Friday, November 27, 2015

रज़ा भाई साहब-एक सच्चा इन्सान और तथाकथित असहिष्णुता



रज़ा भाई साहब के बारे में कई बार लिखना चाहा मगर नहीं लिखा। इसलिए नहीं लिखा क्योंकि उन्हें या किसी को भी हिन्दू या मुस्लिम के रूप में लिखना या देखना मुझे मानवता का अपमान लगता है। वो भी तब, जब उस व्यक्ति की सारी फिलासफी ही इस बात पर बनी हो।

लेकिन जब से आमिर अपनी पत्नी की बातों पर सावधान  (alarmed) हुए तब से  रज़ा भाई साहब की यादों का एक हिस्सा शेयर करने का मन हो रहा है। 

हमारे मोहल्ले के सामने के बड़े से मैदान में एक तरफ मन्दिर है और दूसरी तरफ मदरसा।

नवरात्र आते हैं तो मन्दिर में और शब-ए-बरात हो तो मस्जिद में लाउड स्पीकर हम विद्यार्थियों का जीना हराम कर देते थे।

एक ब्लाक में छः घर हुआ करते थे. मेरी लाइन में दाहिनी तरफ से लगभग 10 परिवार मुस्लिमों के थे. बाकी शायद फिर सभी हिन्दू थे।

निम्मी, सिम्मी,खुर्शीद, पारो बाजी, रूबी अप्पी, मुन्नी, मोना अप्पी, डॉली, ज़ोया. आज सोच रही हूँ तो लग रहा है टोली में ज्यादा लोग तो वही थे जो यूँ तो दूसरी कौम के थे मगर हमारे लिए दोस्त थे बस. ना उनके लिए हम हिन्दू, ना हमारे लिए वे मुसलमान।

रज़ा भाई साहब मेरी कॉलोनी के ऊपर वाली कॉलोनी में रहते थे। उन्हें हम ऊपर वाले भाई साहब ही कहते थे।

इनकम टैक्स ऑफिसर रज़ा भाई साहब चाहते तो ऑफिसियल गाड़ी उन्हें लाती भी और ले भी जाती।लेकिन उन्होंने जीवित रहते साइकिल की ही सवारी की।

खैर ! ऊपर वाले भाई साहब के बारे में आगे बताऊँगी। फ़िलहाल याद आ रहा है छः दिसम्बर, १९९२ का वह खौफ़नाक दिन। 

7 दिसम्बर की सुबह से कुलबुलाहट शुरू थी और शाम तक तेजी बढ़ गयी थी। मौके की नज़ाक़त को देखते हुए मोहल्ले के 10  के लगभग सभी परिवार हमारे घर इकट्ठा हो गए। 

सबको हौसला दिया गया कि बहरी दंगाई अगर आ भी गए तो पहला वार हम पर करने के बाद ही वे आप तक पहुँच सकेंगे।

खौफ़ भरे चेहरे मेरे सामने थे और खौफ मेरे सहित तथाकथित बहुसंख्यक परिवारों में भी था। दंगाई बाहर से ही आने थे। वे किसी भी क़ौम का झंडा ले कर आ सकते थे। 

दसियों दिन यही माहौल रहा। शहर में भी और घरों में भी। सारे मंहगे सामान, ज़ेवर, रकम सुरक्षित रख दी गयीं हमारे घर में।

हर वक़्त की तरह यह वक़्त भी कट गया। इसके बाद वह वक़्त आया जिसका ज़िक्र आमिर की पत्नी रीना ने किया। माहौल शांत होते ही कुछ परिवारों ने मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में जाने का निर्णय लिया और ऊपर वाले भाई साहब को भी यही सलाह दी गयी।

भाई साहब ने कहा, "इस मोहल्ले से ज़्यादा हम कहीं सुरक्षित नहीं। फिर ऐसे समय में जब हर तरफ बलवाई थे, तब जिस मोहल्ले ने हमें सुरक्षित रखा उसे अब छोड़ कर जाना इनसे गद्दारी करना है।"

भाई साहब अब नहीं हैं लेकिन भाभी जी, मेंहदी, शाइनो सब अब भी वहीं उसी घर में हैं। 

वो वीडियो भईया ने सम्भाल कर रखा है जिसमें भाई साहब ने कहा था, "अवधेश ! शाइनो तुम्हारी तीसरी बेटी है।"

रज़ा भाई साहब ने दो बार हज़ किया था। नमाज़ का पता नहीं कितनी बार करते थे मगर रोज़े पूरे रखते थे. मुहर्रम में टीवी में समाचार तक नहीं चलते थे. बिलिग्राम में मस्जिदों और पुस्तकालयों के जीर्णोद्धार से ले कर निर्माण तक का यश उनके हिस्से में है.

साथ ही मन्दिर के सालाना यज्ञ में चीनी, मैदा या ऐसी ही किसी बड़ी चीज़ का पूरा जिम्मा वे ले लेते थे. कभी भी उन्हें मन्दिर में पीछे की तरफ बैठे ताली बजाते देखा जा सकता था. खिड़की पर कभी भी ओम जय जगदीश हरे आरती उनके स्वर में सुनाई दे जाती थी.  

ईद तो आज भी हमारी उन्हीं के नाम होती है. वे गये हमारी ईदी खत्म हो गयी. लेकिन दीवाली के पटाखे भी वहाँ ज़रूर मिलते थे. होली पर भाभी जी रंग लिए दरवाज़े पर खड़ी मिलतीं 

शाईनो हमारे घरों में बाक़ायदा दुर्गा रूप में कन्या खाने आती और मेंहदी लंगूर बने लटके होते. 

मेंहदी, शाईनो हमे कंचन बुआ कहते हैं. भाईसाहब पता नहीं कब का यह भूल चुके थे कि कंचन के बाद  बुआ हमारा नाम नहीं पद है. उन्होंने ज़िन्दगी भर हमें 'कंचन बुआ' ही कहा. "कंचन बुआ ! तुम इन्क्रीमेंट हमेशा सेविंग अकाउंट में डाला करना." "क्या कहें कंचन बुआ ! ये मेंहदी पढने में मन नहीं लगाता" ( हे हे हे ! मेंहदी पब्लिक्ली ट्रिपिकल बुआ की तरह इन्सल्ट करने की मुआफी ) और फिर उनके साथ-साथ घर में आने वाले सभी लोग, वो चाहे चाचा हों, मामा हों, जो भी हों जब रज़ा भाई साहब की कंचन बुआ हो गयी तो फिर 'बच्चे, बूढ़े और जवान' सबकी कंचन बुआ.

इस बार बहुत दिन बाद दीवाली पर मेंहदी लखनऊ में था. हम सब फिर से मिले पुराने दिनों की तरह. पुरानी बातें की. हमें पता था कि मेंहदी कुछ दिनों को 'अलीगढ मुस्लिम विद्यालय' में पढने गया और फिर चला आया था. 

चूँकि सर्विस लगने के बाद से मेरे पास घटनाएँ लघुकथा के रूप में आने लगी हैं वरना तो हम भाभी जी के परिवार के उपन्यास के एक-एक चरित्र,एक-एक घटना से परिचित थे. 

इस बार उसने हँस-हँस कर बताया, "अरे बुआ ! वहाँ तो हम जिस परिवार में थे उन्होंने कहा कि सिर्फ इन लोगों से मिलना, उनसे नहीं. उन्हें इस बरतन में पानी देना, उन्हें इस में. हम तो घबरा गये. हमने तो कभी यह सब किया नहीं.  एक दिन हम जन्माष्टमी देखने गये और आदतन टीका लगा कर लौटे. वो परिवार हम पर एकदम नाराज़. हमने पापा को फोन किया. पापा ने कहा तुरंत, इसी रात चाहे सड़क पर रह लो, लेकिन उस घर में रहने की जरूरत नहीं जहाँ इंसान को इन्सान से अलग करने की तहज़ीब सिखाई जाती हो." 

आधी रात मेंहदी भाई साहब के किसी मित्र के घर भेज दिया गया. फिर बाकी साल भर वह अपने एक पंडित मित्र के घर उनके परिवार के साथ रहा. जहाँ उसका पैर टूटने पर उसकी पूरी सेवा  हुई. हम अब भी उसी तरह मोहल्ले में हैं.

लब्बो लुआब यह है कि ना कहीं कोई दंगा, ना फ़साद, अचानक जाने क्यों अजीब सा माहौल है. मुस्लिमों की कट्टरता, हिंदुओं की असहिष्णुता के कितने पूर्वाग्रह बने हुए हैं इस so called बौद्धिक मंच पर. 

हम कम पढ़े-लिखे लोगों को ज्यादा अच्छे से रहना मालूम है. हमें  अपना धर्म निभाते हुए, दूसरों के धर्म की इज्ज़त करना मालूम है, 

हिन्दू पूछते हैं तुमने किसी मुस्लिम को टीका लगाते देखा है. मैं कहती हूँ "हाँ" और नाम गिनाती हूँ मेंहदी,शाईनो, अदीब, तनज़. वे कहते हैं अपवाद छोड़ दो. मैं कहती हूँ मेरे पास यही लोग हैं. मैंने और किसी को नहीं देखा. मुझे खुश रहने दो. मुझे इस आग से दूर रखो.

मुस्लिम कहते हैं, "हम यहाँ असुरक्षित हैं, हमारी अभिव्यक्ति पर पाबंदी है" मैं कहती हूँ, "सबसे ज्यादा यहाँ बोला जाता है आपके लिए और वो लोग बोलते हैं जिन्हें आपका दुश्मन बताते हैं लोग." 

जाने कौन सा षड्यंत्र है ? जाने कौन रच रहा  है इसे. हम सब शांति से जीवन यापन कर रहे हैं, इंसानों की तरह. जाने कौन रोज़-ब-रोज़ हमारे नाम हिन्दू-मुसलमान बताए जा रहा है. 

तुम कहते हो कोई एक कौम डरी हुई है. मैं बता रही हूँ तुम्हें कि मेरे जैसा हर इन्सान डरा हुआ है. 

तुम कह रहे हो कि कोई एक दल असहिष्णु है, मुझे लगता है हर राजनैतिक दल इस आग के चारों तरफ लकड़ियाँ और घी लिए खड़ा है.

अभी तो फिलहाल मंचों पर कोलाहल है, मोहल्लों में सब शांत. मैं उस दिन को डर रही हूँ जिस दिन मैं और मेंहदी एक मेज पर बैठें तो एक दूसरे की जेब में खंज़र होने के शक़ के साथ ना बैठे हों. 

उस दिन से बचाना ओ खुदा !