Thursday, December 17, 2009

एक इंसान हूँ मैं तुम्हारी तरह


हरिश्चंद्र श्रीवास्तव जी पूर्णतः दृष्टिहीन हैं। उनकी दवा के पर्चे पर देखकर मुझे पता चला कि उनकी उम्र ७० वर्ष है, अन्यथा मुझे तो ५५ ही लगती थी। और इसके बावज़ूद वो एक दृष्टिबाधित विद्यालय चलाते हैँ। जिसमें कभी ४० विद्यार्थी पढ़ा करते थे।

कई बार सोचा था आप लोगो से उनके विषय में बाँटने को, मगर कुछ न कुछ दूसरा आ जाता तो श्रीवास्तव जी पीछे रह जाते। ये तो मुझे भी नही याद आ रहा है कि किस तरह श्रीवास्तव जी से मुलाकात हुई। पर जब से हुई तब से दिमाग से उतरे नही वो। एक दुबला पतला शरीर। जिसे अपने रास्ते पर चलने के लिये किसी और से मार्गदर्शन लेना पड़ता हो, वो शख़्स ४० ऐसे बच्चो का मार्गदर्शन कर रहा है, जो अँधेरों में भटक रहे हैं।

मोहित, आकाश, विजेंद्र, जैसे जाने कितने बच्चे, जिनमे किसी के पिता ठेला लगाते हैं, किसी के फेरी, किसी के दिहाड़ी की मज़दूरी। उनके लिये किसी काम के नही है वो बच्चे। 7-8 की तादात में की गई उनकी वंशवृद्धि का रुतबा इस एक के होने से ज़रूर बिगड़ता है, ना होने से नही। जितने बच्चे होंगे, उतने हाथ कमाई कर के लायेंगे। मगर बदकिस्मती से हुए फाउल जैसी ऐसी संतान का वो करें क्या? ये ला कर तो कुछ ना देगी मगर इसे खिलाने में एक तो बिना रिटर्न का इनवेस्टममेंट दूसरे तीमारदारी में एक और व्यक्ति को लगने से दोहरा नुकसान...! ऐसे में जो बच्चा श्रीवास्तव जी के विद्यालय में आ जाता है उसे माँ बाप वापस ना ले जाने की ही पूरी कोशिश करते हैं।

विद्यालय मे पहुँचते ही बच्चों के चेहरे पर आई खुशी को देख कर आप को लगेगा कि हम कहाँ बिना मतलब की औपचारिक मुस्कानों में फँसे है। असली मुस्कान तो यहाँ बसी है।

"दीदी अबकी आप किस चीज से आई हो।... वो बंदूक आप राहुल को दे गईं थी, अबकी हमे देना।...बहुत बहुत दिन बाद आती हैं आप...अब कब आयेंगी.. १० दिन बाद आ जायेंगी..ठीक १० दिन बाद ना...!"

और मै झूठा वादा कर के आ जाती। १० दिन बाद कौन कहे महीनो नही जा पाती। श्रीवास्तव जी ने लगभग २ साल पहले बताया कि सरकारी सहायता जो थोड़ी बहुत मिलती थी,वो बंद हो गई, नई सरकार आने पर। अब तो रेगुलर डोनेटर्स का ही सहारा है। मैं आश्चर्य में पड़ जाती, रेगुलर डोनेटर्स के बल पर इतना बड़ा जिम्मा... और डोनेटर्स कितने रेगुलर हैं ये तो मैं खुद से ही जानती हूँ।

इसके बावज़ूद विद्यालय चलता रहा। बीच बीच में श्रीवास्तव जी की खबर ले ली जाती या वो खुद दे देते। "बस गवर्नमेंट एड फिर से मिलनी शुरु हो जाये, फिर सब ठीक हो जायेगा।" श्रीवास्तव जी विश्वास से कहते या फिर हम लोगो को विश्वास दिलाते।

अधिकतर मेरी समस्याओं के चलते वे किसी को आफिस भेज देते, अगर कोई काम होता। जुलाई तक की खबर थी, इस बार सोचा कि चलो चलके देख आते हैं बच्चों को। मैने श्रीवास्तव जी की लोकेशन जानने के लिये फोन मिलाया। तो फोन विद्यालय के एक लड़के वीरेंद्र ने उठाया जो देख सकता था। (दो ऐसे बच्चे जो गरीब घरों के हैं और देख सकते हैं वे इस विद्यालय में बाजार और दृष्टि से संबंधित काम करते हैं) और उसने बताया "मैम जी अब तो विद्यालय वहाँ नही रहा जहाँ था।"

आर्थिक सहयोग ना मिल पाने के कारण विद्यालय के पूर्व भवन का किराया नही दिया जा सकता था अतः घर बदलना पड़ा। खैर मैं पिंकू को ले कर फोन करके पता पूछते हुए वहाँ पहुँची। संस्था अब संकरी गलियों के बीच थी। एक बाउंड्री रहित घर...! जिसके छोटे से दरवाजे के अंदर प्रवेश करते ही बैठक कक्ष शुरु हो जाता है और वहीं बेड पर श्रीवास्तव जी पड़े थे। "कैसे है ?" का जवाब देने में ऐसा लगा कि उन्हे शरीर की पूरी ताकत लगा देनी पड़ी। वीरेंद्र ने बताया कि फेफड़ों में समस्या है। एक कंकाल पर पतला सा चमड़े का आवरण मात्र ही रह गया था शरीर के नाम पर....! पहले वाला भवन मेरे विद्यालय के पास ही था, तो मैं अकेले चली जाती थी। घर से पिंकू मेरे साथ पहली बार आया था। मैने देखा कि उसकी आँख में आँसू उमड़ रहे हैं और वो बार बार चेहरा घुमा ले रहा है।

वो पितृपक्ष के दिन थे। एक हाई प्रोफाईल दंपत्ति ने कमरे में प्रवेश किया। कल उनकी माता जी का श्राद्ध था और वो यहाँ खाना खिलाना चाह रही थीं। उन्होने ७०० रुपये का पेमेंट किया और मेन्यू पूछा आप क्या क्या खिलायेंगे ? वीरेंद्र ने बताना शुरु किया उससे पहले श्रीवास्तव जी ने हाँफती हुई आवाज़ में बताया।
"बस..? मिठाई नही" श्रीवास्तव जी के मेन्यू बताने के साथ ही उन्होने आश्चर्य से पूछा।
"आप कहेंगी तो मिठाई भी कर लेंगे।" वीरेंद्र ने कहा
"आपने तो चालीस बच्चे बताये है, यहाँ तो २८ हैं।"
" कुछ बच्चे सुबह पढ़ने आते हैं, विद्यालय में नही रुकते, मगर खाना तो उन्हे भी देना पड़ता है। फिर खाना बनाने जो आती हैं वो अम्मा। जो बर्तन झाड़ू पोंछा करती हैं वो और मैं और मोहित भी हैं।"
"ये लोग भी खायेंगे...! असल में हमे अपनी माँ का श्राद्ध करना है ना तो हम चाह रहे हैं कि खाना सही जगह पहुँचे।"
मेरा धैर्य जवाब दे रहा था। मगर शांत थी। ७०० रु में हम अपने घर में भी क्या इस मँहगाई के दौर में ४० लोगों को ठीक से भोजन करा सकते हैं ?

इसके बाद उन्होने प्रश्न किया "कितने बजे खिला देंगे"
"१०.००"
"फिर कितने बजे देते हैं कुछ खाने को ?"
"फिर ८.०० बजे रात में"
"इतना लंबा गैप?...बीच में कुछ भी नही...!"

मुझे शालीनता का लबादा ओढ़ कर बोलना पड़ा। "आप निश्चिंत रहें, आपकी माँ के श्राद्ध के लिये इससे बेहतर जगह और कोई नही हो सकती। और ये जो बच्चे हैं, ये अगर अपने घर में होते तो शायद चौबीस घंटे में एक बार भी ठीक से खाना ना नसीब होता इन्हे। यहाँ इस गैप के बाद मिल तो जा रहा है। आप सर की हालत तो देख ही रही हैं। ऐसा व्यक्ति इस संस्था को चला रहा है, गहराई से सोचिये तो बहुत आश्चर्यजनक है ये।"

उन्हे लगा कि मैं भी इस संस्था की सदस्य हूँ और हिकारत के साथ निगाह डालती हुई उन्होने कहा "आप भी यहीं रहती हैं।" श्रीवास्तव जी ने हाँफते हुए फिर से मेरा परिचय देने की कोशिश की मैने उन्हे रोकते हुए कहा " नही मैं श्रीवास्तव जी की शुभचिंतक हूँ और इन्हे देखने आई हूँ।"

चलते समय मैने श्रीवास्तव जी से पूँछा "आप सरकारी सहायता के लिये प्रयास कर रहे थे ?"
उन्होने बहुत ताकत लगा कर निकली हाँफती हुई मगर आत्म विश्वास से भरी आवाज़ में कहा " एक बार मुझे ठीक हो जाने दीजिये बस.."

हम लोग चले आये मैने सोचा था कि इस बार ३ दिसंबर को विकलांग दिवस पर मैं उन्ही के आत्मविश्वास की गाथा लिखूँगी और साथ में उनका फोटो भी....!!


मगर....! २६ नवंबर को जब मैं नेहा की शादी में व्यस्त थी तभी उनका नंबर स्क्रीन पर आया। फोन उठाने पर आवाज़ वीरेंद्र की मिली। हाल पूछने पर उसने कहा "मैम श्रीवास्तव जी ५ अक्टूबर को दुनियाँ छोड़ गये। संस्था बहुत अधिक फाइनेंशल प्रॉबलम से गुज़र रही है। आप मेम्बर बनवा देतीं रेगुलर डोनेशन वाले।"

शादी के उत्साह में थोड़ी देर के लिये हाथ पैर रुक गये। शांत हो कर सोचा " शरीर का एक अंग कम होने से यदि जीवन इतने परिपूर्ण अर्थों में जी लिया जाये तो कमी अच्छी है। यदि वास्तव में मृत्यु के बाद लेखा जोखा ईश्वर के सामने खुल रहा होगा, तो जीवन भर कमियाँ झेल कर दूसरों की जिंदगी जीने के काबिल बनाने वाला ये व्यक्ति वहाँ के अमीरों में गिना जा रहा होगा।"

पुनःश्चः- तीन ३ दिसंबर को ये पोस्ट लिखने की सोची थी। मगर २ दिसंबर को शादी से वापस आने और आफिस मे कामो के चलते नही लिख सकी। देखा तो एक भी पोस्ट नही मिली विकलांग दिवस पर।
एक घटना और बाँटती हूँ

दीदी के घर के लॉन में मैं बैठी थी तभी एक सज्जन और उनकी विवाहित बहन जीजाजी के पास किसी कोर्ट के केस के सिलसिले में आते हैं। आने के बाद उनकी पहली नज़र मेरे पैरों पर पड़ती है और मुझे कुछ अजीब सा भी लग सकता है, इसकी परवाह किये बगैर वो मेरे पैरों को घूरते रहते हैं। मैं दीदी को आवाज़ दे कर बुलाती हूँ और वो उन्हे जब बैठक में ले जाती हैं, तो मुझे लगता है कि मेरा दम घुटते घुटते अचानक साँस आ गई।

वो अंदर जा कर मेरे विषय में पूछते हैं। दीदी बताती है कि "मेरी बहन है। लखनऊ से आई है।"
वो पूरे करुणानिधान बन कर कहते हैं "बड़ा अच्छा है। इसी बहाने थोड़ा मन बहल जायेगा। अब तो शादी तक रहेगी।"
"नही..! शादी में फिर आयेगी। सर्विस करती है ना तो एक साथ इतनी छुट्टी नही मिलती।"
उनकी आँखें चौड़ी हो जाती हैं "सर्विस करती है ?"
"हाँ...! केन डिपार्टमेंट में। सेंट्रल गवरमेंट का आफिस है।" जितनी आँखें चौड़ी हुई थी उतना ही दीदी के स्वर का उत्साह
"अच्छा..?? किस पद पर"
दीदी ने सगर्व बताया और साथ ही और भी बहुत कुछ जो उनके मन को मुझे ले कर खुश करता है, सेलरी भी बता दी गई। दीदी की हर बात के साथ उनका अच्छा कहने का तरीका बदलता रहा और हद तब हो गई जब वे उठ कर फिर से मुझे देखने बाहर लॉन में आ गये। इस बार निगाह पैर पर नही चेहरे पर थी.......।

मुझे जो नही मिला वो किस्मत से और जो मिला वो भी किस्मत से। सरकारी नौकरी तो तुक्के की बात है। व्यवस्थाएं इतनी आसान भी तो नहीं कि आसानी से सब कुछ मिल जाये। ना मिलता तो मेरी बुद्धि, मेरी भावना, मेरा व्यक्तित्व सब कुछ शून्य था। मिल गया तो किसी को ये जानने की जरूरत भी नही कि मैं मूलतः किस स्वभाव की हूँ।

सड़क पर बैसाखी लिये चिथड़ों में भागता व्यक्ति. पटरे पर पहिये लगा कर हाथ में चप्पल लिये सड़क पार करता किशोर, व्हीलचेयर पर पान मसाला बेचता युवक..... सब मेरे सामने थे....!! सब में मैं थी...मुझमे सब थे....!!!

Thursday, December 10, 2009

कोई संग इमाम खुदा ने बख्‍शा ना ...मगर संग है गुरु जी के विवाह की वर्षगाँठ

ये अच्छा हुआ कि अपनी गज़ल के चक्कर में इतनी बार गुरु जी को फोन करना पड़ा कि इस डर से कि कहीं कल भी मुझे बार बार फोन कर के पकाये ना गुरु जी ने अपरोक्ष रूप से प्रकट किया कि कल अर्थात आज उनकी शादी की सालगिरह है और प्रवेश वर्जित



खैर... ऐसा गुरु जी ने कुछ नही कहा..मैं यू ही अपने अधिकारों का नाज़ायज फायदा उठा रही हूँ।

बात बस इतनी है कि आज गुरु जी की शादी की सालगिरह है। मैने जब गुरु जी से पूँछा कि भाभी जी का मायका कहाँ है तो गुरु जी ने हँस के बताया पागल खाने वाले शहर में यानी ग्वालियर में।



ये बात भाभी जी को शादी की वर्षगाँठ निकल जाने के बाद तब बताई जायेगी जब किसी गज़ल के लिये ज्यादा लाल पीले होंगे गुरुजी। गुरु जी मुझसे कहते हैं अपना विज़न बढ़ाओ और मेरा विज़न है कि यहीं जा के अटक जाता है कि देखें गुरु जी का कौन सा कमजोर पत्ता हाथ में आ रहा है....!! :)

रेखा भाभी और गुरु जी के विवाह को आज नौ वर्ष हो गये। हर तरफ से प्रशंसा पा रही गुरु जी की कहानी महुआ घटवारिन के नायक नायिका की तरह इन दोनो का बचपन साथ ही बीता है। कहानी की तरह दोनो के पिता मित्र भी हैं। बस कहानी में विछोह है और यहाँ संयोग। असल में गुरु जी और रेखा भाभी के पिता मित्र थे। बचपन में दोनो का विवाह तय कर दिया गया था। और फिर दोनो अलग अलग शहर में पलने बढ़ने लगे थे। बाद में संयोग से फिर जब दोनो जनकों की पोस्टिंग मुरैना में हुई तो ये बात फिर से याद की गई और ये बंधन बँधा। पूर्णतः प्रबंधित विवाह (Completely Arranged Marriage.....!)



LOVE AFTER MARRIAGE का ये उदाहरण देखिये और शुभकामनाएं...बधाईयाँ देते हुए पढ़िये ये गज़ल। जिसका मतला और आखीरी शेर गुरु जी की खालिस देन है और यूँ तो पूरी गज़ल ही उनके आशीष से बनी है...!





दो पल का आराम खुदा ने बख्‍शा ना
कोई भी इनआम खुदा ने बख्‍शा ना


उन रिश्तों की खातिर रोना कैसे हो,
जिन रिश्तों का नाम खुदा ने बख्शा ना।

उनकी खातिर अश्कों का अंबार मिला,
हक उनपे ही तमाम खुदा ने बख्‍शा ना।

दिन भर मेहनत कुछ मन का पा लेने की,
और हिसाब ये शाम,खुदा ने बख्शा ना....।

खुद की खुद के जज़्बों से वो जंग छिड़ी,
जिसमें युद्धविराम, खुदा ने बख्शा ना।

किस्मत सारे फतवे करे खिलाफ मेरे,
कोई संग इमाम खुदा ने बख्‍शा ना।

कंचन जो पाया है, उसमें खुश हो लो
क्‍या ग़म जो इल्‍हाम खुदा ने बख्‍शाना ना।

मैं भी पत्‍थर बनी प्रतीक्षारत थी पर
मुझको कोई राम खुदा ने बख्‍शा ना




Friday, November 13, 2009

कल फिर.....


अरे नही भाई....! अभी शादी निपटी थोड़े ना है बिटिया की। वो तो २७ नवंबर को है। इतने पहले से छुट्टी ले ली है कि आप लोगों को पता लग सके कि हम बिटिया की शादी ऐसे ही नही कर ले रहे, हमें भी टेशन है। लड़की की शादी कोई आसान बात थोड़े ना है। हाँ ऽऽऽऽऽ नही तो। अफिलहाल तो जल्दी से आई हूँ क्योंकि तलब लगी थी ब्लॉग की। लीजिये झट से सुनिये हमारी टीन एज पार करते ही लिखी गई किसी जमाने की ये कविता-

कल फिर करना इंतज़ार है उस मनचाहे दिलवर का,
जिसकी आँखें ढूँढ़ ना पाई, रस्ता कभी मेरे घर का।

कल फिर सुबह सुबह ही धो आएंगे अपने दरवाजे,
कल फिर रख आएंगे कलशे दरवाजे पर भरवा के,
कल फिर महक उठेगा आँगन फूलों से मेरे घर का

कल फिर हर आहट पे लगेगा, लो वो आया, अब आया,
कल फिर यूँ ही ये शक होगा द्वार किसी ने खटकाया,
कल फिर शायद खुला रहेगा दरवाजा मेरे दर का।

कल फिर कुछ चीजें ढूँढ़ेगे अपना दिल बहलाने की,
कल फिर होंगी असफल कोशिश अपना समय बिताने की,
कल फिर पत्थर दिल रोकेगा रस्ता नैना निर्झर का

बीता जाता कल्प है तेरा कल क्यों कर ना आता है,
कल के इंतज़ार में मेरा पल पल कल्प1 सा जाता है
कलप कलप के बीता मेरा कल्प कल्प इक इक पल का

(१७..०८.१९९६, दिन शनिवार, रात्रि ९.३० बजे (एक फटी हुई डायरी के अनुसार)
1 शास्त्रों के अनुसार चारों युग को मिला कर बनी अवधि को कल्प कहते हैं, है जिसके बाद प्रलय आती है।
(दिसंबर -२०१२ में आने वाली है ना :)
)



चलिये फिर मिलूँगी शायद बिटिया की शादी के ही दिन आप लोग आशीष देने अवश्य आइयेगा............

Friday, October 30, 2009

यूँ ही



सुबह से रोक रही हूँ खुद को, मगर नही रुक पाई आख़िर....! बस लिखती चली जा रही हूँ जुनून में...यहाँ क्यों लिख रही हूँ ? पता नही.... सुबह से कई जगह दिमाग लगाना चाहा मगर नही.... यही आ कर लग जता है।

बार बार प्रश्न आ रहे हैं। क्या जिंदगी का कोई फॉर्मूला भी होता है ? क्या जिंदगी के shortcut भी होते हैं ? अगर होते हैं तो क्या long lasting होते हैं ?? क्या हर चीज के करने के पहले कोई कारण होता है ??? क्या हम रिश्ते बनाने के पहले ओहदे देखते हैं ???? ये सोच कर किसी से जुड़ते हैं कि इससे रिश्ता बनाना भविष्य में ये फल दे सकता है और क्या रिश्ते इतने सुविचारित हों सकते हैं?????

नही..नही ...नही... नही...!!! फिर...??फिर ऐसा क्यों लगा ?????

पता नही...! पता नही कि मैं आखिर लिखना क्या चाह रही हूँ। मगर बस इतना जानती हूँ, कि जिंदगी जैसी दिखती है वैसी ही नही है। हर होने के पीछे कितनी बार का ना होना होता है उसका ज़िक्र नही होता...नही किया जाता...!! और नही किया जाता इसका मतलब ये नही कि जो हुआ वो दूसरे के साथ आसानी से हो गया। उसे भी वो चीज़ उतनी ही कठिनाई से मिली है जितनी आपको। बस उसने ढिंढोरा नही पीटना चाहा। उसने नही चाहा कि असफलता पर लोगो की संवेदनाएं मिले। क्यों कि संवेदनाएं १०० में सिर्फ २ ही सच्ची होती है। बाकि औपचारिकता और पीछे उपहास..बस यही होती हैं...!

लोग कहते हैं कि मैं अक्सर रोने धोने वाली बात लिखती हूँ...! सब कहते हैं तो सच ही कहते हैं। मगर जहाँ तक मुझे याद है मैने कभी अपनी किसी व्यक्तिगत त्रासदी का ज़िक्र नही किया होगा। कुछ अपनो की पुण्यतिथि के अलावा, क्योंकि उस दिन इतना तो अधिकार है कि अपने पन्ने को अपने रंग में रंग सकूँ। मगर जिंदगी के फलसफे इतने आसाँ भी नही थे। मगर क्या करना है उन बातों का ज़िक्र करके....! ज़िक्र तो ये है कि आप सब हैं आज। आप सब का साथ है। कुछ सच्चे मित्र हैं। उनका प्रोत्साहन है ...!! मगर ज़िक्र ना होने का अर्थ घटित ना होना नही, ये सबको समझना चाहिये। कोई भी हो.. वो जिस स्थान पर है वो उसकी अपनी मेहनत है। वैसे तो सीढ़ियों तक आने के रास्ते ही बहुत कठिन होते है...मगर फिर भी अगर मान लीजिये एक बार कोई सीढ़ी तक पहुँचा भी देगा तो उन्हे चढ़ने की ऊर्जा तो खुद ही लगानी होगी..! और बुलंदी पर पहुँच कर फिर उसी जगह पर बने रहने का कोई शॉर्टकट नही है। वैसे तो जहाँ तक मुझे पता है न सीढ़ियाँ आसानी से मिली, ना उन तक के रास्ते....!!!

सब को मेरा रहन सहन और खाना पीना दिखता है,
हमने कितने कच्चे पक्के सपने बेंचे उनका क्या...?


सब सिर से ऊपर गुज़र रहा है ना आप लोगों के..?? जाइये कहाँ फँस गये मुझ झक्की के चक्कर में..! मैं भी जा रही हूँ कुछ दिनो को ब्लॉगजगत से दूर...! बिटिया (भाजी) की शादी है तैयारी करनी है भाई....! मगर कहीं कहीं झाँकती मिलूंगी बीच बीच में...! :)

Thursday, October 22, 2009

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है,तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....




कुछ दिन हुए .....पता नही किस के ब्लॉग पर पढ़ा था "अग़र किसी जगह से आपकी मीठी यादे जुड़ी हों तो वहाँ दोबारा कभी नही जाना चाहिये... " बात सच थी क्योंकि यादे वहीं रह जाती हैं, और वक़्त आगे निकल जाता है। हम सब कुछ यादों के अनुसार ढूँढ़ते हैं... छोटी छोटी बातों को भी बिलकुल वैसे ही दोहराना चाहते हैं और ये अपने वश में होता नही....! वक़्त सब कुछ ले के आगे बढ़ गया होता है। मगर ऐसे में जब उस जगह मजबूरन पहुँचना ही पड़ जाये, तो जो होता है वो दिखता नही, जो दिखता है वो होता नही.....! दिखता है वो सब जो कभी हो चुका है....! ऐसे हालातों में लिख गई ये नज़्म.....!!!! ऐसी ही किसी सीढ़ी पर.....! जैसी ऊपर चित्र में है (साभारः गूगल)


बदल गये हैं सभी सड़के इमारत लेकिन,
शहर में आ के मेरे दिल का धड़कना है वही,
तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

ज़रा सी दूरी बना कर यहीं पे बैठै हो,
कि बार बार हाथ, बढ़ के थम से जाते हैं,
कहीं से कोई कोई आ के झाँक जाता है,
औ आते आते सभी लब्ज़ ठहर जाते हैं।

तुम इर्द गिर्द हो के दूर बहुत लगते हो,
मै खुद को पाती हूँ मज़बूर बहुत फिर से यहाँ,
जहाँ भी देखूँ वहाँ तुम ही नज़र आते हो,
मगर मिलने के लिये तुम से जगह ढूढ़ूँ कहाँ ?


ये कैसे सारी की सारी अवाज़ें जिंदा हुईं,
ये कैसे सारे पुराने दरख्त फिर हैं हरे,
ये कैसे उठ के खड़े हैं वो पुराने मंज़र,
ये कैसे आँख में पुरनम से ख़ाब फिर हैं भरे।

नज़र मिला के बिना बोले कोई कहता है,
नज़र के सामने मेरे नज़र भरी फिर क्यों?
मैं साथ साथ हूँ तेरे, मैं इर्द गिर्द ही हूँ
औ मेरे रहते ये तनहाई की बातें फिर क्यों ?

तुम्हारी आँख के झोके जो छू के जाते हैं,
अब्र आँखों के हवा पा के बरस जाते हैं,
तुम हो बेचैन बहुत ज्यादा मगर बेबस हो,
तुम्हारे हाथ जो मुझ तक न पहुँच पाते हैं।

हँसी बेफिक्र वही और हमारी फिक्र वही,
तेरी शरीर निगाहों में मेरा ज़िक्र वही,
दिखाई देती न हो उसकी इबारत लेकिन,
है सारी बात फिज़ा में वही, हवा में वही...

तुम्हारी खुशबू अभी भी यही पे बिखरी है
तुम्हारी मुस्कुराहटें हैं आस पास वही....

Friday, October 16, 2009

वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी


पिछली दीपावली पर गुरू जी के ब्लॉग पर एक कविता दी थी... इस बार अपने ब्लॉग पर वही कविता लगा रही हूँ....!



आप सभी को दीपावली की जगमग जगमग शुभकामनाएं



जिस रात नयन के दीवट में, भावों का तेल भरा होगा,

आँसु की लौ दिप-दिप कर के, सारी रजनी दमकायेगी,


तुम दीपमालिका बन कर के जब लौटोगे इस मावस में,


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।



आँखों के आगे तुम होगे, तन मन में इक सिहरन होगी,


मेरी उस पल की गतिविधियाँ, क्या फूलझड़ी से कम होंगी?


तेरी बाहों में आने को इकदम बढ़ कर रुक जाऊँगी,


मैं दीपशिखा जैसी साजन बस मचल मचल रह जाऊँगी



वाणी तो बोल ना पाएगी, आँखें वाणी बन जायेगी


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।



तुम एक राम बन कर आओ, मैं पुर्ण अयोध्या बन जाऊँ,


तुम अगर अमावस रात बनो, मैं दीपमालिका बन जाऊँ।


तुम को आँखों से देखूँ मैं, मेरा श्री पूजन हो जाये,


हर अश्रु आचमन हो जाये, हर भाव समर्पण हो जाये।



लेकिन तुम बिन पूनम भी तो मावस काली बन जायेगी


वो कोई भी हो रात सजन, वो दीवाली बन जायेगी।


Sunday, October 11, 2009

कबिरा को रामान्द मिलें,हमको बस गुरु का प्यार मिले- गुरु जी के जन्म दिन पर

११ अक्टूबर का ये आज का दिन, जब तारीख की इकाई दहाई एक ही होती है, एक समान... अंक ज्योतिष में सुना है कि इस तारीख को इसी कारण से शुभ मानते हैं और शुभ मानने के साथ ही अमिताभ बच्चन जी का उदाहरण भी दे दिया जाता है कि कैसे इस तारीख ने उन्हें शहंशाह बना दिया है...! नही नही भाई कोई बवाल ना कीजिये इस बात पर... मैं ये कहाँ कह रही हूँ कि जिस शख्स की बात मैं कर रही हूँ वो ब्लॉग जगत का शहंशाह है, मैं तो बस ये बता रही हूँ कि हमारे गुरु जी का भी आज ही जन्मदिन है..आज....जिस दिन शहंशाह का भी जन्मदिन होता है... पता नही ये बात कितनी सच है कितनी झूठ कि ये अंक भाग्यशाली है मगर हाँ दिलों का शहंशाह तो ये बनाती ही है....!!!

तो सबसे पहले तो मेरे साथ मिल कर बधाई दीजिये मेरे गज़ल गुरु एवं अग्रज श्री पंकज सुबीर जी को उनके जन्मदिन की। चूँकि गुरु जी ने बताया कि टॉम एण्ड जेरी उनका प्रिय कार्टून है और घर में मेरे झगड़े की प्रवृत्ति के कारण मुझे अक्सर जेरी की उपाधि से नवाज़ा जाता है तो इस जेरी की तरफ से



गुरु जी की पुस्तक ईस्ट इंडिया कंपनी मुझे वीर जी द्वारा राखी बँधाई मे मिली थी। भारतीय ज्ञान पीठ से प्रकाशित इस सजिल्द कथा संग्रह में कुल १५ कहानियाँ है, जिनमें से मात्र ६ कहानियाँ ही कल तक पढ़ी थी। ये तो परसो रात में सोते समय लगा कि क्यों ना गुरु जी के जन्मदिवस पर उनकी ही कृति के विषय में लिखूँ ? तो लिखने के पहले ज़रूरी था विषय को पढ़ना... तो कल सुबह से पहले तो बची हुई कहानियों को पढ़ा और अब आधी रात में पढ़ने के बाद उपजे विचारों को लिखने का प्रयास कर रही हूँ। प्रयास इस लिये कि किसी चीज को लिखना और समझना दोनो दो स्तर का होता है। लिखने वाला अपने मानसिक स्तर पर जा कर लिखता है और पढ़ने वाला अपने मानसिक स्तर पर गिर कर समझता है। साथ ही गुरु जी की कहानियाँ अधिकांशतः प्रतीकों के माध्यम से लिखी गई है, अब इन प्रतीकों को लिखते समय गुरु जी ने किस तरह समझाना चाहा और मैने किस तरह समझा ये तो ....

इस संग्रह के विषय में नीरज जी ने पूर्व में सारी जानकारी यहाँ दे रखी है।

तो कहानी संग्रह की पहली कहानी है क़ुफ्र..! बात बात में धर्म के लिये लड़ने वाला आदमी... धर्म के नाम पर मानवता का संहार करने वाला आदमी कैसे समझौता कर लेता है, अपने आप से जब बात दो जून रोटी की हो। हर क़ुफ्र जायज़ हो जाता है, जब लगने लगे कि इस के बिना बच्चो का पेट भरने का कोई उपाय ही नही। एक हक़ीकी कहानी। यथार्थ दर्शाती।

दूसरी कहानी अँधेरे का गणित। समलैंगिकता जैसे विषय पर इतनी सफाई से लिखा जाना मुझे इस कहानी को कथा संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी कहने पर मज़बूर करता है। आज जब कुछ पत्रिकाओं को उठाने के पहले ही पता चल जाता है कि उसमे कहानी छपी होने का मतलब एक खास विषय की अनिवार्यता है, तब ऐसे ही खास विषय को सफाई से बयाँ भी करना और श्लीलता बनाये रखना मुझे लगता है कठिन के साथ चुनौतीपूर्ण कार्य भी है।

तीसरी कहानी घेराव सामान्य छेड़ छाड़ पर सांप्रदायिकता का मुलम्मा चढ़ जाने के बाद हुए हश्र की कथा है। और जब मरने मारने वालों के नाम हिंदु और मुसलमान मात्र रह जायें तब जनता, प्रशासन और मीडिया पर अलग अलग इसकी क्या क्रिया प्रतिक्रिया होती है इसका हाल ए बयाँ है ये कथा।

आंसरिंग मशीन को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं। तथाकथित साहित्यकारी में विद्यमान तथाकथित विद्वानो के गणित की कहानी, जिसमें ईमान को ताले में बंद कर के रखना ही आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिस्थति में नये नये आये सुदीप का इस माहौल से सामंजस्य बिठाने के क्रम को दर्शाती है ये कथा।

ईस्ट इण्डिया कंपनी जो कि कहानी संग्रह नाम भी है, एक अद्भुत कहानी है जिसमें खड़े पति और खड़ी पत्नी को ईस्ट इण्डिया कंपनी का रूपक बना कर अनोखा व्यंग्य प्रस्तुत किया गया है।

हीरामन एक संवेदनशील कहानी है। आधुनिक कथा हेतु आवश्यक तत्वों का समावेश इसमें भी बखूबी किया जा सकता था। मगर कहानी संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ती है। मालिक के प्रति वफादार हरिया का खुद की नज़रों में गिर कर भी नमक का कर्ज़ अदा करना और स्वयं खाली हाथ रह जाना। कहानी अंत की ओर जैसे जैसे बढ़ती है रोमावलियों में सिहरन पैदा हो जाती है।

घुग्घू कहानी में घुग्घू को प्रतीक बना कर नारी के गूढ़ मन की तुलना करना, मुझे तो बहुत भाया। ये कहानी भी मुझे व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छी लगी। "एक छोटा सा कीड़ा घुग्घू जो जब भी धूल में घुसता है तो ऊपर एक शंकु के आकार का गडढा छोड़ जाता है, और इसी शंकु के अंतिम सिरे पर धूल में कहीं गहरा छुपा होता है घुग्घू " वाक्य से जिस घुग्घू का परिचय कराया गया उससे मैं स्वयं असल में परिचित नहीं हूँ। मगर बच्चों के लाख प्रलोभनो और तीली घुमा घुमा कर ढूँढ़े जाने के बावजूद बाहर ना आने वाले घुग्घू की शालिनी के संस्कारिक मन से तुलना कहीं स्त्री विमर्श का सटीक रूप लगती है।

तस्वीर में अवांछित कहानी में दुनियादारी के फेर में फँसा वो व्यक्ति जो खुद के घर में अपरिचित हो गया है। प्रतीको का भरपूर प्रयोगा इस कहानी में भी किया गया है। आदमी के अंदर बैठे दूसरे आदमी की उहापोह, कुंठा और मंथन इस कहानी के अंग हैं।

एक सीपी में तीन लड़कियाँ रहती थीं, हरी, नीली और पीली कहानी में भी प्रतीकों का अनोखा खेल है। हरी, नीली और पीली लड़कियों के माध्यम से तीन व्यक्तित्वों की चर्चा और तीनों का अंत एक ही होना, कहीं फिर से नारी विमर्श नही तो कन्या विमर्श की श्रेणी में तो आता ही है।

ये कहानी नही है के मुख्य पात्र मैँ ने जो देखा वो सहजता से बयाँ किया... पढ़ने वाले अपने अपने अर्थ लगा सकते हैं।
रामभरोस हाली का मरना भी एक सामान्य घटना को सांप्रदायिक जामा पहनाने के कथानक को ले कर बनाई गई कहानी है। इस कहानी में विशुद्ध गाली को पढ़ना मुझे चौंकाता है, वरना तो बहुत सी ऐसी जगह भी बच के निकल गये हैं जहाँ कहानी की माँग के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा सकता था।

तमाशा
एक विद्वान बाप की अनपढ़ पत्नी की संतान को दिया गया नाम है। जिसने शादी के मौके पर पिता को कन्यादान ना देने का आग्रह इस आधार पर किया है कि दान की वस्तु का अपना होना आवश्यक है और पलायनवादी इस पिता ने लड़की को कभी अपना नही बनने दिया। ये एक संवेदनशील कथा है।

शायद जोशी कहानी में एक कहानी के साथ पूरे गीत की समीक्षा का प्रयोग अनोखा प्रयोगा है। मेरे जैसे चटू लोगो के बात करने पर लोग क्या करते होंगे इसका थोड़ा बहुत अनुभव हुआ इस कहानी के साथ। जिसमें शायद जोशी जैसे व्यक्ति के समस्या पुराण को प्रत्यक्ष में सुनने वाला मन ही मन शंकर हुसैन फिल्म के गीत
अपने आप रातों में चलमने सरकती है,
चौंकते हैं दरवाजे सीढ़िया धड़कती है

के मुखड़े सहित तीनों अंतरों का सुंदर विश्लेषण करता है।

छोटा नटवर लाल कहानी मैँ अब तक नही पढ़ पाई। अतः उस संबंध में कुछ नही कह पाऊँगी।

और कहानी मरती है भी मुझे विशेष रूप से पसंद आने वाली कहानी में से एक है। जिसमें कहानी के पात्र असली बन कर स्वयं की नीयति से विद्रोह करते है और एक लेखक के ऊहापोह को दर्शाते हैं।

तो ये थी मेरी त्वरित प्रतिक्रिया ईस्ट इंडिया कंपनी के विषय में।

चलते चलते पढ़िये वो कविता जो मैने बी०ए० प्रथमवर्ष में अपने संगीत गुरू श्री काशी नाथ बोड्स के लिये उनके जन्मदिन पर लिखी थी। पाँच अंतरों वाली इस कविता का आगाज़ और अंजाम ही याद रह गया है अब। आज गुरु जी के जन्मदिन पर पुनः उन्हे संबोधित करते हुए...!



मिले राम को विश्वमित्र,, एकलव्य को द्रोणाचार्य मिलें,
कबिरा को रामान्द मिलें, हमको बस गुरु का प्यार मिले।

यदि विश्वमित्र ने रघुवर को शिक्षा का कोई दान दिया,
प्रभु ने भी उनकी रक्षा में वन में धनु का संधान किया।
आचार्य द्रोण ने शिक्षा के बदले में अँगूठा माँग लिया,
तो रामानंद ने भी कबीर पर पैर धरा तब ज्ञान दिया।
हम से सर उन ने कुछ लिया नही,
बस प्यार दिया, बस प्यार लिया
हमको भाविष्य में भी उनसे
ये प्यार भरा आगार मिले।

कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस गुरु का प्यार मिले।

होंगे कितने ही शिष्य, आप पर है अधिकार अनेकों का,
इस तुच्छ चीज़ सी कंचन को पर दे दें इतना सा मीका,
जब नेह सभी को बाँट चुकें,छोड़े से गुरुवर हाथ रुकें,
एक नेह दृष्टि दीजेगा डाल, जिससे मेरा संसार खिले,
कबिरा को रामान्द मिलें. हमको बस सर का प्यार मिले।

Wednesday, October 7, 2009

घटनाओं के पीछे-श्रीमती गौतम राजरिशी (संजीता भाभी) के लिये - करवाचौथ पर



२२ सितं० और आज ०७ अक्टूबर... बीच मे बहुत कुछ गुज़रा... जाने क्या क्या... ठीक से दर्ज़ भी नही है..याद करूँ तो कहीं से कुछ और कहीं से कुछ उग आता है।

बहुत कुछ २२ सितंबर से भी पहले का..लगता है कि ये जो उस दिन हुआ था.... वो जो उस दिन कहा था क्या सब इस २२ सितंबर की भूमिका थी उस सूत्रधार द्वारा। या जो २२ सितंबर को हुआ वो सब कहीं आगे कहानी बढ़ने का एक अंक है ..... कुछ समझ में नही आता...! जिंदगी अजब हादसे कराती है खुद में। जब ये होना था उसी के कुछ दिन पहले अचानक ये क्यों हुआ ? और उस दिन भी ... उसके पहले भी बार बार मन को बुरा भला कहा..नकरात्मक क्यों सोचता है ये ..?? अचानक फोन कर के कहना "देखो इस दिन ये ना करना...ये ठीक नहीं।" और दूसरी तरफ ठहाका लगना.... दो चार बार पागल कहना और फिर अगले दिन वो काम बिना मुझे बताये ही छोड़ देना क्योंकि बात अपने नही उस दूसरे पागल के विश्वास की है...!! अचानक दुआओं मे किसी का नाम आ जाना...! उस दिन भी कितनी चीजें करना या ना करना सिर्फ अपने शुभ अशुभ के वहमों के चलते औ‌र सब के बावज़ूद अचानक ये हो जाना....!

समझ नहीं आ रहा कि मेरे बार बार विपरीत सोचने से ये हुआ या ये होना था इसलिये मैने विपरीत सोचा या बस इतना ही हो कर रह जाये इसके लिये पहले से मन में शंकाएं आईं और प्रार्थना की मात्रा बढ़ा दी गई......! पता नहीं..मुझे कुछ पता नहीं...!

मैं उनकी बात नही कर रही...उनके विषय में तो सबने खूब लिखा...सबने दुआएं की.... सबने प्रेम दिया..! वाक़ई अच्छा भी लगा और गर्व भी हुआ कि जिससे रक्षा का वचन लिया वो इस क़ाबिल है-

दिलवर के लिये दिलदार हैं वो
दुश्मन के लिये तलवार हैं वो


बात उनकी करूँगी जिस का इस समर में नाम भी नही और योद्धा भी महान है जो...जिसके हाथ में तलवार भी नही मगर लड़ाई जीतने का जज़्बा जिससे होकर जाता है।

उस दिन जब ये सब हुआ जो आप सब को पता है, तब..बार बार ये अफसोस हुआ कि वीर जी के दो तीन बार ज़िक्र के बावज़ूद संजीता भाभी का नं० लिया क्यों नही ?? बात उनसे हुई थी कई बार और वीर जी के माध्यम से संदेशे अब भी इधर उधर भेजे जाते थे..मगर फोन नं देहरादून का नही था। खबर जो मेरे पास थी यूँ तो पता था कि विश्वसनीय है, मगर जिसने बताई थी वो हमेशा हर बड़ी बात को बहुत हलका कर के बताता है। (असल चोट तो अभी दो दिन पहले पता चली है) वरना बस ठीक है, ज्यादा नही लगा है।

तो लग रहा था कि भाभी को फोन करने से सही स्थिति पता चल जायेगी... दिमाग को शांत कर के राह ढूँढ़ी तो राह ये मिली कि गुरु जी से संजय चतुर्वेदी जी का नं० माँगा और संजय जी से भाभी का। फोन पर
"हाँ भाभी मै कंचन बोल रही हूँ।"
"हाय कंचन ..कैसी हो ??"
"ठीक हूँ भाभी आप कैसी है..?"
"मै ठीक हूँ..." के साथ शायद उनके दिमाग में कुछ आया और उन्होने पूँछा
"भईया से तुम्हारी बात हुई ?"
"कहाँ भाभी"
"ओह..तभी तुम ऐसे बात कर रही हो...! कुछ नही हुआ भईया को कंचन। he is very fine.बस हलका सा छिल गया है। उन्हे आई०सी०यू० मे रखा है ना इसलिये बात नही हो पा रही उनसे। तुम बिलकुल चिंता ना करो बच्चे..!"

बाप रे... खुद पे शर्म आने लगी। जो बात मैं जान रही हूँ, वो ये भी जान रही हैं। जिनसे मैं ६ माह से जुड़ी हूँ उनसे वो १४ साल से जुड़ी हैं। जो बात मुझे लग रही है उससे १०-२० गुना ज्यादा इन्हे लग रही है। फिर भी बस एक बात कि जिस शख्स से बात रही हैं वो उस से जुड़ा है जिससे वो जुड़ी हैं। बस इस बात के चलते अपनी बात किनारे और ऐसा सामान्य और प्रेम भरा व्यवहार।

मैने कितनी बार प्रणाम किया उन्हे..!क्या इन्ही महिलाओं की कहानी सुनी है मैने इतिहास में। जिनके बारे में कल्पना करती हूँ, कि वो कैसी होंगी..??

सच बहुत शर्म आई खुद पर। अभी विचार ही कर रही थी कि दूसरा फोन। "तुम ने कुछ खाया कि नही बच्चे..! देखो अपना खयाल रखो वरना भईया को अच्छा नही लगेगा ना..! अभी राज ने खुद अपने हाथ से मुझे मैसेज किया है कि साब ठीक है।"

मुझे सच में समझ नही आ रहा था कि क्या कहूं,क्या करूँ..मैं बस यंत्रवत कह रही थी "हाँ भाभी अब आफिस जा रही हूँ। मैने खा लिया।

दो दिन बाद मैने फोन किया तो.."अभी भईया ज्यादा बात नही कर पा रहे ना कंचन..! सब से कम बात तो मुझसे होती है। तुम्हारा जब जी घबराये तो मुझसे बात किया करो। तुम मेरी ननद हो, अपने को सिर्फ ब्लॉगर कभी न समझना।"

हम सब के लिये जो घटना सिर्फ गौतम राजरिशी के ठीक हो जाने से ठीक हो जाती है। गौतम राजरिशी के लिये वो बहुत सारे झंझावत ले के आती है। जिसने अपनी आँख के सामने सूरी को शहीद होते देखा और दो जवानो को भी। अपने जिंदा रहने और आपरेशन सफल होने की बधाई उन्हें व्यथित करती है..! सूरी चला गया और मुझे बधाई.... ये बात ना वो कह पा रहे हैं और न सुन पा रहे हैं। उनका ये रूप पत्नी संजीता ने तो देखा है मगर उनकी जिंदगी मे नई आई उनकी बहन कहीं इसस बात से परेशान न हो इसका खयाल पत्नी को है। वो मैसेज कर के इस नये शेड के प्रति आश्वस्त करती रहती है।

मैं फिर से एक बार उन्हे प्रणाम करती हूँ " आप बहुत अच्छी हैं भाभी..! and truely brave lady."
"बस बस..चुप्प्प्प..! I'm saying bye..!पिटोगी तुम मुझसे। भईया सच कहते हैं तुम्हारे, तुम बहुत बाते करती हो।"

वो अपनी प्रशंसा सुनना नही चाहतीं।

वो असल में बहुत भावुक हैं। बस मेरी तरह उत्सव नही मनाती हर दुख का। वीर जी से ढेरों किस्से सुने हैं उनकी भावुकता के। वे कविताएं भी कहती हैं।मगर सिर्फ वीर जी के लिये। वो सुने और वो सुनायें। मैने माँगी थी। मगर फौजौ की बीवी की ना का मतलब ना। :)

एक अच्छी बहू जिसे खयाल है कि मेरे कहने से कुछ नही होगा जब तक उनका बेटा खुद फोन नही करता अपने घर वो वीर जी से खुद बात करने को कहती हैं। जिससे सहरसा माँ,पिता जी को संतुष्टि मिले। बड़ी दीदियों को समझाती हैं, वो अपने भाई के लिये चिंता ना करे। एक अच्छी माँ, जिसकी घड़ी पिहू (तनया)के हिसाब से फिट है। और सबके पीछे एक समर्पित पत्नी। जिसने पति के साथ उसका सब कुछ अंगीकार कर लिया है। उनका जॉब, उनके सपने, उनके रिश्ते..सब



आज करवाचौथ के दिन..जबकि पता है कि बिहार में करवाचौथ नही होती, उनको नमन करती हूँ, क्योंकि वो जो कर रही हैं, वो बहुत बड़ा व्रत है अपने पति के लिये। एक दिन नही..साल दर साल..उम्र भर..जन्मो तक के लिये..! भारत के लिये समर्पित एक सपूत की इस पत्नी का हार्डवेयर हो सकता है दिखने पश्चिमी लगे मगर सॉफ्टवेयर पक्का हिंदुस्तानी है..समर्पित भारतीय नारी..ट्रैडीशनल व्यू..!


तो भाभी ने तो मना कर दिया अपनी कविता देने को मगर लीजिये पढ़िये वीर जी के ये कविता जो उन्होने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान तब लिखा था जब इनकी good morning होती थीऔर उनकी good evening ....!



हर लम्हा इस मन में इक तस्वीर यही तो सजती है
तू बैठी है सीढ़ी पर, छज्जे से धूप उतरती है

इक तन्हा तकिये पर आँखें मलता है एक सवेरा
मीलों दूर कहीं छत पर इक सूनी शाम टहलती
है

एक हवा अक्सर कंधे को छूती रहती "तू" बनकर
बारिश भी तेरी गंध लिये जब-तब आन बरसती है

अक्सर देखा है हमने हर पेड़ की ऊँची फुनगी पर
हिलती शाख तेरी नजरों से हमको देखा करती है

यादें तेरी, तेरी बातें संग हैं अपने हर पल यूँ
इस दूरी से लेकिन अब तो इक इक साँस बिखरती है

सात समंदर पार इधर इस अनजानी-सी धरती पर
तेरे जिक्र से मेरी ग़ज़ल थोड़ी-सी और निखरती है


नोटः मेजर सूरी के लिये भी लिखना चाह रही थी..मगर लिख नही पा रही। वीर जी की पोस्ट का वाक्य "वो ज़िद अगर न होती तो क्या मैं यहाँ ये पोस्ट लिख रहा होता" मुझे मेजर सूरी का लोगो से अधिक ऋणी बनाता है। अचानक पल्लवी जी का चेहरा सामने आता है और दिल काँप जाता है।

वो दोनो जवान भी किसी के पति थे जिनका नाम मैं नही जानती। टी०वी० पर किसी के पिता कह रहे थे कि मेरे और बेटे होते तो मैं उन्हे भी देश की सेवा मे लगाता। क्या कलेजा है पिताओं का..इन माताओं का, इन पत्नियों का, इन बहनों का...!

ज़िक्र करूँगी मेजर कमलेश का भी जो वीर जी के साथ वाले बेड पर हैं। उन्हे दाहिने हाथ और कमर में गोली लगी है। आप सब उन्हे भी अपनी शुभकामनाएं भेजें। किसी अखबार में किसी चैनेल पर, किसी ब्लॉग पर उनका जिक्र नहीं हुआ..!

और एक धन्यवाद वीर जी आप अपने बड्डी को पहुँचाइयेगा जिसने ५‍.३० से ११.०० बजे तक उम्मीद बँधाये रखी। आपको भी शायद पता नही कि "जब मैने ५.३० बजे आपको मैसेज किया कि अगर आप ठीक हैं तो एक मिस कॉल करिये" तो एक मिस काल मेरे पास आ गई थी। फिर बहुत देर तक फोन ना उठने और कश्मीर से विपरीत खबर के फ्लैश आने पर कई मैसेज के जवाब ना आने पर जब मैने झल्ला कर लिखा था कि "आप एक मिनट में फौजी बन जाते हैं। पीछे भी कुछ है।" तो मेरे पास एक मैसेज आया "सब ठीक है।" और थोड़ी निश्चिंतता फिर हुई। ये तो तब पता चला जब आप ने बताया कि आप तो तीन बजे से १० बजे तक होश मे ही नही थे

Tuesday, September 22, 2009

मिलना अजीज़ों का

पिछले दिनो मौका मिला दिल्ली जाने का जिस सुबह ९ बजे पहुँची और रात नौ बजे चल दी। मिलना तो बहुत लोगो से था मगर मिल पाई कुछ ही लोगो से। मगर हाँ जिन से मिली उनका मिलना जीवन भर ना भुला पाऊँगी।

वरुण की तबीयत के चलते मीनाक्षी दीदी से अक्सर मिलने की बात हुआ करती ही थी। कई बार मन हुआ कि बस शनिवार रविवार का कर्यक्रम बना कर पहुँच जाया जाये। मीनू दी माँ का असल रूप हैं। मैं लखनऊ से कानपुर शायद उतनी जल्दी नही पहुँच पाती होऊँगी, जितनी जल्दी वो दुबई से दिल्ली पहुँच जाती हैं। कई बार दीदी का भी प्रोग्राम कानपुर तक आने का बन कर रद्द हुआ। ऐसे में जब ये खबर लगी की हमें दिल्ली जाना है तो उन्हे खबर देना अपना पहला कर्तव्य था। यूँ मिलने की उम्मीदे शुरू से अंत तक नही ही थी। मगर लोकेशन मैं देती रह रही थी उन्हें।

दूसरा व्यक्ति था अर्श.. जिससे रोज चैट पर एक बार बुज़ हो ही जाती है और साथ तो उसे भी बतान ही था।

और तीसरा था राकेश... जिससे मिलना नही था.. बस मिल गई..... अपनी किस्मत और उसकी पता नही किस चीज़ से

तो मेरी ये यात्रा शुरु हुई ३ सितंबर की रात से। अच्छी बात ये है कि हम खुद चाहे कुछ कर पाये या नही मगर हमारे ५-६ साल ही बाद पैदा हुए बाल बच्चे बहुत कुछ कर गये है। तो अब हमें करना बस इतना होता है कि हम अपने मातृत्व की दुहाई दे कर उन्हे कहीं भी बुला लेते हैं और ऐश करते हैं। तो जाते समय इसी प्रकार का मेरा सुपुत्र अमित अपनी आइटन लेकर पहुँच गया था और दिल्ली स्टेशन पर मेरा दूसरा सुपुत्र (भांजा) एस्टिलो ले कर खड़ा पाया गया। फिर उसने अपना पुत्र धर्म निभाते हुए मुझे मेरी कज़िन (दीदी)के घर सरोजिनी नगर छोड़ा,कार और एक दिन के लिये एक्सप्लोर किये गये ड्राइवर को मेरी सेवा में छोड़ा और खुद बस पकड़ कर कैसे गया ये उसकी अपनी समस्या रही।

यहाँ से मैं विजू (विजित)को तो अपने साथ ले ही गई थी, जो मेरा छोटा भांजा है और मेरे साथ ही रहता है वर्तमान में। स्टेशन से सरोजिनी नगर के बीच मैं हर फोन पर अपना डायलॉग दोहराती रही " मुझे इतने बजे यहाँ, इतने बजे यहाँ और इतने बजे यहाँ पहुँचना है तो मुझे जहाँ कैच कर सको कर लेना" जिस का अब तक मजाक उड़ाया जाता है घर में लड़कों द्वारा।

मैने लखनऊ से राकेश को अपने प्रोग्राम के विषय मे बताया था, तो उसने बेचारगी के साथ कहा कि "दीदी जाना तो दिल्ली मुझे भी है, मगर आपके दिल्ली से लोट आने के बाद। मगर जब मैने जाने के दो दिन पहले बात की तो पता चला कि उसका कार्यक्रम अचानक बदल गया और वो दिल्ली पहुँच गया है।

तो मेरा काम मालवीय नगर के आस पास कहीं था। जो कि उम्मीद से अधिक जल्दी निपट गया। मीनू दीदी के हाथ से तो मैं छूट ही चुकी थी। मुझे लगा कि अब तो मुझे वो कैच कर नही पाएंगी। मैने अर्श को फोन किया कि हम यहाँ से अक्षरधाम मंदिर जा रहे हैं तो तुम मुझे वहीं पर कैच कर लो। वो बेचारा तुरंत अक्षरधाम के मंदिर की तरफ चल दिया। इधर मैं जब लगभग २० मिनट की यात्रा कर चुकी तो मुझे लगा कि ये तो वही गलियाँ हैं जहाँ से हम अभी गुज़रे थे। मैने ड्राइवर भाई से पूछा तो उसने बताया कि सही समझा आप सरोजिनी नगर के पास हैं। यह पूछने पर कि अभी कितनी देर लगेगी अक्षरधाम मंदिर पहुँचने में उसने बताया ४५ मिनट..... हमे लगा कि इतना भागने दौड़ने से अच्छा है कि घर चल कर चाय पी जाये और थोड़ी पीठ सीधी की जाये। तो तुरंत हमने अक्षरधाम की ओर अग्रसर अर्श को फोन किया कि हमने अपना इरादा बदल दिया है और वो अपना रास्ता बदल दे। उसने तुरंत एक आज्ञाकारी अनुज की तरह बिना शिकायत अपना रास्ता बदल दिया।

मेरे दीदी के घर पहुँचने के मुश्किल से १० मिनट बाद ही अर्श ने ढेर सारे गुलाबों से सजे बुके के साथ प्रवेश
किया और जुमला फेंका " Lots of rose for a for a rose" हमने उसे समझाया कि भईया हम लड़कियों का बड़ा प्राबलम ये है कि हम लोग जानते हैं कि अगला झूठ बोल रहा है और फिर भी खुश हो जाते हैं। तो उसने तुरंत मेरी गलतफहमी दूर करते हुए कहा " आप इसे खूबसूरती से क्यों ले रहीं हैं ? मेरा मतलब है कि जो काँटो मे भी खिला रहे और अपनी खुशबू बिखेरता रहे" तो हम जितना चढ़े थे उससे दोगुना नीचे उतर आये।


खैर अर्श के आने के साथ ही साथ मेरा विजू जो थोड़ी देर को नीचे चल गया था वो भी आया और आते ही अपनी नान स्टाप कॉमेडी शुरु कर दी। अर्श ने आश्चर्य से मुझे देखते हुए कहा " आप से भी ज्यादा कोई बोल सकता है क्या.....?" मैने उससे कहा "भईया जिस घर मे भगवान ने मुझे जन्म दिया है वहाँ खेती होती है बातों की।"
अभी वो इस विषय पर सोच ही रहा था कि मेरा दिल्ली निवासी एमबीए रत भतीजा आशीष भी पहुँच गया वहाँ और उस बालक की खास बात ये है कि जिस खेती की बात मैं कर रही थी वो उस फसल का सर्वश्रेष्ठ खेत है। अर्श फिर आश्चर्य में आ गया "आप दोनो से भी ज्यादा कोई बोलता है क्या...?????" अब कौन समझाये उस शख्स को हम लोग खानदानी मितभाषी लोग हैं।

चलिये मैं अर्श के साथ कम बोलने की कोशिश कर ही रही थी कि तभी मीनू दी का फोन आ गया...! "तुम तो बाउंड्री लाइन पार कर गई, अब तुम्हे कहाँ कैच किया जाये ?" हमने कहा "हम दर्शक दीर्घा मे है, जो चाहे कैच कर सकता है अब.. अब हम उड़ नही रहे।"

बस थोड़ी ही देर में मीनू दीदी भी एक उधार के ड्राइवर के साथ पधार गईं। ढेर सारे मातृत्व की धनी मीनू दी भी मेरी मितभाषिता की शिकायत करती रहीं...! कह रहीं थीं कि कभी कभी तो हम फोन लिये बैठे रहते हैं कंचन बोलने का कोई मौका ही नही देती। अब मतलब कि हम कुछ बोलेगे तभी ना अगला कुछ जवाब देगा।हम कुछ बोलते ही नही हैं किसी से अपनी मितभाषिता के चलते।


खैर मिलते मिलाते वक़्त कैसे फुर्र हुआ कुछ पता ही नही चला। मीनू दीदी सीमित समय के लिये आई थीं चली गईं और मैं स्टेशन जाने को तैयार होने लगी।

उधर राकेश का फोन आ गया था कि वो गुड़गाँव से दिल्ली स्टेशन के लिये कूच कर चुका है। और उधर हम जब स्टेशन को निकलने लगे तो पता चला कि ट्रेन पुरानी दिल्ली आयेगी। राकेश बस नई दिल्ली पहुँचा ही था कि हमने फोन पर उसे निदेश दिया पुरानी दिल्ली पहुँचने का। बेचारा करता ही क्या ? तुरंत ड्राइवर को इन्स्ट्रक्शन दिया पुरानी दिल्ली पहुँचने का।

दिल्ली स्टेशन हम दोनो के लिये नया ही था। हम दोनो कम से कम १५ मिनट तो एक ही जगह पर एक सरे को ढूँढ़ते रहे। मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था। मेरी ट्रेन का समय हो गया था और वो नज़र ही नही आ रहा था। मैने झुँझला कर कहा "तुम लौट जाओ, मेरी तुमसे मुलाकात लिखी ही नही है।" तो ज़ाहिर सी बात है कि किसी को भी बहुत खराब लगेगा ये सुनकर। राकेश ने कहा कि "मैं आपका तो कुछ नही कर सकता था, मगर मेरा मन हुआ कि मैं इस फोन को उठा के फेंक दूं जहाँ से ये सुनने को मिल रहा है।"और अँत में अर्श ने ही राकेश को पहचाना और आखिर दो मिनट के लिये हम स्टेशन पर मिले।

मुझे वहाँ से सिद्धार्थनगर अपनी बड़ी दीदी के घर निकलना था। मेरे साथ मेरा भांजा विपुल भी आ रहा था। वो आफिस से सीधे स्टेशन पहुँच चुका था। मुझे लेकर दोनो भांजे (विपुल और विजू)प्लेटफॉर्म पर पहुँचे दोनो अनुज साथ थे...! हम ट्रेन छूटने के अंतिम समय पर ही पहुँचे थे राकेश के लिये मैं समझ ही नही पा रही थी कि मिली हूँ या बिछड़ रही हूँ...!

अभी सब बैठे ही थे मैने विपुल से अपने दोनो अनुजों का परिचय कराया ही था कि ट्रेन हिल पड़ी...! और दोनो अनुजों को उतरना पड़ गया.. ! शहीद एक्सप्रेस की हालत भी शहीदों की समाधि जैसी ही है कुछ। अँधेरा बहुत था वहाँ। जाते जाते राकैश जो कह गया वो ठीक से तो उसे भी नही याद है...!तरंत जो मन में आया वो..! मगर था कुछ इस तरह...



ये माना कि उस तरफ अँधेरा बहुत है,
मगर जितनी हमे चाहिये थी,
रोशनी इस तरफ मिलती रही
और दोनो चले गये..! मैं मन से दोनो को आशीष देती रही बस...!

और ये प्रिय और प्यारे जूनियर्स से मिलने का दौर अभी शायद खतम नही होना था।

जाने के बहुत पहले एक दिन अर्श ने बताया था कि अंकित आपके शहर में पहुँचे है, मिले कि नही?? मुझे लगा कि वो आ कर चला गया होगा...! मगर फिर जब उसके ब्लॉग पर गई तो पता चला कि वो तो लंबे समय के लिये आया है और बहुत से लोगो ने मेरे लिये उनसे सलाम भी भेज रखा था..! तो मैने तुरंत गुरुकुल की सीनियर होने की धौंस देते हूए कहा कि थोड़ा डरा करो..सीनियर हैं तुम से रैगिंग वैगिंग ले लेगे तो लेने के देने पड़ जायेंगे बिना मतलब..! घर आने पर उसने एक बार दबी ज़ुबान से कहना चाहा कि " गुरु जी से शिकायत हो जायेगी..!" तो हमने तुरंत हड़का लिया...!"ये बातें गुरु जी तक नही पहुँचनी चाहिये..! वर्ना.....!!!!

खैर दिल्ली से आने के बाद अंकित से मिलने की तारीख तय हुई और मैने उसे अपनी दीदी के घर बुला लिया चूँकि उस दिन अचानक हमे दीदी ने अपने घर बुला लिया था।

अंकित से मिलने के पहले उससे कोई भी कम्युनिकेशन नही था। मगर मिलने के बाद लगा ही नही..! बहुत अच्छा बच्चा है..!संस्कारी.. जैसा कि मैने उसके ब्लॉग पर भी लिखा " ऐसा बच्चा जिसके अंदर पहाड़ी भोलापन अब भी बरकरार है।

अंकित के साथ घर में अकित की शेर ओ शायरी का भी दौर चला जो कि काफी रोचक था..!


लीजिये सब से पहले बालक की खिंचाई अंदाज़ देखिये



और फिर ये शेर



अजीब हालातों से गुज़र रहा हूँ,
अपनी ही बातों से मुकर रहा हूँ,
मेरी बातें मेरी बदमिजाज़ी नही
खाली बरतन हूँ अभी भर रहा हूँ

और कैट की तैयारी कर रहे विजू और आईआईटी की तैयारी कर रही सौम्या के लिये उसने कहा




जो बीता है भुला उसको, जो आगे है सुनहरा है,
नया जज़्बा नसों मे भर, नया आया सवेरा है,
भरोसा ही है इंसाँ का, खुदा को खींच लाया जो,
कहीं वो दूध पीता है,कहीं पत्थर पे उभरा है।

और फिर रिश्तों पर शेर के ठहाकों के बाद सुनाये गये दीदी को समर्पित ये शेर




मैं ग़लत था ये बात उसे काट रही थी,
इसलिये मेरी माँ मुझको डाँट रही थी

और ये जो विजू की ज़ुबाँ पर आज भी है


चाँद खिलौना तकते थे,
जब यारों हम बच्चे थे.
रिश्तों मे एक बंदिश है,
हम आवारा अच्छे थे...!

ऐसे ही बहुत से शेर ....रात के ११.०० बज चुके थे मुझे अपने घर निकलना था और अंकित को अपने होटल..! मैं और विजू उसे आटो तक छोड़ने गये...! जाते समय अंकित का पैर छूना ...बहुत सारा स्नेह उमड़ पड़ा और जाते जाते एक रिश्ता बना उससे...!

अनोखे लोग अनोखा अंदाज़..! राकेश ने जो विदा दी आपने सुनी..! अर्श ने जो कहा वो यूँ था

मैं खुश हूँ के तुने मुझे हाशिये पे रक्खा है
कम-से-कम वो जगह तो पूरी की पूरी मेरी है ...

और अंकित ने आटो मे ही लिखा

झूठे रिश्ते सच्चे लोग,
मिल जाते हैं अच्छे लोग
रिश्ते शायद तब हो ना हों,
जब समझेंगे रिश्ते लोग

दुआएं...दुआएं..दुआएं..जाने कितनी बार दुआएं निकल रही हैं इन प्यारे प्यारे अनुजों के लिये...सो आप भी शामिल हो जाइये मेरी दआ में

Friday, September 11, 2009

अपील एक माँ की


ज़रा सोचिये....! एक बार अपनी जिंदगी पर नज़र डालिये...! आपकी जिंदगी में भी कोई ना कोई तो ऐसा होगा ही ना जो हर मंदिर में जा कर आपके लिये प्रार्थना करता होगा, हर दरगाह पर आपके लिये धागा बाँधता होगा, हर मज़ार पर आपकी लंबी उम्र के लिये चराग जलाता होगा। दुनिया के सारे व्रत सारे टोटके इस उम्मीद पर कर रखे होंगे कि एक दिन सारी तपस्या रंग लायेगी, हर दुआ काम आयेगी और आप उन रास्तो को छोड़ कर लौट आयेंगे उस जिंदगी की तरफ जहाँ हर पल एक खटका सा नही लगा होगा....!

फिर उस रिश्ते का चाहे जो नाम हो... वो आपकी माँ हो, पिता हों, भाई हो, बहन हो, पत्नी हो, दोस्त हो या कोई भी पवित्र सा प्यारा सा रिश्ता....! कोई ना कोई तो होगा ही ना आपके जीवन में भी, जो चाहता होगा कि आप चलें तो आपके सिर पर कड़ी धूप भी न हो...! और आप..?? आप भी तो चाहते होंगे कि उसे धूप भी छुए तो शीतल बन कर। आप भी तो चाहे दुनिया के लिये कितने ही कठोर क्यों न हों, एक शख़्स है जिसका नाम आते ही कुछ भीग जाता है आपके अंदर। ज़रा गंभीरता से उसके बारे में सोच कर देखिये ना। आप जानते हैं....?? जब आप जेल में होते हैं ना, तो वो अपना बिस्तर ज़मीन पर डाल लेता है, क्योंकि वो सुख उसके लिये किसी काम का नही, जो आपको ना मिल रहा हो। वो जानता है, कि आप बहुत बुरे आदमी हैं, लेकिन फिर भी आप उसके लिये दुनिया में सबसे खास शख़्स हैं। वो आपकी हर हक़ीकत जानता है, लेकिन फिर भी वो आपके हर झूठे वादे को हक़ीकत ही मानता है। वो जानता है कि आपकी किसी भी बात का विश्वास नही करना चाहिये, लेकिन वो चाहता आपकी हर बात पर विश्वास करना। वो जानता है कि वो भ्रमों मे जी रहा है, लेकिन उसने मान लिया है कि उसका ये भ्रम कभी नही टूटेगा.....

आप जानते हैं ? कि जब जब आप अपना वादा तोड़ते हैं, उसका दिल तिड़ते हैं, उसका विश्वास तोड़ते हैं, तो वो भी अपने आप में टूट जाता है,लेकिन फिर से वो जुड़ने की कोशिश करता है हर बार..! नई उम्मीद जोड़ कर, आपके वादों से फिर से जुड़ कर, अपने टूटे विश्वास जोड़ कर, अपना दिल संभालता है, लेकिन उस दिन, जिस दिन उसका वो भरम टूटता है,जिसके लिये उसने मान रखा है कि कभी नही टूटेगा, उस दिन वो बिखर जाता है...बिलकुल बिखर जाता है। और आप जानते हैं ना..टूटी चीज जुड़ सकती है, बिखरी चीज कहाँ...?? फिर वो जुड़ने की स्थिति में होता ही नही और सम्हल पाता ही नही

हाँ, हाँ पता है मुझे...! पता है आपको मौत से डर नही लगता। मौत तो एक दिन सबको आनी है। तो क्या होगा ..? कल ना सही आज सही, लकिन सोचिये ज़रा मेरे जैसे उस शख़्स के बारे में, जिसे आप रोज़ मरने के लिये छोड़ जाते हैं। जिसके एक आँसू पर आप खून बहा सकते हैं, वो जिंदगी भर खून के आँसू रोता रह जाता है।

कोई भी शख़्स बुरा नही बनना चाहता, परिस्थितियाँ उसे बुरा बना देती हैं। आप भी शायद खुशी से किसी निर्दोष का घर ना उजाड़ते हों।...हाथ तो आपके भी काँपते ही होंगे, मन तो आपका भी मसोसता ही होगा....!

लेकिन मैं ये भी जानती हूँ कि दुनिया का कोई काम आपके लिये कठिन नही है, तो ये काम इतना कठिन क्यों..??? ये काम जिसका वास्ता दूसरों से नही बल्कि आपके अपनो की खुशी से है।

मैं आपको उनका वास्ता नही देती जिन्हे आप किन्ही कारणों से कष्ट देते हैं। जिनका जीवन आपने जीने काबिल नही रखा। जिन्हे कई बार आप ऐसे मोड़ पर छोड़ आते हैं, कि आप जैसा एक और शख़्स अपने को, अपनों को और दुनिया को तबाह करने को तैयार हो जाता है।

मैं तो वास्ता देती हूँ आपको उनका जिन्हे आप हमेशा खुश देखना चाहते हैं। जिनके आँसू आप जैसे पत्थर को भी रुला देते हैं। आप चाहे खुद पे गोलियाँ झेल लें लेकिन उसके पैर में काँटा भी चुभे तो दर्द आपको होता है...! उसके आँसू पर आप अपना खून बहा देना चाहते है...! उसकी हँसी के लिये आप खजाने लुटा देना चाहते हैं...! मैं उन लोगों का वास्ता देती हूँ आपको। उन्हे मेरी तरह अकेला मत छोड़िये... दुनिया के लिये आप एक शख्स होंगे, लेकिन एक शख़्स के लिये आप सारी दुनियाँ हैं। उस शख्स की दुनिया मत सूनी कीजिये। आपके बाद जीना वो चाहता नही और मर वो पाता नही। मैं आपके हाथ जोड़ती हूँ, मुझे वो आख़िरी शख्स बन जाने दीजिये। अब किसी और को ये दुख झेलने के लिये मात छोड़ जाइये आप....! ये दुःख सहा नही जाता... ये दुःख कहा नही जाता...!!!!!


नोट : बहुत पहले एक कहानी लिखी थी....! ११ साल पहले...! कहानी क्या लघु उपन्यास था। मेरे दिल के बहुत करीब....! मेरा ड्रीम प्रोजेक्ट था वो...! कभी कोई छपने को भेजने के लिये कहता भी तो मैं नही देती। मुझे उस पर फिल्म बनानी थी। या फिर जेलों में जा कर प्ले करवाना था। और कहानी के अंत में ये मोनोलॉग नायक की माँ से बुलवाना था। मैने तो बहुत हिफाज़त से रखा था उसे.....जाने कैसे मेरी शेल्फ में अब नही है वो...! मैने कहाँ कहाँ नही ढूँढ़ा...! मन्नत भी मानी...मगर मैं जिस के लिये मन्नत मान लूँ, वो तो पक्का नही पूरा होना है। ये मानी बात है। हँसी तो तब आई जब किसी ने मुझसे कहा कि अगर कोई चीज खो जाये तो दुपट्टे में गाँठ बाँध कर छोड़ दो..चीज मिल जायेगी। मैने अपने प्रिय सूट को छोड़ ही दिया तब तक के लिये जब तक वो मिल ना जाये...! थोड़े दिन बाद ढूँढ़ा तो वो दुपट्टा ही गायब था, जिस में गाँठ डाली थी....!
आज जब लिखने बैठी तो कई बार लगा कि इस वाक्य को बदल दूँ तो ज्यादा असर पड़ेगा...मगर फिर हिम्मत नही हुई। ये तब की बात है जब मैं सिर्फ अपने लिये लिखती थी....!

Friday, August 28, 2009

कितने काग कबूतर भेजूँ, इक खत हर पल होता है।



ये गीत जिसे मैने गज़ल बनाया था, अचानक जैसे पैदा हो गया था। कमज़ोर गणित के कारण बिल्स सम्मिट करने का काम हमेशा मुझे तनावपूर्ण ही लगता है और उस तनाव में अचानक जाने कहाँ से इन्हे जन्म लेने की ज़िद आ गई। मैं मना कर रही हूँ, मगर ये बस अभी की जिद लगाये पड़ी है। जल्दी से मुखड़ा कागज पर उतार कर दूसरा काम करना शुरू किया और घर पहुँचते ही पूरा किया। अब ये भी पता था कि ये बहर में नही है। बहर में लाने के लिये छूने चलो तो ये बिगड़ैल बच्ची की तरह हाथ झटक देती। मैं कहती आ सँवार तो दूँ और ये फिर हाथ झटक कर कोने में खड़ी जाती। नईईई कह कर। अब अभी अभी जन्मी इसकी जिद ना मानूँ तो कैसे और मानूँ तो कैसे। मुझे पता था कि ये ऐसे ही अगर बाहर निकल आई तो इसका तो कुछ नही, मेरे ऊपर गुरु जी के डंडे पड़ जायेंगे। इनका क्या ये तो वाह वाह देख कर इतराती रहेंगी। यहाँ गुरुजी का ना बोलना भी बहुत कुछ बोल जायेगा।

खैर तीन दिन बाद मैने गुरु जी से इजाजत माँगी कि क्या इनकी जिद पूरी करी जा सकती है तो गुरु जी ने कहा कि इसे गीत बना दो। और इनका दूसरे तरीके से इलाज़ किया उन्होने। तो अब ये जो पैदा हुई तो गज़ल थी मगर जींस शर्ट पहना कर अब गुरु जी ने इसे गीत बना दिया है...! और जहाँ जहाँ ये पावडर लिपिस्टिक दिख रहा है भूल से वो इनका गज़लापा झलक जा रहा है।

तो लीजिये पढ़िये ये गीत। जो हरी लाइनें हैं वो गुरु जी ने बढ़ाई है। हर अंतरे कि पहली और तीसरी पंक्ति मेरी है। अब इतनी जिद तो माननी ही पड़ेगी ना इसकी...! क्या करें जैसी भी है अपनी है ....



मेरे संग ही होता है या तेरे संग भी होता है,

अब तन चाहे जहाँ कहीं हो मन तेरे संग होता है


बात करें तो करें कौन सी, बातें होती कोई नही,

और छुपानी हो तुमसे बातें ऐसी भी कोई नही

लेकिन बातें तुमसे हों दिन रात, यही मन होता है।


सूरज, चंदा, रात, दोपहरी सब वैसे के वैसे हैं,

पर्वत, सागर, नदिया, बादल भी जैसे के तैसे हैं

पर कुछ है जो बदल रहा है, ये संशय क्यों होता है ?


भोर भये से रात गये तक एक अजीब सी हलचल है,

मन को लाख संभाला लेकिन होता फिर भी बेकल है

कुछ है जो मिलता है हर पल और कुछ हर पल खोता है।


छोटे छोटे संदेशे हर पल तुमको पहुँचाने हैं,

लिक्‍खे अनलिक्‍खे काग़ज़ तुमको कितने भिजवाने हैं

कितने काग कबूतर भेजूँ, इक खत हर पल होता है।


रोने को हो काँधा तेरा, हँसने को हो साथ तेरा,

गिरने से पहले ही मुझको आकर थामे हाथ तेरा

तेरे साथ रहूं जब भी तो असर दुआ में होता है



नोटः चित्र में जो बच्ची है वो मेरे बहुत ही प्यारे रमेश भईया की बेटी है....., जो मुझे छोड़ कर लंदन चले गये हैं...! इसके पैदा होने के दो साल पहले ही इसका नाम मैने उदिशा रख दिया था। और ये भी तमन्ना थी कि इसके नाम के आगे सिंह नही सूर्यवंशी लगे जिस से पता तो चले कि हम मातृ पक्ष से राम जी के खानदानी हैं। तो ये हैं उदिशा सूर्यवंशी...! घर में इसे सब मिष्टी बुलाते हैं...! ये जो गीत बना वो भी इसी सा नटखट लगा मुझे..! देखिये ना कैसे बिना कपड़ों के खुश है...! जिद्दी...! और जब सँवारो तो कैसा मुँह बना रही है..! इसे नही पता कि इसके भले के लिये ही कहा जा रहा है सब...!

Monday, August 17, 2009

पत्थरों का गीत



८ साल पहले एक पत्थर की आँख में आँसू देख कर ये कविता लिखी थी। बाद में ये कुछ लोकल पत्रिकाओं में छपी भी। मगर जैसा मैने लिखा था वैसा इसे समझा नही गया। इसलिये ब्लॉग पर लगाने का मन नही हुआ। बहुत दिनो बाद फिर अभी पिछले रविवार इस गीत को फिर किसी पत्थर के सामने गाया और दो पंक्तियाँ गाते ही, पत्थर नम हो गया....! मुझे लग रहा है ये गीत बना ही पत्थरों के लिये है शायद......!

दस्तक हुई द्वार खोला तो देखा द्वार खुशी आई,
किंतु हाय मजबूरी मेरी, बंद किवाड़े कर आई।


बार बार उस खुशी ने फिर भी द्वार हमारा खटकाया,
किंतु हमारी मजबूरी से कोई ना उत्तर पाया।

मैं नारी करती क्या आखिर खुशी तो चीज़ पराई थी,
मज़बूरी मेरी अपनी थी. साथ सदा दे आई थी।

मंदिर मंदिर जा कर जिसकी खातिर जोत जलाई थी,
वही मेरा घर मान के मंदिर, जोत जलाने आई थी।

पहली बार हुआ था ऐसा कैसा आर्द्र नज़ारा था,
हाय खुशी ने आँखों में आँसू भर मुझे पुकारा था।

देख खुशी की आँख में आँसू हृदय हमारा भर आया,
बता नही सकती, कि कैसे खुद पर फिर काबू पाया।

खोल दिये दरवाज़े मैने खुद पर जब काबू पाया,
झड़क दिया उस खुशी को मैने कड़े शब्द में समझाया,

"कैसी मेरी शुभचिंतक है, ये क्या करने आई है,
नारी और खुशी की जग में प्रीत भला निभ पाई है ?
हृदय धड़कता है सीमा में. सीमा में देखे दृष्टि,
जीवन के समझौतों में ही मुझको मिलती संतुष्टि।
घर मेरा मर्यादाओं का लगी रवाज़ों की देहरी,
अपनी सहज भावनाओं की मैं हूँ बनी स्वयं प्रहरी।
बड़ा सहज होता है जग में, तुम से रिश्ता कर लेना,
पर नारी के जीवन में है कहाँ सहजता से जीना।"

लौट गई धीमे कदमों से बात समझ उसके आई,
नारी और खुशी की जग में प्रीत भला कब निभ पाई।

भर आई आँखों की कोरें दूर, तलक देखा उसको,
कौन सांत्वना देता आखिर खुद ही समझाया खुद को,
बंद किये दरवाजे मैने और चुपचाप चली आई
बता नही सकती कि खुद में कितनी संतुष्टी पाई

नोटः ब्लॉगिंग शुरु करने के पहले मनीष जी के सुझाव पर मैंने कुछ दिनों तक परिचर्चा मे अपनी कविताएं डाली थी। उसी समय यह भी कविता डाली थी। जिस पर कुछ लोगों को नारी को इतनी अबला दिखाने पर ऐतराज़ हुआ था। उन सब लोगो से पहले ही क्षमा..! मेरा ऐसा कोई उद्देश्य नही है..! परंतु ये कविता मेरे मन के बहुत करीब है।

दूसरी बात जब मैने ये कविता लिखी थी तो मुझे लगा था कि बड़ी हिम्मती कविता है ये, क्योंकि अपनी सुख सुविधाएं बटोर लेने से ज्यादा हिम्मत का काम है पा कर भी त्याग देना...!

Sunday, August 2, 2009

मेरा पहला दोस्त



ये संजोग ही था कि मेरे जन्म के कुछ पहले से जो त्रासदियाँ परिवार के ऊपर आई थीं वो लवली के जन्म के साथ ही सुधरीं। जिसका कभी न मुझे ताना मिला ना उसे बधाई।

वो मुझ से तीन साल छोटा है। अपनी जनरेशन में मैं सबसे छोटी और अगली जनरेशन में वो सबसे बड़ा। मेरा सबसे बड़ा भतीजा। हमेशा से बहुत हिम्मती। शुरु से ही इंजेक्शन लगने पर भी रोता नही था। बड़े बच्चों के साथ खेलते हुए जब सिर फूट गया तो बुलंदी से कहा "ये देखो ये हिम्मत का खून है।" सिर में छः टाँके और रोने का नाम नही। क्रांति फिल्म देखने में एकदम से उत्साह आ जाता है उसे "कलांति लिख दूँगा।"

हम साथ साथ खेले। दीदी वाला खेल। मै दीदी बनती और वो और पिंकी मेरे छोटे भाई बहन। मैं घर में खाना बनाती और वो पायलट बनता। जहाज उड़ाता और घर आ कर कहता खाना दो जल्दी।

तब वो एकदम सच बोलता था। कुछ भी झूठ नही और मैं कल्पनाओं की दुनिया में रहती, दिन भर झूठ बोलती। पता नही कब बदलाव आया, जब उसे लगा कि झूठ के बिना दुनिया में गुजारा नही है और मुझे लगा कि झूठ बोलना पाप है। शुरुआती दौर में समस्या तो मेरे ही साथ थी। अम्मा कहती वो झूठ बोलता ही नही है और ये बहुत झूठ बोलती है और मैं पिट जाती :)।

साथ में भी खूब झगड़े होते। वो मारता और जीत जाता, मैं थोड़ी सी धूल झाड़ कर उसके शरीर की हार जाती। मेरे पास एक हथियार था। खुट्टी..! और उसकी एक ही कमजोरी। वो बिना बोले रह नही सकता था मुझसे। ..और मैं हार कर जीत जाती।

मेरा एड्मिशन सीधे चौथी में हुआ, वो वहीं नर्सरी बी में। धूप में बच्चो की बेंच लगा कर स्वेटर बुनते हुए मेरी क्लास के बगल में जब माधुरी मैडम उसे स्केल पर स्केल मार रही थीं और ये जान कर कि मैं उसे देख रही हूँ, वो हलका सा सी बोल कर हाथ हटा ले रहा था, तो उसके बदले आँसू मैं गिरा रही थी और जब माधुरी मैडम से मैने कहा था कि मैडम उसके तो पहले से बुखार रहता है उसे मत मारा कीजिये तो कई दिन तक व्यंग्य सुनने पड़े थे मुझे उनके।

हम लोग १० पैसे में पाँच टाफियाँ खरीदते और ढाई ढाई बाँट लेते। बाबूजी उसको शेक पिला कर लाते और कहते कि गुड्डन को ना बताना। तो वो बार बार मेरे सामने आ कर डकारें लेता और मुँह पोंछता तब तक जब तक मैं पूछ ना लूँ कि कुछ खिलाया क्या बाबूजी ने और वो कहता "हम नही बतायेंगे बाबा ने मना किया है।" ... इतना तो बहुत था मेरे रोने के लिये।

अब उसके पास सायकिल आ गई। वो मुझे आगे बैठा कर शाम को टहला लाता। दूर दूर तक जहाँ तक मैं कहती। मेरी सहेलियों के घर, अपने दोस्तों के घर, विकास की दुकान पर से हेयरबैड और कापियाँ भी दिला देता।

हमारी दुनिया बदल रही थी। हम इस बदलती दुनिया के गूढ़ रहस्य भी सबसे पहले आपस में ही पूछ लेते। और अपनी ताकत भर कोई एक दूसरे को निराश ना करता। अब मन ही मन हँस भी लेते हैं, उन बेवकूफियों पर।

सुबह से चल रहा था...... वो चलते हुए एक टीप मार देता और आगे बढ़ जाता। फिर मैं अपनी बुद्धि का प्रयोग कर के किसी तरह एक बार मारती, २ मिनट बाद वो फिर मार कर आगे बढ़ जाता। मैं शांत हो गई। वो कॉलेज जा रहा था। मुझे दरवाजा बंद करना था। मैंने सीधा निशान साध कर चप्पल फेंकी और झट दरवाजा बंद कर लिया। अब क्या करोगे ? अब तो शाम को आना है। और मैजिक आई से अपनी विजय का नजारा देखा तो वो अपने दोस्त के साथ हँस रहा था और दोस्त धूल झाड़ रहा था। वो हट गया था, चप्पल दोस्त को लगी थी। बहुत दिनो तक वो दोस्त आने पर कहता "बुआ चप्पल पूछ कर चलाना।"

रात को उसने मेरी फोटो पर माला चढ़ा दी। सुबह दिखा दिखा कर हँस रहा था। मैं भी मुस्कुरा रही थी। झूठ मूठ का चिढ़ कर। तभी विक्की आता है, उसका दोस्त मैं अंदर चली गई थी थोड़ी देर को। फोटो देखते ही चौंक जाता है " अरे ये क्या....??" वो आज ही जयपुर से आया है। लवली सीरियस हो जाता है " तुम जयपुर में थे।" " अरे यार बताना तो चाहिये था।" कहते हुए गला भर आता है विक्की का। तब तक चीजों से अंजान मैं बाहर निकल आती हूँ। और विक्की टूट पड़ता है लवली पर।

उसने मुझे बताया कि एक लड़की उसे बहुत अच्छी लगने लगी है। मैं उसके घर फोन कर के उसे बुला दूँ। मैने झट फोन कर के बुला दिया। वो भी जब घर पर फोन करती तो मुझे ही बुलाती फिर मैं लवली को बुला देती। मेरी तो सारी सहेलियाँ उससे बात करती थीं। इसमे किसी को पूछना भी नही था।

भईया की शादी तय थी। मुझे इस बार खूब तैयार होना था। मनोरमा और गृहशोभा बताते थे कि बाहर अम्मा के काजल और छोटी सी बिंदी से अलग भी बहुत सी चीजें हो गई हैं। सुबह जब वो स्कूल जाता तब मैं उसे पैसे पकड़ा देती और शाम को वो शर्ट के अंदर से आई लाइनर और लिपस्टिक निकाल लाता अकेला पा कर।

वो रात में देर से आता। घर में भईया गुस्से में आग बबूला रहते। एक आध पड़ते पड़ते मैं धीमे से अम्मा से बताती और अम्मा कसम दिला कर छुड़ा लातीं। वो खाना लेता और थाली लिये मुस्कुराते हुए मेरी रजाई हटा देता। उसे पता होता कि मैं सोई नही हूँ। और वो मुसकुरा देता। "पागल हो तुम, तुम्हे डर नही लगता।" वो हँस के कहता "क्या करेगे मारेंगे ही ना..??" " ढीठ" मैं मन मे कहती। और वो कहता " अच्छा सुनो” और सिरहाने बैठ जाता पूरे दिन की कहानी सुनाने "किसी को बताना नही" कह कर बहुत कुछ बताता।

एक दिन फोन वाली लड़की के विषय में मैने पूछा "क्या तुम उसके साथ दूर तक जा सकोगे। घर से विरोध कर के। अगर हाँ तो कोई बात नही, अगर ना तो बात बिगड़ने के पहले संभाल लो" और उसने कहा ना और बात बिगड़ने के पहले संभाल ली। फोन वाली लड़की उसे और मुझे और अधिक चाहने लगी।

फिर रोज के किस्से। जाने कितनी नई लड़कियाँ, जाने कितने लेटर, जाने कितने गिफ्ट। मेरे पास सब इकट्ठा। मेरा अपना सीक्रेट था उसका सीक्रेट संभालना। उस छोटे से घर में। एक तो वो सुंदर था, दूसरे बात करने में बहुत चतुर। लाइन क्यों ना लगती।

उसने कराटे ज्वॉइन किया। दरवाजे, खिड़कियाँ, दीवाल और जितना बर्दाश्त हो सके उतना मैं उसके प्रैक्टिस क्षेत्र बने। " आज मैने ब्रिक तोड़नी सीखी"
"अरे तो पतली वाली ना"
"अरे पतली मोटी क्या" और वो घर के बाहर से तीन ईंटे ले आया, दो पर एक को रखा और एक जोरदार हाथ के साथ ईंट टूट गई। वाह...!!!! मैं चकित...!!मगर कुछ दर्द भी हो रहा है हाथ में। एक्सरे कराया गया। हाथ भी टूट गया है। आपरेशन करना पड़ेगा, रॉड डालनी पड़ेगी।

मैं उसे देखने हॉस्पिटल जाती हूँ वो हँस देता है मैं भी हँस देती हूँ " जॉनी आपके दाँत बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर मत रखियेगा।" वो अपने अंदाज में कहता है।
उसके दोस्त की मम्मी मुझे एकटक देख रही हैं। थोड़ी देर में पूछती हैं "कोई एक्सीडेंट हो गया था ? "
"नहीं..! पोलियो..!"
" तो दाँत कैसे टूट गये।"
"दाँत...?? दाँत टूट गया क्या मेरा ?" मैने हड़बड़ा कर शीशा ढूँढ़ना चाहा।
"वो कह रहा है ना ..नकली दाँत...!!!" उन्होने कन्फ्यूज़ होते हुए कहा।
ओह याद आया " जॉनी आपके दाँत बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर रखियेगा।" उन्होने समझा नये दाँतो का सेट है, लड़का मुझे हिदायात दे रहा है। ठहाका..! ज़ोर ज़ोर से ठहाका लगा रहा है वो। और मैं अपनी हँसी दबाते हुए उन मम्मी जी की सिचुएशन संभाल रही हूँ...!
" मेरे साथ भी हो जाता है।" कह कर।

उसके कोच आते हैं " अविनाश ये क्या बेवकूफी है ? नेशनल टूर्नामेंट सामने है और तुम ये बेवकूफी कर रहे हो।"
" अरे सर टूर्नामेंट को तीन महीने हैं और ये एक महीने में फिट।"
टूर्नामेंट होता है। वो भारत दौरा करता हुआ सारे राउंड निकालता हुआ फाईनल ट्राफी ले कर घर लौटता है। गले में मैडल हाथ में ट्राफी। और वही हाथ मेरे पैर छू रहे हैं। मैं गदगद हूँ।

कॉलेज से रिक्शे से लौट रही हूँ। पीछे से कोई सायकिल की घंटी बजा रहा है। मुझे लग रहा है कि मैं सुन ही नही रही। कोई बनावटी खाँसी से ध्यान आकृष्ट कर रहा है। मैं फिर भी नही मुड़ती। कोई व्हिसिल के साथ धुन निकाल रहा है "रुक जा ओ जाने वाली।" मेरा खून खौल रहा है। कान से गरम गरम हवा निकल रही है। धड़कन तेज, बहुत तेज। अब तो मोहल्ला शुरु होने वाला है। अब क्या होगा ? कोई समझेगा थोड़े ना कि मैं इसे नही जानती। तो क्या हुआ कि अम्मा ने मना किया है इन जैसे लोगो के मुँह लगने को। आज तो पानी सिर से ऊपर गुजर गया है। मैं गुस्से में पलटती हूँ। देखती हूँ कि वो मुसकुरा रहा है। "बदतमीज" धड़कन कंट्रोल होती है और गुस्सा बढ़ जाता है। " पागल हो क्या तुम" गुस्से में समझ ही नही आ रहा क्या कहें। वो हँसे जा रहा है। घर आ गया, वो मुझे सहारा दे कर उतार रहा है। "हटो यहाँ से" कह कर मैं गुस्सा दिखा रही हूँ। "हुआ क्या" अम्मा पूछ रही हैं। "कुछ नही अम्मा, इन्होने कहा था कॉलेज लेने पहुँच जाना हम नही पहुँच पाये।" मैं कुछ नही बोलती गुस्से में। अंदर मुझसे पहले पहुँच कर भाभियों को बता बता कर खूब हँस रहा है " आज बुआ को खूब परेशान किया।" भाभी लोग हँस हँस कर उस पर गुस्सा हो रही हैं।

भईया ने उसे बाईक दिलवा दी। मेरा घूमने का क्षेत्र बढ़ गया।

कालेज में उसने झगड़ा कर लिया। घर में सब नाराज हैं। वो रात भर घर नही आया। मुझे रात भर नींद नही आई। दूसरे दिन जब आया मैने बात नही की।
"अरे यार हमने कुछ थोड़े ना किया था।"
मैं चुप। वो पता नही क्या क्या बताता है़, मुझे लगता है, उसने सच में कुछ नही किया था।

वो तनाव में है। "मै कुछ भी कर दूँगा"
"ये ठीक नही है, कुछ सोचा समझा करो।"
"हे भगवाऽऽऽऽऽन" वो चिढ़ कर हाथ जोड़ कर मत्थे पर लगाता है। " हमसे ये उपदेश वाली भाषा दूर रखा करो।"
मैं चुप हो जाती हूँ। सुबह वो वही करता है जो मैं कह रही थी।


मुझे आपरेशन कराने गोरखपुर जाना है। "तुम जरूर आ जाना...! आपरेशन वाले दिन वहीं रहना..! ठीक..!"
"हम्म्म् ठीक"
मैं स्टेशन के लिये जा रही हूँ। वो अचानक दौड़ता हुआ आता दिखता है। मैं रिक्शा रुकवाती हूँ। वो हाँफता हुआ आ कर कहता है " ये लो ये जब जब अचानक बोलेगी ना समझ लेना कि हम तुम्हे याद कर रहे हैं।" और वो दिल के शेप की की रिंग के बीच में लगी बटन को दबा देता है, आवाज आती है "आई लव यू" मैं मुस्कुरा देती हूँ। "लेकिन आना जरूर" कह कर उसे भेज देती हूँ।

मैं आपरेशन थियेटर में जाने वाली हूँ, वो नही आया। सिरहाने वो की रिंग रखी है। लोगो के आने जाने या बैठने पर वो अचानक बोल उठती है "आई लव यू" मुझे उसकी याद और गुस्सा एक साथ आता है। वो नही आया। होश में आने पर आधी बेहोशी में वो आवाज़ सुनाई देती है। दूसरे दिन किसी का हाथ लगता है, की रिंग टूट जाती है। मैं रोने लगती हूँ....!

दीदी मुझे केयर के लिये अपने साथ ले गई हैं। फोन की घंटी बजती है, मैं लेटे लेटे हेलो बोलती हूँ
"हेलो" उधर से आवाज़ आती है।
"दुष्ट, नालायक, बदतमीज..तुम रखो फोन"
"आई लव यू यार"
"तुम रखो बस...!"
"अरे बस बस..! समझा करो...!"
और मेरा रोना शुरू......! सिसक सिसक कर..! लीगल गालियाँ दे दे कर।

हम दोनो का १० दिन से अबोला चल रहा है। समझ में ही नही आता कब चिढ़ जाये। अब नही बात करूँगी मैं। काम से काम बस....! सुबह सुबह मेरा रिज़ल्ट निकल आता है। मेरी सर्विस लग गई। उसे खबर लगती है, तो दौड़ कर आता है। हम दोनो गले लग जाते हैं। वो हँस कर कहता है " कुछ तो अच्छा किया करो यार हम लोगो के लिये। अब ताना मिलेगा हम लोगो को। देखो वो इतने के बावजूद कंपटीशन निकाल ले गईं और तुम लोग..!!!" हम लोग फिर हँसने लगते हैं।

पोस्टिंग आंध्रा आई है। इतनी दूर...! अम्मा भेजने को राजी नही हैं। " रोज पेपर पढ़ते हो, कैसे जाने दें ? अरे ये तो अपनी रक्षा भी नही कर पायेगी।"

वो मेरे साथ जायेगा। अपनी पढ़ाई और काम छोड़कर। हम आंध्रा पहुँच जाते हैं। हम दोनो.....। यहाँ कानपुर में सुबह आठ बजे से रात १२ बजे तक उसके पैर में चक्की लगी रहती थी। वहाँ कोई जान पहचान नही। भाषा की समझ नही। वो सुबह मेरी व्हीलचेयर को धक्का लगाता हुआ आफिस पहुँचाता है। व्हीलचेयर छोड़कर जब मैं खड़ी होती हूँ, तो मेरे दुपट्टे में पीछे से गाँठ देता है। और आफिस के रूम तक पहुँचा कर वापस आ जाता है। घर लौट कर स्केच बनाता है।
फिर १ बजे पहुँच जाता है लेने। मैं घर लौट कर चावल चढ़ाती हूँ। हम दोनो खाना खाते है..! मैं उसके बनाये स्केच को एक शेर देती..! और वो फिर मुझे ले कर आफिस छोड़ने जाता है २ बजे। फिर ५.३० बजे पहुँच जाता है लेने। यही उसकी दिनचर्या है। वो कभी शिकायत नही करता। मगर अगर उसे नींद आ गई है और १० मिनट लेट है तो मैं गुस्सा हो जाती हूँ।

कहीं घूम कर आते हैं सॉउथ में। उसका बैंग्लौर जाने का मन है। मेरा तिरुपति। वो कहता है तिरुपति चलो। हरी भरी पहाड़ियाँ...! मैं सब देखे जा रही हूँ और वो मुझे देख रहा है। वो गोद में उठा कर मुझे तिरुपति दर्शन कराता है। शाम को सीढ़ियों पर बैठे हैं। मैं खुश हूँ..! "वो देखो लवली" "इधर देखो" कह रही हूँ। वो सब देखता जा रहा है।
"मेरा मन होता है कि मैं तुम्हे गोद में ले कर उस सबसे ऊँची पहाड़ी पर ले चलूँ। कभी तुम्हे ये ना लगे कि तुम नही जा पाई" अचानक वो कहता है। मैं इस वाक्य को अपने मन में कैद कर लेती हूँ। मुझे लग रहा है कि मै दुनिया की सबसे ऊँची पहाड़ी पर बैठी हूँ।
उसकी परीक्षा है। मैं मेडिकल लगा कर आ जाती हूँ। जाती हूँ तो जिद कर के उसके साथ नही जाती मैने अपना इंतजाम कर लिया है। मैं रह लूँगी अब।

मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया। उसने दिल्ली में कंपनी ज्वॉइन कर ली। कानपुर हम दोनो से छूट गया।

मैने कायनेटिक खरीद ली है और उसने कार...!

" अरे यार..! तुम तो उड़ाती हो गाड़ी...! दुनिया से बदला ले रही हो क्या ?"
"तुम पागल हो। चुप रहो...!" मैं अपना सधा सधाया जवाब देती हूँ।


वो मुझे कानपुर से लखनऊ छोड़ने आता है। हम लोग अपनी गाड़ियाँ छोड़कर रिक्शे पर घूमते हैं...! पुरानी बातों पर हँसते हैं।

उसकी शादी देखी जा रही है। वो कहता है तुम लोग देख लो। मुझे नही देखनी। मेरी पसंद से तो अच्छी ही है तुम लोगो की पसंद। भाभी ने लड़की पसंद कर ली है। हम लोग देखने गये हैं। जब मैं लड़की के ही घर पर हूँ तभी उसके दोस्त का फोन आता है। "हम्म्म् ... देख ली लड़की..??
मुझे पता है स्पीकर आन होगा। "हाँ" मैं कहती हूँ
“कैसी है ?”
"अब मुझसे सुंदर तो तुम जानते ही हो....!"
"कि सब होते हैं..! आगे बताओ..??
" तो जाओ फिर जो सुंदर है, उसी से बात कर लो"
" अरे मतलब समझो.. कि तुम से सुंदर तो कोई हो ही नही सकता। मगर उसके बाद फस्ट रनर अप हैं ना।"
"हाँ वो है।" और फोन ठहाकों से गूँज जाता है।


उसका तिलक है...! मुझे सबसे पहले तैयार हो कर खड़े रहने की हिदायत मिली थी। मगर मैं नही हो पाई। साड़ी पहननी थी। बहुत देर लगती है। फिर स्पेशली तैयार भी होना था। सब चिल्ला रहे हैं। फोन मैने सायलेंट पर लगा दिया है। भीड़ को हटाती हुई पहुँचती हूँ...! वो तैयार हो चुका है। कितना खूबसूरत लग रहा है। हमारी नज़र मिलती है।


नज़र मिलते ही मैं आदतन आँख दबा कर अँगूठे और तर्जनी का गोला बना कर सुपर्ब का इशारा करती हूँ और ठीक उसी समय बिकलकुल वैसा ही इशारा उस तरफ से होता है। हमें अपनी बेवकूफी का अहसास भी एक साथ होता है और हम दोनो एक साथ जीभ काट लेते हैं। कैमरे अचानक ये कैद करने को मुड़ जाते हैं....! मगर जो होना था वो तो हो चुका...!सब हँसने लगते हैं। पारुल (होने वाली बहू) के पास पहुँचने पर ये बात उसके भाई हँस हँस कर बताते हैं। वो भी हँसती है। "वो बुआ जी तो उनकी बेस्ट फ्रैंड हैं।" कह कर

कल उसकी शादी है। मैं बहुत व्यस्त हूँ। गाना बजाना..! कल की तैयारी करना ड्रेस संभाल कर रखना। कोना कोना मेहमानो से भरा सब को इंटरटेन करना। अचानक वो आता है और मुझे उठा कर कही ले जाने लगता है।
" अरे पागल हो क्या ? कहाँ ले जा रहे हो ? अभी अम्मा गुस्सा होने लगेंगी।"
वो कुछ नही बोलता। चुपचाप अपनी कार में बैठा कर शीशे चढ़ा देता है। गाड़ी स्टार्ट हो जाती है।
"कर क्या रहे हो ?"
"घूमने चल रहे हैं हम लोग..!" कार एक भीड़ भरी मार्केट के बीच में खड़ी हो जाती है।
"यहीं घूमना था?"
"तुम क्या समझ रही थी, पार्क चलेंगे ?"
वो बाहर से चाट ले आता है। शीशे चढ़ा कर फिर हम हँसते हैं " अजीब है यार..! तुम हमेशा हमें झेलती रही। हमारी गलतियों को। हमारी बेवकूफियों को। हम झल्ला गये कितनी बार ? कितनी बार तुम्हे गलत बोल दिया और तुम नाराज़ नही हुई। हम तो कभी थैंक्स भी नही दे पाये तुम्हे ? "
मैं कुछ नही बोल पाती " पागल हो क्या" मैं फिर से कहती हूँ। और उसके कंधे पर सर रख के अपने आँसू छिपाने की कोशिश करती हूँ। वो मेरे आँसू पोंछता रहता है। हम शांत उस कार के अंदर बैठे हैं।

और पता नही कितना कितना कितना कुछ घूम रहा है। पारुल हम दोनो को देख कर खूब खुश होती है। हम अब भी वैसे ही लड़ते हैं और वैसे ही प्यार करते हैं।

होली पर उसने बताया था कि उसका ट्रांसफर जयपुर होने वाला है। मैने कुश से वादा किया था कि मैं घूमने आऊँगी जब वो वहाँ आ जायेगा। अम्मा ने बताया कि उसका ट्रांसफर हो गया। मुझे बहुत गुस्सा आया। मुझे बताया भी नही। मई से उसका कोई फोन नही। फोन नं० तो बदल गया होगा। मैं चाहूँ तो फोन नं० ले लूँ किसी से ? मगर क्यों लूँ ? बस मुझे ही गरज हैं क्या ? उसे मेरी याद नही आती तो मैं ही क्यों याद करूँ ?

मेरा बर्थडे...सब सरप्राईजिंगली कमरे में आते हैं केक कट रहा है। फोन पर फोन आ रहे हैं। अचानक उसका नाम डिसप्ले होता है। मैं हेलो की जगह कहती हूँ " अरे तुम्हारा नं० नही चेंज हुआ ?"
" मैनी मैनी हैप्पी रिटर्न्स आफ द डे...!"
"अरे"
"छोड़ो वो सब..तुम फोन कर के कर लेना वो सब बातें..! फिलहाल तो सुनो..! I LOVE YOU...! I MISS YOU....LOVE YOU THE MOST..MISS YOU THE MOST..AND CAN NEVER FORGET YOU...!
" तुम मुझे रुला रहे हो..! आज मेरा जनमदिन है।"
"NOT AT ALL BABY...! लो पारुल से बात करो...."

आज जब अपने दोस्तों को याद करने को सोचा, तो लगा कि सबसे पहले उसका नाम ना लूँ तो बेइमानी होगी....! उसे गुस्सा बहुत आता है। वो मूडी है। झूठ भी बोलता है। अचानक गायब हो जाता है। but he is my first friend ......FIRST BOY FRIEND .....:)





नोटः दोनो स्केच आंध्रा में लवली के बनाये हुए हैं। ये सीढ़ी वाला उसने मेरे लिये बनाया था। मैने उस पर शेर लिखा
"बस किसी के वास्ते गिरते संभलते चल दिये,
और जब मंजिल पे पहुँचे, साथ बस वो ही ना था।"

उसने कहा मेरी सारी सकारात्मकता की दिशा ही बदल दी तुमने। फिर मैने उस पर ये शेर लिखा। उसके स्केच पर लिखे शेरो मेंबस एख वो ही मेरा था। बाकी ना जाने किसके है ? बस मेरी मेमोरी में थे।