Thursday, January 22, 2009

पुस्तक एडविना और नेहरू के बहाने गाँधी विमर्श



बहुत दिनो से ये पोस्ट लिखनी थी, लेकिन आज लिख ही गई इस लिये क्योंकि डॉ० अनुराग की पोस्ट पढ़ने के बाद इस किताब का बहुत कुछ अलिखित समझ में आया.....! चार दिन के वैचारिक उथलपुथल के बाद आज ये पोस्ट लिखने को मजबूर हूँ। अनुराग जी की पोस्ट पर कमेंट नही दिया, कारण कविता जी की तरह मैं भी भीरु प्रवृत्ति की हूँ, विवादो से बचना चाहती हूँ, अधिकतर बच के ही निकल जाना चाहती हूँ। जिंदगी में भी। लेकिन कोई चीज आप में चार दिन से बार बार कौंध जाती है और आप उससे फिर से बच निकलने की कोशिश करते हैं, तो ये अवॉइड करना नही शायद पलायनवादिता है।




१९९६ में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कैथरीन क्लैमा द्वारा लिखी गई इस पुस्तक का अनुवाद निर्मला जैन द्वारा किया गया है। ४४२ पन्नो की इस किताब में एडविना और नेहरू के किस्से तो लगभग २०० पन्नो के बाद आये हैं...! शुरुआत में तो उस समय के भारत के विषय में ही जानकारी मिली। उस समय का सामाजिक परिवेश। उस समय के लोगो की वैचारिक स्थिति। कुछ दिनो के लिये उस दौर को जीने लगी थी मै। बहुत सी बाते नयी थी मेरे लिये। जैसे कि भारत कोकिला सरोजिनी नायडू का जिन्ना के प्रति soft corner रखना। सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू का जवाहर लाल नेहरु के साथ प्रणय। कट्टर पंथी जिन्ना की पत्नी का पारसी होना तथा पुत्री के पारसी हमसफर को चुनने पर जिन्ना का उसको त्याग देना। नेहरू और पटेल का इस हद तक एक दूसरे का विरोधी होना। और वहीं थोड़ा सा हिंट हुआ था मनु और गाँधी के बारे मे, जिसे पढ़ने के बाद मेरे मन में आया कि कैसे इस तरह की सोच विकसित कर लेते हैं, एक मर्यादित और महान पुरुष के लिये उसकी ही पोती के विषय में सोचना वाक़ई मेरे लिये असंभव था।




पुस्तक शुरू होती है १४ फरवरी १९२२ से, दृश्य कारागार का होता है और इसी दृश्य से मोतीलाल नेहरू के माध्यम से संगठन के आपसी वैमनस्य का पता चलता है मोतीलाल नेहरू के इस वाक्य से



"हमारा महात्मा पागल हो गया है, उसने हमारा वह आंदोलन तो रद्द कर ही दिया, तिस पर वो तुम्हे बहाने भेजता है।"



नेहरू इस वाक्य से द्रवित होते है, मुख से कुछ न कह कर मन में बहुत कुछ सोचते है,जिसमें उनका राजसी ठाठ छोड़ कर, गृहस्थ जीवन समाप्त कर के इस आंदोलन में कूदने के बाद क्या खोया क्या पाया का मंथन चलता है।




इसके बाद नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात होती है जबकि एडविना की उम्र ३९ वर्ष एवं नेहरू की ५३ वर्ष है, ये मुलाकात होती है १९४२ में सिगापुर के कान्फ्रेंस में जहाँ एडविना भीड़ में फँस जाती है, और नेहरू के द्वारा बचाई जाती हैं। एक आम मुलाकात love at first sight बिलकुल नही। शनैः शनैः अनुभवों के साथ बढ़ने वाला परिपक्व प्रेम। जो कि कैथरीन क्लैमा द्वारा तो प्लैटोनिक ही दर्शाया गया है। अन्य लेखकों का भी यही विचार है। दोनो के बीच समझ १९४७ के बाद से पनपती है। जब माउंटबेटेन भारत आते हैं।



लॉर्ड माउंटबेटेन अपने कर्तव्यों मे फँसे इस प्रकार के व्यक्ति दिखाये गये है, जो कि अपने कार्यों के चलते अपनी पत्नी को ले कर बिलकुल भी possesive नही है। जो कि शायद एडविना को एक स्त्री के रूप में भटकाता रहता है। जो attention उन्हे पति से नही मिलता, वो अन्य स्थानो पर पाने से वो उधर खिंचती है। इस तरह नेहरू के पहले एडविना के पास पुरुष मित्रों की एक लंबी सूची है और नेहरू भी कुछ इसी रूप में विख्यात हैं। पद्मजा नायडू और उनकी मित्रता का ज़िक्र इस सिलसिले में कई बार आया है।





पता नही एक भारतीय होने के कारण पूर्वाग्रह या क्या ? मुझे पुस्तक में नेहरू और डिकी (लॉर्ड माउंटबेटेन) एडविना से अधिक आकर्षक लगे। ऐसा लगा कि वो नेहरू का व्यक्तित्व था जिस के कारण एडविना फिर कहीँ न जुड़ सकीं और डिकी का एक पति के रूप में सहयोग थाजो ये संबंध पल्लवित हो सके। अपनी बड़ी पुत्री को पत्र लिखते समय डिकी ने उसे लिखा भी है कि एडविना का स्वाभाव आश्चर्यजनक तरीके से बहुत मृदुल हो गया है, नेहरू से मिल कर और वे पारिवारिक माहौल को सुखद बनाने के लिये इस रिश्ते को अधिक से अधिक सहयोग दे रहे हैं। परंतु एडविना कभी कभी मुझे समझ में नही आईं। नेहरू के साथ मानसिक स्नेह रखने और डिकी के सहयोग पूर्ण रवैये के बावज़ूद वे डिकी की महिला मित्र के आने पर अपना वो व्यवहार संतुलित नही रख पातीं। पद्मजा से भी उनका व्यवहार सहज नही है। परंतु एक चीज जो मुझे लगी इस किताब के माध्यम से कि एडविना समाज सेवा के प्रति मन से समर्पित हैं। वो चाहे विश्व युद्ध हो या बँटवारे की त्रासदी एडविना ने अपने स्वास्थ्य और शरीर की चिंता न करते हुए प्रभावित लोगो की सेवा की और उतने दिन कोई भी भाव उन पर शासन नही करता शिवाय सेवा और समर्पण के।




एक सहज एवं मर्यादित प्रेम के रूप में इस कथा पर उँगली उठाने जैसा कुछ भी नही लगा मुझे। ६० वर्ष की अवस्था में एडविना की मृत्यु के ठीक पूर्व नेहरू को उनके पत्रों द्वारा याद करना और एडविना के शव के बगल में बिस्तर पर बिखरे हुए नेहरू के पत्रों का पाया जाना सचमुच मन को आर्द्र करता है।



गाँधी जी के चरित्र के विषय में भी इसमें काफी कुछ सोचने को मिलता है। सबसे पहले जब मैं इस किताब द्वारा गाँधी जी के विषय में कुछ सोचने को मजबूर होती हूँ, वो है कस्तूरबा का मृत्यु शैय्या पर पड़ा होना और डॉक्टरों के अत्यधिक निवेदन के बाद भी गाँधी जी का उन्हे इंजेक्शन ना लगाने देने की हठ और परिणाम स्वरूप कस्तूरबा की मृत्यु। गाँधी जी ने कस्तूरबा को इंजेक्शन नही लगने दिया क्यों कि ये प्राकृतिक नही था। बाद में उन्होने डाक्टरों से कहा कि उनकी ये मृत्यु उत्तम मृत्यु थी क्योंकि



"हम लोग ६२ साल साथ इकट्ठे रहे और उन्होने मेरे शरीर में दम तोड़ दिया, इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है" गाँधी जैसा विचारक क्या स्त्री की मौत को सौभाग्य और वैधव्य से जोड़ कर देख सकता है ? मुझे सोचना पड़ा ? फिर तो कौशल्या,कुंती, दुर्गा भाभी, इंदिरा गाँधी बहुत ही अभागन थीं। पति की मृत्यु के बाद इतने दिनो तक जीना........!



और अब अनुराग जी की पोस्ट के बाद सोचना पड़ रहा है कि इंजेक्शन लगाना अप्राकृतिक था तो क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ किया गया वो प्रयोग प्राकृतिक था। इससे पहले पढ़े गये सारे वृतांत याद आने लगे। गाँधी जी के आश्रम में किन्ही दो के बीच पनपे प्रेम को अवैध करार दे कर उन्हे आश्रम से निकाल देना। बा से उनका सहयोग पूर्ण नही बल्कि मालिकाना व्यवहार। मैला उठाने पर मना करने पर बा से सालों कोई संबंध न रखना। क्या पत्नी के प्रति उनकी दार्शनिकता में थोड़ी खोट नही दर्शाता। इसी पुस्तक में जब गाँधी मनु के साथ एडविना से मिलने आते हैं तो एडविना गौर करती है कि मनु बगीचे में हर कदम बड़ी सावधानी से, भयभीत सी रख रही है और उसमें बाल सुलभ प्रवृत्ति समाप्त हो चुकी है लेकिन एडविना गाँधी के विषय में कुछ भी बुरा नही सोचना चाहती।




अनुराग जी की पोस्ट में लिखी बातों को कोई झूठा नही कह रहा बल्कि बासी सच कह रहा है। परंतु मेरे लिये तो ताजा है। मैने अपने गिर्द जिनसे भी चर्चा की, उन सब के लिये ताजा है।




एक आम सकारात्मक भारतीय की तरह मैं भी बापू को राम कृष्ण के बाद का स्थान देती हूँ। लेकिन इसका ये मतलब नही कि दुनिया को रामराज देने वाले राम को सीता को वनवास देने के पाप से बरी कर दिया जायेगा। तुलसी दास मेरे बड़े प्रिय कवि हैं, लेकिन रामराज्य के बाद रामचरितमानस को समाप्त कर देना, यही तो बताता है कि हम अपने आराध्य की कमियाँ जानते हुए भी उनकी चर्चा नही करना चाहते।



राम मेरे पूज्य हैं, उनका आदर्श, उनकी मातृ पितृ भक्ति साधुजनो की रक्षा के लिये उनका धनुर्धारी व्यक्तित्व, शबर, निषाद, कोल, भील, वानर, रीछ जैसी पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को गले लगा कर उन्हे मुख्य धारा में लाना मेरे लिये एक युगप्रवर्तक छवि बनाता है.... परंतु जिस सीता के खेत में मिलने के कारण उनके जाति पर लगे प्रश्नचिन्ह की अवहेलना करके अपनाया, जिसके लिये तीनो लोक से युद्ध लिया और ग्रहण के पूर्व परीक्षित भी किया उसे लोगो के कहने से वनवास देना, तब जब वो गर्भ से हो..नही ये तो गलत ही था..क्यों किया उन्होने ऐसा, स्वयं को सर्वोत्तम और न्यायप्रिय बताने के लिये ही ना।



युधिष्ठिर सत्यप्रिय और न्यायप्रिय राजा थे...निस्संदेह थे...! परंतु वस्तु की भाँति द्रोपदी को दाँव पर लगाने के लिये क्या उन्हे क्षमा किया जा सका..??



अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेना बहुत बड़ा काम है...! बड़ी हिम्मत का काम...!! मुझमे तो नही है वो हिम्मत...!!! लेकिन सच स्वीकार कर लेने से पाप कम तो नही हो जाते ना...! कन्फेसिंग के बाद क्षमा ये आयातित संस्कृति का भाग है (कृपया कोई भी इसे धार्मिक टिप्पणी ना समझे, मेरे लिये सभी धर्म सम्माननीय हैं) परंतु भारत में जब दशरथ ने भूल से श्रवण कुमार को मारा, तो भी पुत्र शोक में जान गँवानी पड़ी, रावण ने भुल से ब्राह्मणों को मांस परोसा तो भी उसे राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा, राम ने धर्म हेतु बालि को छुप कर बहेलिये की भाँति मारा, परंतु अगले जन्म में बहेलिये के द्वारा ही मरना पड़ा, कृष्ण ने धर्म हेतु गांधारी के सौ पुत्रों को मारा लेकिन अपना कुल गँवाना पड़ा। पाप को स्वीकार करना हिम्मत का काम है, लेकिन इससे पीड़ित को न्याय नही मिलता।



गाँधी जी की एक आवाज पर पूरा राष्ट्र एकजुट हो जाता था। राष्ट्र को जिस मानसिक चेतना की ज़रूरत थी, उस नब्ज़ को उन्होने पकड़ा, राष्ट्र का हर व्यक्ति स्वतंत्रता हेतु आंदोलन में शामिल हुआ। जन क्रांति लाने वाले गाँधी ही थे। उनका ये रूप मेरे लिये पूज्य है। हर भारतवासी की तरह मैं स्वतंत्र हवा में साँस लेने हेतु उनकी ‌ॠणी हूँ, लेकिन अपनी आत्मा के विकास के लिये अपनी ही पोती का एक object के रूप में प्रयोग, मेरी नज़र में गाँधी को कटघरे में खड़ा करता है। १३ और १६ ये कोई उम्र होती है। फिर उम्र कोई भी हो किसी के महात्मा बनने के लिये किसी का कुचला जाना.....! ये तो बलि है...! नर बलि...! अहिंसा नही...!



28 comments:

Vinay said...

पढ़े बिना रहा नहीं गया, बहुत अच्छा लिखा है!

---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम

नीरज गोस्वामी said...

बहुत सार गर्भित लेख लिखा है आपने...इसके साथ ही आप की विषय पर पकड़ और ज्ञान दोनों दिखाई देता है...आप की प्रतिभा को नमन...
नीरज

ताऊ रामपुरिया said...

आपने बडे ही सहज रुप से इतने सशक्त और सहजता से अपने विचार रखे हैं कि क्या लिखूं?
हर इन्सान का अपना अपना नजरिया हर घटना के प्रति होता है.

जैसे एक ही हाथी को चार लोग देखें और आप उनसे पूछें कि क्या देखा? सबके उतर दृष्टिकोण के हिसाब से अलग अलग होंगे. कोई कहेगा हाथी काला था, कोई कहेगा ..हाथी बडा विशाल था..कोई उसकी विशाल सूंड से प्रभावित मिलेगा.

कहने का मतलब ये कि हर ऐतिहासिक क्षण सब पर अलग अलग प्रभाव छोडता है.

आपके नजरिये से इसे देखना बडा सुखद लगा.

रामराम.

रंजू भाटिया said...

इस किताब पर कंचन आपने इतना बेहतर लिखा है कि पढने की प्यास बढ गई है ...सहज पकड़ बनाये रखी है आपने इस में लिखी हर मुख्य बात पर .तभी एक ही साँस में उत्सुकता से इसको पढ़ा गया ..अब यह किताब पढ़नी ही पड़ेगी ..शुक्रिया

Anonymous said...

अब किताब को पढ़ने की आवश्यकता ही नहीं रही. एक प्रभावी प्रस्तुति. आभार.

अभिषेक मिश्र said...

आपकी पोस्ट पढ़ी. जहाँ तक मैं मानता हूँ किसी व्यक्ति के बारे में राय किसी और के लिखे शब्दों से नहीं बनानी चाहिए. अगर नेहरू और एडविना की लिखी डायरी या पत्र संग्रह होते तो वो इस विषय पर सार्थक जानकारी दे पाते. वैसे भी जो किताब १४ फरवरी से ही शुरू हो रही है उसमें रोमांटिक एंगल से ज्यादा क्या उम्मीद की जाए. उच्च व्यक्तित्व के प्रति आकर्षण सहज है और परन्तु इसमें रस ढूंढने का प्रयास नहीं होना चाहिए. क्या उसी पृष्ठभूमि में नेहरू जी के ड्राईवर और माउंटबेटेन की नौकरानी के प्रेम-प्रसंग की भी इतनी ही चर्चा होती! और जहाँ तक गांधीजी का प्रश्न है हमारे देश में राम, कृष्ण, गाँधी आदि के चरित्रों के अंधेरे पक्षों को तलाशने और ह्रदय में बसी प्रतिमा को तोड़ने में कुछ ज्यादा ही रुची ली जाती है. विस्तार से फ़िर कभी चर्चा करूँगा.

(gandhivichar.blogspot.com)

Manish Kumar said...

नेहरू और एडवीना के बारे में इस किताब का विवरण अच्छा लगा।

जैसा कि अनुराग की पोस्ट पर भी कहा था कि गाँधी के संदर्भ में ये बातें कई बार पत्र पत्रिकाओं में छप चुकी हैं। और कहीं भी उनके इन प्रयोगों की तारीफ हुई हो ऐसा भी नहीं है। गाँधीजी के व्यक्तित्व के कुछ पहलू , उनके कुछ राजनैतिक निर्णय हमेशा से कटघरे में रहें हैं और रहेंगे।

Arvind Mishra said...

आपने अनेक ऐतिहासिक और मिथकीय-पौराणिक प्रसंगों की ऐसी पंचमेल खिचडी तैयार की है जो देखने में तो लाजवाब है मगर खाने उतना रुचिकर नही है ! कहाँ की बात कहाँ ले गयी हैं !

अखिलेश शुक्ल said...

माननीय कंचन जी
सादर अभिवादन
आपके व्यवस्थित विचार जानकर अत्यधिक प्रसन्नता हुई। आप पत्रिकाओं में समसामयिक विषयों पर रचनाएं भेंजे । पत्रिकाएं उन रचनाओं को अवश्य ही प्रकाशित करेंगी। यदि पत्रिकाओं के संबंध ा में जानना चाहती हैं तो मेर ब्लांग पर अवश्य ही पधारें आप निराश नहीं होंगी।
अखिलेश शुक्ल
सपांदक कथा चक्र
visit us at:-
http://katha-chakra.blogspot.com

योगेन्द्र मौदगिल said...

कंचन, अरविन्द जी की बात का कतई बुरा मत मानना...

मैं अपना एक दोहा इस पोस्ट को समर्पित कर रहा हूं कि

घर का भेदी तोड़ कर लंका लीनी जीत.
जा हम ने भी देख ली रघुकुल तेरी रीत..
!!1!!!!!!!!!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

कँचन , जिन्हेँ पूजनीय मानेँ, उनके बारे मेँ, ऐसा पढना दुखदायी लगता है , है ना ?
मन को व्यथित ना होने देँ ..अच्छा लिखा है
स्नेह,
-लावण्या

bijnior district said...

यु़धिष्टिर का धर्म था या चतुरता जो उसने द्रोपदी को जुए पर दाव पर लगाया,अन्यथा उसकी अपनी भी तो पत्नी थी,उसे भी तो दावं पर लगाया जा सकता था। बात यह है कि द्रोपदी सार्वजनिक पांच भाइयों की संपत्ति होने के नाते दावं पर लगाते सोच रहा होगा कि हार गए तो द्रोपदी को क्या फर्क पड़ता है, जहां पांच वहां छह।

Abhishek Ojha said...

सबके अपने विचार... पर मुझे तो बहुत अच्छी लगी ये पोस्ट.

रंजना said...

Aapka vichaar janna,sukhad laga.

saath hi pustak ke prati utsukta bhi jagi.aabhaar.

Pramendra Pratap Singh said...

नेहरू और एडविना के बारे में क्‍या लिखा है क्‍या नही है, किन्‍तु आधुनिकता के दौर में जो कल्‍पानाऐं हम कर सकते है, वे नेहरू और एडविना के बारे में सच होगी।

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छी, समझभरी पोस्ट लिखी। ये तो शाबासी देने का काम है। बहुत अच्छा लगा पढ़कर।

Udan Tashtari said...

काफी सारगर्भित आलेख. बस, अपने अपने नज़रिये हैं विवादितब बातों को देखने के -जैसा की यहाँ आलेख और टिप्पणियों से भी जाहिर है. तो एक नजरिया यह भी.

Anonymous said...

बोथरे तर्क है गांधी जी के .....ठीक वैसे ही जैसे की किसी शराबी को ये जांचने के लिए की उसने शराब छोडी है या नही या उसमे उसकी प्यास है या नही रोज उसे मदिरालय में ले जाये .....या किस हिंसक व्यक्ति के सिरहाने बन्दूक रखकर उसे रोज गलिया दी जाये .
दरअसल अस्सी प्रतिशत लोगो ने पढ़ा ही नही न उन्हें ऐसी कोई जानकारी है यहाँ आलोचना करने वालो को भी .गूगल में टाइप करके खोजने से मिल जायेगा वैसे मैंने लिंक भी दिया है उस पोस्ट में ओर सन्दर्भ भी ,नाम इसलिए नही लिख रही हूँ क्युंक पहले भी कई विवादों में शामिल रही हूँ.

Anonymous said...

वैसे मेरा एक ओर प्रशन है यहाँ बुद्दिजीवियों से की "अगर कस्तूरबा ये प्रयोग करती तो क्या राय होती महानुभावो की ? "

ss said...

इतनी सरलता से बात रखने का धन्यवाद|एक प्रभावी प्रस्तुति|

के सी said...

आप इतनी विनम्र क्यों है ? आपका ज्ञान और विश्लेषण सम्पूर्ण है किसी बैसाखी और किसी के सहारों की जरूरत नहीं है आपके शब्दों को। पुस्तक समीक्षा के बहाने दी गई तमाम व्यवस्थाओं पर किसी अन्य लेखक की सहमती अथवा असहमति से आरम्भ करने का तुक समझ नही आया, सम्मान व्यक्त करना अलग बात है और सम्मान के अधीन हो जाना सर्वथा अलग। आप एक स्तरीय लेखक है अपने पंखो से बंधी डोरियाँ काट कर उन्मुक्त उड़ान भरें, हम ऐसे उड़ते देखने की कामना रखते है।

डॉ .अनुराग said...

हम जिस समाज में रहते है वहां अपने हीरो अपने महापुरुषों को सिर्फ़ उजाले के साथ स्वीकारते है क्यूंकि अंधेरो के साथ जब वे खड़े होते है तो वे हम जैसे मानव प्रतीत होते है ....साधारहन गुण दोषों से भरे हुए .हाड मांस की पुतले .... .
.धारणाये बदल सकती है लेकिन चरित्र का केवल विकास होता है ।२१ साल के जो आप होते है 31 मे वही नही रहते …तजुर्बे सिर्फ़ गुजरने के लिये नही होते ,क्या क्या आपने उनमे से समेटा है ये महत्वपूर्ण है...ओर उसे कितनी देर तक आप होल्ड करके रखते है ये भी .....मैंने पूर्व में यही कहा की गांधी ऐसे व्यक्ति है जिनसे आप आपका लव हेट का रिश्ता उम्र भर चलता रहता है ...गांधी की महत्ता को कोई नही नकार सकता ना उनके योगदान को....ये विचार ३० ४० मिनटों में नही बने है.२३ की उम्र में नाथूराम गोडसे की किताब पढ़ी थी ....तो लंबा सफर है.....
कविता जी के ब्लॉग पर भी यही कहा था सार्वजनिक तौर पे किसी ग़लत बात को स्वीकारने से वह सही नही हो जाती ..देह की कोई अलग भाषा नही होती....उसके कोई तर्क नही होते ....
जीना भी एक कला है .....कुछ लोग सारे भोग भोगकर भी उनसे मुक्त रहते है ओर कुछ लोग अध्यात्म की शरण मे जाकर भी इस संसार से मुक्त नही हो पाते ......
वैसे भी हम ओर आप ये सवाल नही पूछ सकते क्यूंकि हम आम मानस है गलतियों से भरे ..आज से १० साल बाद फ़िर ख़ुद को टटोलेगे शायद फ़िर कुछ तर्क समझ आये
जावेद अख्तर की नज़्म याद आती है .जो उन्होंने मदर टेरेसा के लिए लिखी थी.....
मुझको तेरी अजमत से इनकार नही.........

कंचन सिंह चौहान said...

आप सभी लोगो का धन्यवाद, जिन्होने इस पोस्ट को पढ़ने लायक समझा....! विनय जी, दोनो रंजना जी,सुब्रमण्यम जी, मनीष जी, अखिलेश जी, अभिषेक ओझा जी महाशक्ति जी, शाश्वत जी जैसे लोगो ने साथ दे कर उत्साहवर्द्धन किया, नीरज जी, मौद्गिल जी, लावण्या दी जैसे लोगो ने आशीष दिया, अनूप जी ने शाबाशी,ताऊ जी, मधुप जी, समीर जी जैसे लोगो ने बाल व्यवहार समझ कर सुना मुस्कुराये और चले गयेकि उम्र के साथ खुद समझ जायेगी, मेरा मन रखने वाले उन सबका शुक्रिया।

अभिषेक जी आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं, बड़े शोध के साथ, बड़ी ही ज्ञानवर्द्धक बाते होती हैं आपके ब्लॉग में। आप पहली बार मेरे ब्लॉग पर आये अच्छा लगा। लेकिन शायद थोड़ी जल्दी में थे। किसी के विषय में कुछ कहने के पहले मैं बहुत बार सोचती हूँ। पहली बात तो ये कि जो बातें कैथरीन क्लैमा ने लिखी उसके लिये किताब के पीछे एक बिबलिओग्राफी में उन्होने पूरा लिखा है कि कहाँ कहाँ से और किन किन लोगो से उन्होने तथ्य उठाए हैं। उनमें वो पत्र भी हैं जो नेहरू ने एडविना को दिये थे। खुद एडविना की पुत्री पामेला ने भी एक पुस्तक अपनी माँ और नेहरू जी के रिश्ते पर लिखी है। उसमें स्वीकार किया है कि मरते समय एडविना के पास एक संदूक में नेहरू के ढेरों पत्र थे, जिसे उन्होने माउंटबेटेन को सौंपा था। मैं सचमुच नही समझ पा रही हूँ कि क्या आपने मेरी पोस्ट को ठीक से पढ़ा है क्या ? मैने तो एक बार भी नही कहा कि इस पुस्तक में कुछ भी रोमांटिक टाइप का है। मैने तो बताया कि इस पुस्तक से उस समय की राजनीतिक स्थिति और राजनैतिकों के जीवन के बारे में कुछ वो बातें पता चलती हैं, जिनसे मैं अनभिज्ञ थी। नेहरू और एडविना के बीच मे एक प्लैटोनिक रेलेशन है। आप समझ रहे हैं न कि प्लैटोनिक रेलेशन रोमांस से कुछ अलग होते हैं। कुछ आध्यात्मिक या मानसिक सा। मैने लिखा

नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात होती है जबकि एडविना की उम्र ३९ वर्ष एवं नेहरू की ५३ वर्ष है,
और अंत में

एक सहज एवं मर्यादित प्रेम के रूप में इस कथा पर उँगली उठाने जैसा कुछ भी नही लगा मुझे। ६० वर्ष की अवस्था में एडविना की मृत्यु के ठीक पूर्व नेहरू को उनके पत्रों द्वारा याद करना और एडविना के शव के बगल में बिस्तर पर बिखरे हुए नेहरू के पत्रों का पाया जाना सचमुच मन को आर्द्र करता है।

और १४ फरवरी एक तारीख है..... बस...! १९२२ में ये वैलेंटाइन डे जैसा कोई कांसेप्ट था भारत में ऐसा शायद नही है। ये तो मुश्किल से अभी १५ - १६ साल पहले आयातित हुआ है। जेल में बैठ कर नेहरू जी अपने पिता के साथ वैलेंटाईन डे तो नही ही मन रहे होंगे

गाँधी जी के विषय में ले कर लोगो का मुझसे मतैक्य नही होगा ये तो मैं जानती थी। लेकिन नेहरू और एडविना को ले कर कोई कुछ गलत समझेगा ये उम्मीद नही थी मुझे। क्योंकि उसमे तो खुद मुझे कुछ गलत नही लगा। फिर मैं तो खुद ही कहती हूँ कि

तुम अपनी परिभाषा दे लो,
वो अपनी परिभाषा दे लें,
मेरे लिये नेह का मतलब,
केवल नेह हुआ करता है।


आपकी विस्तार से चर्चा की प्रतीक्षा रहेगी।

अरविंद जी! गृहणी जब खिचड़ी बनाती है तभी उसे पता होता है कि अधिकतर खाने वालों को पसंद नही आयेगी, इसीलिये खिचड़ी का मीनू कम ही रखती है और जब रखती है तो कई बार सोचती है, फिर भी कभी कभी स्वास्थ्य का ध्यान रखते हुए बनानी ही पड़ जाती है। आपके मुँह का स्वाद खराब हुआ..क्षमा...!

किशोर जी बैसाखी लेने का असल में कोई उद्देश्य नही था, असल में जो लिखा है, उसके लिये सबसे पहले तरंग इसी किताब के माध्यम से उठी थी। जो दो श्रोत थे इस बारे में सोचने के, उसके विषय में चर्चा करते हुए बात निकालना चाहती थी। मुझे पता है कि ये आपका स्नेह है, जो आप इस तरह नेह से डाँट रहे है। :) :)

प्रकाश गोविंद said...

यह क्या बात हुयी कंचन जी ?

आपने सबका आभार प्रकट किया पर
उन लोगों का आभार प्रकट नहीं किया
जिन्होंने आपकी चुपचाप पोस्ट पढ़ी और
चुपचाप ही निकल गए - निःशब्द !

क्या यह आवश्यक है कि हर कोई अपनी
प्रतिक्रिया व्यक्त करे ?
मैं कडुवी प्रतिक्रिया के लिए कुख्यात हूँ पर
मैं अपने शहर वालों को भला कैसे नाराज कर सकता था !

खैर आपकी इन चार पंक्तियों ने
मन मोह लिया ,,,
(तुम अपनी परिभाषा दे दो .....)

लेखन में बिखराव था पर अच्छा लिखती हैं आप !

चलिए शुभकामनाएं भी ले ही लीजिये !

Atul Sharma said...

हर एक व्‍यक्ति का हर घटना को देखने का एक अलग न‍जरिया होता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमने अपने शैशव काल से समझदार होने तक किन लोगों या विचारधाराओं की संगत की है और क्‍या हम अपने ज्ञानचक्षुओं को नए ज्ञान के लिए खोल रहे हैं या इसके कपाट बंद कर रहे हैं। मुझे इन परिचर्चाओं में बडा आनंद आता है क्‍योंकि कई बार यह हमारे अब तक के विचारों से अलग होते हैं और कई बार लोग हमसे सहमत होते हैं । सहमति और विरोध अपनी जगह हैं पर सच को हमें हमेशा सच के नजरिए से ही देखना चाहिए ऐसा मेरा मानना है। पर एक बात से मैं सहमत हूं कि जब भाषा बेहतर और नम्र होती है तो अच्‍छा लगता है और लखनऊ तो अपनी भाषा के लिए जग प्रसिद्व है।

गौतम राजऋषि said...

कुछ कहने की समझ नहीं...अनुराग जीक े आलेख पे भी यूं हीक ुछ घुमा-फिराकर कह गया था और अब आपका ये आलेख....
विवाद का विषय है,गांधी की सोच क्या रही होगी वो तो खुद आकर बताने से रहे....सत्यता बेशक चाहे जो रही हो कंचन जी,आपकी लेखन-शैली ने दिल छू लिया

कंचन सिंह चौहान said...

प्रकाश जी निःशब्द आगन्तुकों को निःशब्द धन्यवाद...! विश्वास मानिये कि कड़वी टिप्पणियाँ उतनी बुरी नही लगती,जितनी झूठी...! लेखक हो या विचारक सही विश्लेषण का हमेशा मुरीद रहता है। पारदर्शिता मेरे जैसे सभी इमानदार लेखकों को अच्छी ही लगती होगी। आप अपने शहर वालों पर इतना भरोसा रखिये कि उन्हे सत्य से कहीं परहेज नही है। मुझे जो लगा वो मैने लिखा। लेकिन मैने जो लिखा वही सच है, ये गलतफहमी मुझे कतई नही है। आपकी पारदर्शी टिप्पणियों की प्रतीक्षा रहेगी, कड़वी या मीठी जैसी भी हो। पंक्तियाँ पसंद करने तथा शुभकामनाओं के लिये धन्यवाद।

अतुल जी! आपकी इस बात से मैं शतप्रतिशत इत्तेफाक़ रखती हूँ कि व्यक्ति की सोच उसके माहौल पर निर्भर करती है और फिर से कहूँगी कि मेरे ज्ञानचक्षु पूरी तरह से खुल गये हैं, इस बात की भी मुझे कतई कोई खुशफहमी नही है। कल सोचने का जो नज़रिया था वो आज नही है और जो आज है वो शायद कल न रहे। भाषा की प्रशंसा का लखनऊ की तरफ से शुक्रिया। एक बात और हो सकता है कि ६ साल से कर्मभूमि लखनऊ होने के कारण तहज़ीब का थोड़ा रंग चढ़ गया हो परंतु जन्मस्थान कानपुर है, जहाँ की भाषा भले अक्खड़ हो। मगर मन में किसी के लिये बैर नही होता। हमें सच कहना और सुनना दोनो आता है :) :)! उम्मीद है ज्ञानार्जन की इस प्रक्रिया में आप मेरा अपने सच कें साथ सहयोग हमेशा देंगे।

गौतम जी! आपने पोस्ट बिना पढ़े नही छोड़ी ये रसीद मिली...शुक्रिया :) :)

daanish said...

"नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है ,
....मुझको और खरा होना है ......"

बस ! इस के बाद तो सब सच्चा, पाकीज़ा, और सराहनीय है ....
आप साहित्य सेवा में लीन हैं , माँ सरस्वती आपको भरपूर आशीर्वाद दें , यही दुआ करता हूँ ......
---मुफलिस---