मैंने अपनी कार स्कूल के बाहर उस जगह लगा दी जहाँ हमेशा
लगाती हूँ; जब-जब उसे देखने आती हूँ।
स्कूल की
छुट्टी में एक जैसी पोशाक पहने बच्चों का ऐसा हुजूम निकल रहा था कि पहचानना
मुश्किल... सब एक दूसरे को धक्का देते हुए आगे बढ़ते जा रहे
हैं। जिसे धक्का लगता है, वह बच्चा अपने बैग से, टाई से,
बेल्ट से, पानी की बोतल से और कुछ नहीं तो हाथ से, धक्का देने वाले बच्चे पर पलट
वार करता है या फिर दौड़ा लेता उस बच्चे को, फिर एक नई भगदड़ शुरू होती है, उसी भगदड़ में।
मगर वह धक्का खा कर थोड़ा सा हिलती है अपनी जगह से और फिर बस वैसे ही, जैसे कुछ हुआ ही नहीं।
वह आठ बरस की प्यारी-सी बच्ची। ताजे आटे की लोई-सा है उसका रंग। कभी
जब ढेर सारी पूड़ियाँ बनानी होती थीं तब माँ पूरे चकले पर आटा बेल, उस पर कटोरी रख
कर गोल-गोल पूड़ियाँ काट देती थी। वैसे ही कटोरी रख कर गोल चेहरा काटा है भगवान ने
उसका और उस पर रख दी हैं दो बड़ी-बड़ी काली आँखें।
लम्बी-लम्बी बरौनियों के साथ ऊपर-नीचे होती उसकी पलकों में इस उम्र की
चंचलता नहीं दिख रही। कोई खोज है उसकी नज़र में। जाने क्या तलाश रही है वह? उस
तलाश में कौतुहल नहीं, अजीब बेचैनी है। बेचैनी कुछ पा कर स्थिर हो जाने की। चुप से
होंठ, खेत के करौंदे जैसे गुलाबी। दांत अब तक दिखे ही नहीं, दिखते तो ज़रूर छोटी
मोतियों की बेसर जैसे ही दिखते। सुनहले बाल की लटें उसके चेहरे पर आ-जा रही हैं और
वह उलटी हथेली से उसे पीछे करती निर्विकार-सी एक कदम के बाद दूसरा कदम उठाती चली
जा रही है। किताबों में कभी—कभी सिंड्रेला दिखती है ना! बस वैसी ही।
मैं अपनी कार की खिड़की से देखती रही और वह आगे बढ़
गयी। मन कह रहा है कि वह उदास है।
कुछ देर तक काले शीशों के पीछे बैठी मैं, यंत्रवत कार स्टार्ट करती हूँ
और जाने किधर को चलने लगती हूँ।
“इस बच्ची में बचपना क्यों नहीं दिखता?” मन सोच में अटका था।
मोबाइल की घंटी ने सोच के बहाव को अचानक रोका।
“हेलो।”
“मैम, हम आईसीआईसीआई बैंक से बोल रहे हैं, आपके लिए एक प्लान है।”
धत...! किसी भी नम्बर से कॉल कर लेंगे सब, पता ही नहीं चलता कि किसी
जानने वाले का है या कंपनी का। झुंझला कर मोबाइल की दाहिनी तरफ की बटन पर अँगूठा
दबाते हुए मन ही मन भन्नाई मैं।
सर्दियों की शामों की उम्र बहुत छोटी होती है। अभी रात तो नहीं हुई थी
लेकिन बत्तियाँ झिलमिलाने लगीं थीं। मैंने कार रिंग रोड की तरफ बढ़ा दी। इस चौड़ी
सड़क पर भीड़ हो भी तो कम पता चलती है। लेकिन ख़ुद के अलग-थलग पड़े होने के अहसास को
और बढ़ा भी तो दे रहा है एकांत।
उस नन्हीं का चेहरा अब भी आँख के सामने है। क्या भाग्यशाली नहीं है वह
कोख जिसमें वह आई?
कोख़...! इस कोख ने कहाँ-कहाँ नहीं भटकाया। मायके से ससुराल, ससुराल से
सड़क, सड़क से यह चकाचौंध... सब, सब, सब इस कोख के कारण।
सामने से निकलते कुत्ते को देख ज़ोर का ब्रेक मारा था मैंने और अपने
ख़्याल में उसी समय एक ज़ोरदार चाँटा पड़ा था मेरे गाल पर, “अंग्रेज़ी पढ़ा रही है हमको
बुजरी! अपना जाँच कराएँ हम? हमको नामर्द कह रही है हरामज़ादी! तोरे महतारी के मुँह
में घुसेड़ के बताएं का कि केहमा कमी है?”
वह चाहे जितनी बार मुझे बाँझ कहता, मुझे चुपचाप सुनना था। उसकी माँ,
उसकी बहनें, ऐरा-गैरा, सब मुझे बाँझ कहते रहते। क्या-क्या इलाज़ नहीं कराया?
क्या-क्या झाड़ फूँक नहीं की? क्या-क्या नहीं पिला दिया दवा के नाम पर? कौन-कौन से
ताने नहीं मारे? लेकिन मैंने कभी इस तरह चाँटा नहीं मारा उसके गाल पर। जबकि मुझे
तो पता ही था अपनी कोख के बारे में।
इसी कोख के कारण ही तो काकी ने जल्दी मचा दी थी मुझे ससुराल भेजने की।
दसरथ अच्छा लगता था। कहता था बाबूजी से झगड़ा कर के ले जायेगा हमें
अपने साथ। जनम-जनम का रिश्ता बताता था हमारा और अपना। बसंत पंचमी वाले दिन दुर्गा
जी के मन्दिर में माँग भर कर कहा था हमें अपना उसने। उसी रात यह भी समझाया था कि दुर्गा
जी के सामने जब पत्नी बन गयी, तो पत्नी का धर्म भी निभाना शुरू करना होगा।
और मैं पत्नी का धर्म निभाते हुए उस मौसमी पति का कहा सब कुछ करती चली
गयी। सब कुछ...!
माँ को कुछ नहीं समझ आया, मगर काकी को शंका हो गयी थी, “महीना कब हुई
थी रे?”
बहुत दिन हो गये थे याद नहीं था मुझे. काकी को ही याद आया, “मकर
संक्रांति पर पूजा करे में घाट पर नहीं गयी थी, उसके बाद कब हुई?”
फिर तो नहीं हुई थी शायद। दिमाग पर ज़ोर डाला, मगर बाद का याद नहीं आया।
बुआ की सहेली नर्स की ट्रेनिंग कर रही थी। रात के अँधेरे में ख़ूब सारे
खून में सना एक लोथड़ा उस नर्स ने अपनी हथेली को मुट्ठी बनाते हुए खींच कर निकाला
मेरे शरीर से और पीछे गूलर के पेड़ के नीचे दबा दिया गया उसे।
उफ्फ़...! असहनीय दर्द था। कितना तड़पी थी मैं। पैर से कमर तक दर्द
कहाँ था समझ ही नहीं आ रहा था। और पूरे शरीर में कहाँ नहीं था दर्द, यह भी नहीं
समझ आ रहा था। काकी ने मेरे दोनों हाथ पकड़ कर दबा रखे थे और बुआ ने दोनों पैर। उस
नर्स ने लगभग पेट पर चढ़ते हुए पेडू और कमर दबा कर मेरी दोनों टाँगे फैला दी थीं।
पूरी ताकत से चीखने वाली थी मैं तभी माँ ने आँसू भरी आँख के साथ अपने दोनों हाथ से
मुँह दबा दिया था मेरा।
आह! आज भी एक-एक अंग पीड़ा से भर जाता है वह दिन याद कर के।
दूसरे दिन से काकी ने बप्पा और काका दोनों को जवान लड़की के घर में
बैठी रहने की उलाहना और कर्तव्य बोध का पहाड़ा सुनाना शुरू कर दिया।
दसरथ की हिम्मत कहाँ कि दोबारा घर पर आये। मैंने कुसुम के हाथ चिट्ठी
भेजी थी दसरथ को। मैं कहीं भी भाग कर जाने को तैयार थी। लेकिन दसरथ ने ना कोई जवाब
दिया और ना कभी सामने पड़ा।
जवान लड़की के लिए लड़का ढूँढने की शर्त सिर्फ उसका मर्दज़ात होना ही तो
थी, फिर मिलना कौन मुश्किल था?
वह मौसमी पति नहीं था, घर वालों का ढूँढ कर दिया हुआ सदाबहार पति था।
मैंने अगर मौसमी पति की इच्छा का ख्याल रखा था तो इस सदाबहार पति के कहे को भी कभी
नज़र-अंदाज़ नहीं किया था। बचपन से यही सीखाया-पढ़ाया गया था कि पति देवता होता है।
वह जब, जो, जैसे कहता, मैं हाज़िर रहती।
एक साल पूरा हुआ शादी को और दूसरा भी आधा निकल ही गया, लेकिन इस बार
महीना कभी ऊपर नहीं चढ़ा।
आश्चर्य इस बात का होता था कि अम्मा, बुआ, काकी सब को जब पता थी वह
बात जिसके कारण मैं ख़ुद को बाँझ कभी नहीं मान सकती थी, तब भी वे सब गंडा, ताबीज़,
टोना-टोटका क्यों भिजवाती रहती थीं?
उस दिन बर्दाश्त की सीमा ख़त्म
हो गयी थी। वह ओझा पहले तो बहुत कुछ सुलगा कर धुआँ मेरी नाक में डाल चुका था, मुझे
पीठ पर अपनी मुगरी से मार रहा था मगर अब जब उसने कमरा बंद कर मेरी जाँघ के पास हाथ
डाला तो मैं चिल्ला उठी। चिल्ला कर बोल दिया उस सदाबहार पति से, “एक बार ख़ुद की भी
जाँच क्यों नहीं करा लेते?” और इसके बाद सिर्फ वह चाँटा नहीं मिला था, मुझे
पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया था और फिर बेहोशी की हालत में मायके छोड़ दिया गया था।
काकी का गुस्सा सातवें आसमान
पर था। मुझे छोड़ गये इसलिए नहीं, बल्कि मैं वहाँ रह क्यों नहीं पायी, इसलिए। शादी
के पहले पाप किया था, उसका फल था जो बच्चे नहीं हो रहे थे। पूजा-पाठ होता, कुछ दिन
में देवता प्रसन्न ही होते। लेकिन अपने आदमी को नामर्द कह देना... कौन आदमी नहीं
कूट के रख देगा इस पर?
माँ को पता था, जीना दूभर
रहेगा मायके में। वह लगातार समझाती रहती सब कुछ भूल कर ससुराल जाने को। मैं सब कुछ
भूल भी जाती तो उस आदमी की फ़सल कैसे तैयार करती जिसका हल जुताई कितनी भी करे, बीज
नहीं बो पाता।
कोई हॉर्न बजाये जा रहा है।
शायद इस सड़क पर बहुत आगे निकल आई हूँ और अपने खयालों में उतनी ही पीछे। ओह! इसका
मतलब मैं अपनी पिछली दुनिया में इतनी खोयी हुई थी कि ड्राइविंग गलत करने लगी। अरे
हाँ...! मैं तो रुक गयी हूँ। क्यों रुक गयी मैं? शायद ज़िंदगी अब रुकी ही हुई है,
तो मैं भी रुक-रुक जाती हूँ।
मैंने कार किनारे कर ली।
मोबाइल पर फिर से बेल बज रही है। इन कम्पनी वालों का फोन शाम के बाद
भी पीछा नहीं छोड़ेगा क्या?
देखा तो डाक्टर मैडम का फोन
है। अरे हाँ, डाक्टर मैडम को तो बताया ही नहीं था कि इधर चली आई हूँ। चिंता कर रही
होंगी।
हॉर्न बजाने वाले सज्जन आगे निकल गये। उनके पीछे दो और भी।
फ़ोन उठा कर हेलो बोलती इससे पहले डाक्टर मैडम की झल्लाहट भरी आवाज़ आ
गयी, “हो कहाँ तुम?”
“सॉरी मैडम! बताना भूल गयी। मैं इधर निकल आई थी। रिंग रोड से आगे बढ़
कर सहजपुर रोड पर। ड्राइव करते-करते ध्यान ही नहीं रहा। देर हो गयी शायद।”
“टाइम देखा है?”
“जी अभी-अभी देखा, 8 बज गये हैं।”
“वापस आओ! उस सूनी सड़क पर गाड़ी चलाना, वो भी योजिका को देखने के बाद?
सुसाइड करने का और कोई तरीका नहीं मिला?”
“सुसाइड करना होता तो अब तक क्यों जीती?” मैंने फीकी हँसी के साथ जवाब
दिया।
“अच्छा चलो, सेंटी मत मारो। वापस आओ। एक केस आ सकता है रात में।
तुम्हारा मन होगा तो आना वरना सुनीता से बोल देना। तुम आराम कर लेना घर जा कर।”
“पता नहीं क्यों योजिका बहुत उदास लग रही थी डाक्टर मैम!”
“ह्म्म...! मैं तुम्हें बताने ही वाली थी। योजिका की माँ अपनी देवरानी
का बेटा गोद ले रही है और योजिका को अपने इन-लॉज़ के पास गाँव भेज रही है। बोल रही
थी कि दो बच्चों को शहर में रख कर नहीं पाल पायेगी। हो सकता है योजिका घर छूटने के डर से उदास हो। लेकिन तुम फ़िक्र मत
करो, बाबा-दादी बच्चों को बहुत प्यार करते हैं, थोड़े दिन में यहाँ से भी ज्यादा ख़ुश
रहेगी वहाँ। हाँ पढ़ाई-लिखाई सब रुक जायेगी बेचारी की। लेकिन अब क्या कर सकते हैं
भला?”
मैंने फोन रख दिया। कुछ देर को स्टेयरिंग पर दोनों हाथ रख, सिर भी
वहीं टिका दिया।
एक मैं हूँ, योजिका को देख कर मेरी साँसें तेज़ और दुरुस्त होती हैं और
एक वे, उसके माँ-बाप...! जो उसे अपने साथ रख भी नहीं पा रहे। इतनी छोटी बच्ची।
माँ-बाप से दूर गाँव में? करेगी क्या? अब से ही बाबा-दादी को खाना बना कर खिलाने,
उनकी सेवा का अभ्यास शुरू करवा दिया जायेगा उसका और जब खाना बनाने, पानी भरने, सेवा
करने में दक्ष हो जाएगी तो चाहे जितनी कम उम्र रहे, शादी। बस....!
कलेजे में बुरी तरह से हलचल मची हुई थी। सारे आँसू पलकों पर थे।
फूट-फूट कर रोना चाह रही थी मैं। आँसू सम्भालने में गला दर्द हो रहा था, फिर भी
आँसू निकलने ही लगे।
मैंने वापस लौटने के लिए गाडी स्टार्ट कर ली। गाडी के साथ मन भी वापस
पीछे चल पड़ा।
मैं अम्मा से कह रही थी कि मुझे इंटर का फॉर्म भरा दें, मैं पढ़ूँगी और
फिर कुछ नौकरी कर के अपना खर्च निकाल लूँगी। लेकिन जब पढ़ने का समय था, उस शादी के
पहले, तब कोई नहीं पढ़ाना चाहता था तो अब कौन देता पैसे। मैं तो यह भी कह रही थी कि
मुझे सिलाई सिखवा दो। मैं घर में ब्लाउज, फ्रॉक सिल कर ख़ुद भर को पैसे निकाल लूँगी। लेकिन बाहर निकल कर जो
करम किये थे मैंने कुँवारे में, उसके बाद कौन मुझे बाहर निकलने देने वाला था?
ठाकुर साहब के घर उनकी बहन
आयी थीं। बड़े शहर में रहती थीं।
बहिनी का नाम शालिनी था यह मुझे बाद में पता चला लेकिन बड़े ठाकुर साहब
की बेटी और छोटे ठाकुर साहब की बहन होने के कारण उन्हें सभी बहिनी कहते थे। बहिनी हमेशा
से हम लोगों में चौंध का कारण थीं। हम मतलब नाऊ, कहार, बारी, जो अछूत तो नहीं थे मगर
ऊँची जात के भी नहीं थे। घर के कामों के लिए हमारा आना-जाना तो था ठाकुर साहब के
घर। उनका रहन-सहन हमारे लिए बचपन से ऐसा स्वप्न था जिसे छू तो सकते थे मगर जी नहीं
सकते थे।
छोटी थी तब ही देखती थी, जब उन बड़ी ज़ात वालों के घर की औरतें भी पढ़ने
नहीं जाती थीं, तब बहिनी सुबह ड्राईवर के साथ 20 किमी दूरी पर बसे शहर में पढने
जातीं। सफेद शर्ट, नीली स्कर्ट, नीली बेल्ट, नीली टाई, गोरे चेहरे पर लटकती दो
लम्बी चोटियाँ और चोटी के सिरे पर बंधे बेबी रिबन के फूल।
हम बच्चे उनकी गाड़ी के पीछे दौड़ जाते और वे शीशे के अंदर हँसती-मुस्कुराती
दिखाई देती रहतीं। ऐसी ‘किंवदन्ती’ थी कि बहिनी जहाँ पढ़ने जाती हैं वहाँ हर कोई
अंग्रेजी में बात करता है। हिंदी में बात करने पर ज़ुर्माना लग जाता है।
बड़े होने पर भी हम उन्हें ऐसे ही देखते जैसे कोई अजूबा हों, शिष्टता
और फैशन का मिला-जुला रूप।
उनकी शादी पास के गाँव के जमींदारों के घर हुई थी, लेकिन जिनसे शादी
हुई वे किसी बड़े शहर में इंजीनियर हैं तो बहिनी उसी बड़े शहर से आई थीं।
इस बार तीन महीने पेट से थीं। शहर में कहाँ मिलते हैं मनई-मजूर।
डाक्टर ने पूरा आराम बताया है।
वे गाँव की किसी लड़की को एक साल के लिए अपने साथ ले जाना चाह रही थीं।
बच्चा पैदा होने के बाद जब वह दो-चार महीने का हो जायेगा तब वापस भेज देंगी।
बहिनी ने अम्मा से कहा था कि मुझे एक साल को उनके साथ भेज दें। अम्मा
को इससे अच्छा अवसर मिलने वाला नहीं था। उन्हें पता था कि ससुराल मैं जाऊँगी नहीं,
यहाँ कोई मुझे रखेगा नहीं।
अम्मा ने हाथ जोड़ कर कहा
था बहिनी से कि जो पैसा देना हो उसी में लड़की को किसी छोटे-मोटे स्कूल से इंटर का
फारम भरा देना। हो सके तो सिलाई कोर्स भी करा देना।
उस दिन गाँव छूटा तो फिर ना कभी गाँव मिला, ना गाँव वाले। बप्पा,
काका, काकी कोई नहीं तैयार था मुझे बहिनी के साथ भेजने को। एक साल बाद जब बहिनी
वापस भेज देंगी तब कौन रखेगा? लेकिन ठाकुर साहब के ख़िलाफ़ बोले कौन?
जाते-जाते बप्पा ने कह दिया था, “अपने मन से जा रही हो तो आना मत।
हमको जितना करना था कर दिए। अब हमाए औरो औलाद हैं। तुमका हमेशा सीने पर नहीं लादे
रहेंगे।”
बहिनी के घर बीते दिन जैसे भी थे, उन दिनों से तो अच्छे ही थे, जो
मेरे पिता और पति के घर बीते थे।
लेकिन उस घर में प्रवेश करने के दिन से ही जो चिंता शुरू हो गयी थी,
वह यह थी कि यहाँ के बाद कहाँ जाऊँगी?
बहिनी जब अपना चेक अप कराने जातीं तो उनके साथ उस हॉस्पिटल में हमेशा जाती
थी मैं। डॉक्टर भी पहचानने लगी थीं। वे बड़े प्यार से बात करती थीं। बहिनी से भी और
मुझसे भी। कुछ मुलाकातों के बाद मेरे बारे में बहुत कुछ पता हो गया था उन्हें।
इंटर का प्राइवेट फॉर्म भरा दिया था मुझे बहिनी ने। काम ही कितना था
उस घर में। बहिनी और जीजा जी, बस दो लोग। फिर शहर की सारी सुविधाएं घर में - गैस,
फ्रिज, वाशिंग मशीन। बहिनी को चलना नहीं था ज्यादा। लेकिन उनको बिस्तर पर सब कुछ
उपलब्ध कराने के बाद भी दोपहर में जब जीजा जी चले जाते तो फिर कोई काम नहीं बचता। बहिनी
अपने पास बैठा कर पढ़ाती रहतीं। बच्चा होने के बाद मुझे सिलाई सीखने को बाहर
भेजेंगी यह भी आश्वासन दे रखा था उन्होंने।
फिर बच्चा होने के समय डॉक्टर मैडम से और भी ज्यादा पहचान बढ़ी। मैं हर
वक़्त बहिनी के साथ रहती थी। मेरे पढने और काम करने की ललक देख डॉक्टर मैडम बहुत ख़ुश रहती थीं मुझसे। बहिनी ने उनसे
सिलाई कोर्स करवाने की बात बताई थी। डॉक्टर मैडम
ने कहा था कि वे मुझे नर्सिंग कोर्स करा देंगी। इतनी सेवा करने की भावना हो
तो नर्स बनना सबसे अच्छा।
उस दिन मैं और बहिनी बहुत देर से डॉक्टर मैडम के चैम्बर के बाहर
इंतज़ार कर रहे थे। एक साधारण-से परिवार के पति-पत्नी बहुत देर से अंदर थे। बहिनी
का बच्चा बहुत छोटा था और रो-रो कर परेशान हुआ जा रहा था मगर चैम्बर खुलने का नाम
नहीं ले रहा था। अब ना तो हम वापस लौट सकते थे और ना ही अंदर जा सकते थे।
दरवाज़ा खुलने पर देखा कि जाते हुए जोड़े के चेहरे पर उदासी थी। पत्नी
की आँख झर-झर बह रही थी।
अंदर पहुँचने पर पाया कि डॉक्टर मैडम भी कुछ उखड़ी हुई-सी ही थीं।
बहिनी को देख कर अपनी कुर्सी से पानी पीने को उठते हुए बोलीं “सॉरी शालिनी! ऐसे
लोग आ गए थे कि समझ ही नहीं आ रहा था कैसे डील करूँ?”
“इट्स ओके, डॉक्टर साहेब! बाय द वे प्रॉब्लम क्या थी कपल की?”
“कुछ नहीं यार! पत्नी बच्चा कैरी नहीं कर सकती। यूटरिन फाईब्राइड है।
तो एक सरोगेट मदर की तलाश में हैं। अब सरोगेसी के रेट भी कितने ज़्यादा हैं?
ट्रीटमेंट ही इतना मँहगा है। एक-एक इंजेक्शन, उस पर देखभाल, मेडिसिन। यही सब किसी
मिडिल क्लास फेमिली के लिए अफोर्ड करना मुश्किल है। उस पर जो भी सरोगेसी के लिए
तैयार होगा उसके रेट...! कोई औरत नौ महीने तक इतने सारे हार्मोनल डिसबैलेंसज़ से
गुज़रेगी। फिजिकल ही नहीं मेंटल इंडलजेंस भी होता है पूरा-पूरा...! तो कुछ तो उसे
भी मिलना ही चाहिए ना! वरना क्यों कोई अपना शरीर एक तरह से नौ महीने के लिए डिवोट
ही कर देगा।” डॉक्टर मैडम एक सुर में बोले जा रही थीं।
“हाँ तो? अब समस्या क्या है?”
“समस्या ये है कि उनके पास ज्यादा पैसे नहीं हैं। वे किसी तरह दवा
वगैरह का इंतज़ाम कर ही लें तो सरोगेट को देने के लिए पैसे नहीं। मुझसे कह रहे हैं कि
इंतजाम कर दूँ। कहाँ से कर दूँ यार। भारत में तो यूँ भी बहुत कम रेट हैं सरोगेट
मदर के। तभी तो सारे विदेशी यहीं आते हैं। अब उसमें भी क्या कम करा दूँ?”
अचानक डॉक्टर मैडम ने मेरी तरफ मुखातिब हो कर कहा, “कुसुमी तुम भी तो
कर सकती हो ये काम?”
“मैं?” मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कहना क्या चाहती हैं डॉक्टर मैडम।
“कौन सा काम?”
“यही सरोगेसी का?”
“सरोगेसी मतलब?”
“सरोगेसी मतलब उन दोनों का बच्चा तुम्हारे पेट में रख देंगे। क्योंकि
फाईब्रोइड के कारण उसकी कोख छोटी पड़ गयी है, इसलिए बच्चा उसकी कोख में बढ़ नहीं
पायेगा, तो उसे उठा कर तुम्हरी कोख में रख देंगे। तुम उसे अपने पेट में बड़ा करना
और फिर पैदा होने के बाद उन्हें दे देना। बस्स।”
बड़ा अजीब सा लगा सुन कर। अपनी कोख में किसी बच्चे को पालना, कैसे हो
सकता होगा ऐसा? बहिनी डॉक्टर मैडम से कह रही थीं, “पता है ना डाक्टर साब, कृष्ण के
बड़े भाई बलराम भी ऐसी ही संतान थे। वसुदेव की पहली पत्नी रोहिणी की इच्छा थी कि वे
वसुदेव की सन्तान को अपनी कोख से जन्म दें, मगर वसुदेव और रोहिणी का संसर्ग सम्भव
नहीं था, तब उन्होंने यह रास्ता निकाला कि वे देवकी के सातवें
गर्भ को अपनी कोख में ले आयीं।”
“हाँ तभी तो बलराम को संकर्षण भी कहते हैं।”
“संकर्षण? संकर प्रजाति?” मेरे मुँह से निकला। अभी कुछ दिन पहले ही तो
सामाजिक अध्ययन के पहले पर्चे की तैयारी में पढ़ा था संकर प्रजाति के बारे में।
“नहीं पागल!” डॉक्टर मैडम हँस पड़ीं। “संकर्षण
मतलब खींचना भी और दो चीजों को मिलाना भी. योगमाया ने देवकी का गर्भ खींच कर
रोहिणी के गर्भ में रख दिया। इसलिए उन्हें संकर्षण कहते हैं। इसलिए भी क्योंकि
वसुदेव की दो पत्नियों को एक कड़ी में जोड़ने वाले बलराम थे, इसलिए भी क्योंकि नन्द
और यदु दो वंशों को साथ लाने की पहली कड़ी भी वही थे।”
“तो इस सरोगेट का प्राचीन नाम संकर्षण है?” बहिनी ने मुस्कुरा कर डॉक्टर मैडम से पूछा।
“कह सकती हो।” डॉक्टर मैडम बहिनी को जवाब देते हुए मुझसे मुखातिब हुईं,
“मुझ पर विश्वास है न?”
मैंने सिर हाँ में हिला दिया।
“तो विश्वास करो कि मैं तुम्हारा पूरा ख़्याल रखूँगी। तुम्हारे पति को
लगता था कि तुम माँ नहीं बन सकती, लेकिन तुम्हें लगता था कि उसे गलत लगता है। अब तुम
उन्हें झूठा प्रूव कर सकती हो। मुझे एक टेस्ट करना होगा तुम्हारा। एंड आय ऍम श्योर,
यू विल गो थ्रू। नॉर्मली सरोगेट्स जो फीस लेती हैं उतनी तुम्हें ना भी दें वो मगर
जितना भी देंगे, उससे तुम पैर तो जमा ही सकती हो ना इस शहर में।”
“पैसे?” मैंने चौंक कर पूछा।
“पैसा तो अलग बात बच्ची! बहुत
पुण्य भी होगा इससे। हमसे पूछो, माँ ना बन पाना कितना बड़ा दर्द है? आस-पड़ोस,
घर-परिवार, समाज-मोहल्ला, जिसे देखो वही दुखते फोड़े पर हाथ रख देता। उन सब की छोड़
भी दो तो अपने अंदर की औरत अधूरी सी लगती है माँ बने बिना। ऐसी तड़प होती है जिसे
ना सह पाओ, ना बाँट पाओ किसी से।” बहिनी समझा रहीं थीं।
बात समझ आ रही थी मुझे। किस-किस तरह से, क्या-क्या कर के, क्या-क्या
ना कर के मैंने कोशिश की थी माँ बनने की। लेकिन नहीं बन पायी थी और वह लोथड़ा जो आज
भी गूलर के पेड़ के नीचे दबा होगा, कितना कोसता होगा मुझे। ‘जिस पेड़ को पानी देने
का बूता ना हो उसे बोया ही क्यों’, कहते हुए।
पेट के नीचे, जाँघों के बीच अचानक टीस उठ गयी थी उस खून सने मांस को
याद कर के।
एक महीन-सी ट्यूब के जरिये मेरी कोख में बीज डाल दिया गया। वह बीज
जिसका ना जायांग मेरा था, ना पुंकेशर। बस ज़मीन मेरी थी। इस ज़मीन में पड़ जाने के
बाद जब वह बीज अपना एक सिरा मेरी कोख में धँसायेगा उसी समय से उसका एक सिरा उस आसमान
की तरफ सिर उठा लेगा, जिसके पास उसका सच्चा अधिकार होगा।
धान की तरह इस बीज को बोया मेरी कोख में गया था और रोपा किसी और खेत
में जाना था।
उस बीज की नाल मेरी नाभि से जुड़ने लगी थी। मैं ना चाह कर भी उलझने लगी
थी उस नाल से। मैं वहीं रहती थी, बहिनी के घर। जीजा जी ने कोई विरोध नहीं किया था।
मैं ट्रीटमेंट लेने अस्पताल भेज दी जाती और फिर वापस आ जाती बहिनी के घर।
गर्भ तो पिछली बार भी पला था पेट में, मगर उस बार कहाँ था कोई
खूबसूरत अहसास इस बात का कि कुछ पल रहा है मुझ में। लेकिन इस बार ख़ुद को विशेष-सा
महसूस कर रही थी। पहले अहसास नहीं था कि बच्चा होता क्या है? इस बार के अनुभव बहुत
सुंदर थे। उसका इधर से उधर चलना, सिर मार देना, अजीब गुदगुदी करता। पूरा शरीर सिहर
जाता ख़ुशी से। जब भी बैठ कर बहिनी से कुछ बात करती तेज-तेज चलने लगता। मुस्कुरा कर
हौले से थपकी दे कर डपट देती उसे, “बड़ा मन लगता है तुम्हारा बातों में। देखिये
बहिनी, जब बात करो, इधर-उधर हिल के कान लगाने लगता है.” बहिनी मुस्कुरा देतीं।
मन होता कि उस शख़्स के
दरवाजे पर जाऊँ और चिल्ला-चिल्ला कर बताऊँ, “देख मैं नहीं हूँ बाँझ, बाँझ तू है,
तू.. तू.. तू..!” जिसने मायके से ससुराल तक अपना कलंक मेरे माथे लगा कर ख़ुद को साफ़
बता दिया।
लेकिन उदास हो जाती यह सोच कर कि यह फल मेरा नहीं होगा, मैं बस
निगरानी कर रही हूँ, दूसरे के बाग़ की।
डॉक्टर मैडम कहतीं, “उस ख़ुशी का इंतजार करो, जो तुम उन माँ-बाप को
दोगी, जिनका बच्चा है। उनका चेहरा देखोगी तो बस सब भूल जाओगी।”
साथ में अक्सर यह भी समझातीं, “कुसुमी हमेशा याद रखना, बस उतना रिश्ता
जोड़ना, जितने से दूसरे को ख़ुश कर सको, इतना नहीं कि ख़ुद को दुखी कर लो। पढ़ती रहा करो। बच्चा अचानक चला जायेगा तो
खाली महसूस करोगी। पढ़ने की आदत रही तो बाद में भी मन बहलेगा। सब तैयारी कर रखी है।
डिलीवरी के तुरंत बाद जैसे ही तुम्हारा शरीर थोडा स्वस्थ हुआ, नर्सिंग की ट्रेनिंग
शुरू करवा दूँगी।”
डॉक्टर मैडम के ना रहने पर मैं धीमे-धीमे अपनी कोख सहलाती। उस अंजान
से बात करती, ‘सुनो ज्यादा प्रेम मत बढ़ने देना मेरा। पैदा होना तो उस तरफ मुँह कर
लेना। मैं समझूँगी तुम तोता-चश्म हो। काम निकला और आँखें फेर लीं। मोह छूटने में
आसानी रहेगी।”
लेकिन उसने आँखें नहीं फेरी थीं। बड़ी-बड़ी आँखों से एकटक देख रही थी
मुझे। लम्बी-लम्बी आँखें। कितना मोह था उन आँखों में। उसे गोद में उठाये, हाथ में
लिए, जाने क्यों बरसती ही जा रही थीं। मन भर चूमा उसे। सामने खड़ी डॉक्टर मैडम कुछ
मुस्कुराती-सी, कुछ उदास-सी आँखों से देखती रह गयी थीं मुझे बस।
दवाओं के नशे से जब मैं दोबारा
जागी तो बच्ची जा चुकी थी। डॉक्टर मैडम कहती थीं कि जब तुम बच्चे को उनके हाथ में
दोगी, उस ख़ुशी का इंतजार करो। मैं उसी पल के इंतजार में थी इतने दिनों से और वह पल
आया ही नहीं। मैं समझौता नहीं कर पा रही थी इस सच से।
डॉक्टर मैडम बस यह कहतीं
कि वे लोग जल्दी में थे और तुम दवा के नशे में थी।
ओह... कैसी कचोट थी उस
दुःख की। छातियों में दूध उतर आया था मेरे। वह दूध कटोरी में निकाल कर जब अस्पताल
के उस छोटे से गुड़हल के पौधे में डालती तो दो लम्बी आँखों वाला चेहरा चिड़िया के
बच्चे की तरह मुँह खोले दिखता सामने। जाने कौन सा दूध पी रही होगी वह बच्ची। कोई
उस बॉटल में यह दूध डाल देता।
छातियाँ कसमसाने लगीं। लगा
फिर से ना दूध उतर आये। गाड़ी रोक दी मैंने। घर आ गया है। ताला खोल कर अंदर पहुँची
तो सारे शहर का अकेलापन अपने घर में दिखाई दिया। रोज़ ही यह घर होता है, रोज़ ही यह
मैं होती हूँ, मगर इतना ज़्यादा अकेलापन नहीं लगता। लेकिन जब-जब योजिका को देखती
हूँ, हर बार अकेली हो जाती हूँ।
योजिका के माँ-पिता मुझसे
मिले बिना ही चले गये थे, यह तो एक बात थी, मगर पेमेंट भी आधा-अधूरा कर गये थे यह बात तो मुझे बहुत बाद में पता चली।
उस समय तो डॉक्टर साहब ने ढेरों गिफ्ट दिखाए थे उनकी तरफ से। प्यारी-सी साड़ी,
थैंक्स गिविंग ग्रीटिंग, अँगूठी का छल्ला और फीस जिसे डॉ
साहब ने मेरी नर्सिंग ट्रेनिंग में लगाने के लिए अपने पास रख लिया था।
लेकिन यह सब डॉक्टर मैडम ख़ुद ले कर आई थीं, यह तो तब पता चला जब दूसरी
बार सरोगेसी हुई।
इस बार मैंने शुरू से ही
इसे काम की तरह लिया था। अपने पर ध्यान दिया, कोख के बच्चे पर ध्यान दिया, लेकिन
किसी भी तरह का मोह नहीं पनपने दिया उस बच्चे से। पिछले दुःख से मैं उबरी नहीं थी।
इस बार जिनके लिए बच्चा
पैदा करना था वे एन.आर.आई. थे। अमेरिका से कई गुना कम दाम जो उन्होंने मुझे दिया
था, मेरी हैसियत से कई गुना ज्यादा था वह। जो सम्मान और प्रेम उन लोगों ने दिया,
उसका तो कोई मूल्य ही नहीं।
जो ख़ुशी मैं योजिका के
माता-पिता के चेहरे पर देखना चाहती थी, वह मैंने उस एन.आर.आई. जोड़े के चेहरे पर
देखी।
मेरे घर के अगल-बगल के लोग जो मुझे चरित्रहीन समझते थे, मुझे देख कर
मुँह फेर लेते थे, मेरे सामने आते ही अपने बच्चों को कमरे के अंदर कर देते थे, उन
सबके तानों, इशारों का दर्द कम हो गया, जब मैंने उस बच्चे की माँ को उसी तरह चूमते
और आँख बरसाते देखा जैसे मैंने किया था यही सब कुछ योजिका के साथ।
तब बताया था मुझे डॉक्टर मैडम ने कि योजिका के माँ-बाप मध्यम आमदनी
वाले लोग थे। वे एक बेटा चाहते थे, जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी पूँजी और गाँव की
कुछ ज़मीन बेच कर पैसा इकट्ठा किया था। बेटी की खबर सुन कर उनमें गजब आक्रोश था। वे
बेटी ले जाना ही नहीं चाह रहे थे। नाराज़गी में चुपके से निकल जाना चाहते थे जब
हॉस्पिटल के किसी कर्मचारी ने उन्हें देख लिया। पुलिस बुलाने की धमकी पर उन्होंने
उतने रूपये दे दिए जितने उस समय उनके पास मौजूद थे, मगर बेटी फिर भी नहीं ले जाना
चाह रहे थे। योजिका का बाप कह रहा था, “बेटी के लिए नहीं हम सब कुछ दाँव पर लगा
दिए हैं। जब हर महीने अल्ट्रा साउंड हो रहा था तो डॉक्टर को बताना था कि लडकी है।
हम बच्चा गिरवा देते। काहे इतना पैसा खर्च करते हर महीना। बिटिया मेरे किस काम की?
बेटा तो करना ही पड़ेगा हमें, चाहे दूसरी शादी ही करनी पड़ जाये। तब इतने बच्चों का
खर्चा उठाना हमारे बस की बात नहीं।”
डॉक्टर मैडम ने कलह ख़त्म करने कि गरज़ से जितने मिले उतने ही पैसे रखे
और कानून, जेल का डर दिखा कर बच्ची उन्हें सौंपी।
रात का सन्नाटा और ये सब
बुरी यादें मेरे सिर पर हथौड़े-सी लग रही हैं। एक बार... बस एक बार समय का चक्र
घूमे और योजिका के माता-पिता बच्ची छोड़ जाने की ज़िद कर लें और मैं समेट लूँ उस
बच्ची को अपने आँचल में। कह दूँ कि ले जाओ अपना पेमेंट, इस बच्ची पे हजार पेमेंट
कुर्बान।
डॉक्टर मैडम सही कहती थीं,
पैसा एक बार आ जाये, फिर पैसे से पैसा बनता जाता है।
योजिका वह लक्ष्मी थी,
जिसने मुझे यह ज़िंदगी दी। योजिका के बाद मुझे डॉक्टर मैडम ने नर्सिंग करायी और
अपने हॉस्पिटल में ही रख लिया। मेरे काम उन्होंने कभी निर्धारित नहीं किये। मैं
लोगों को ख़ुश रख के ख़ुश भी हूँ और व्यस्त भी। योजिका के बाद मैं दो बार सरोगेट मदर
बनी। दोनों एन.आर.आई. थे। दोनों बच्चे विदेश में हैं। उनके माता-पिता मुझे
होली-दीवाली ढेर सारा प्यार और उन बच्चों के एल्बम भेजते हैं।
लेकिन योजिका... योजिका के
माँ-बाप ने इसी शहर में रहते हुए मेरी कोई खबर नहीं लेनी चाही कभी। वह तो जब मुझे
पता चला कि वे इसी शहर में हैं तो मैं छुप-छुप के देखने जाने लगी उस बच्ची को।
जाने क्यों मैं उस गर्भ को भूल नहीं पा रही थी। जबकि न वह मेरा पहला गर्भ थी ना
आखिरी।
और आज यह खबर कि वह लड़की
दूर चली जाएगी, सिर्फ इसलिए क्योंकि वे दो बच्चों को नहीं पाल पाएंगे।
मगर मैं तो पाल लूँगी एक बच्ची.. मैं तो पाल लूँगी ना। यह बात बेचैन
कर रही थी मुझे।
रात के डेढ़ बज रहे थे। मैं
निर्णय पर आ चुकी थी।
मुझे याद आया हॉस्पिटल में केस आने वाला होगा। मैंने हॉस्पिटल फोन किया।
वे लोग केस ले कर पहुँचने वाले थे। मैं उनसे पहले पहुँच गयी।
ऑपरेशन की तैयारी करते हुए मैंने डॉक्टर मैडम से कहा, “आप ने सबकी डील मुझसे की। एक डील मेरे लिए करेंगी?”
ज़ाहिर है डॉक्टर मैडम की समझ में कुछ नहीं आया। मैं सिर झुकाए ऑपरेशन
टूल्स इकट्ठा करते हुए बोली, “योजिका की माँ से डील करा दीजिये मेरी। मेरे अकाउंट
में जो भी पैसा है सब खाली कर दूँगी मैं। उनसे कहिये, वो बच्ची मुझे दे दें।”
“पागल हो गयी हो?” डॉक्टर
मैडम का मुँह आश्चर्य में खुला हुआ था।
“उनके लिए योजिका की कोई
कीमत नहीं, जिसकी कीमत है, उसे वो लाने वाली हैं। मगर मेरे लिए वह अनमोल है। आप ला
दीजिये उसे मेरे लिए। आपने बहुतों को संतानें दीं, मुझे भी दे दीजिये। प्लीज़ डॉक्टर
मैम! आप कह कर देखिये, मेरा मन कहता है, वे मान जायेंगे।”
डॉक्टर मैडम सन्न सी थीं।
मेरे चेहरे पर जाने क्या पढ़ना चाह रही थीं वे।
दरवाजे पर आहट हुई, ऑपरेशन
स्टाफ़ आ चुका था।
“मैंने टूल्स आपको दे दिए हैं डाक्टर मैम, आप
ऑपरेशन शुरू कीजिए।”
डॉक्टर मैडम हल्का-सा मुस्कुरा दीं। पता नहीं क्यों मुझे विश्वास है कि
ऑपरेशन सफल होगा। यूँ आमतौर पर मैं डॉक्टर मैडम के साथ ऑपरेशन थिएटर में होती हूँ,
मगर आज मैं नहीं जा पायी। मुझे पता था कि आज मेरा मन ऑपरेशन में नहीं लगेगा। आज मेरी
आँखों के सामने योजिका थी, कभी मेरी कोख से निकली और अब मेरी गोद में ही लौटती एक
वर्तुल धारा।
19 comments:
स्त्री के जीवन के सारे ताने बाने बुन लिए हैं इस कहानी में ,पर ऐसे लगा जैसे समय की धारा में प्रवाहित होती रही कुसुम खुद को खोकर।
सुन्दर कहानी।
Very touching story di
कहानी धीरे-धीरे रंग पकड़ती गई और आखिर तक जाते-जाते अद्भुत हो गई।
वाह बहुत खूब अति रोचक हृदयस्पर्शी रचना
अंत में पा भी तो लिया शायद
😘
पसन्द करने का शुक्रिया दीपिका जी
शुक्रिया
बहुत शुक्रिया
कंचन फेसबुक पर तुमको पढ़ती रही हूँ पर तुम्हारा ब्लॉग़ आज पहली बार पढ़ा ..... और यही सोचे जा रही हूँ कि अबतक क्यों नहीं पढा था ..... सस्नेह
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कंचन कितनी प्यारी कहानी लिखी है ।
इतना बढ़िया लेख पोस्ट करने के लिए धन्यवाद! अच्छा काम करते रहें!। इस अद्भुत लेख के लिए धन्यवाद ~Rajasthan Ration Card suchi
हिंदी ब्लॉग जगत को ,आपके ब्लॉग को और आपके पाठकों को आपकी नई पोस्ट की प्रतीक्षा है | आइये न लौट के फिर से कभी ,जब मन करे जब समय मिलते जितना मन करे जितना ही समय मिले | आपके पुराने साथी और नए नए दोस्त भी बड़े मन से बड़ी आस से इंतज़ार कर रहे हैं |
माना की फेसबुक ,व्हाट्सप की दुनिया बहुत तेज़ और बहुत बड़ी हो गयी है तो क्या घर के एक कमरे में जाना बंद तो नहीं कर देंगे न |
मुझे पता है आपने हमने बहुत बार ये कोशिस की है बार बार की है , तो जब बाक़ी सब कुछ नहीं छोड़ सकते तो फिर अपने इस अंतर्जालीय डायरी के पन्ने इतने सालों तक न पलटें ,ऐसा होता है क्या ,ऐसा होना चाहिए क्या |
पोस्ट लिख नहीं सकते तो पढ़िए न ,लम्बी न सही एक फोटो ही सही फोटो न सही एक टिप्पणी ही सही | अपने लिए ,अंतरजाल पर हिंदी के लिए ,हमारे लिए ब्लॉगिंग के लिए ,लौटिए लौटिए कृपया करके लौट आइये
आपकी वर्णन बहुत ही अच्छा है। शब्दे पूर्ण रूप से स्पष्ट है। यह पोस्ट मुझे पढ़कर बहुत अच्छा लगा।
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