकी बार, ले चल पार
ले चल पार
मेरे साजन है उस पार
और अंत में वो गीत जिसे मैं कितनी बार सुनती थी गुनती थी...सुनती हूँ, गुनती हूँ...!
वो गीत जो पिता के घर जाने को बेचैन एक ऐसी लड़की की पीड़ा है, जिसे अपना बचपन नही भूलता। फिल्म में चक्की पीसती ये महिला और उस पर लता जी का ये स्वर..द्रवित कर देता है।
बाबूजी के जाने के बाद, क्यारी के बगल में बैठ कर उनके लगाये फूलों को देखती हुई, इसी गीत की धुन पर मैं गुनगुनाती थी
कितने भये दिन तुम को ना देखा
आ जाओ बेटी बुलाये रे,
पहले तो बाबुल इतने निरदयी ना थे,
कहाँ गई वो ममता हाय रे
और टेप रिकॉर्डे पर रिवर्स कर कर के एख लाईन बार बार सुनती थी
बाबुल थी मैं तेरी नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे
बीते रे जुग कोई, चिठिया ना पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
सुनिये...!
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
लौटेंगी जब मेरे बचपन की सखियाँ
दीजो संदेसवा भिजाय रे।
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
अमवा तले फिर से झूले पड़ेगे,
रिमझिम पड़ेगी फुहारें
लौटेंगी फिर तेरे आँगन में बाबुल,
सावन की ठंडी बहारे,
छलके नयन, मोरा कसके रे जियरा
बचपन की जब आये याद रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
बैरन जवानी ने छीने खिलौने और मेरी गुड़िया चुराई
बाबुल थी मैं तेरे नाजों की पाली,
फिर क्यों हुई मैं पराई रे,
बीते रे जुग कोई चिठिया न पतिया,
ना कोई नैहर से आये रे
अब के बरस भेज भईया को बाबुल
सावन में लीजो बुलाय रे
Wednesday, April 8, 2009
गीत बंदिनी के - भाग २
बात निकली है, तो फिर दूर तलक पहुँची है....!
अब देखिये ना मुफलिस जी की पसंद के दो गीतों को ले कर चली बात जब मेरे तक पहुँची तो मैने उसमें दो गीत और बढ़ाने की सोच ली और जब मैने आप लोगो के साथ पहले दो गीत बाँटे तो आप लोगो ने दो गीत और याद दिला दिये।
पहला गीत याद दिलाया हमारे गज़ल गुरु श्री पंकज सुबीर जी ने। गुरु की बात तो यूँ भी टाली नही जा सकती। फिर वाक़ई मुझे भी ये याद आया कि सूप चलाते हुए गाये गये इस गीत की खास अदा वही थी। याद आया गाँव मे रखा एक बड़ा सा लट्ठा जो सी-सॉ की तरह प्रयोग होता था धान कूटने के लिये। और माँ बताती है कि जब ये कूटने,पीसने,बीनने,पछोरने का काम होता था तो गाँव की महिलाए इकट्ठी हो कर गीत गाती रहती थी। जिससे काम भी हो जाता था और मनोरंजन भी। इसीलिये तो हमारे लोक संगीत में रोज की छोटी संवेदानाओं से ले कर हँसी मजाक तक मिल जाते हैं।
तो पहले सुनते हैं यही गीत जिसे लिखा है शैलेंद्र ने और आवाज़ है अपनी आशा जी की जो इस तरह के मस्त गीतों को और भी जीवंत कर देती हैं।
दो नैनन के मिलन को दो नैना अकुलाये
जब नैना हो सामने तो नैना झुक जायें
ओ पंछी प्यारे, साँझ सकारे
बोले तू कौन सी बोली
बता रे बोले तू कौन स बोली
मैं तो पंछी पिंजरे की मैना
पंख मेरे बेकार
बीच हमारे सात रे सागर
(कैसे चलूँ उस पार) -2
ओ पंछी प्यारे, साँझ सकारे
बोले तू कौन सी बोली
बता रे बोले तू कौन स बोली
फागुन महिना फूली बगिया
आम झरे अमराई
मैं खिड़की से छुप छुप देखूँ
रितु बसंत की आई
ओ पंछी प्यारे, साँझ सकारे
बोले तू कौन सी बोली
बता रे बोले तू कौन स बोली
दूसरा गीत याद दिलाने की आभारी हूँ मैं राज सिंह जी की जिसने मेरी पिछली पोस्ट पर ये टिप्पणी लिखी थी
"बंदिनी जैसी परिपूर्ण फिल्म मुश्किल से कहीं और है। बिमल दा उसके अतिम दौर में बेड पर ही थे और मौत से जूझ रहे थे। फिर भी यह फिल्म मन पर अटल है। इसके सभी गाने मील के पत्थर हैं और फिल्म विधा के हिसाब से सिचुएशन पर सौ प्रतिशत सही।
इसके सभी गीतों की चर्चा और उन्हे सुनने का आग्रह हो चुका है, बस एक गीत को छोड़ कर
"मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
जनमभुमि के काम आया मैं बडे भाग्य हैं मेरे।"
ये मन्ना डे ने गाया था शैलेंद्र जी का लिखा, एक क्रांतिकारी फाँसी के फंदे की तरफ बढ़ते हुए गा रहा है।
इस के साथ और भी एक घटना जुड़ी है। उसी साल के फिल्म फेयर अवार्ड के जलसे की। उसी साल गुमराह भी रिलीज़ हुई थी। उसी के गाने "चलो एक बार फिर से अजनबी.... " को सर्वश्रेष्ठ गीत फिल्मफेयर अवार्ड मिला "साहिर लुधियानवी" को। साहिर ने कहा कि " उन्हे खुशी होती, लेकिन इस साल नही ! इस साल इसका हक़ सिर्फ मत रो माता को हो सकता है"...... और शैलेन्द्र को भरे हाल में गले लगा प्रतीक चिह्न थमा दिया था। ऐसे थे वो लोग।
राज जी की रोमन टिप्पणी जस की तस देवनागरी में आपके सम्मुख है। इसके आगे लिखने को और रह ही क्या जाता है। तो बस सुनिये
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
जनमभुमि के काम आया मैं बडे भाग्य हैं मेरे
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
मत रो
ओऽऽऽऽ हँस कर मुझको आज विदा कर
जनम सफल हो मेरा
ओऽऽऽऽ हँस कर मुझको आज विदा कर
जनम सफल हो मेरा
रोता जग में आया हँसता चला ये बालक तेरा
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
मत रो
धूल मेरी जिस जगह तेरी मिट्टी से मिल जायेगी
होऽऽऽऽऽ
धूल मेरी जिस जगह तेरी मिट्टी से मिल जायेगी
सौ सौ लाल गुलाबों की फुलबगिया लायेगी
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
मत रो
कल मै नही रहूँगा लेकिन जब होगा अँधियारा
होऽऽऽऽऽ
कल मै नही रहूँगा लेकिन जब होगा अँधियारा
तारों में तू देखेगी हँसता एक नया सितारा
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
मत रो
फिर जनमूगा उस दिन जब आजाद बहेगी गंगा
होऽऽऽऽऽ
फिर जनमूगा उस दिन जब आजाद बहेगी गंगा
उन्नत भाल हिमालय पर जब लहरायेगा तिरंगा
मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे
मत रो
Wednesday, April 1, 2009
गीत बंदिनी के-भाग १
आज की पोस्ट है मुफलिस जी के नाम..! वो मुफलिस जो असल मे लोगो पैसे देने का काम करते हैं। मतलब ये बैंक में सर्विस करते हैं और यहाँ खुद को मुफलिस बताते हैं..! खैर ये तो उनका बड़प्पन है।
रहिमन हीरा कब कहे लाख टका मोरा मोल
तो इन मुफलिस जी से यूँ तो ब्लॉग जगत में इनकी रचनाओं से ही परिचय है, मगर एक दिन इनकी बहुत प्यारी सी पोस्ट आई, जिसमें इन्होने कुछ गीत सुनवाने की बात कही। हम झट गाना ढूँढ़ लाये। साथ ही याद आये इन गानो से जुड़ी बातें।
बंदिनी फिल्म शायद १९६३ में रिलीज़ हुई थी। (शायद इस लिये लगा देती हूँ कि इन सब जानकारियों का आधार गूगल देवता ही हैं, अब जो वो बतायें वही सच)....! स्वनामधन्य निदेशक विमल रॉय द्वारा निदेशित यह फिल्म मैने देखी थी दूरदर्शन पर, जब सभी काम धाम छोड़ कर चटाई बिछा कर पूरा घर फिल्म देखता था। भाभियाँ सब्जी तैयार कर लेती थीं और जब साढ़े सात बजे न्यूज़ आती थी तब आँटा सान कर दाल छौंकने जैसे बचे काम करती थीं। उस समय देखी गई इस फिल्म की बड़ी हलकी सी छवि है अब। शायद इतनी अच्छी फिल्म को समझने का बौद्धिक स्तर भी नही था। मगर ये याद है कि मेरे बगल में रहने वाले विनोद भईया इस फिल्म को बड़े ध्यान से देख रहे थे और ओ रे माँझी गीत का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। बाद में इसी फिल्म के गीत जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे मैने विनोद भईया की पत्नी से ही सुना। जब वो हल्के से घूँघट के साथ बीच बीच में अपनी मुस्कुराहट को दबाते हुए, कनखियों से इधर उधर देखते हुए ये गीत गा रहीं थी, वो छवि अभी भी मुझे इस गीत के बजते ही दिखाई देने लगती है। और दूसरा गीत जो मुफलिस जी ने सुनना चाहा है, वो है मेरा गोरा रंग लइ ले..! ये गाना जितना अच्छा सुनने में लगता है उतना ही अच्छा देखने में। लजाती, बलखाती नूतन ने अपने हाव भाव से मन मोह लिया है और बहुत कुछ जो गीत कह रहा है उससे भी अतिरिक्त कह गईं है। इस फिल्म के सभी गीतों को संगीत दिया था स्व० श्री एस०डी० वर्मनने, जिनका संगीत तो सभी को पसंद ही है, मगर मुझे उनकी आवाज़ भी बड़ी अच्छी लगती है। उनका गाया शायद ही कोई गीत हो जो मुझे पसंद ना हो। इस फिल्म के गीतकार के विषय में अभी अभी मेरे ब्लॉगर मित्र किशोर जी ने बताया कि पहले गीत के गीतकार गुलज़ार और दूसरे के शैलेंद्र जी हैं।
तो लीजिये सुनिये आज मुफलिस जी की पसंद के ये दो गीत और इंतज़ार कीजिये इसी फिल्म के मेरी पसंद के दो गीतों का, जो कि आयेंगे अगली पोस्ट में
पहले सुनिये लता मंगेशकर की आवाज़ में ये गीत
|
मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे
छुप जाऊँगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे
एक लाज़ रोके पईयाँ, एक मोह रोके बईयाँ
जाऊँ किधर ना जानू, हमका कोई बताई दे
हो ऽऽऽऽऽऽऽऽ
मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे
छुप जाऊँगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे
बदली हटा के चंदा, चुप के से झाँके चंदा
तोहे राहु लागे बैरी मुसकाए तू लजाई के
हो ऽऽऽऽऽऽऽऽ
मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे
छुप जाऊँगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे
कुछ खो दिया है पाइ के, कुछ पा लिया गँवाई के
कहाँ ले चला है मनवा मोहे बाँवरी बनाइ के
होऽऽऽऽऽऽऽ
मोरा गोरा रंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे
छुप जाऊँगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे
और लता जी की ही आवाज़ में ये दूसरा गीत, जो अब भी रात में आधी सोती जागी नींद में जब रेडियो पर बजता है, तो नींद अच्छी आती है।
जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, मेरे रंग गये साँझ सकारे
तू तो बिन कहे जाने जी की बतियाँ, तोसे मिलना ही जुलम भवा रे
देखी साँवली सूरत ये नैना जुड़ाये,
देखी साँवली सूरत
तेरी छब देखी जब से रे
तेरी छब देखी जब से रे
नैना जुड़ाये गये दिन कजरारे कजरारे
जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, मेरे रंग गये साँझ सकारे
जा के पनघट पे बैठूँ मैं राधा दीवानी
जा के पनघट पे बैठूँ
बिना जल लिये चली आऊँ राधा दीवानी
मोहे अजब ये रोग लगा रे
जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, मेरे रंग गये साँझ सकारे
मीठी मीठी अगन ये सह ये
मीठी मीठी अगन
मै तो सह ना सकूँ रे
मैं तो छुई मुई अबला रे सह ना सकूँगी
मोरे और निकट मत आ रे
जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे, मेरे रंग गये साँझ सकारे
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