Friday, June 22, 2007

इस रैना को जीवन कर लो

कम से भी कम दिन कि खातिर है साथ तुम्हारा जीवन मे,
सो खुद को खुद ही रोक रही, तुमको न बसाऊँ इस मन मे |
मन कितना व्यथित हुआ करता है, कभी कभी कुछ बातो मे,
है सब कुछ है जान रह फिर भी है बिका पराए हाथों मे |
है पता मुझे, तुम रमण कर रहे एक तपस्वी जैसे हो,
मुझसे हजार स्तर ऊँचे, तुम एक मनस्वी जैसे हो |
मै एक छोटा सा गाँव जहाँ कुछ दिन को तुम्हारा डेरा है,
मै जान रही फिर भी लगता जैसे तू वासी मेरा है |
तुम चलते फिरते राही हो, तो ओसारे मे बैठ रहो,
मन ड्यौढ़ी मे घुसते आते, है ये भी कोई बात कहो ?
तुमको पा कर सारी दुनिया कितनी शीतल सी लगती है,
कितनी प्यारी तरंग है जो, मन मे हल्चल सी रहती है |
मन करता मै पंछी बन कर तुमको लूँ अपना नीड़ बना,
बस रहूँ तुम्हारे घेरे मे, हो दूर जमाना भीड़ भरा |
तुम पर्वत से लगते मुझको, मै चरणो मे बन नदी रहूँ,
तुम युग की गाथा बने रहो, मै तुममे शामिल सदी रहूँ |
पर ये सब तो मन कहता है, अत्मा और कुछ कहती है,
मन की बातो मे मत आना मुझको समझाती रह्ती है,
मेघो से मोह करोगी तो केवल मरुथल बन जाओगी,
स्वाती की चाह करोगी तो, केवल चातक बन जाओगी |
हर सुन्दर नगर बसेरा हो ये बात कहाँ हो सकती है ?
इसको अपनी किस्मत मानो एक रात यहाँ कट सकती है,
इस एक रात की याद ह्रदय मे जितना भर पाओ भर लो,
जीवन का साथ नही माँगो इस रैना को जीवन कर लो।

5 comments:

Manish Kumar said...

निश्चल, निस्वार्थ प्रेम की अभिव्यक्ति करती ये कविता पसंद आई.
जिस तरह से इस आखिरी पंक्ति में आपने लिखा है

जीवन का साथ नही माँगो इस रैना को जीवन कर लो...

ये भाव पूरी कविता के मर्म को संपूर्णता देता प्रतीत होता है।

कंचन सिंह चौहान said...

उत्साहवर्द्धन हेतु धन्यवाद मनीष जी!

दिनेश पारते said...

सहज समर्पण का यह भाव एक नारी में ही मिल सकता है,
अतिउत्तम ।

कंचन सिंह चौहान said...

हृदय से धन्यवाद दिनेश जी!

Anonymous said...

ऐसा सहज प्रेम का समर्पण, वह भी अपने भाई के लि‍ए अतुलनीय है,

सुन्‍दर रचना के लि‍ए साधुवाद
सुनील आर.करमेले, इन्‍दौर