Tuesday, June 10, 2014

और चपरासी के घर बिजली नहीं इतवार से।

उफ्फ्, यहाँ भी लाइट की कटौती शुरू हो गयी। आदमी इतना रेंट दे कर इस इलाके में रहता है कि कम से कम बेसिक नीड्स तो पूरी हों। सुबह के सवा पाँच बजे हैं। लाइट जाते ही हर करवट के साथ बड़बड़ाहट। हार कर आँगन की तरफ का दरवाज़ा खोलती हूँ तो एक भभक सी कमरे में आ जाती है। घड़ी पर निगाह डाली तो पाया सुबह के छः बजे है। " ओह्हो ! सुबह सुबह इतनी गर्म हवा ?" बुदबुदाते हुए दरवाज़ा फिर बंद कर देती हूँ। ठिक क्लिक घुर्र  "आ गई लाइट, थैंक गॉड" एक और बुदबुदाहट के साथ झट से बिस्तर पर पहुँच चादर आँख के इर्द गिर्द लपेटती हूँ जिससे खिड़की से आने वाली रोशनी आँख पर ना आ जाये।

"एसी बंद कर देते हैं, बहुत देर से चल रहा है। हर घर में ऐसे ही चल रहा होगा इसीलिये लोड पड़ रहा है।" की ज्ञान भरी आवाज़ नींद भरे कानों में पड़ते ही खीझ चढ़ती है। " हद है, खुद एसी बंद करने से सभी बंद कर देंगे क्या ?"
"अरे सभी तो ऐसा ही सोच रहे होंगे।"
"बिना मतलब की गाँधीगरी ना समझाओ" कहते हुए एसी का रिमोट तकिया के पास रख आँख फिर लपेट ली जाती है।
"वीकएण्ड का सत्यानाश" बिना किसी से कहे ही कहती हूँ।
"अरे यार एलेक्ट्रिसिटी बिल की भी तो सोचो"
" उफ्फ..." चादर परे फेंक रिमोट झल्ला कर उठाती हुई ए०सी० आफ करती हूँ और उस तरफ से देख कहती हूँ "तसल्ली...? पता नहीं आदमी कमाता क्या करने को है। गर्मी से मर जाये लेकिन बिजली का बिल ना भरना पड़े।" घड़ी में समकोंड़ बना कर नौ बजे थे। गुस्से में शुरु हुई सुबह के साथ किचेन में जाती हूँ तो सिंक वरतन से भरा हुआ मिलता है।

"इन्हे भी नहीं आना था आज।" कह कर फ्राइपैन माँजने लगती हूँ। आधे से ज्यादा दिन तो ये निर्मला बीमार ही रहती। निर्मला, मतलब बरतन साफ करने वाली। पिछली बार बीमारी पता लगाते हुए घर पहुँच गयी थी इसके। पालीथिन डाल कर बनायी गयी झोपड़ी, जिसका ढाई हज़ार किराया देती है वह। पंखा कौन कहे, बिजली के लिये भी कटिया डाली हुई है, जिसके लिये मकान मालिक आ कर धमकी दे जाता है। "ठीक से जलाओ, वरना मुझे ही पकड़ेंगे सब।" थोड़ा सा नरम तो पड़ता है दिल, लेकिन बरतन के ढेर देख फिर से दिमाग भन्ना जाता है। " इतने इतने पैसे लेती है इधर उधर,एक पंखा नहीं ले सकती क्या ? अभी दीवाली पर एक हज़ार रुपये माँगे थे। महारानी बेटी के लिये पायल ले आईं।" मेरा मुँह बनता है।

पाँच दिन बाद दो दिन तो आराम के मिलते हैं, उसमें भी कोई ना कोई खोंच। आफिस का हाल वैसे ही बुरा हो रखा है। वाटरमैन छुट्टी पर। कूलर में पानी नहीं। वैसे भी कूलर से क्या फरक पड़ता है इस गर्मी में। झाँय झाँय आवाज़ और चिपचिपाहट। इससे तो अच्छा कि मंजू के कमरे में बैठो। एसी लगा है उधर। और  साहेब के कमरे में देखो तीन तीन एसी लगा रखे हैं। हद है हमें तो एक नहीं नसीब और उन्हे तीन तीन।

बाइक पार्क करने भर में माथा टनकने लगता है और उसी बीच उस गार्ड का रोना "मैडम छाता नहीं है। पिछली बार बत्रा साहब ने दे दिये थे ११०० रुपये तो आ गया था। लेकिन टूट गया।" नज़र उधर पड़ती है जहाँ ये गार्ड बैठा रहता है। "बेचारा !  इतनी धूप ! कुछ दे दिला देना चाहिये। गरीब का भला ही होगा।" सोचते हुए पर्स से १० रुपये निकाल कर दिये। "११०० रुपये का आयेगा ? " पूछते हुए मन में आया था इतना तो दान पुण्य करती रहती हूँ, फिर भी तो भगवान कुछ ना कुछ खराब ही करता रहता है जिंदगी में।

भगवान की बात पर ही याद आया इस मंगल भण्डारा है हनुमान जी का। गार्ड से बात कर के आगे बढ़ी तभी मिसरा आ गया था चंदा लेने हनुमान जी के भंडारे का। भगवान के नाम पर तो कुछ भी करा ले कोई। बस श्रद्धा से भर आया मेरा मन। दो सौ इक्यावन रुपये दिये थे। यूँ सुना है पहले के जमाने में गर्मी के दिनों में जेठ सारे मंगल ये काम गरीबों और राहगीरों के लिये किया जाता था। इतनी धूप में मीठा खिला कर पानी पिलाने के लिये भंडारा। लेकिन अब तो ये है कि कार से उतर उतर कर सारी लेडीजें इक्ट्ठा होती है। अब मंगल वार के लिये कोई पीली या लाल ड्रेस देख कर निकालनी होगी। मंजू तो अपने को बड़ा बनती है कि उसके पास ही सारी मँहगी और डिज़ायनर ड्रेसेज़ हैं। देखो उस दिन क्या पहन कर आती है। मैं तो वो कॉटन वाला पहनूँगी सिंपल, सोबर भी है और देखने से ही दाम पता चल जाता है, अगर पहचान रखने वाला हो तो। ये आराम रहता है कि खाना नहीं ले जाना पड़ता उस दिन। आराम से हाथ झुलाते चले जाओ और फिर शाम के .लिये भी थोड़ी पूड़ी सब्जी, कढ़ी वगैरह ले ही आते हैं बच्चों के लिये। तो आराम हो जाता है। वो मरा स्वीपर भी पिछली बार पहुँच गया था सब छूने छाने। अबकी तो पहले से ही अलग करवा दिया है। अब गरीब शरीब कहाँ मिलते हैं। और अपन सब कौन बहुत अमीर हैं। तो हम सब ही खा लेते हैं भण्डारे में।

लास्ट प्लेट बरतन स्टैंणड में लगाते हुए मैने हनुमान जी को याद किया। " अबकी तो शालू को अच्छे नंबर दिलवा ही देना भगवान जी। पूरे दो सौ इक्यावन रुपये इसी लिये दिये हैं भण्डारे में।"

एसी आन कर, कंप्यूटर आन किया और चाय की चुस्की लेते हुए फेसबुक स्टेटस अपडेट करने की सोची। गरमी पर स्टेटस सही रहेगा आज। हाँ दो तीन साल पहले एक ठीक ठाक शेर बन गया था ना

बॉस है नाराज़ एसी काम क्यों करता नहीं
और चपरासी के घर बिजली नहीं इतवार से।"

हाँ अच्छा है। अभी तुरंत लाइक्स आने लगेंगे। सोच कर मुस्कुराते हुए शेर टाइप किया और पोस्ट आप्शन क्लिक कर दिया। हाँ ! अब जा कर थोड़ी राहत मिली। कमरा भी ठंढा हो गया है।

Saturday, May 24, 2014

मैं और कुँदरू

कुछ चीजें पता नही क्यों बहत पसंद आने लगती हैं। इतनी कि आप उन चीजों के नाम से पहचाने जाने लगते हो। और फिर अचानक अंदर ही अंदर उससे ऊब होने लगती है, लेकिन, चूँकि आप उस चीज़ से पहचाने जाने लगे हो इस कारण आप किसी से कह भी नही पाते कि अब उस के साथ वो बात नहीं, बल्कि अजीब विरक्ति सी  हो जाती है।
 
कुँदरू... मेरे जीवन में वही चीज़ कुँदरू है। घर में एक उपेक्षित सब्जी के रूप में जाना जाने वाला कुँदरू, बाबूजी दवारा कभी कभी ही लाया जाता था। ऐसा कहा जाता था कि कुँदरू खाने से रतौंधी हो जाती है। इसलिये यूँ भी लगातार तो उसकी आमद हो ही नही सकती थी। बड़े भईया कहते थे "कुँदरू खाने से दिमाग कुंद हो जाता है।" ये एक अलग समस्या। मेरे पास जितना भी दिमाग था, उतने को ले कर मैं इतनी कांशस थी कि उससे कम नही करना चाहती थी।
 
मगर कुँदरू था कि पसंद ही आता था। पतला पतला कटा हुआ। मेथी मिर्चे से तड़का दे कर बनाया गया। भाभी उसे खूब सोंधा भूनती थीं। वैसे मैं सुबह की रोटी शाम को नही खाती, लेकिन कुँदरू की उस सब्जी के साथ रोटी और चाय खा ली जाती थी।
 
तब कुँदरू फ्रिक्वेंटली खाने पर डाँट भी पड़ती थी ना़ शायद इसलिये वो इतना प्यारा लगता था।
 
खैर ! नौकरी लगी और मैं पहुँची आंध्र प्रदेश। कुँदरू तो यहाँ भी था ही, मगर यहाँ कुँदरू काटने पर खीरे जैसी महक आती थी और कुँदरू का आकार परवल जैसा होता था। यहाँ का कुँदरू उतनी अच्छी तरह भूना नहीं जा सकता था, क्योंकि कुछ पनिहल होता था। फिर भी कुँदरू तो कुँदरू ही होता है ना। मैं बड़े चाव से बनाती थी। शांता अम्मा से मैने उसे दक्षिण भारतीय तरीके से बनाना भी सीख लिया था, जिसमें राई, करी पत्ता का तड़का दे कर, लहसुन कूट के डालते और ट्योमैटो भी (मैने बड़ा पता किया कि अंग्रेजों के आने के पहले टमाटर को तेलुगू में क्या कहते थे ? लेकिन सारी खोज ट्योमैटो पर आ कर खतम हो गई।)
 
आंध्रा मे कुँदरू के साथ का पहला संस्मरण उस समय का है जब मैं तेलुगू बोलना सीख रही थी। मैने सब्जियों के नाम सीखे और पता चला कि कुँदरू को 'गुंडकाय' कहते हैं। आफिस वाले जिन्हे ये बात पता थी छोटे छोटे वाक्य पूछ कर मेरी प्रैक्टिस करवाते रहते थे। उस दिन आफिस पहुँची तो गौड़ जी ने पूछा " एम मैडम ? एम चेस्नावो ?" (क्या मैडम ? क्या पकाया ?)
मैने आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया "गुंडकाय।"
 
वहाँ बैठे सभी लोग अचानक हँसने लगे। मैं समझ नहीं पाई। वैसे भी वहाँ मुझे अजायब घर के प्राणी की तरह ही ट्रीट करते थे सब।
 
करुणा मैम  ने हँस कर पूछा पता " किसका दिल पकाया "


फिर पता चला कि असल में कुँदरू को 'दोंडकाय' कहते हैं। 'गुंडकाय' का अर्थ दिल होता है। असलियत पता चलने के बाद खूब शर्म आई और खूब हँसी  भी

 
अब यहाँ भी सबको पता चल गया था मेरे कुँदरू प्रेम के बारे में। शांता अम्मा के आँगन में कुँदरू की बेल लगी थी। उनका बेटा प्रदीप मेरे जीवन के उन अद्भुत स्नेहियों में एक हो चुका था, जिन पर हमेशा खुश हुआ जा सकता है। यहाँ प्रदीप को चिढ़ थी कुँदरू से। उसे वेंडकाय (भिंडी) प्रिय थी। मेरे कुँदरू प्रेम पर वो खूब चिढ़ाता, मगर शांता अम्मा के हाथ के कुँदरू और पराँठा...ओह ओह !
 
इस बीच छुट्टी मिलते ही मैं कानपुर आई तो सुबह सुबह भाभी को सब्जी में कुँदरू काटते हुए देखा। मैं मुस्कुरा दी। भाभी ने मुस्कुराहट के जवाब में कहा "जब से आप गईं कुँदरू खरीदने का ही मन नही होता है। पहली बार जब अम्मा लाईं तो कुँदरू देखते ही लगा रुलाई आ जाएगी लेकिन अम्मा ले ही आईं थीं तो बनाना तो था ही।"
 
अम्मा के साथ खाना खाने बैठी तो कुँदरू रोटी के साथ लेते हुए वो बोलीं, "कुँदरू देखते ही तम्हारी याद जाती थी। तुम्हारे जाने के बाद जब पहली बार सब्जी के ठेले पर कुँदरू देखा तो बड़ी तेज रुलाई आई। मन तो नहीं हुआ कि खरीदें, लेकिन फिर सोचीं कि सुनीता (भाभी) कहेंगी कि अपनी बिटिया चली गई तो अब उसके पसंद का कुछ बनेगा ही नहीं क्या"


मैं मन ही मन मुस्कुराई। तो सुनीता अम्मा के चक्कर में कुँदरू खा रही हैं और अम्मा सुनीता के चक्कर में और दोनो इमोशनल हैं ये दोनो नहीं बता रहे। "गिरि को गिरीश ढूँढ़ें, गिरिजा गिरीश को।"

 
१३ महीने में लगभग महीने छुट्टी पर रहने के बाद मेरा ट्रांसफर लखनऊ हो गया। घर के पास पहुँचने की खुशी में मुझे यहाँ के लोगो के साथ बिताये अच्छे दिन भी नहीं याद रह पा रहे थे। इमोशनल तो थी, लेकिन जितना वहाँ के लोग थे, उतना नहीं शायद।

 
फिर भी कुशल व्यवहारिक लड़की की तरह मैं हर घर तक विदा लेने गई और उन्हे शुक्रिया दिया, घर से दूर अच्छा साथ निभाने के लिये। हर घर से एक भावुक पल ले कर लौटी, हर घर से एक भाव भरी विदा की निशानी।
 
प्रदीप जाने कितने दिन पहले से सेंटी मारने लगा था। उसके साथ रहने पर तो हमेशा डर रहता था, मेरे भी सेंटी होने का। किसी दिन का उसका मोनोलॉग धीरे से टेपरिकॉर्डर की बटन पुश करने से कैसेट में कैद हुआ आज भी होगा शायद धूल खा रहे कैसेट्स में। मुझे लेने पहुँचे थे भईया और अंशु। अंशु ने जब व्हील चेयर हाथ में लेनी चाही तो बड़े धीरे से उसका हाथ पकड़ते हुए प्रदीप ने कहा "आप को तो अमेशा मिलेगा ये चलाने को, लेकिन अमको अब फिर कबी नई मिलेगा। तो अबी जितने दिन है सिर्प अमको चलाने दीजिये प्लीज।" अंशु ने हँस कर हाथ हटा लिया और फिर कभी कोशिश भी नहीं की। व्हील चेयर ड्राइविंग का फुल लाइसेंस केवल प्रदीप को दे दिया गया।
 
लखनऊ आने के पहले वाले वीकएन्ड पर बाथरूम में कपड़े धुलते हुए कॉलबेल की आवाज़ कान में पड़ी ,दरवाज़ा खोला तो शांता अम्मा हाथ में टिफिन लिए खडी था। आँचल से आँखे पोंछते हुए वो बोल नहीं पा रहीं थी, किसी तरह रुँधे गले से बोलीं " अमारे  हात का आकिरी डोंदाकय आपके लिये ले के आया।"



 
मैं तेलुगू लिखना सीख कर आई थी और उन लोगों को हिंदी सिखा कर आई थी,जिससे चिट्ठी लिखी जा सके। बीच का रास्ता रोमन तो था ही। चिट्टी लिखने का सहज तरीका वही था। प्रदीप का खत आया "धीधी!" (मैने अमूमन वहाँ द के लिये dh और त के लिये th ही पढ़ा है) वो बैकयार्ड में दोंडकाय का जो क्रीपर है ना उसको देखने से तेरा बहुत ज्यादा याद आता है। मेरा उदर जाने को मन नई ओता। वो क्रीपर बहुत परेसान करता था दीदी। एक दिन मैने उसे पूरा उकाड़ दिया। अम्मा बउत गुस्साया मेरे ऊपर। लेकिन मै उसे उकाड़ के फेंक दिया। लेकिन कल देखा तो उदर एक और पौदा उग आया धीधी ! मैने तो मन में सोचा ये दीदी का दोंडकाय बी ना एकदम की दीदी की ही तरा है। जितना भी कोसिस कर के सोच लो कि उसको याद नई करना ! फिर कईसे ना कईसे तो वो याद आ ही जाता है।"
 

 
आंध्र प्रदेश छोड़ते हुए उतना कष्ट नहीं हुआ था। लेकिन यहाँ आने के बाद लगता था कि जिंदगी में कुछ अजीब घट कर खतम हो गया। प्रदीप की ये बात कभी नही भूलती।
लखनऊ में भी दीदी को जब कुछ पसंदीदा बनाना होता तो कुँदरू ही बनाती। अब पिंकू बाज़ार से जब कुँदरू लाता है तो "आपका कुँदरू आया है।" का अहसान मिश्रित प्रेम जरूर दिखाया जाता है।

 
लेकिन असलियत तो ये है कि जाने कब उस कुँदरू से मेरा जी भर गया। विरक्ति हो गयी उस नाम से जिसे मेरे साथ जोड़ा जाता है हर बार। मै किसी को बता भी नही पाती। कैसे बताऊँ कि प्यार हमेशा एक जैसा नहीं रहता। हम ना चाहते हुए भी जाने कब किसी चीज़ से ऊब जाते हैं। बताओ तो अपने अस्थिर स्वभाव पर गाली खाओ  "आप तो ऐसे ना थे" की दुहाइयाँ सुनो। तो इससे अच्छा शांत ही रहो, ऊपरी मन से सही दिखाते रहो की चाहत पहले सी बरकरार है। उसे पा कर खुश होने का दिखावा करो और मन ही मन खुद के अजब गजब व्यक्तित्व पर हैरान हो.


वैसे हम सब के जीवन में कुछ ऐसे कुँदरू होते हैं ना....!!