Monday, September 3, 2007

मुक्ति-अंतिम भाग

" क्या मतलब ?"

"मतलब तो तुम ही जानती हो शायद ! उन सब बातों का मतलब जो तुम्हारे लिये होती हैं। ऐसी बातें सब क्यों करते हैं तुम्हारे लिये ?" सारिका ने मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए कहा और मैं उस दृष्टि का सामना नही कर पाई। मैं दूसरे कमरे में जा के फफक कर रोने लगी। मैं अपनी छोटी सी बेटी को इतनी बड़ी सच्चाई कैसे बताऊँ ? वो ज़बान कहाँ से लाऊँ ?

मैं उसी कमरे में पड़ी रोती रही, रात होने पर सारिका आई और मेरे सिरहाने बैठ गई। मेरे आँसू पोंछते हुए वो बोली " मैने तुमको बहुत दुःखी कर दिया ना ! मैं सबकी बातों में आ गई और तुमसे ऐसे पूँछ बैठी। मुझसे गलती हो गई माँ। अब मैं तुमसे कुछ नही पूछूँगी। बस एक बार मुझे माफ कर दो।" कह कर वो मेरे सीने से लग गई और सुबकने लगी।

मैने उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा, " नही बेटा तूने कुछ भी गलत नही किया, मैने ही बताने में देर कर दी। मैं हिम्मत नही कर पाती थी, क्या करूँ ? लेकिन अब आज ही बता दूँ तो ठीक होगा क्यों कि फिर पाता नही दोबारा इतना साहस बटोर पाऊँगी कि नही ?"

और इसके बाद मैने रो रो कर किसी तरह सारिका को सब कुछ बता दिया। सारिका मेरे साथ रोती जा रही थी " कैसे तुमने सब कुछ सह लिया माँ ! तुममें कितनी ताकत है ? कितना धैर्य है ? सब कुछ मेरे ही लिये तो झेल गई न तुम माँ ! ... और मैने आज तुमसे कैसे ऐसी बात पूँछ ली ? .... ये भी नही सोचा कि तुम्हे कितना कष्ट होगा ।"

मैं सारिका को समझाती रही उसके आँसू पोंछती रही। तब तक सामने कुँवर जी प्रकट हो गए।" ई कौन नौटंकी चलत बाय, हम कही कि आज एतनी देर होइ गै खाब काहें नाही मिला ?" उन्होने तेज़ गर्जना के साथ कहा और मैं खड़ी हो गई।
तभी संजीव ने अंदर आते हुए कहा, " माँ की तबियत खराब है इसलिये खाना नही बनाया।"

" तोसे पूँछन हैं का रे ?"

"लेकिन मैं बता रहा हूँ न !"

" काहें बतावत हए बिना पूँछे" उन्होने कहा और सारिका की तरफ मुड़ते हुए कहा " औ तैं ? तहूँ बेराम हए का
रे ?"

"दीदी माँ के पास बैठी थी, बीमारी में किसी की जरूरत भी पड़ती है।"

"यै दूनो बइठि के नौटाकी करिहै औ खाब एकर नानी आई के बनाई का ?"

मुझे बोलना पड़ गया, " खाब हम बनाये जात हई बकिर लड़ीकन के आगे बोली आपन सही राखा करा।"

"बहुत जबान बढ़ि गै बा रे तोर ! हमरे बल पे खात हए, ऐस करत हए औ हमही से गुर्रात हए। रुक आज तोर पीठ तोड़ि दी सब ठीक होइ जाय।" कहते हुए वो मेरी तरफ झपट रहे थे कि संजीव ने उनका हाथ कस के पकड़ते हुए उन्हे पीछे की और ढकेल दिया।

" ऐसी हिम्मत अब मत कीजियेगा, वर्ना लोग तमाशा देखेंगे कि बेटे ने बाप पर हाथ उठा दिया और खाने की धमकी मत दीजिये. एक एक कौर और एक एक दाने का सौ गुना ज्यादा दर्द आप उन्हे दे चुके है। आपने किया ही क्या है ? सिर्फ मर्द होने की धौंस ही दी है न उन्हें.. शर्म आती है मुझे कि मैं आपका बेटा हूँ। कई पापों का फल मिला है मुझे कि आप मेरे बाप हुए। लेकिन कोई एक पुण्य हो गया था शायद कि जन्म मेरा इस कोख से हुआ़।....अब एक मिनट में आप इस कमरे से निकल जाइये और फिर कभी मेरी माँ से बात मत कीजियेगा क्योंकि जिस छत्रछाया के बदले आप इतनी गुलामी करा रहे थे उसके लिये अब मैं बड़ा हो गया हूँ। मैं रहूँगा हमेशा उनके साथ। निकलिये... तुरंत निकलिये !"

कुँवर जी उनमे से नही थे जो सक्षम से भिड़ें, वे दबे हुए को दबाना जानते थे और संजीव के तेवर कह रहे थे कि वो किसी से दबने वाला नही था। इसलिये कुँवर जी तुरंत बाहर निकल गए।

संजीव सारिका के पास जा कर खड़ा हो गया और उसके आँसू पोंछते हुए उसके कंधे को धीरे से थपथपाया और सारिका उससे लिपट गई, संजीव उसे एक संरक्षक की तरह सहारा देता रहा। जब मैं सारिका को आप बीती बता रही थी तो संजीव ने सब सुन लिया था और उसके पिता के साथ उसके तेवर उसी का परिणाम थे। उसने सारिका को बैठाते हुए कहा, " मैं हमेशा सोचता था कि हर घर में लड़कों को अधिक दुलार दिया जाता है, मेरी माँ तो इतनी अच्छी है, फिर वो मुझसे प्यार क्यों नही करती ? आज मुझे सब समझ में आ गया, माँ मुझसे प्यार कैसे कर सकती है ? यही कहाँ कम है कि वो मुझसे नफरत नही करती।" कहते कहते उसका गला भर गया।

सारिका ने झट उसके मुँह पर हाथ रख दिया " न! न! ऐसी बातें क्यों करते हो ? तुम तो माँ का सहारा हो, और मेरा भी।"

सारिका और संजीव दोनो रो रहे थे और दोनो ही एक दूसरे को समझा रहे थे। मुझे लग रहा था कि वर्षों की कड़ी धूप के बाद आज बादल हुए हैं। मैने उन दोनो के सर पर हाथ रखा और अपने आँचल में छुपा लिया।

इसके बाद मैने सारिका और संजीव दोनो के मुँह से कभी पापा शब्द नही सुना। उन दोनो ने फिर कभी उनसे बात नही की।

लेकिन मैं पहले की ही तरह काम करती रही। जिंदगी भर का दुर्व्यसन बुढ़ापे में तो निकलना ही था। उस व्यक्ति को ये कभी नही लगा कि मैं उसकी सेवा करती हूँ, लेकिन अगर कुछ कमी रह जाती थी तो तुरंत उसे पता लग जाता था। उसके बदले में मुझे कितनी गालियाँ को मिलतीं इसका कोई भी हिसाब नही लगाया।

६ माह से वो सन्निपात में है, उसे कुछ भी नही याद है शिवाय मुझे गालियाँ देने के। और मैं ६ माह से इसी अस्पताल में हूँ। सारिका पास के एक कस्बे में सरकारी अध्यापिका हो गई थी, रोज घर ना आ कर वहीं रहने लगी थी और संजीव लखनऊ में प्रतियोगिताओं की तैयारी कर रहा था।

आज अचानक उनकी साँसे तेज चलने लगीं। मैने दौड़ कर डॉक्टर को खबर की। डॉक्टर उन्हे आई०सी०यू० में ले गए और आ कर कहा " आप अपने बच्चों को खबर कर दीजिये, कुछ भी हो सकता है।"

मैने सारिका और संजीव को खबर कर दी।

सुबह होते होते दोनो ही आ गये।

वार्ड के बाहर बेंच पर मै बैठी हुई थी। सारिका और संजीव मेरे अगल बगल बैठे हुए थे, तभी डॉ० मेरे पास आये और बोले, " देखिये मैडम आप हिम्मत से काम लीजियेगा। आप जिस तरह से इतने दिन से मरीज की सेवा कर रही थी उससे साफ पता लग रहा था कि आपको अपने पति से बेहद लगाव था। लेकिन ज़रा सोच कर देखिये तो ६ माह से सिर्फ उनकी साँसे चल रही थीं और शरीर को तो बेहद कष्ट था। हम लोगों ने आपकी सेवा को देखते हुए आज भी बहुत कोशिश की कि उन्हे थोड़े दिन और बचा लिया जाये, लेकिन हम सफल नही हुए। वैसे आप भावनात्मक रूप से थोड़ा सा हट कर देखेंगी तो आपको लगेगा कि आज उन्हें अपने कष्टों से मुक्ति मिल गई"

मैं डॉक्टर को निर्निमेष सी देखती रही और भावहीन वाणी में मेरे मुँह से निकला, " हाँ..... मुक्ति तो मिल गई।"

डॉक्टर कमरे से चले गए और सारिका, संजीव मेरे चेहरे को एकटक देखने लगे, जैसे पूँछ रहे हों

" किसे मुक्ति मिली माँ!........उन्हे......या तुम्हे ?"

समाप्त

11 comments:

ghughutibasuti said...

बहुत मर्मस्पर्शी कहानी है । ऐसे जीवन को जीना कहा जायेगा या भुगतना !
घुघूती बासूती

Manish Kumar said...

विपरीत परिस्थितियों में भी अपने कर्तव्यबोध से विचलित ना होने वाली आपकी नायिका ने अपना जीवन नारकीय बनने के बाद भी किस तरह अपने बच्चों के लिए हिम्मत नहीं हारी..उसका जीवंत वर्णन किया है आपने अपनी कथा में। लिखती रहें...

Udan Tashtari said...

कंचन

इसे कहीं प्रिंट मिडिया में छपवाओ...बहुत गजब की कहानी है. जरा सी कोशिश पर छप जायेगी..सारी काबिलियत है इसमें.

मेरी शुभकामना है तुम्हारी लेखनी को.

और नई कहानियाँ लाओ इस तरह की. इन्तजार रहेगा.

बहुत ब्लॉगर हैं प्रिंट मिडिया से जुडॆ वो मदद कर सकते हैं...इसे आम जन तक पहुँचना ही चाहिये.

बहुत खूब रहा यह!! बधाई!!!

मैथिली गुप्त said...

बहुत अच्छी कहानी है.

Unknown said...

यह अंदाजा तो शुरू में ही लग गया था कि कहानी के आखिर में इस कहानी के प्रमुख पात्र की मृत्यु होगी, लेकिन जिसके बारे में सोचा था उसकी मौत नहीं हुई। हां, उसे जीते जी मुक्ति जरूर मिल गई। कहानी वाकई में बहुत अच्छी है। कई बार तो आंखें तक भर आईं। एक बार फिर बधाई स्वीकार करें। अब अगली कहानी कब प्रस्तुत कर रही हैं?

महावीर said...

कल अंतिम भाग पढ़ा। ऐसी प्रभावशाली रचना पर दो चार शब्द लिख कर तो टिप्पणी से मुक्ति नहीं मिलेगी। कंचन, यह कहानी समीक्षा के योग्य है। हां, आपकी
अनुमति की आवश्यकता होगी कि पूरी कहानी अपनी फाइल में 'सेव' करके आराम से दो तीन बार पढ़ने पर कुछ लिख सकूं।

Unknown said...

वाह भई कंचन जी कमाल की कहानी लिखी है । कितनी मर्मस्पर्शी। वैसे समाज की यह दशा अभी देखने को मिलती पर स्त्री समर्पण हमेशा ही होता है। हृदय तक पहुची आप की ये कहानी। लाजवाब है।

कंचन सिंह चौहान said...

देर से जवाब देने के लिये सभी मित्रों एवं गुरुजनों सा क्षमा चाहती हूँ।

बसूती जी! बहुत से जीवन भुगते ही जाते हैं, शब्द का बिलकुल सटीक प्योग किया आपने।

धन्यवाद! मनीष जी।

समीर जी! प्रिंट मीडिया वाले मुझे पसंद नही करते, जिस रचना के लिये मुझे मेरे ब्लॉग पर वाहवाही मिलती है वो पत्रिका से सखेद वापस आ जाती हैं। कुछ लोगों ने बताया कि मैं आउटडेटेड लिखती हूँ। अब लिखना तो मेरे वश में होता नहीं। समय की माँग पर मैं नही लिख पाती। ये मेरे लिये सहज प्रक्रिया है। अतः अब मैं अपने इस झरोखे में ही संतुष्ट हूँ, आप जैसे शुभाकांक्षी आते रहें बस।

मैथिली जी धन्यवाद!

रवीन्द्र जी शुक्रिया! मेरी यह कहानी सबसे छोटी कहानी थी, बाकी तो शायद लघु उपन्यास ही हैं, जब टाइप करने की हिम्मत जुटा पाऊँ तो अगली कहानी प्रस्तुत करूँ।

महावीर जी! गुरुजनों को अनुमति की आवश्यकता पड़ने लगी तब तो अनर्थ हि हो जायेगा। आप जब चाहें इसे अपने पास सुरक्षित कर लें।

सच कहा आपने नीशू जी स्त्री की यह दशा समाज की एक सत्यता ही है।

हरिराम said...

सचमुच माँ तो "माँ" ही होती है। इसकी तुलना या विकल्प असम्भव है। हृदय-विदारक ही नहीं, "हृदय-परिवर्तक" सशक्त लेखन है। लगी रहें।

के सी said...

कहानी ग्रामीण परिवेश में अंकुरण से होती हुयी भिन्न भिन्न सोपानों का बखूबी निर्वहन करती हुई आगे बढ़ती है कथ्य की दृष्टि से पक्ष बेहद मजबूत है कहीं भी किसी आभासी जीवन का संकेत नहीं मिलता वरन पाठक शब्दों से रचे गए वातावरण के भीतर प्रवेश कर घटनाओं को घटित होते हुए देख पाता है. भाषा स्तर पर कहानी की सुन्दरता यह है कि वह आंचलिकता और कथा की मूल भाषा में गहरा तादतम्य सृजित कर पाने में सफल रही है. लेखक कुछ स्थानों पर सुन्दर मुहावरों को परिभाषित करने में सफल रहा है. कहानी का फलक बहुत व्यापक है इसलिए कुछ दृश्यों को रचने में कंजूसी बरतना आवश्यकता बन गया प्रतीत होता है. "मुक्ति" ग्रामीण जीवन की रुढियों से उपजी विसंगतियों को, नारी की दारुण स्थिति को को उकेरती तो है ही साथ ही वह शिक्षा से सुन्दर भविष्य की उक्ति को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती दिखाई दे रही है. आप इसे पढ़ कर कंचन से और कहानियो की मांग कर सकते हैं.

Sweta said...

bahut hi aachi hai di bahut hi jyada