Monday, June 25, 2007

एक मौत

एक शख्स की मौत हुई थी, सारी दुनिया की खातिर,
लेकिन कुछ लोगो की दुनिया, उससे बसती थी आखिर |

आसमान रोया है तो, धरती का मान क्यों भीगा है,
इतने दूर बसे लोगों को, कौन जोड़ता है आखिर ?

पता तुम्हारा पूँछ रहे हैं, बस ये पता लगाने को,
मेरी आह निकलती है तो कहाँ पहुँचती है आखिर ?

कौन कह रहा हर मिट्टी को, मिल जाते हैं काँधे चार,
लावारिस बैरक में इतनी लाशें सड़ती क्यों आखिर ?

किसकी रातें फिर तन्हा हैं ? मेरी नींद उड़ी है क्यों ?
बिना छुए, दिल के तारों को कौन छेड़ता है आखिर ?

वैलेंटाइन डे का, सेलीब्रेशन था इक होटल में,
बाहर श्यामू रोटी ढूँढ़े, अपनी रधिया की खातिर !

तुम चाहो तो झूठ समझ लो, मेरी तो सच्चाई है,
हमको नित मरना पड़ता है, जिन्दा रहने की खातिर|

Friday, June 22, 2007

इस रैना को जीवन कर लो

कम से भी कम दिन कि खातिर है साथ तुम्हारा जीवन मे,
सो खुद को खुद ही रोक रही, तुमको न बसाऊँ इस मन मे |
मन कितना व्यथित हुआ करता है, कभी कभी कुछ बातो मे,
है सब कुछ है जान रह फिर भी है बिका पराए हाथों मे |
है पता मुझे, तुम रमण कर रहे एक तपस्वी जैसे हो,
मुझसे हजार स्तर ऊँचे, तुम एक मनस्वी जैसे हो |
मै एक छोटा सा गाँव जहाँ कुछ दिन को तुम्हारा डेरा है,
मै जान रही फिर भी लगता जैसे तू वासी मेरा है |
तुम चलते फिरते राही हो, तो ओसारे मे बैठ रहो,
मन ड्यौढ़ी मे घुसते आते, है ये भी कोई बात कहो ?
तुमको पा कर सारी दुनिया कितनी शीतल सी लगती है,
कितनी प्यारी तरंग है जो, मन मे हल्चल सी रहती है |
मन करता मै पंछी बन कर तुमको लूँ अपना नीड़ बना,
बस रहूँ तुम्हारे घेरे मे, हो दूर जमाना भीड़ भरा |
तुम पर्वत से लगते मुझको, मै चरणो मे बन नदी रहूँ,
तुम युग की गाथा बने रहो, मै तुममे शामिल सदी रहूँ |
पर ये सब तो मन कहता है, अत्मा और कुछ कहती है,
मन की बातो मे मत आना मुझको समझाती रह्ती है,
मेघो से मोह करोगी तो केवल मरुथल बन जाओगी,
स्वाती की चाह करोगी तो, केवल चातक बन जाओगी |
हर सुन्दर नगर बसेरा हो ये बात कहाँ हो सकती है ?
इसको अपनी किस्मत मानो एक रात यहाँ कट सकती है,
इस एक रात की याद ह्रदय मे जितना भर पाओ भर लो,
जीवन का साथ नही माँगो इस रैना को जीवन कर लो।

Tuesday, June 19, 2007

मै देवी नही थी

सहज सा हृदय था, सहज भावना थी,
ललक थी, तड़प थी, खुशी थी, व्यथा थी,
गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

सुबह शाम जल के हैं जो अर्घ्य मिलते,
मैं शीतल से अब सर्द होने लगी हूँ |
हवन के अगन की तपन है ये इतनी,
जलन से उठा दर्द रोने लगी हूँ|

मुझे मित्रता का सहज साथ चहिये,
ये अर्पण, समर्पण की बातें न बोलो,
मुझे हैं प्रशंसा के दो बोल काफी,
ये आरती, ये स्तुति न कानों में घोलो |

ये इतना चढ़ावा, ये झूठा दिखावा,
जो परसाद में फिर तुम्हे ही है मिलना,
ये दो अक्षरों का नया नाम दे कर,
नये एक तरीके से यूँ मुझको छलना |

मुझे चाहिये पात्र मृदुजल लबालब,
तो दो बूँद गंगाजली ही मिली थी,
ये चाँदी के फाटक, ये सोने के गोपुर,
मैं एकांत मंदिर की भूखी नही थी,

गलत तुमने समझा था मेरे विषय में,
सहज मानवी थी, मैं देवी नही थी |

Monday, June 18, 2007

भाग्यहीन कौन

अट्ठाररह दिन प्रलय मचा कर, खत्म हुआ जब कुरुक्षेत्र रण,
अंत एक सबका दिखता था हों अभिमन्यु या दुर्योधन |
द॓ख देख लीला विनाश की, बहुत व्यथित था इक व्याकुल मन,
"मुझको इसी बात का डर था", बिलख बिलख कहते थे अर्जुन.
"कृष्ण कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मैं या दुर्योधन ?"

"तात भ्रात की लाशों पर मैं, राज भला क्या कर पाऊँगा?
नर से हीन धरा ले कर के क्या नरेश मै कहलाऊँगा ?
यही सोच गांडीव धरा था, पर तुमने ही विकाल करा था,
गीता का उपदेश सुना कर, एक विराट रूप दिखला कर,
तुमने क्यों कर बदल दिया था बोलो कान्हा ये मेरा मन
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

"स्वर्ग मिला करता है उनको, वीरगति जिनको मिलती है,
और बचे वीरों की खातिर वीरभोग्या ये धरती है |
तुमने ये उपदेश दिया ‍पर बोलो किसका भोग करूँ मै ?
इतनी मौतें देख देख, मन तो करता है जोग धरूँ मै |
इन आँखों के आगे मेरे तात सदृश गुरु द्रोण को मारा,
वो मेरा अपना भाई था, हाय निहत्था कर्ण बेचारा |
रोम रोम बिंध गया पितामह का मारे मैने इतने शर,
किया शिखंडी को आगे मै हाय हो गया इतना कायर |
इतने अपनों की मौतों का भार सहूँ कैसे मधुसूदन,
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

"मैं कैसे कह दूँ दुर्योधन भाग्यहीन था तुम्ही कहो,
तात, भ्रात पुत्रों के संग मे जिसने जीवन जिया प्रभो!
और मौत है अंत सभी का, वीरगति है वर क्षत्रिय का,
पर जीवन भर तो दुर्योधन ने हमको हर कदम पे जीता |
फिर चाहे वो लाक्ष्यागृह हो या कि द्यूत खेल भगवन,
हमको ही हर बार भटकना पड़ा बताओ क्यों वन‌‌‍‍ वन ?
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"

पुत्रहीन मै, पित्रहीन मै, भाग्यहीन सबसे बढ़ कर,
खुद से प्रश्न किया करता हूँ, युद्ध किया मैने क्यों कर ?
सूनी गोद पांचाली की, गोद सुभद्रा की सूनी,
सूनी माँग सुभद्रा की है, और मेरी नजरें सूनी |
राजतिलक मे कहो कन्हैया, कौन कहे आशीर्वचन ?
मैने इन्ही हाथ से तो है मार दिये अपने गुरुजन |
गँवा दिया अभिमन्यु मैने गए पांचालीनंदन,
किसको मै युवराज बनाऊँ, तुम्ही कहो हे नंनंदन!
दुर्योधन की मौत भली है या अर्जुन का ये जीवन,
जिसको जी कर के मरना है मुझको हर क्षण और हर पल,
तुम्ही कहो अब कौन भला है भाग्यहीन मै या दुर्योधन ?"


सिसक रहे अर्जुन कहते थे, प्रभु कुछ ऐसा कर जाना,
एक नई गीता लिख कर के इस समाज को दे जाना,
लिख देना ये युद्ध नही देता है शांति का उपहार,
इसके बाद मिला करता है जीवन को बस हाहाकार,
शांति, शांति और शांति मात्र ही है शांति का एक विकल्प,
लिख देना अब शांति धर्म पालन का सब ले लें संकल्प |
न कोई अर्जुन सा जीते, ना दुर्योधन सा हारे,
ना कोई पुत्रों की बलि दे ना कोई साजन वारे,
क्या पूरा कर पाओगे प्रभु तुम ये मेरा मधुर सपन,
अब ना युद्ध करें धरती पर कोई भी मैं ना दुर्योधन!

Monday, June 11, 2007

मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है...

तुम अपनी परिभाषा दे लो, वो अपनी परिभाषा दें लें,
मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।

वही नेह जो गंगा जल सा सारे कलुष मिटा जाता है,
वही नेह जो आता है तो सारे द्वेष मिटा जाता है।

वही नेह जो देना जाने लेना कहाँ उसे भाता है,
वही नेह जो बिना सिखाए खुद ही त्याग सिखा जाता है।

वही नेह जो बिन दस्तक के चुपके से मन में आता है,
वही नेह जो साधारण नर में देवत्व जगा जाता है।

शबरी के जूठे बेरों को, जो मिष्ठान्न बना देता है,
केवट की टूटी नैय्या को जो जलयान बना देता है,

मूक भले हो बधिर नही है, धड़कन तक को गिन लेता है,
जन्मों की खातिर जुड़ जाता, जुड़ने मे एक दिन लेता है।

झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........?
झूठ न मानो तो मै बोलूँ..........वही नेह है तुमसे मुझको,
और मुझे ये नहीं पूछ्ना मुझसे है या नही है तुमको,
मुझको तो अपनी करनी है तुमसे मुझको क्या लेना है,
मै अपने मे बहुत मगन हूँ मेरी एक अलग दुनिया है,

उस दुनिया की कड़ी धूप मे तू ही मेह हुआ करता है
मेरे लिये नेह का मतलब केवल नेह हुआ करता है।