Friday, June 1, 2012

ना खुशी, ना ग़म....

पिछले ९ सालों में उस बाज़ार के सारे भिखारी अब शक्ल से पहचाने जाने लगे हैं।

वो बूढ़े दादा..जिनके पास गुदड़ियों का एक पूरा भंडार है। जिनकी दाढ़ी भी उलझ उलझ कर गुदड़ी ही बन गई है। वो तीखे नाक नक्श वाली उनकी गाढ़ी साँवली युवा पत्नी..जो उनके साथ कंधे से कंधा मिला कर उनके धंधे में उनका पूर्ण सहयोग देती है।

" ए बहेऽन.. तुम्हारा भईया जियेगा बहेऽन.." अनसुना कर देने पर वजन डालने को वाक्य बदलती " तुम्हारा भंडार भरा रहेगा बहेऽन।" और अगर भूल से उस उपेक्षा के बीच घर का कोई हम उम्र पुरुष वर्ग, जो अंदर किसी दुकान से कुछ लेना गया हो और बाहर आ कर मुस्कुरा कर वो सामान पसंद कराने लगे तो चट से सबसे वजनी डायलॉग " तुम्हारा जोड़ा बना रहेगा बहेऽन।"

एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा लेने के बाद उसके अकाट्य वाक्य को काटते हुए जब आप कहते हैं " अरे जाइये दीदी ! नही देना है...! उसका जोड़ा अभी बहुत देर है बनने में और हमारा हमें बनाना नही।" ‌और गाड़ी स्टार्ट कर देते हैं, तो उस घर्रर्रर्र के बीच आप सुनते हैं उसकी स्पेशल बिलासपुरिया भाषा में बढ़ियाँ बढ़ियाँ शब्द जिससे आप इतना तो समझ ही लेते हैं कि ये कोई बहुत सुंदर सी गहन गाली है, जो आपके सम्मान में पढ़ी जा रही है।

थोड़े दिन में आप पाते हैं कि उसकी गोद का लाल आपसे " बहुत भूख लगी है" की दुहाई दे रहा है और वो तीखे नैन नक्श वाली अपने पति से तिहाई उम्र वाली नारी पूरे दिनो से है और अपने पेट की तरफ इशारा कर के आप से कहती है " ए बहेऽन... तेरा लाल जियेगा बहेऽन..दो दिन से कुछ भी नही खाया।"

आपका कसैला मुँह कहना चाहेगा, "जब खाने को नही है, तो ये रेल गाड़ी के डिब्बे..." मगर आपको याद ही हैं वो गहन शब्द.. तो आप या तो अपनी बाईक स्टार्ट कर जगह बदल देते हैं या फिर अपने देखने की दिशा....!!

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परसो उसकी शादी की पहली वर्षगाँठ है, मैं दोनो को पैसे देती हूँ, अपने पसंद का कुछ ले आने को। वो जिद करते हैं साथ चलने को। " कपड़े पसंद करने में आसानी रहेगी।"

अंदर शॉप में वो दोनो साड़ी पसंद कर रहे हैं... शीशे के पीछे से वो लोग दूर से ही दिखा रहे हैं साड़ियाँ और फोन पर सड़क से हाँ या ना बोल रही हूँ।

पसंद साड़ियाँ पैक कराने के बीच के गैप में तटस्थ अपनी कायनेटिक पर बैठे बैठे दुनिया देख रही हूँ। शनि महाराज एक लोहे के टुकड़े और 7-8 फूलों वाली माला के साथ कई लोगो का पेट पालने में सहायक बने हुए हैं।

एक बच्चा आता है। "आंटी.." कह कर हाथ फैलाता है।
मैं ना कर के मुँह घुमा लेती हूँ।

दूसरा बच्चा दिखता है। अपने अपने पतले पतले पैरों के साथ घिसटते हुए। मन में जो करुणा उपजती है, उसका नाम शायद "सम वेदना" है। हाथ पर्स की तरफ बढ़ता है और फिर रुक जाता है, कुछ सोच कर..नही ये ठीक नही, इस प्रथा को बढ़ावा देना...

वैसे उसने कुछ माँगा भी नही है। बस बाइक के अगले पहिये से सट कर बैठ गया है। थोड़ी देर में आवाज़ आती है।

 "अंटी"
"हम्म्म ?? "
" ये गाड़ी कित्ते रुपए में मिलती है ?"
" क्यों ? खरीदना है ?"
वो हाँ में सिर हिलाता है।
" तो पढ़ाई करते हो?"
वो शरमा कर ना में सिर हिला देता है।
" तब कैसे खरीदोगे ? इसे खरीदने के लिये तो बहुत सारी किताबें पढ़नी पड़ती है। देखो तुममें हममे कोई फरक थोड़े है। बस हमने पढ़ाई की तो हम अब ऐसी गाड़ी खरीद सकते हैं और तुम भी पढ़ोगे तो तुम भी खरीद लोगे..बल्कि किसी को खरीद कर भी दे सकते हो। बताओ ? करोगे पढ़ाई ? तो हम तुम्हे पढ़ा देंगे खूब ज्याद।" मैं अपने दोनो हाथ हवा में पसार देती हूँ, कायनेटिक पर बैठे बैठे ही।
उसने फिर सिर ना में हिला दिया।
 " नही.. ? क्यों ????"
"हमाअ् मन नही लगता है।"
"तब कैसे लोगे ये गाड़ी ? बिना पढ़ाई के तो नही मिल पायेगी।"
" ले लेंगे..।"
" कैसे ?"
" एक साल तक पइसा माँगेगे औ खरच नही करेंगे.. आ जईहै गाड़ी।"
मुझे हँसी आ जाती है सकारात्मक नकारात्मकता पर।
" अरे...? पइसा माँग माँग कर तुम गाड़ी खरीद लोगे ?"
"हाँअ्" वो भोले पन के साथ गर्दन टेढ़ी कर के कहता है।
" अच्छा.. ?? चलो गाड़ी खरीद भी लोगे, तो चलाओगे कैसे ? पेट्रोल का पैसा कहाँ से आयेगा ? वो भी माँग लोगे ?"
"हाँअ्" वो अपनी उसी अदा के साथ जवाब देता है।
"अरे पेट्रोल भराने को कौन देगा तुम्हें पैसा ?"
" दे देंगे..!" वो बड़े आत्मविश्वास के साथ जवाब देता है।
" कौन देगा ?? कोई नही देगा... हम तो नही देंगे।" मैने लगभग खीझते हुए जवाब दिया।
" तुम तो पहले भी कउन दे देती थी। सब तो कहिते हैं, ऊ चरपहिया स्कूटर वाली अंटी से ना माँगना कभौ देती नही हैं लेच्चर से अगल बगल वाल्यो भड़क जाउत हैं।"

मुस्कुराने के अलावा कर भी क्या कर सकती थी मैं... मगर आज १३ दिन हो गये...इस धंधे से जुड़े समाज के मनोविज्ञान को, उनकी दिनचर्या को, उनकी सुख दुःख को समझने और समझ कर उस पर कुछ लिखने के लिये अपने को बेचैन पा रही हूँ।