Wednesday, January 30, 2008

शुक्रिया यूनुस जी



अभी थोड़े दिन पहले यूनुस जी के ब्लॉग पर गीत आया था "वक्त का ये परिदा रुका है कहाँ"

जिसे पढ़ कर मुझे याद आया कि ये गीत मैने सुना था सिद्धार्थनगर में अपनी दीदी के घर पर...और साथ ही याद आया वो गीत जो मैने वहीं सुना था लेकिन ऐसे समय में सुना था कि मैं रुक कर दोबारा नही सुन सकती थी क्यों कि बस छूटने का समय हो चुका था..अब पता नही उस समय की मानसिक स्थिति थी या अधूरे में छूट गई चीज की तलाश का ज़ुनून कि मुझे इस गीत का मुखड़ा भूला ही नही..जिसके बोल थे

बेक़दरों से कर के प्यार, क़दर गँवाई दिल की यार

तुरंत दिमाग में आया कि यही वक़्त है, जब यूनुस जी के ब्लॉग पर ये बात याद आई है तो यूनुस जी से ही पूँछा जाये .. भई वो तो गीतनिधि हैं स्वयं में...और एक पल न गँवाते हुए मैने लिख भेजी उन्हे अपनी बात बड़े अनुनय विनय के साथ कि भई मेरी १० साल की तलाश है..कृपया मेरी मदद करे....और लो दूसरे दिन थोड़ी spelling गलत होने की समस्या दूर होने के बाद तीसरे दिन गीत था मेरे मेलबाक्स में....! अरे जिसे मैने ढूढ़ा गली गली...वो इतने आसानी से मेरे मेलबॉक्स में मिली..!

और इन सब के बदले में मुझे देना था छोटा सा शुक्रिया... कोई भी चीज, आपको कब क्लिक करेगी ये तो कोई नही जानता और क्यों क्लिक करी ये सिर्फ आप ही जान सकते हैं, सो ऐसी ही एक चीज़ थी ये गीत मेरे लिये..जिसका शुक्रिया मैं यूनुस जी को...थोड़ा विस्तार में देना चाहती थी और अपने ब्लॉगर मित्रों के सामने देना चाहती थी......
तो शुक्रिया यूनुस जी..और आपके ब्लॉग से आपका फोटो चुराने के लिये क्षमा..!

तो अब सुनिये वो गीत जिसे मैने पाया यूनुस जी के कारण...यूनुस जी ने लिख कर भेजा था किये गीत सुखविन्दर सिंह के एलबम 'ग़म के आँसू' से लिया गया है.... अब देखिये इतने दिन से ई स्निप्स पर खोज रही तो नही मिला जब यूनुस जी ने भेज दिया ...तब वहाँ भी मिल गया और पता चला कि १९९१ मे प्रदर्शित फिल्म 'नाचने वाले गाने वाले'
मे भी ये गीत है... लीजिये सुनिये..

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लागी से तो छूटी अच्छी, इन बेक़दरों की यारी,
भला हुआ संग जल्दी छूटा, मेरी उम्र न गुजरी सारी।।।


होऽऽऽऽऽऽऽऽऽ
बेक़दरों से कर के प्यार, क़दर गँवाई दिल की यार।

हाय रब्बा क्या उनका हो, मुकर गये जो कर के प्यार।।

बेपरवा आशिक के दिल में, तरस जरा न आया,
हाथ में ले के छूरी शक की कतल हमें करवाया,
हाय तरस न आया..!
सीना छलनी कर के भी जालिम को सबर ना आया,
रह गया था एक दिल बेचारा सो वो भी तुलवाया,
रोते रोते दिल बेचारा बस इतने कह पाया,

होऽऽऽऽऽऽऽऽऽ
बेक़दरों से कर के प्यार, क़दर गँवाई दिल की यार।


तन मन पर मेरे कोड़े बरसे, मेरे रोयें नैन बेचारे,
जितने तन पर मेरे लगे हैं तुझे एक लगे तू जाने,
सजन तू जाने
तूने अच्छा किया ना यार, तूने अच्छा किया ना यार

होऽऽऽऽऽऽऽऽऽ
बेक़दरों से कर के प्यार, क़दर गँवाई दिल की यार।



Monday, January 28, 2008

साँझ के कंधे पर धर शीश,




दैनिक जागरण में देवेन्द्र शर्मा "इंद्र" की ये कविता तब की है जब मैं वो सब अपनी डायरी में लिखती जो आज ब्लॉग में लिखती हूँ..मुझे पसंद आई तो आप से बाँट रही हूँ..!

साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई।।

अकेलेपन की गूँगी नियति, झेलती रही उजाड़ पहाड़,
किसी आने वाले के लिये, रहे पलकों के खुले किवाँड़।
धुँए ने घिर कर चारों ओर,
दृष्टि में कड़वाहट बोई।।

काल की वंशी की सुन टेर, दिवस उड़ गया खोल कर पंख,
थिर हुए नीराजन के मंत्र, गूजते रहे मौन के शंख
अधूरेपन की निष्ठुर शिला,
रात भर साँसों ने ढोई।।

समय का घूमा ऐसा चक्र, प्रीति बन गई असह परिताप,
तिमिर की धुँधलाई पहचान, फला किस दुर्वाषा का शाप।
मुद्रिका परिणय की अंजान,
कहाँ,कब, कैसे क्यों खोई।।


कहाँ बिछड़े वो आश्रम सखा, पिता का छूटा पीछे गेह,
सत्य की परिणिति कैसी क्रूर, स्वप्न हो गया स्वजन का नेह।
रंगमय और हुई तसवीर,
आँसुओं ने जितनी धोई।।

साँझ के कंधे पर धर शीश,
उदासी बहुत बहुत रोई।।

Monday, January 21, 2008

पद्मश्री श्री के०पी० सक्सेना का फलीभूत आशीर्वाद

थोड़ी सी खुशी मिली है मुझे तो मुझे लग रहा है कि आप सब से बाँटी जाये..... खुशी ये है कि यूँ मैं शायद तब से कविता बनाती हूँ जब ये समझ ही नही थी कि ये कविता बन रही है....! खुद ही खेलते हुए गुनगुनाया करती थी, १९८२ में ६ साल की उम्र में जब बड़ी दीदी की शादी की तैयारियाँ हो रही थी और मै भी मगन थी उन्ही कल्पनाओं में तब उसी तरह गुनगुना ही रही थी कि....

मत रो दीदी, मत रो, दीदी जा ससुराल,
अम्मा भी छूँटेंगी, बाबू जी छूटेंगे, छूटेगा सारा परिवार,
दीदी जा ससुराल,
सास मिलेंगी, ससुर मिलेंगे, मिलेगा नया संसार,
दीदी जा ससुराल....

अपने में मगन जब मैने सिर उठाया तो देखा कि मेरी चारपाई के गिर्द खड़े भईया, अम्मा और बाबू जी सब बड़े ध्यान से मुझे देखत हुए मुस्कुरा रहे हैं..... तब मुझे पता चला कि ये कोई अनोखी चीज है जिससे घर में सब खुश होते है..और अम्मा ने मुझ ककहरा से थोड़ा ऊपर उठी लड़की से कहा कि इसे नोट कर लो....!

तो लिखती तो मैं तब से हूँ, लेकिन जाने क्यों कभी कोई रचना प्रकाशित नही होती..... कादम्बिनी, दैनिक जागरण, वनिता, सरिता सब जगह से कविताएं वापस ही गई.. खैर कुछ कमी होती होगी तभी आ जाती होंगी ये सोच कर मैने अब कहीं भी कुछ भेजना ही बंद कर दिया..!

इसी बीच चैटिंग और ई-मेल मित्रता को टाईमपास समझने वाली मैने जाने क्या सोच कर आरकुट पर अपना खाता खोल लिया और वहीं मिले मनीष जी, जिन्होने मुझे वो दुनिया दिखाई जहाँ मैं सब से अधिक संतुष्ट महसूस करती हूँ....! और सिलसिला बढ़ निकला...!

तो मेरी खुशी कि कहानी शुरू होती है अब.... ! जब पिछली ३० सितंबर को एक कार्यालय के निजी समरोह में मुझे सम्मानित करने के लिये बुलाया गया और जिनके द्वारा मुझे स्मृति चिह्न मिलना था वो थे पद्मश्री श्री के०पी० सक्सेना.... मेरे लिये बहुत बड़ी अनुभूति थी कि मैं उनसे देखूँगी......! दिन की शुरुआत तो बड़ी बुरी हुई थी तो मुझे कार्यालय से छुट्टी लेनी पड़ी..किसी तरह नियत स्थान पर लेट लतीफ पहुँची तो कार्यक्रम शुरू हो चुका था..! मैं चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गई...और मुग्ध हो कर सक्सेना जी को सुनने लगी..! अपने ढेरों अनुभव हम सब से बँटाने के बाद उन्होने कहा कि आप सब अगर कुछ पूँछना चाहें तो पूँछ लें..! लोगो ने अपने प्रश्न शूरू किये और मैने सरस्वती मंत्र कि ऐसी शख्सियत से बात करने की हिम्मत जुटा सकूँ...और सारा साहस जोड़ कर मैने पहला शब्द कहा "सर"
तो जवाब मिला "आप मुझे या तो श्रीमान कहें या चाचा जी ! सर शब्द का प्रयोग न करें।"



लो अब क्या खाक बोल पाऊँगी मै, फिर भी खिसिया के अपनी बात शुरू की...." आज के दौर में नए कवि और लेखक कहाँ अपना स्थान बना पाएंगे? आपका समय था तब दिसंबर की सर्दी में लोग पूरी रात मधुशाला और नीरज़ को ठिठुरते हुए सुन लेते थे और हमारे समय में लोग कवि सम्मेलन टी०वी० पर आता हो तो भी चट से चैनेल चेंज कर देते हैं...ऐसे समय में हम जैसे लोग जिन्हे भूल से कविता करने की दीवानगी हो वो अपनी ऊर्जा कहाँ खपाएं.....!"
पहले शब्द ने जो छवि बिगाड़ी थी, लगा कि थोड़ा सा उससे निकली हूँ...! उन्होने बड़ी ममतामयी दृष्टि मुझ पर डाली और पूँछा

"कभी अपनी कविता भेजी है कहीं"

"हूँ...पाँच बार भेज चुकी हूँ, हर बार वापस आ जाती है"

"मेरी कहानी २० बार वापस आई थी और तुम ५ बार में ही हार मान गई। फिर से अपनी कविताएं भेजो और मेरा आशीर्वाद है कि जब मैं अगले ३० सितंबर को तुम से मिलूँगा तो ५-6 पत्रिकाओं में तुम्हारी प्रकाशित हो चुकी होंगी। ये मेरा आशीर्वाद है़।" मैं चित्रलखित सी उन्हे देखती रही मेरी आँखों में आँसू आ रहे थे...मै धन्यवाद ही बोल सकी...!





उसके बाद अब तक सक्सेना जी से बात तो नही हुई लेकिन मैं एक नए उत्साह के साथ कविताएं फिर से भेजने का उपक्रम किया और ५ जनवरी,२००८ को मुझे सीनियर मीडिया पत्रिका से मेल आया कि मेरी कविता प्रकाशित हो रही है...!

छोटी ही सही लेकिन मेरे लिये बहुत बड़ी खुशी की बात थी ये..!ये मेरा बचपन का स्वप्न था..सक्सेना जी को फोन तब से मिला रही हूँ परंतु वो मिल नही पा रहें हैं....! मैं अपनी इस पोस्ट के माध्यम से उन्हे धन्यवाद देना चाहूँगी और पूरा का पूरा श्रेय उनके आशीर्वाद को दूँगी।


नोटः बहुत देर से कोशिश कर रही हूँ स्कैन्ड कविता लगाने की लेकिन ११.३ एम० बी० की होने के कारण अटैच्ड नही हो रही है..विकास जी से परामर्श ले कर फिर संपादित कर दूँगी..फिलहाल आप इतना ही बाँटिये..!

Wednesday, January 16, 2008

माँ,


यह कविता मेरी माँ ने जूनियर जागरण में पढ़ने के बाद मुझे कानपुर से भेजी है..किन्ही दिनेश जी जो कि स्नातक द्वितीय वर्ष के छात्र हैं, उनकी रची हुई कविता है ये.....!

कब्र के आगोश में जब थक के सो जाती है माँ,
तब कहीं जा कर, ज़रा थोड़ा सुकूँ पाती है माँ।

फिक्र में बच्चों की कुछ ऐसी घुल जाती है माँ,
नौजवाँ हो कर के भी, बूढ़ी नज़र आती है माँ।

रूह के रिश्तों की ये गहराइयाँ तो देखिये,
चोट लगती है हमारे और चिल्लाती है माँ।

कब ज़रूरत हो मेरी बच्चों को इतना सोच कर,
जागती रहती हैं आँखें और सो जात है माँ।

चाहे हम खुशियों में माँ को भूल जायें दोस्तों,
जब मुसीबत सर पे आ जाए, तो याद आती है माँ।


लौट कर सफर से वापस जब कभी आते हैं हम,
डाल कर बाहें गले में सर को सहलाती है माँ।

हो नही सकता कभी एहसान है उसका अदा,
मरते मरते भी दुआ जीने की दे जाती है माँ।

मरते दम बच्चा अगर आ पाये न परदेस से,
अपनी दोनो पुतलियाँ चौखट पे धर जाती है माँ।

प्यार कहते है किसे और ममता क्या चीज है,
ये तो उन बच्चों से पूँछो, जिनकी मर जाती है माँ।