Monday, December 27, 2010

गया साल.. एक नज़र और आने वाले की शुभकामना....!


देख रही हूँ कि ब्लॉग लेखन के मेरे आँकड़ें कम से कमतर होते जा रहे हैं। २००७ से कम २००८ में, २००८ से कम २००९ में और २००९ से कम २०१० में...! मात्र २३ पोस्ट.. इस पोस्ट को मिला कर।

सोच रही हूँ कि गिरिजेश जी का आईडिया मुझे पहले क्यों नही आया और मैने क्यों नही रखा अपने चिट्ठे का नाम "एक आलसी का चिट्ठा।"

वर्ष भी कुछ अजीब सा ही रहा...! पारिवारिक रूप से बेहद खराब....! साहित्यिक उपलब्धियों की दृष्टि से काफी अच्छा...! याद आ रहा है २००१ की डायरी का अंतिम पन्ना, जिस वर्ष नौकरी मिली थी और संदीप छूटा था " कुछ सपने सच हो गये, कुछ सच सपने हो गये।"

यह साल भी कमोबेश वैसा ही था। मंच पर कविता करना, पत्रिकाओं में छपना, संपादको की प्रशंसा के पत्र पाना, पाठकों की कॉल पर बातों मे अति विनम्र होने के बावजूद कहीं खुशी से कुप्पा होते जाना, कथाक्रम में गुरू जी के साथ उन सब लेखको से रूबरू होना और जो हीरो लगते थे। (धन्यवाद गुरू जी), डॉ० विजय बहादुर जी का स्नेह भरा हस्तलिखित पत्र और चित्रा मुद्गल जी की नेह भरी बात में बार बार अहसास दिलाना कि तुम स्त्री हो और स्त्री अगर असल मिट्टी की बनी है तो सूक्ष्म दृष्टि इनबिल्ट होती है....! वो चीजें हैं जो तब तक याद रहेंगी, जब तक स्मरण शक्ति रहेगी।

मगर फरवरी में माँ का अचानक सोडियम कम हो जाना और लगना कि जाने अब क्या होगा ? मार्च से भईया की बीमारी शुरू होना, अप्रैल अंत तक वैंटिलेटर और मई की पहली तारीख को कूच...! अभी दिमाग उससे उबरा भी नही था कि जून में छोटी दीदी को कैंसर थर्ड स्टेज डायग्नोज़...! उधर अभी उनका रैडियशन खतम ही हुआ, रिपोर्ट कुछ आये इससे पहले सितंबर में माँ को कॉर्डिक अटैक....!! इन सब में बार बार डॉ० अनुराग को फोन किया Thanks Dr. saab for your mental support.

किसी पंडित ने कहा था कि लग्नेश शनि सप्तम खाने में सूर्य के साथ बैठ कर जिंदगी में सुख दुःख एक साथ लायेगा...! दुःख यूँ आये कि सुख के कारण रोना हल्का पड़ जाये तो ठीक..मगर सुख यूँ आये कि दुःख के कारण ठीक से हँस भी ना पायें तो ठीक नही खुदा...! सुनो ! अब से वैसा करना जैसा मैने कहा, दुःखों के पीछे सुख देना आँसू की तादाद कम करने को... बाकी कुछ नही। समझे..!!

एक गज़ल जो पिछली साल नये वर्ष की तरही पर गुरू जी के ब्लॉग पर लग चुकी है़ और कुछ बोल्ड पंक्तियों को पढ़ें तो लगेगा कि सारे साल की गतिविधियों के पूर्वाभास के साथ लिखी गई है

किसे कब हँसाये, किसे कब रुलाये,
ना जाने नया साल क्या गुल खिलाये।

समय चक्र की गति भला कौन जाने,
किसे दे बिछोड़ा, किसे ये मिलाये।

वो आते ही क्यों हैं भला जिंदगी में,
जो जायें तो भूले नही हैं भुलाये

नही काठ की, माँस की पुतलियाँ हम,
वो जब जी हँसाये, वो जब जी रुलाये।

रहम वीणापाणि का इतना हुआ है,
के हम भी अदीबों के संग बैठ पाए

मेरी ज़िद थी माँ से माँ की खुदा से,
जो अंबर का चंदा ज़मी पे नहाये।

कि ये साल होगा अलग साल से हर,
यही इक दिलासा हमें है जिलाये।

जो आँखौं के आगे नमूदार हो तुम,
तो खाबों को उनमें कोई क्यों बुलाये।

गली वो ही मंजिल समझ लेंगे हम तो,
जो जानम से हमको हमारे मिलाये।

वो अफसर थे सरकारी पिकनिक पे उस दिन,
गरीबों को मैडम से कंबल दिलाये।

लिहाफों, ज़ुराबों में ठिठुरे इधर हम,
उधर कोई छप्पर की लकड़ी जलाये।

इस वर्ष की अंतिम पोस्ट...! नव वर्ष खूब सारा उत्साह, उपलब्धियाँ, मानसिक शांति और प्रेम ले कर आये सबके जीवने में, इस शुभकामना के साथ, मिलते हैं एक नवीन दशक में।

Wednesday, December 8, 2010

तुझे सब है पता.... है ना माँ !


माँ ना जाने कब से नाराज़ होती थी ? याद नही ...!

इसलिये नही याद कि तब बहुत सारे कवच थे, बाबूजी, दोनो दीदियाँ और मेरी सबसे बड़ी भाभी। इन सब के बीच गर्मियों में दोपहर १२. ३० और सर्दियों मे शाम के लगभग ३.३० बजे मिलने वाली माँ का गुस्सा याद नही...!

बहुत छोटे पर जब अपनी बात पूरी ना होने पर अपने ही बाल उखाड़ने का झूठा नाटक करती थी तब अक्सर सबके हँस देने के बाद एक दिन माँ का डण्डा ले कर बैठना कि अब अगर सारे बाल नही उखाड़ लोगी, तो मार खाओगी....! वो याद है अब तक।

और तो बस ज्यादा याद नही। याद तब से है जब मैं और माँ दोनो ही बदलाव के दौर से गुजरे। ९० में, जब मेरी टीन एज यूँ ही मुझमें बहुत सारे परिवर्तन कर रही थी, उसी समय दीदी की शादी के साथ मेरे पहले प्रेम का विछोह और बाबूजी के जाने से मेरे अचानक कवच रहित हो जाने के साथ ही माँ भी बहुत बड़े परिवर्तन से गुजर रही थी।

उनका सबसे बड़ा संबल...! उनका जीवन साथी...! अचानक बिना कुछ कहे सुने अपनी अबूझ यात्रा पर जाने को ऐसे तैयार हुआ कि लाख सिर पटकने, लाख वास्ते देने, लाख यादें दिलाने पर भी रुका नही।

मैने अपने माँ बाबूजी जैसा जोड़ा अब तक नही देखा। सुना है जब माँ का रिश्ता लेकर नानाजी अपने सिंगापुर के दोस्त के घर अच्छी पढ़ाई कर रहे (उस समय और उस क्षेत्र के अनुसार) उनके बेटे के लिये गये थे, तो ये सोच कर रिश्ता लौटा दिया गया था कि लड़की नौकरी में है और लड़का पढ़ रहा है अभी। और तब बाबूजी ने अपनी भौजाई, मेरी बड़ी माँ से कहा कि वो जो आये हैं, उन्हे हाँ कह दो, उनकी लड़की जवार में सबसे पढ़ी लिखी है, और बगिया तक गये नानाजी को रोक लिया गया था।

मेरी होशदारी में अम्मा जाने कौन कौन से उलाहने देतीं और बाबूजी के सिर पे जूँ तक रेंगती नही दिखती। अम्मा कहती रहती "इसने ये कहा, उसने वो कहा और आप कुछ नही बोले।" बाबूजी चुपचाप सुनते सुनते अचानक कहते " किरन ! खाने की क्या पोज़ीशन है?" या फिर " साढ़े सात बज गया,टी०वी० चलाओ न्यूज़ आ रही होगी।" और माँ कहती " किसी को अपनी बात कहनी हो, तो जाये दीवाल से कह ले, पेड़,पल्लव से कहले लेकिन इन से ना कहे।" बाबूजी को तब भी फरक नही पड़ता।

और जब बाबूजी नाराज़ होते तो अम्मा की मनावन। उनकी नाराज़गी का सिंबल था, तमतमाये चेहरे के साथ शर्ट की बाँह डालना, यानी बाबूजी गुस्से में घर छोड़ के जा रहे हैं (मन मेरा भी यही होता है गुस्से में) बस अम्मा का पीछे लग जाना। "अरे अब बस। ठीक है। सुनिये तो।"

दोनो की अपनी अपनी कमाई और महीने के हिसाब की दोनो की अलग डायरी। बाबूजी की डायरी में लिखा होता १० पैसा गुड्डन को और अम्मा की डायरी में २५ पैसे की मूँगफली। दोनो के आय और व्यय दोनो के सामने क्लीयर। और कभी कभी किसी हिसाब के फँस जाने पर हम इंतज़ार करते कि कब याद आयेगा इन्हे वो २ रुपये कहाँ खर्च हुए और कब हम लोगो को खाने की हरी झंडी मिलेगी।

दो पीढ़े लगते थे। अम्मा बाबूजी अगल बगल फिर भईया लोग और अक्सर मैं बाबूजी की थाली में।

और वो पीढ़े ७ फरवरी, ९० को अंतिम बार साथ लगे। अम्मा ने उस जगह पर दोबारा आज बीस साल हो गये खाना नही खाया।

तो बदलाव मुझमें और माँ दोनो में साथ साथ आया। हम दोनो के साथी छूटे थे। माँ को जिम्मेदारियाँ निभानी थी और मुझे जिंदगी। शाम से वो छत पर चली जातीं या दरवाजे पर, जिधर से बाबूजी आते उधर देखती रहतीं।

कभी कभी मुझ पर बहुत ज्यादा गुस्सा हो जातीं। मुझे लगता कि ये ठीक नही है। उन्होने समझा ही नही कि मैं क्या कहना चाहती थी। वो बिना समझे नाराज़ हो गई। इतना ज्यादा...?? मैं रोती..! कॉपी के बीच के पन्ने पर बाबूजी से, भगवान से बाते करती .... आज भी उन पर आँसुओं से बिगड़े हुए एक आध अक्षर मिल जायेंगे।

मगर तब मैं और माँ दोनो अकेले थे। दोनो को एक दूसरे का सीधा सामना करना था। बीच में कोई नही।

माँ मुझे बिलकुल बिगड़ने देना नही चाहती थी। ईश्वर ने इतनी बेकार जिंदगी खुद ही दी थी उनकी बेटी को (उनके अनुसार) उस पर स्वभाव भी बिगड़ गया तो ...?? जुबान में लोच बिलकुल भी नही...! कोई इसका साथ कैसे देगा ? पहले तो इतना मीठा बोलती थी कि राह चलते आदमी को मोह लेती और अब इतनी कड़वी जुबान हो गई है।

उनके और मेरे बीच का मुख्य मुद्दा यही था। मैं कहती मैने सही बात कही। और वो कहती यही बात कहने का तरीका अलग होना चाहिये था। वो कहती "ऊषा,किरन कभी इस तरह नहीं बोलतीं।" मैं कहती "मैं ऊषा किरन नहीं हूँ ।"

मुझे अजीब सी चिढ़ होती। छोटी छोटी बातें..! समझती हीं नहीं। अरे पंखा पाँच से अचानक तीन पर कर देने का क्या मतलब है ? कितना बिजली का बिल बच जायेगा ? जब मुझे नही लग रही सर्दी तो क्यों पहनूँ स्वेटर ? फुल स्वेटर..? इतना मोटा सा ? काटता है वो मुझे ? और हाफ स्वेटर पहनने का क्या मतलब हैं अंदर आखिर ? वो पहनो ना पहनो ?? एक ही बात है। " थोड़ी देर खुली हवा में रहो।" अरे नही है मेरा मन खुली हवा में रहने का। मुझे कोर्स पूरा करना है। अचानक लाईट बंद कमरे की। "जब पढ़ नही रही तो लाइट न जलाओ, दिन में इतना उजाला बहुत है।" हद है....। भाभी और मेरी आपस में अडरस्टैण्डिंग है तो, वो तो कुछ नही कहतीं। फिर भी बीच पढ़ाई में "तुम सब्जी काट लिया करो और चावल बीन लिया करो, किसी को ये ना लगे कि तुम बैठी रहती हो।" अरे इतने लोगो में जरूरी है क्या कि मैं हाथ लगाऊँ ?

छोटी छोटी बाते...! और हमेशा नसीहतों का कटोरा। मुझे समझती हीं नही वो।

लेकिन बड़ी बड़ी बातें...! उनमें लगता कि वो बहुत समझदार हैं। मैं अपनी डायरी में क्या लिखती हूँ, उन्होने नही पूछा। मेरी किताबों की तलाशी नही ली। मेरे नाम से आने वाले लेटर, उन्होने कभी नही खोले और सीधे मेरे पास पहुँचाये। मैने खुद जो भी बताया हो कि फलाँ ने ये लिखा है, उन्होने सब सुन लिया। मेरे लिये आने वाले फोन पर डायरेक्ट मुझे बुला कर कभी वहाँ नही रुकीं। घर में रिश्ते-नातों, जानने वालों मे कौन सिर्फ मेरे लिये आता है, उन्हे बहुत अच्छी तरह से पता था। उन्होने उन्होने बहुत समझदारी से मुझ पर होल्ड बना कर मुझे फ्री छोड़ रखा था। मुझे तब भी ये पता था। और अब भी ये लगता है कि अपनी सोच विकसित कर सकने में उनका ये साथ बहुत मायने रखता है। मैं जब अपनी उन सहेलियों, जिनकी माँ और उनमे २०- २५ साल का अंतर था के बीच की समझ में ये आभाव देखती तो ईश्वर को धन्यवाद देती कि ४२ साल के अंतर ने भी जनरेशन गैप की वो समस्या नही डाली मुझमें और उनमें।

वो जब मुझे डाँटती थी, तो मुझे बहुत गुस्सा आता, चिढ़ होती। लेकिन वो जब मुझसे नाराज़ होतीं, तो मैं सबसे ज्यादा परेशान होती थी जिंदगी में। क्योंकि वो तब बोलना छोड़ देती थीं।

मुझे याद है कि सबसे ज्यादा वो मुझसे ७ दिन तक नही बोली थीं। कोई ट्रिक नही चली थी। ना पुच्ची, ना गले में हाथ.. कुछ नही, छूने भी नही दे रहीं थी वो...! तब बहुत बहुत रो कर मनाया था उन्हे, वो भी तब जब मेरे भाग्य से मुझे बुखार आ गया था। इस बात ने मुझे कुछ प्वॉईंट दे दिये थे।

अभी उस दिन फिर मैने फोन पर बहुत गलत तरीके से बात करी थी उनसे। "क्या अम्मा! आप हर बात मौसी से बता देती हैं।" ये बात कही थी लेकिन सच में बहुत हार्सली कही थी. मुझे पता था कि वो गुस्सा हो ही जायेंगी। फिर भी..!

मै बहुत चिड़चिड़ी हो गई हूँ आजकल। इसीलिये कोशिश करती हूँ कि कम से कम फोन उठाऊँ। इसका सारा दोष मैं अपनी बीमारी को, थोड़ा सा आफिस के माहौल को, कुछ भागदौड़ वाली जिंदगी को देती हूँ, मगर खुद को कभी नही। आदमी किसी भी बुरे काम के लिए खुद को कब दोषी मानता है ?

फोन रखने के बाद पता चल गया था कि अब अम्मा नही बोलेंगी मुझसे। दीदी और भाभी से जायज़ा लिया, तो पता चला कि मैं सही हूँ। मुझे वो सात दिन याद आ गये। मगर तब तो माँ साथ में थी। अब तो कभी कभी ४-५ दिन बात भी नही होती। चलो, १० को पहुँचूँगी कानपुर तो मना लूँगी सोच कर छोड़ दिया। वैसे भी वो फोन पकड़ेंगी ही नही, मेरा जानकर।

मगर रात में नींद खुली तो याद आया "अम्मा गुस्सा हैं।" फिर नींद नही आई।

शनिवार , रविवार वो गजब व्यस्तता...! मगर बार बार याद आया कि अम्मा गुस्सा हैं। खुद को समझाया बस आज रविवार है और शुक्रवार को तो पहुँच कर मना ही लूँगी। सोमवार अमित की शादी..! २ बजे लौटना ही हुआ। रास्ते में फिर भाभी से पूछा " अम्मा गुस्सा है ना ?" और उनको ये बताते हुए खुद को फिर समझाया कि "१० को आएंगे तो वही मना लेंगे, अम्मा फोन तो पकड़ेंगी नही मेरा।" भाभी मुसकुरा दीं।

मंगल आफिस में सुबह से इतनी भी फुरसत नही मिली कि पूछ सकूँ कि भाभी कितने बजे निकली कानपुर के लिये। सात बजे तो घर ही पहुँची। मुँह धो कर ब्लोवर चला कर सामने बैठी और भाभी को फोन लगाया। अम्मा की आवाज़ पीछे से आ रही थी। मेरा फोन जानकर हट गई होंगी। मन और बेचैन हुआ माँ की आवाज़ सुनकर। एक ट्राई मारते हैं। भाभी से कहा फोन अम्मा को दो..! फोन अम्मा ने नही पकड़ा गया। " कह दो कह फिर से मिला लेंगे क्या फायदा।" मैने धमकी दी। हिमांशी ने फोन उनके कान में लगा दिया। पीछे से आवाज़ आई " बुआ आप बोलिये हम फोन कान मे लगाये हैं।"

"मम्मा..मम्मूऽऽ..! नाराज़ हैं आप हमसे ? मॉम...! हम तो ऐसे ही हैं। हमेशा से दुष्ट रहे हैं। गलती हो गई। आप कि ही तो बेटी हैं। देखिये ना हमें अच्छा नही लग रहा। हम नही बोल पाते मीठा।"

" तुम सोती क्यों नही हो रात में? ऊषा कह रही थीं। अपना स्वास्थ्य खुद नही देखोगी तो कौन देखेगा? हमसे कहती हो मेरे विषय में न सोचो, तुम क्या सोचती हो ? दुनिया में बहुत से लोगो के साथ बहुत कुछ होता है, हम बस अफसोस करते हैं। मगर अपने बच्चो के साथ जो होता है, उससे हम दुखी होते हैं। ये कष्ट साँस के साथ जाता है।"



पता नही ये उम्र थी या बच्चों का प्रेम...! जो अब उन्हे ठीक से नाराज़ भी नही होने देती। वो अपने सारे बच्चों के स्वभाव के साथ एड्जस्ट करने की कोशिश कर रही है शायद ...!

और बच्चे ये जानते हैं की हमारे अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है...! कल से बहुत बुरा लग रहा है...! अम्मा के नाराज़ हो जाने जितना ही...!

कि वो ठीक से नाराज़ क्यों नहीं हुई...?