Wednesday, March 26, 2008

मान जाओ प्रिय ना जाओ और दो घड़ी अभी।

आजकल कल कानपुर में हूँ .... अपने बचपन के घर में ..... कल किताबों की अलमारी उलटते पलटते एख किताब दिखी फटी सी..क्या पता कौन लाया होगा इसे लेकिन इसके पन्नों की कविताओं पर कहीं मेरे और कहीं भईया के हस्ताक्षर हैं जो हमारी पसंद होने का द्योतक हैं.... आपसे बाँट रही देवी प्रसाद "राही" की लिखी वो कविता जिस पर हम दोनो भाई बहन के हस्ताक्षर हैं...!




मान जाओ प्रिय ना जाओ और दो घड़ी अभी।

चाँद कह रहा गगन से, मैं अभी न जाऊँगा
थोड़ी देर और चाँदनी के गीत गाऊँगा,
रात है उसी की जो लुटाये मुफ्त रोशनी,
सो गया तो फिर ना जिंदगी का मीत पाऊँगा,
काट दो अधूरी रात और बात बात में
धीरे धीरे दुख बँटाओ और दो घड़ी अभी।


मेरी प्यास बचपने से कैद काटती रही
रोज़ रोज़ आँसुओं के कर्ज़ पाटती रही
गाँव गाँव जोगिनी सी ले सितार गीत का
मेरी पीर द्वार द्वार प्यार बाँटती रही
आ गई है आँसुओं को नींद थोड़ी देर से
धीरे धीरे मुस्कुराओ और दो घड़ी अभी।


मोड़ दो हृदय की ओर जिंदगी की धार को
रीति नीति से न बाँधो आदमी के प्यार को
बंधनों में बँध सकी कहाँ प्रणय की भावना
कौन है जो चाहता नही दुलार प्यार को
मोम सा विरह पिघल रहा, मिलन के ताप से
धीरे धीरे लौ बढ़ाओ, और दो घड़ी अभी।

6 comments:

मीनाक्षी said...

भावभीनी रचना...

Anonymous said...

bahut sundar kavita hai.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन है और ढ़ूंढिये कि किस किस कविता पर हस्ताक्षर किये थे..जल्दी. :)

mamta said...

बेहतरीन कविता।
पर आख़िर के दो पैराग्राफ पढने मे दिक्कत आ रही है। कुछ फॉण्ट का चक्कर है।

Manish Kumar said...

यहाँ बाँटने के लिए शुक्रिया..

सुनीता शानू said...

मोड़ दो हृदय की ओर जिंदगी की धार को
रीति नीति से न बाँधो आदमी के प्यार को
बंधनों में बँध सकी कहाँ प्रणय की भावना
कौन है जो चाहता नही दुलार प्यार को
मोम सा विरह पिघल रहा, मिलन के ताप से
धीरे धीरे लौ बढ़ाओ, और दो घड़ी अभी।
खूबसूरत पन्क्तियाँ है कंचन जी...
धन्यवाद एक अच्छी रचना से अवगत करवाया