"
मुझे चाँद चाहिये" ये शीर्षक ही कुछ ऐसा था जो मुझ जैसे लोगों को आकर्षित करता था। सबसे पहले मेरी सहेली शिवानी सक्सेना के द्वारा मैं इस उपन्यास से परिचित हुई और पढ़ने के लिये लालायित हुई। इसके बाद
मनीष जी की पोस्ट और उस पर
अनूप जी, चारु और
बसलियाल जी के विचारों ने और भी विकल कर दिया। अनूप जी का कथन था कि पुस्तक उनकी निजी संपत्ति है, सो मैने सोचा कि कुछ दिनो के लि़ए माँग ली जाये और वे राजी भी थे...लेकिन १४ अक्टू० को जब वो पुस्तक के साथ लखनऊ पहुँचे तब मैं एक तो लखनऊ में थी नही दूसरे ये किताब मैं पुस्तक मेला से ले आई थी।
५७० पृष्ठों की ये किताब मैने शुरू की तो इस के जाल में फँसती चली गई। समस्या ये है कि कुछ भी पढ़ो तो वो मेरे मन मष्तिष्क पर ऐसे छाता है कि जैसे मेरी दिनचर्या। और इस बार भी वही हुआ। वर्षा वशिष्ठ पल भर को साथ नही छोड़ती थी और दूसरी समस्या ये कि मै उस चरित्र को समझने में बिलकुल नाकामयाब हो रही थी। लेकिन आकर्षण इतना अधिक था उस शख्सियत का कि बिना समझे रहा भी नही जा रहा था। यदि वो कोई पुरुष होती तो मैं सोच लेती कि पुरुष स्वभाव ऐसा ही होता होगा, यदि वो कसी उच्च वर्गीय घराने से संबंध रखती तो मैं सोचती कि बड़े घरों की संस्कृति है, लेकिन.... वो ऐसे ही महौल से ताल्लुक रखती थी, जिससे हम जैसे लोग रखते हैं। इसीलिये तो परेशानी हो रही थी। ऐसा लगता कि जैसे कितना भाग कर तो मैं उसके साथ आती हूँ सहेली बनाने को और मेरे साथ पहुँचते ही वो मुझसे दो कदम और आगे बढ़ जाती है..और मैं फिर हैरान परेशान।
घर की सिलबिल ने अपना नाम यशोदा शर्मा से
वर्षा वशिष्ठ कर लिया क्यों कि
"हर तीसरे चौथे के नाम में शर्मा लगा होता है। मेरे क्लास में ही सात शर्मा हैं।....और यशोदा ? घिसा पिटा दकियानूसी नाम। उन्होने किया क्या था सिवा किशन को पालने के?" " यशोदा शर्मा नाम में कोई सुंदरता नही।" और वर्षा नाम उसने अपना इसलिये रखा कि पिता की अलमारी में रखी
ॠतुसंहार पुस्तक में छहो ॠतुओं में उसे सबसे प्रिय वर्षा लगी। " देखो प्रिये, जल की फुहारों से भरे हुए मेघों के मतवाले हाथी पर चढ़ी हुई, चमकती विद्युत पताकओं को फहराती हुई और मेघ गर्जनों के नगाड़े बजाती हुई यह अनुरागी जनो की मनभायी वर्षा राजाओं का सा ठाठ बनाये हुए यहाँ आ पहुँची है।" ये है उसके दुस्साहस का पहला नमूना।
और इसके बाद हैं श्रृंखलाए...! पढ़ते समय भतीजे ने जब पूँछा इस चरित्र के बारे में तो मुँह से निकला कि
"वर्जित शब्द वर्ज्य है इस नायिका के लिये" सब कुछ ऐसे करती जाती है जैसे कितने दिनो से अभ्यस्त है। कहीं कोई हिचक ही नही। अपनी प्रेरणा श्रोत दिव्या के घर पर
अंडों का सेवन वो बिना किसी संकोच के कर चुकी है। लखनऊ पहुँचने पर जब टूँडे के कवाब की प्लेट उसकी तरफ बढ़ाई जाती है तो बात करती हुई वर्षा के हाथ एक पल को भी सकुचाते नही वरन् सामान्य माँसाहारी की तरह सहजता से उठा लिया जाता है और बियर के साथ ऐसे लिया जाता है जैसे सिलबिल रोज रात माँ पिता के साथ एक पैग लेने की आदि हो। बाद में वो स्वीकार करती है कि बीफ का भी सेवन कर चुकी है।
कमलेश "कमल" से प्लैटोनिक लव के बाद लखनऊ के मिट्ठू से दो ही तीन मुलाकात बाद गहन सन्निकटता, और दिल्ली के हर्ष से भी कुछ ही मुलाकातों के बाद समर्पण की पराकाष्ठा प्राप्त करना फिर हर्ष की बहन द्वारा सगाई के लिये कहने पर इन सबके बावजूद "अभी सोचने के लिये समय माँगना" और बॉम्बे में ऐसे ही सहज मित्र सिद्धार्थ के प्रणय निवेदन को बिना किसी विरोध के स्वीकार करना और फिर से हर्ष के लिये वही समर्पण की पराकाष्ठा पहुँचना..... उफ्फ्फ्फ मैं तो कन्फ्यूज़ हुई जा रही थी। सिद्धार्थ के साथ साथ मैं भी उस पर आक्षेप लगाते हुए पूँछती हूँ कि " क्या तुम उनमें से हो जो थोड़ा सा भी भावात्मक अकेलापन नही झेल सकते।"
अंत की ओर बढ़ते हुए उपन्यास में जब पिता द्वारा मदिरापान करने पर प्रश्न खड़ा करने पर वो उत्तर देती है कि
" शुरुआत जिग्यासा और ऐड्वेन्चर से हुई थी" और कहना कि
" मैं गलत कह गई। दरअसल एक प्रमुख कारण अनुभव की माँग थी।" तब कुछ स्पष्ट होता है। वर्षा को अपने जीवन में अगर सबसे प्रिय कुछ है तो वो है उसका मंच, उसका नाट्य, मैं उसे कैरियर भी नही कह सकती, लेकिन उसक कला ऐसी चीज है जिसकी पराकाष्ठा पर पहुँचना वर्षा वशिष्ठ का जुनून है। वो किसी से भी विद्रोह कर सकती है मगर अपनी कला से नही वो उसके प्रति पूर्ण ईमानदार है। वहाँ वो कोई भी शॉर्टकट नही अपनाती, वहाँ वो कोई भी अड़ियल रवैया नही रखती। वह स्वीकार करती है कि
" अगर मुझे भूख और शाहजहाँपुर में से किसी एक को चुनना पड़ेगा तो मैं भूख को चुनूँगी।
हर्ष के साथ उसका व्यवहार हो सकता है कि अनुभव कि माँग के कारण ही हो। क्योंकि अनुभव की कमी के कारण ही उसका पहला नाटक "बेवफा दिलरुबा" फ्लॉप रहा था।
मगर उपन्यास का अंत होते होते सभी भ्रम पीछे छूट जाते हैं.... और बस यही भावना रह जाती है कि वो शुरू से दुस्साहसी न होती तो इतना बड़ा निर्णय कैसे लेती ? धारा के विरुद्ध जाने की क्षमता न होती तो उस प्रवाह में वो जाने कहाँ बह गई होती..! और अंत में मै भी समर्थ हो ही जाती हूँ, उसे सखी बनाने में। जा के बैठ जाती हूँ उसके बगल में और जब उसे एक आँसू निकालने के लिये झकझोरा जा रहा होता है तो उसके आँसू मेरी आँखों से निकल रहे होते हैं।
एक ऐसा उपन्यास जो हमेशा मेरे द्वारा पढ़ी गई बेहतरीन किताबों में एक होगा।
हाँ
वर्षा को समझने में शायद हर्ष का चरित्र भुला दिया जाता है, परंतु अपने अनेकों दुर्भाग्य के बावजूद हर्ष का चरित्र भी कम आकर्षक नही है। हर्ष मे मुझे जो चीज सबसे पहले भाती है वो है वर्षा के लिये उसकी एकनिष्ठा। शिवानी उस पर दिल-ओ-जाँ से फिदा है। तनुश्री पत्रकारों के सामने स्वीकार करती है। रंजना उसके लिये सायकिक हो गई है, लेकिन हर्ष पल भर को भी सिलबिल के अलावा किसी को मन में नही लाता। मंचीय क्षमता उसकी बेजोड़ है। वो अपने स्तर को कम करने समझौता नही कर सकता। वो गलत लोगो को बर्दाश्त नही कर सकता। मगर इस सबके साथ उसमे जो कमी है और ऐसी है जो उसकी सारी अच्छाइयों पर हावी है, वो है उसका अहं....लेकिन मै नही मानती कि ये अहं ही उसे पतन की ओर ले जाता है, पतन की ओर उसे लेजाता है उसका दुर्भाग्य....
जैसा कि वर्षा भी मानती है कि उसकी जिंदगी के तीसरे पृष्ठ चेखव को भी कभी सम्मानित नही किया गया था और वो इस मामले में उनसे अधिक भाग्यशाली थी।
लेखक के ग्यान से मैं अभिभूत थी। मनीष जी के विपरीत मुझे उपन्यास बिलकुल बोझिल नही लगी। कारण ये भी हो सकता है कि अभी हाल ही में छोटे भांजे ने रंगमंच ज्वॉइन किया, तो उसके स्तर पर बहुत कुछ समझने का मौका मिला। हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर सामान्य रूप से अधिकार रखने वाले सुरेंन्द्र वर्मा के विषय में नेट पर कुछ भी नही मिला परंतु मनीष जी ने बताया कि यूनुस जी के अनुसार वे मुंबई रंगमंच से जुड़े हुए हैं।
मैने अपनी पोस्ट मे जो कुछ भी लिखा वो मेरी तरफ से भावात्मक विश्लेषण था, इस संबंध में तकनीकी और व्याख्यात्मक विवरण पढ़ने के लिये आप मनीष जी की
ये पोस्ट पढ़ सकते हैं।
कुछ वाक्य जो मुझे भले लगे-
1. कुपात्र के साथ बँधने से अकेले रहना अच्छा है। (वर्षा)
2. मुझे ये समझना चाहिये था कि अपना बोझ ढोने के लिये हर कोई अभिशप्त है। (वर्षा)
३. "ड्रामा स्कूल के प्रति तुम्हारा जो मोह है, हम सचमुच उसे समझने में असमर्थ है।" वह हल्की मुस्कान से बोले।
" ऐसा हो जाता है।" सिलबिल ने काफी ऊँचाई से हामी भरी " क्योंकि हम लोग एक दूसरे की जिंदगी जीने में समर्थ नही हैं।"
३ अब मुझे महसूस होता है कि जिस चीज का हमारे पेशे में महत्व है, वह यश नही है, बल्कि सहने की क्षमता है, अपना दायित्व निभाओ और विश्वास रखो। मुझमें विश्वास है और इसीलिये अब वैसा दर्द नही उठता और जब मैं अपने अंत के बारे में सोचती हूँ तो मुझे अपने जीवन से डर नही लगता।" (वर्षा द्वारा अभिनीत नाटक का एक अंश)
४. खुशी का कोई स्विच नही होता। वह अपने आप पनपती है। उसके लिये अवसर तो देना होगा न। (वर्षा)
५. "जब चुप होती हो तो, ज्यादा अच्छी लगती हो"
वर्षा भीतर ही उदासी से मुस्कुरायी। "तो अच्छा लगने का यह मूल्य चुकाना होगा।"
६. " न मेरे हाथों में लगाम है, न मेरे पाँवों में रकाब, और उम्र का घोड़ा तेज तेज दौर रहा है। (वर्षा)
७. रोजी कमाना जिनकी मजबूरी है वो नापसंदगी की दलील कैसे दे सकते हैं।
८. maturity lies in having limited objectives in life
९. हर्ष के चेहरे का वह भाव उसे बहुत दिनो तक याद रहा। उसमें वैसा ही आतंक था, जैसे कोई अबोध बालक मेले में अकेला छूट गया हो। (हर्ष के पिता की मृत्यु पर)
१० छप्पर की लकड़ी की पहचान भादों में होती है।
११.अजीब है... कभी कभी रिश्ते की स्थिति का कारण नही स्पष्ट होता।
१२. मृत्यु चाहे कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नही हो सकती जो चाहे जितनी ही निकृष्ट हो....ऐसा चाणक्य कहा करते हैं।
१३. जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे, तो इसे व्यवहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है।
शिवानी उदास चंचलता से मुस्कुराई " और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे, तो क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नही होगी?
१४. हर स्त्री पुरुष के बीच में किसी न किसी तरह का तनाव आता है। इस रिश्ते की प्रकृति ही ऐसी है। अगर तुम्हारी तरह हर कोई सौ फीसदी अंडरस्टैंडिंग की दलील ले कर अड़ जाये तो यहाँ तो कोई घर ही न बसे। अंडरस्टैंडिंग एक प्रक्रिया है जो एक साथ धूप छाँव झेलने से ही अपना स्वरूप लेती है। इसमें दोनो पक्षों को एड्जस्ट करना होता है। (सुजाता)
१५. भावना की लगाम ना मोड़ने से मुड़ती है, न रोकने से रुकती है।
१६. दुख व्यक्ति में गंभीरता, गहराई और गरिमा लाता है। दुख व्यक्ति का आध्यात्मिक परिष्कार कर देता है।
१७. आत्महंता को यह पता नही होता कि अपने निकटतम लोगो को वह कैसे सर्वग्रासी दुख के शिकंजे में कसा छौड़ रहा है।अपनी टुच्ची खुदगर्जी में वह सिर्फ अपने दर्द में डूबा रह जाता है। वे पीछे छूटे हुए लोग वंदनीय हैं, जो पीड़ा के दंश से चीखते हुए फिर अपने कर्मपथ पर वापस लौटते हैं।