Thursday, July 26, 2007

♥ वो और जिंदगी ♥

वो जिंदगी की तरह उलझने ही देता है,
पर उसके छूटने के नाम से जी डरता है।
इसी आदत पे उसे जिंदगी है नाम दिया,
वो अपना हो के भी बस दुश्मनी निभाता है।

ये जिंदगी अपनी, जिंदगी में वो अपना,
मैने उम्मीद बड़ी रखी है इन दोनो से।
मुझे पल भर की खुशी देके बाँध रखा है,
अजब बंधन है छूट सकते नही दोनो से।

ये खुशियाँ लम्हों को देते हैं, दर्द सालों को,
ये नाउम्मीद मुझे बार.बार करते हैं।
मुझे मालूम है ये दोनो मेरे हैं ही नही,
अपनी चीजों में इनका क्यूँ शुमार करते हैं।

वो जिंदगी की तरह मेरे है करीब बहोत,
पर इनकी दीद की खतिर भी जी तरसता है।
वो जिंदगी में, मेरी जिंदगी उसमें गुम है,
मेरा वजूद इन्ही दोनो में भटकता है।

Friday, July 20, 2007

कुछ सत्य

सारा जीवन टिका हुआ है, बड़े खोखले खंभों से,
कब तक आखिर दिल बहलाएं हम बिंबों प्रतिबिंबों से।

मन तो करता है कि हम भी कुछ परसेवा कर जाएं,
समय नही मिल पाता है बस अपने झूठे दंभों से।

घटती जाती मानव संख्या, जनसंख्या बढ़ती जाती,
जनजीवन में उथल पुथल है, इन्ही चंद हड़कंपों से।

दर्द दिया जिसने जिसने भी, वो सब थे हमदर्द मेरे,
हमने बड़ी ठोकरें पाईं जीवन के अवलंबों से।

पीर पराई राई जैसी, दर्द हमारा पर्वत सा,
सबको अपना दर्द लगे है गहरा दूजे ज़ख्मों से।

कौन पराए आँसू पोंछे, कौन बँटाए दर्द भला,
किसे यहाँ छुट्टी मिलती है अपने गोरखधंधों से।

राम बने तो वन वन भटके, कृष्ण बने रणछोड़ हुए,
ईश्वर भी तो बच न पाया, जीवन के संघर्षों से।

प्रगतिवाद के मूल्य और हैं, इस मन की कुछ रीत है और,
हमको नित लड़ना पड़ता है अपने ही आदर्शों से।

Wednesday, July 11, 2007

अनछुई छुअन से सिहर गई पगली....एक वर्षा गीत


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी


पेड़ों के काधों पे झुकी हुई बदली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

तन कर खड़े हैं तरू, पहल पहले वो करे,
बदली ने झुक के कहा, अहं भला क्या करें ?
तुम से मिले, मिल के झुके नैन अपने,
झुकना तो सीख लिया, उसी दिन से हमने,

ये लो मैं झुकी पिया, शर्त धरो अगली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

तेरे लिए घिरी पिया, तेरे लिए बरसी,
तुझे देख हरसी पिया, तेरे लिए तरसी।
तेरे पीत-पात रूपी गात नही देख सकी,
सरिता,सर,सागर भरे, इतना आँख बरसी,

तुझे देख मैं जो हँसी, नाम मिला बिजली।
अनछुई छुअन से सिहर गई पगली।।

माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है

नित्य समय की आग में जलना, नित्य सिद्ध सच्चा होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |

माँ तुमने जब नाम दिया तो तुमको क्या मालूम नही था..?
पीतल की ही धूम यहाँ है, वो होती तो अधिक सही था|
अब तो जो कोई आता है, आँखों में शंका लाता है,
क्या तुम सचमुच ही कंचन हो..? मुझसे प्रश्न किया जाता है|
मैं अपनी बातों में जितना सच भर सकती हूँ भरती हूँ,
मै कंचन हूँ.......! कंचन ही हूँ.......! तुमको क्या पीतल लगती हूँ....?
मेरी बातों की सच्चाई उनको कहाँ नजर आती है?
बल्कि आँखो की शंका में कुछ वृद्धि ही हो जाती है,

अब मैं निस्सहाय होती हूँ.... क्या फिर से वो ही होना है...?
एक परीक्षा फिर होनी है उसमें फिर शामिल होना है?
उसकी कोई कसौटी होगी, उसपे मुझे कसा जाएगा,
कोई आग जलाई होगी, उसपे मुझे धरा जाएगा|
जब वो खूब खरा कर लेगा, जब वो खूब तपन दे लेगा,
तब " हाँ ये सचमुच कंचन ही है" छोटा सा उत्तर दे देगा|

फिर मैं थोड़ी सी खुश हो कर उसकी ओर निगाह करूँगी,
ये मेरे गुण का ग्राहक है ऐसा एक विचार करूँगी
फिर.....! ढेरों निर्णय आएंगे, फिर ढेरों बातें आएंगी,
नही बहुत कीमती है ये, मुझसे नही धरी जाएगी,
पीतल मे भी यही चमक है, बल्कि कुछ ज्यादा ही होगी,
अंतर कहा पता चलता है, उसकी कीमत भी कम होगी|

मैं अपनी सच्चाई ले कर, अपने आदर्शों को ले कर,
पुनः अकेली रह जाऊँगी, पर पीतल बन पाऊँगी.......!
ये कितनी ही बार हुआ है,कितनी बार और होना है,
माँ ने दिया नाम जब कंचन, मुझको और खरा होना है |