Friday, January 30, 2009

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान ए गज़ल

सब से पहले तो एक विनती कि यदि आप अभी जल्दी में हैं तो अभी इस पोस्ट को पढ़ने और गीत को सुनने का काम ना करे। ये एक ऐसी क़व्वाली है जिससे मैं पारिवारिक रूप से जुड़ी हूँ। मेरी और मेरे दोनो भईया लोगो की बहुत पसंदीदा कव्वाली इस को हम सब सपरिवार सुनते थे। फिर भतीजों को भी उतनी ही पसंद। असलम साबरी द्वारा गाई इस क़व्वाली को मै कितने दिनो से तलाश रही थी। कभी भइया स्टेशन पर से ये कैसेट ले आये थे। आनलाइन की तो बात ही छोड़ दें कैसेट भी दोबारा नही मिल रहा था साझे का कैसेट कभी मै ले आती कभी कोई ले जाता। इसी कव्वाली के इस शेर की समीक्षा के बाद मैं गज़ल सुनने के लायक समझी गई थी :)

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर!

ऐसे में इस गज़ल को भेजा मेरे दिल्ली में एमबीए कर रहे भतीजे आशीष ने। रेडीफमेल के इस लिंक को डॉउनलोड करने का आप्शन नही था। मैने हमेशा की तरह मनीष जी का आनलाइन आवाहन किया और समाधान पूँछा। उन्होने रिकॉर्ड कर के मुझे mp3 वर्ज़न भेजा। अब समस्या थी कि कब पूरे ४ घंटे का समय निकाला जाये और इस को टाइप किया जाये। इसके उर्दू शब्दो की मीनिंग तलाशी जाये और अपलोड किया जाये। पूरे ४ घंटों की मेहनत के बाद ये सारा काम हो पाया है। १९ मिनट की ये कव्वाली पूरी की पूरी उस प्रारूप में नही है, जिसमें हमारे कैसेट में है। अब लग रहा है कि यदि पूरी कव्वाली होती तो शायद ४० मिनट की होती, पता नही तब अपलोड कैसे होती और लिखी कैसे जाती सब की छोड़ो मेरे मित्र सुनते कब...???? लेकिन मेरा मन रखने की खातिर ही सही सुनियेगा पूरा इसे...!कुछ शब्दों के अर्थ नही मिल पाये हैं, जैसे जैसे मिलेंगे मैं अपडेट करती रहूँगी



कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफा नही होता,
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नही होता।
अपना दिल भी टटोल कर देखो,
फासला बेवजह नही होता।

एक इमारत लब-ए-जमुना,
वही अंदाज़-ओ-अदा,
मुगलिया दौर की गम्माज़ नज़र आती है,
जब भी महताब की हलकी सी किरन पड़ती है,
ताज़ की शक्ल में मुमताज़ नज़र आती है।

रात तेरी नही, रात मेरी नही,
जिसने आँखों में काटी वही पायेगा।
कोई कुछ भी कहे और मैं चुप रहूँ,
ये सलीका मुझे जाने कब आयेगा।

क्या यूँ ही कल भी मेरे घर में अंधेरा होगा,
रात के बाद सुना है कि सवेरा होगा
आज जो लमहा मिला, प्यार की बातें कर ले,
वक्त बेरहम है कल तेरा न मेरा होगा।

चाँद जैसा बदन, फूल सा पैरहम,
जाने कितने दिलो पे गज़ब ढायेगा,
आजकल तू कयामत से कुछ कम नही,
जो भी देखेगा दीवाना हो जायेगा
लेकिन जान-एमन,

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल


जो मेरे शहर में कुछ रोशनी लाये होंगे,
उन चरागों ने कई घर भी जलाये होंगे
हाथ उनके भी यकीनन हुए होंगे ज़ख्मी,
जिसने राहों में मेरी काँटे बिछाये होंगे

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर,

भीग जाती हैं जो पलके कभी तनहाई में,
काँप उठता हूँ मेरा दर्द कोई जान ना ले,
यूँ भी डरता हूँ कि ऐसे में अचानक कोई,
मेरी आँखों में तुम्हे देख के पहचान न ले


एक सब्र है इसके सिवा कुछ पास नही है,
बरबाद ए तमन्नाओं का एहसास नही है,
कमज़र्फ नही हूँ कि जो मैं माँग के पी लूँ,
और ये भी नही है कि मुझे प्यास नही है।

हर सनमसाज़ ने पत्थर पे तराशा तुझको,
पर वो पिघली हुई रफ्तार कहाँ से लाता,
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पिन्हा दी लेकिन,
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता?

चाँदी जैसा रंग है तेरा,
सोने जैसे बाल.
एक तू ही धनवान है गोरी,
बाकी सब कंगाल कि गोरी बाकी सब कंगाल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

सोज़ में तू है, साज़ में तू है,
मेरे जीने का राज़ भी तू है,
सारी दुनिया में नूर तेरा है,
तेरे बिन हर तरफ अंधेरा है।
दिल तेरा और धड़कने तेरी,
तू ही कुल कायनात है मेरी,
एक एक जाम जुस्तजू तेरी
एक एक साँस आरजू तेरी
चाँद छुपता है शर्म के मारे
तेरी राहों की धूल हैं तारे,
ये तख़ल्लुल नही हक़ीकत है,
तेरा कूचा नही है जन्नत है
एक मुसव्विर का शाहकार है तू,
चश्म ए नरगिस का इन्तज़ार है तू
रंग भी तू है राग भी तू है,
फूल भी तू है खार भी तू है।
ज़ीस्त की वारदात कुछ भी नही,
तू नही तो हयात कुछ भी नही,
साँस लेन तो एक बहाना है,
जिंदगानी तेरा ठिकाना है।
ये शबाब और ये जमाल कहाँ,
इस जहाँ में तेरी मिसाल कहाँ,

पर लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल,
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

अये ज़फर के शऊर की मलिका,
हुस्न की मय ना इस तरह छलका
थे पुजारी तेरे फिराक़-ओ-मजाल
तेरे शाइदा थे क़तील-ओ-फराज़,
तेरे सौदाई हैं शमीम-ओ-खुमार
उफ्फ् तेरा हुस्न, उफ्फ् तेरा सिंगार
तू कि खय्याम की रुबाई है,
एक छलकती हुई सुराही है
तू कि आतिश के दिल का शोला है,
और नासिर के फन का ज़लवा है
मिर्ज़ा सौदा का तू क़सीदा है,
और यगाना का तू क़ाबा है।
तू है इंशा के खाब की ताबीर,
और है मुश-हक़ी का हुस्न-ए-ज़मीर
तुझसे थी तानसेन की हर तान,
तुझपे बैजू भी दिल से था क़ुरबान,
तू है ग़ालिब का ज़ौक-ए-ला फानी
और मोमिन की तर्ज़-ए-वज़दानी
ज़ौक के फन की आबरू तू है,
दाग़ के दिल की आरज़ू तू है,
जोश ने तुझको प्यार से पूजा
और ज़िगर ने तुझे सलाम किया,
जितने फनकार बेनज़ीर हुए,
तेरी ज़ुल्फों के सब असीर हुए,

पर लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तुझको अल्लाह ने बक्शा है जो ये हुस्नो अदा,
पेश करते हैं तुझे सब ही मोहब्बत का क़िरा
और दिलबवालो की दुनिया में है बस तेरा ही राज
तेरी मस्ताना किरामी पे बहारें कुर्बाँ
तेरी आँचल की परस्तार है मौज-ए-तूफाँ,
तुझपे होता है किसी हूर के पैकर गुमाँ,
तेरे जज़्बात की कीमत नही समझेगा कोई,
तेरा क़िरदार-ए-शराफत नही समझेगा कोई,
मैं तेरे प्यार को रुस्वा नही होने दूँगा,
तेरे साये को भी मैला नही होने दूँगा,
यूँ सर‍‍-ए-राह तमाशा नही होने दूँगा,
मान बिस्मिल का कहा अपने इरादे तू बदल,

लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल,
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

हया अदा आई, गूरूर आया हिज़ाब आया,

ना आना था जिसे वो आ गई पर वो नही आई,
...............जाम ओ जुनूँ सब है (ये लाईन मुझे कम समझ आई )
लो वो काली घटा भी आ गई पर वो नही आई,
तुम्हारे वादा-ए-फरहा से जिसकी शान कायम थी,
लो वो सुबह ए कयामत आ गई पर वो नही आई,

हया अदा आई, गूरूर आया हिज़ाब आया,
हजारों आफतें ले कर हसीनो पर शवाब आया,
जो तुम आये तो नींद आई, जो नींद आई तो ख्वाब आया,
मगर तेरी जुदाई में ना नींद आई ना ख्वाब आया

कल मिला वक़्त तो जुल्फें तेरी सुलझा लूँगा,
आज उलझा हूँ ज़रा वक्त को सुलझाने में
यूं तो पल भर में सुलझ जाती हैउलझी जुल्फें,
उम्र कट जाती है पर वक्त के सुलझाने मे,

कोई हँसे तो तुझे गम लगे हँसी न लगे,
तू रोज़ रोया करे उठ के चाँद रातों में,
खुदा करे कि तेरा मेरे बगैर मन न लगे

जब तुम्हे जाना ही था तो क्यों लिया आने का नाम
जान दे दूँगा जो तूने फिर लिया जाने का नाम
अये मेरी जान ए गज़ल
अये मेरी जान ए गज़ल


गम्माज़ -सूचक
जुस्तजू-जुस्तजू
खार-काँटा
ज़ीस्त-जिंदगी
बेनज़ीर-अनुपम
असीर-कैदी
जमाल- खूबसूरती
ज़मीर-विवेक




29 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

एक अच्छी कव्वाली सुनवाने के लिए आभार।

पारुल "पुखराज" said...

यूँ भी डरता हूँ कि ऐसे में अचानक कोई,
मेरी आँखों में तुम्हे देख के पहचान न ले...abhi sirf aur sirf sunii....padhuungi ..kisi aur din...gazab hai ye zamaney se...

Anwar Qureshi said...

खुबसूरत पोस्ट ...बधाई ...

अमिताभ मीत said...

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर,

Kya baat hai Kanchan. kuchh kehne jaisa nahiiN hai .... bas mast huuN .........

daanish said...

नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है ,
....मुझको और खरा होना है ......"

बस ! इस के बाद तो सब सच्चा, पाकीज़ा, और सराहनीय है ....
gyaan aur bharpoor jaankaari ka khazaana...is qadar versatility..!pichhle blog pr lagtaa hai bahot der se aa paya, so trying to repeat overhere.....
आप साहित्य सेवा में लीन हैं , माँ सरस्वती आपको भरपूर आशीर्वाद दें , यही दुआ करता हूँ ......
---MUFLIS---

Anonymous said...

वाकई बहुत खूबसूरत हैं एक एक लाइन

डॉ .अनुराग said...

मुझे इसका mp3 वर्ज़न मेल करे

सुशील छौक्कर said...

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर,
सच बहुत ही खूबसूरत। हर शब्द हर लाईन दिल में उतर गई। प्लीज इसकी कैसेट का नाम जरुर बताए। क्योंकि पूरी 40 मिनट की कव्वाली सुनने की तलब लगा दी आपने। कैसे भी मै ये पूरी सुनना चाहता हूँ। कोई राह बताए जिससे पूरी सुनी जा सके। इसको कई बार सुन चुका हूँ। और आखिर आपका दिल से शुक्रिया कि आपने इतनी सुन्दर कव्वाली सुनवाई।

daanish said...

dkmuflis@gmail.com
98722MUFLIS11411.

पंकज सुबीर said...

कंचन आपको पता नहीं है कि आपने क्‍या कर दिया है अनजाने में । ये उन दिनों की कव्‍वाली है जब हमारे यहां टीवी आया ही था और साबरी ब्रदर्स की ये कव्‍वाली मुझे इतनी पसंद थी कि सब काम छोड़कर पढ़ाई छाड़कर दौड़ पड़ता था इसको सुनने के लिये । फिर जमाने बीते और वो समय भी बीत गया । मगर कसक सी रहती थी इसको सुनने की । ऐसा लगता था कि कहीं से इसको सुनूं पर कहां से । मेरे उन दिनों के कई सारे यादगार पल जुड़े हैं इसके साथ । वो दिन जग जीवन में सुनहरे स्‍वप्‍न होते हैं । अब भले ही वो दिन नहीं है किनतु उनकी यादें तो हैं । और ये कव्‍वाली भी उन यादों में शामिल है आपने ये कववाली देकर ऐसा किया है मानो यादों के गलियारे से कोई खोया हुआ सुनहरा मोती ढूंढ कर ला दिया है । उन दिनों जब दूरदर्शन पर क्रिकेट मैच आते थे तक टी ब्रेक में ये कव्‍वाली आती थी क्‍योंकि तक आज की तरह विज्ञापन नहीं हुआ करते थे । तो ये और इसी तरह के कुछ गीत जो कभी कभी सुनने के मिलते थे वो अब भी मन में बसे हैं । कह सकता हूं कि इन गीतों ने ही मुझे कवि और शायर बनाया । आपका आभार आभार आभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभारआभार आभार जितनी बार करूं कम है ।

Manish Kumar said...

जब से डाउनलोड किया है फुर्सत से सुन नहीं पाया हूँ। वैसे मेरा सौभाग्य रहा है कि मैंने इस कव्वाली को live सुना है साबरी बंधुओं से। पर उसके बाद इसकी खोज कर के थक हार गया पर दोबारा सुनने को ये नहीं मिली। देखें अब कैसी लगती है।

गौतम राजऋषि said...

कंचन जी बहुत-बहुत शुक्रिया आपका....गुरू जी की टिप्पणी ने वैसे भी सब कुछ कह दिया है
हाँ इस पोस्ट पे इतनी मेहनत करने के बाद भी आपका काम अभी कम नहीं हुआ है...मुझे भी आपको इसे मेल करना होगा.इसका एम पी ३
प्लीज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़्ज़

मीनाक्षी said...

प्रिय कंचन,,,कई दिनो के बाद ऐसी कव्वाली सुनी जिसने मंत्र मुग्ध कर दिया... बस सुन रहे हैं और स्वर्गीय आनन्द पा रहे हैं... बहुत बहुत शुक्रिया...

Abhishek Ojha said...

आपकी पसंद हमें भी पसंद आई !

Science Bloggers Association said...

बहुत ही प्‍यारी रचनाएं हैं, हमारे साथ बांटने का शुक्रिया।

नीरज गोस्वामी said...

कंचन जी, गुरुदेव पंकज सुबीर जी की बात से सहमत हूँ...बहुत पुरानी याद ताज़ा हो गयी असलम सबरी जी को सुनकर...आप का आभार शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता...इसी ग़ज़ल को अहमद हुसैन-मोहम्मद हुसैन ने भी गाया है...कभी मौका मिले तो सुनियेगा.
नीरज

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

बेमिसाल सँगीत ने मन आनँद विभोर कर दिया शुक्रिया कँचन बेटे ...
- लावण्या

Udan Tashtari said...

अहा!! मेरी बहुत ही पसंदीदा कव्वाली..

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर!


यह शेर जब तुमने कानपुर में सुनाया था..तब भी मैं पूछने वाला था कि यह कव्वाली तुम्हारे पास है क्या!!

आज सुना कर धन्य कर दिया. बहुत बहुत आभार

ललितमोहन त्रिवेदी said...

कंचन जी ,ऑफिस से आते ही आपका ब्लॉग देखा और पहली पंक्ति पढ़ते ही बंद कर दिया ! "यदि आप अभी जल्दी में हैं तो अभी इस पोस्ट को पढ़ने और गीत को सुनने का काम ना करे "
आज आदेशानुसार फुरसत में सुन रहा हूँ और डूबता ही जा रहा हूँ !इस कब्बाली से बहुत यादें जुड़ी हैं विद्यार्थी जीवन की ! आभार ........

Science Bloggers Association said...

संगीत के बहुत ही कीमती खजाने को आपने सहेज कर हम सबके लिए परोसा है, धन्यवाद।

chopal said...

बहुत बढ़िया

सुशील छौक्कर said...

आपका कोई ईमेल नही इसलिए ये बात यहाँ कहनी पढ रही है। क्या इस कव्वाली का mp 3 भेज सकती है आप। अगर सभंव हो सके तो जरुर भेज दे। यह रीयल प्लेयर से डाऊनलोड नही हो रहा है। जिससे जब मन करे हम कभी भी सुन सके। धन्यवाद।

'शफक़' said...

by zafar kaleem

tuu kisii aur kii jaagiir hai ai jaan-e-Gazal
log tuufaan uThaa de.nge mere saath na chal

pahalehaq thaa terii chaahat ke chaman par meraa
pahale haq thaa terii Khushbuu-e-badan par meraa
ab meraa pyaar tere pyaar kaa haq_daar nahii.n
mai.n tere gesuu-o-ruKhsaar kaa haq_daar nahii.n
ab kisii aur ke shaano.n pe hai teraa aa.Nchal

mai.n tere pyaar se ghar apanaa basaa_uu.N kaise
mai.n terii maa.Ng sitaaro.n se sajaa_uu.N kaise
merii qismat me.n nahii.n pyaar kii Khushbuu shaayad
mere haatho.n kii lakiiro.n me.n nahii.n tuu shaayad
apanii taqdiir banaa meraa muqaddar na badal

mujh se kahatii hai.n ye Khaamosh nigaahe.n terii
merii paravaaz se uu.Nchii hai.n panaahe.n terii
aur Gairat-e-ehasaas pe sharmindaa huu.N
ab kisii aur kii baaho.n me.n hai.n baahe.n terii
ab kahaa.N meraa Thikaanaa hai kahaa.N teraa mahal

www.khumar-e-shafaq.blogspot.com

'शफक़' said...

Kanchan ji is thread par poori lyrics hai qawwali ki...

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Anonymous said...

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हम इस कब्‍बाली को तलाश कर रहे थे कि आपका ब्‍लाग मिला और मनपसंद कग्‍बाली सुनकर मन प्रसन्‍न हो गया. इसकी लिपि में कुछ अशुद्धियां हैं जो हमने अपनी टैक्‍सट फाइल में तो ठीक कर दी हैं किंतु इसे कैसे अपलोड करें.

Unknown said...

मुझे नहीं पता आप लोग इस बात पे विश्वास करेंगे या नहीं पर 1992 में कोटा स्टेशन के पास किसी के घर से आती आवाज में मैंने इस कवाली को सुना था बस एक लाइन जो मुझे याद थी
तू किसी और की जागीर है ऐ जाने-ए-गजल
लोग तूफ़ान उठा लेंगे मेरे साथ न चल
बस उस दिन के बाद से मैंने इस ग़ज़ल को कहाँ कहाँ नहीं ढूंडा उस समय कप्यूटर का इतना प्रचलन नहीं था सो केसेट और सीडी की दुकानों में बहुत ढूंडा पर कोई फायदा नहीं।
मुझे खुद विश्वास नहीं होता की 21 साल बाद मुझे ये ग़ज़ल मिल जाएगी।
सच में मुझे बहुत ख़ुशी है इस बात की...
Finally I got it...
मेरी जिंदगी की सबसे शानदार ग़ज़ल
सच में जब आपका मन थोडा उदास हो और आप अकेले हो आपका मन थोड़ा अशांत हो आप इस ग़ज़ल को सुने हो सकता है आपको एक बार में ये समझ न आये पर जब आप इन अल्फाजो को समझ जायेगे तो आपको लगेगा इस गजल को लिखते वक्त शायर के दिमाग में क्या होगा
सलाम उस शायर को जिसने मेरी जिंदगी की सबसे शानदार गजल लिखी।

Unknown said...

Please send me the link for its download sharma.kamalprakash@yahoo.com