Friday, November 28, 2008

हर तरफ ज़ुल्म है, बेबसी है, सहमा सहमा सा हर आदमी है





शोक नही आक्रोश सही...कुछ है जो मन में दो दिन से उथल पुथल मचाये है...आक्रोश भी कह सकते हैं, लेकिन जब आक्रोश कहीं निकलेगा नही तो शोक तो जन्म लेगा ही। और आक्रोश निकालें कहाँ..इस ब्लॉग पर ....! क्या फर्क पड़ता है ...???? हम नेताओं को गालियाँ दे लें..आतंकवाद को कोस लें... किसी धर्म को कोस लें या धर्मनिरपेक्षता की बात कर लें। क्या फर्क़ पड़ता है...?? कौन हमारा ब्लॉग पढ़ेगा..?? कौन बदल जायेगा..??? हम कर भी क्या सकते है..??? शिवाय घरों में बोलने के और ब्लॉग में भड़ास निकालने के...!!!! लेकिन करें भी तो क्या...अपनी डायरी से भी ना कहें तो किस से कहें..???

सच बहुत दुःख होता है, ऐसा जीवन पा के जिसमें आप अंदर ही अंदर कुढ़ सकते हैं बस...!

शोक नही मनाएं तो करें क्या...??? वो शख्स जिसने हमारे सामने शपथ ली कि एक एक को जिंदा या मुर्दा खतम कर के आयेंगे... वो कुछ क्षणों बाद हमारे सामने ही खतम दिखाई देता है...! वो पत्नी, वो बच्चे.. जो ये सब देख रहे थे टी०वी० पर उन्होने कैसे झेला होगा...!!!! श्रद्धांजली... अश्रुपूर्ण श्रद्धाजली..!!!!








बस कुछ कहने को असमर्थ....! मन में यही गीत आ रहा है...!!!! ये गीत जो जब जब मैं बहुत निराश होती हूँ तो मन को सांत्वना से भरता है..! जब कुछ नही रह जाता हाथ में, तब ये प्रार्थना ही तो आती है मन में...!

नेट आज बहुत स्लो होने के कारण गीत अटैच्ड नही हो पा रहा....! शब्दो में मेरी प्रार्थना..!



इतनी शक्ति हमें देना दाता.,
मन का विश्वास कमजोर ना।
हम चलें नेक रस्ते पे हम से
भूल कर भी कोई भूल हो ना।

हर तरफ ज़ुल्म है, बेबसी है,
सहमा सहमा सा हर आदमी है
पाप का बोझ बढ़ता ही जाये,
जाने कैसे ये धरती थमी है,
बोझ ममता से तू ये उठा ले,
तेरी रचना का ही अंत हो ना।

हम अंधेरे में हैं रोशनी में दे,
खो न दें खुद को ही दुश्मनी से,
हम सज़ा पायें अपने किये की,
मौत भी हो तो सह लें खुशी से,
कल जो गुज़रा है, फिर से न गुज़रे
आने वाला वो कल ऐसा हो ना।

Tuesday, November 25, 2008

धरती, अम्बर और सीपियां


कल दिन पूर्वाह्न १० बजे के लगभग अमृता प्रीतम की ये उपन्यास मुझे प्राप्त हुई। जहाँ तक याद है शायद रसीदी टिकट में ही इस उपन्यास का ज़िक्र पढ़ा था और साथ ये भी पढ़ा था कि १९७५ में इस उपन्यास पर शबाना आज़मी अभिनीत एक फिल्म कादम्बरी भी बनी थी...! (इण्टरनेट पर प्रदर्शन वर्ष १९७६ पता चला है और यूनुस जी के चिट्ठे पर १९७४ )।

अमृता प्रीतम जी की जिंदगी हो या उनकी किताबें उनका जो खास अंदाज़ है वो ये है कि उनके क़ुफ्र बड़े पाकीज़ा होते है। इसी पाक़ीज़ा क़ुफ्र की एक बानगी मैने और मेरी सखी शिवानी सक्सेना ने पढ़ी थी, जब इस पूरी पुस्तक को पढ़ने की उत्सुकता जाग उठी थी हमारे मन में। और जैसे ही उन्हे अमीरुद्दौला पुस्तकालय में ये किताब मिली वे तुरंत ले आईं हम दोनो के पढ़ने के लिये।

खैर मध्यम आकार के अक्षरो में छपी १८९ पन्नो की यह पुस्तक मेरे द्वारा रात भर में समाप्त कर दी गई। परंतु उपन्यास का जादू जिस दृश्य में समाहित था शायद उसको कई बार पहले ही पढ़ लेने के कारण जो सहज जिग्यासा उपन्यास को पढ़ने के बीच एक अनोखा भाव बनाये रखती है, उसकी कुछ कमी हो गई और एक अच्छी पुस्तक पढ़ने के बाद कुछ दिनो तक जो मीठा स्वाद मन को खुश किए रहता है उससे मैं वंचित रह गई।

उपन्यास तीन महिला किरदारों की प्रणय कथा पर आधारित है, जिनमें मुख्य किरदार चेतना है, जिसका नायक ईक़बाल अपनी माँ की नाजायज़ औलाद है और शादी न करने हेतु कृतसंकल्प है, इस असामान्य परिस्थिति मे पनपे प्रेम की एक असामान्य कथा है ये। अन्य दो पात्र है मिन्नी जो कि नरेश के प्रति अपने बचपन के प्रेम को कभी नही व्यक्त करती और परिस्थिति वश जग्गू के साथ जा मिलती है और होनी उसे खुद को खत्म करने पर मजबूर कर देती है। दूसरी है चम्पा जिसे चेतना का भाई जी जान से चाहता है, लेकिन होनी उसे सामर्थ्य पर गुरूर आजमाने के मनोरोग से भर देती है और जब तक वो पश्चाताप करे तब तक उसका प्रिय कहीं और रम चुका होता है

लेखिका पता नही क्या कहना चाह रही है इस उपन्यास में मगर मुझे जो लगा वो ये कि अन्य दोनो पात्र मिन्नी और चम्पा ये दोनो ही चेतना की सखी हैं, इनके प्रेम में सहजता होने के बावज़ूद ये दोनो पात्र अपने प्रणयी को स्वीकार नही कर पाते और दुखान्त को प्राप्त होते हैं, वहीं चेतना सब कुछ विपरीत होने के बावज़ूद अपने स्नेह को अपने जीवन में लाने की जुर्रत करती है और जिंदगी से बिना कुछ माँगे भी सब कुछ पा जाती है और सुखांत का हिस्सा बनती है।

इस उपन्यास के प्रति आकर्षण का एक मुख्य कारण इस पर बनी फिल्म का गीत बात क़ूफ्र की की है हमने भी है... जो कि अमृता जी की निजी जिंदगी से संबंध रखता है। इमरोज़ के साथ रहने का पक्का इरादा करने पर उन्हे जो कुछ सुनने को मिला उसके बाद उन्होने अपने पाक़ कुफ्र को जो शब्द दिये .....वो जि शब्दो में गाया वो यही गीत था। अमृता जी के उपन्यास का जो खास अंदाज़ होता है वो उनके नैरेशन में ही होता है और उस नैरेशन को कैसे पिक्चराईज़ किया गया होगा ये जानना अद्भूत होगा मेरे लिये लेकिन अभी तो फिलहाल इससे वंचित ही हूँ...!

जो भी हो आप सुनिये कादम्बरी फिल्म का आशा भोसले द्वारा गाया, उस्ताद विलायत खाँ द्वारा निदेशित ये गीत...!


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अंबर की एक पाक सुराही,
बादल का एक जाम उठाकर ,
घूंट चांदनी पी है हमने,

बात कुफ्र की..की है हमने ।

कैसे इसका क़र्ज़ चुकाएं,
मांग के अपनी मौत के हाथों
उम्र की सूली सी है हमने,
बात कुफ्र की..की है हमने ।

अंबर की एक पाक सुराही ।।
अपना इसमें कुछ भी नहीं है,
रोज़े-अज़ल से उसकी अमानत
उसको वही तो दी है हमने,
बात कुफ्र की.. की है हमने ।

लिरिक्स साभार यूनुस जी की ये पोस्ट

Wednesday, November 19, 2008

प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र




कभी कभी आश्चर्य होता है कि सारी दुनिया को कोई बात मालूम होती है और हमको नही..वही कुछ इस गीत के साथ भी है। ये गीत सुना मैने सब से पहले अपनी भाभी के कज़िन के मुँह से। गीत के बोल सहज भावनओं को लिये , सहज शब्दों को लिये और कान से मन तक अच्छे लगने वाले लगे। और मुझे लगा कि पूरी दुनिया में उसे ही ये गीत आता है और जब भी वो आता मैं उससे ये गीत ज़रूर सुनवाती...लेकिन खल के तब रह जाती जब सबको इस गीत के बारे में पहले से जानकारी रहती..और वो कहते कि हाँ एक उम्र में हमने ये गीत बहुत सुना है... जैसे मुझसे बताया जा रहा हो कि तुम्हारी उम्र नही रही अब ऐसे गाने सुनने की :)। अब हम क्या करें जब हमको ये गीत इसी उमर में सुनने को मिला।

अपनी सखी माला मुखर्जी से पूँछा तो उनका भी यही जवाब था। मैने पूँछा पता नही कौन सी फिल्म का होगा ये गीत ???? तो उन्होने बिना सोचे समझे कहा... एक नज़र...अमिताभ और जया की फिल्म है.... बी०आर० इशारा डायरेक्टर हैं और किशोर कुमार का गाया हुआ है। मैने सोचा कि संगीत निदेशक और गीतकार का नाम ही क्यों छोड़ दिया..ब्लॉग मित्र तो छूटा देख लेंगे तो ज़रूर पूँछेगे :) खैर नेट पर पता चला कि १९७२ में प्रदर्शित इस फिल्म के संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल हैं और गीतकार मुझे नही पता चले।

जो भी हो ये गीत लखनऊ में मेरे अद्यतन तीन लोगो के परिवार के हर सदस्य का यह प्रिय गीत है। क्योंकि मैने भले इस उम्र में सुना हो बाकि दोनो की तो उम्र ही यही है..। नेट पर खोज करते समय ये भी पता चला कि इसके अन्य तीन गीत
भी मुझे बहुत प्रिय है पहला

पहले सौ बार इधर और उधर देखा है,
तब कहीं जा के उसे एक नज़र देखा है।


दूसरा
पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही ना जाने बाग तो सार जाने है


और तीसरा
हमी करे कोई सूरत उन्हे भुलाने की,
सुना है उनको तो आदत है भूल जाने की....!


तो आप भी सुनिये मेरे साथ ये गीत

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हम्म्म् एक नज़र, एक नज़र

प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र
देर से तू मेरे अरमानो के आइने में.
बंद पलकें लिये बैठी है मेरे सीने में,
ऐ मेरी जान-ए-हया देख इधर, देख इधर
प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र
बेकरारों की दवा, एक नज़र एक नज़र

चैन दे कर के जो बेचैन बना देती हो,
हो तो शबनम सी मगर आग लगा देती हो,
जब मिले शोर उठे, हाय रे दिल, हाय जिगर
बेकरारों की दवा, एक नज़र एक नज़र
दर्दमंदों की सदा, एक नज़र एक नज़र

शिकवा बाकि ना रहे दूर गिला हो जाये,
इस तरह मिल कि दिवाने का भला हो जाये
चाहने वालों में हाँ देर न कर, देर न कर
दर्दमंदों की सदा, एक नज़र एक नज़र
इश्क़ माँगे है दुआ, एक नज़र एक नज़र

खून-ए-दिल से बढ़े रुख्सार की लाली तेरी,
मेरी आहों से पलक और हो काली तेरी,
मेरी हालत पे ना जा और सँवर, और सँवर
इश्क़ माँगे है दुआ, एक नज़र एक नज़र
प्यार को चाहिये क्या, एक नज़र, एक नज़र

Friday, November 14, 2008

"मुझे चाँद चाहिये"


"मुझे चाँद चाहिये" ये शीर्षक ही कुछ ऐसा था जो मुझ जैसे लोगों को आकर्षित करता था। सबसे पहले मेरी सहेली शिवानी सक्सेना के द्वारा मैं इस उपन्यास से परिचित हुई और पढ़ने के लिये लालायित हुई। इसके बाद मनीष जी की पोस्ट और उस पर अनूप जी, चारु और बसलियाल जी के विचारों ने और भी विकल कर दिया। अनूप जी का कथन था कि पुस्तक उनकी निजी संपत्ति है, सो मैने सोचा कि कुछ दिनो के लि़ए माँग ली जाये और वे राजी भी थे...लेकिन १४ अक्टू० को जब वो पुस्तक के साथ लखनऊ पहुँचे तब मैं एक तो लखनऊ में थी नही दूसरे ये किताब मैं पुस्तक मेला से ले आई थी।

५७० पृष्ठों की ये किताब मैने शुरू की तो इस के जाल में फँसती चली गई। समस्या ये है कि कुछ भी पढ़ो तो वो मेरे मन मष्तिष्क पर ऐसे छाता है कि जैसे मेरी दिनचर्या। और इस बार भी वही हुआ। वर्षा वशिष्ठ पल भर को साथ नही छोड़ती थी और दूसरी समस्या ये कि मै उस चरित्र को समझने में बिलकुल नाकामयाब हो रही थी। लेकिन आकर्षण इतना अधिक था उस शख्सियत का कि बिना समझे रहा भी नही जा रहा था। यदि वो कोई पुरुष होती तो मैं सोच लेती कि पुरुष स्वभाव ऐसा ही होता होगा, यदि वो कसी उच्च वर्गीय घराने से संबंध रखती तो मैं सोचती कि बड़े घरों की संस्कृति है, लेकिन.... वो ऐसे ही महौल से ताल्लुक रखती थी, जिससे हम जैसे लोग रखते हैं। इसीलिये तो परेशानी हो रही थी। ऐसा लगता कि जैसे कितना भाग कर तो मैं उसके साथ आती हूँ सहेली बनाने को और मेरे साथ पहुँचते ही वो मुझसे दो कदम और आगे बढ़ जाती है..और मैं फिर हैरान परेशान।

घर की सिलबिल ने अपना नाम यशोदा शर्मा से वर्षा वशिष्ठ कर लिया क्यों कि "हर तीसरे चौथे के नाम में शर्मा लगा होता है। मेरे क्लास में ही सात शर्मा हैं।....और यशोदा ? घिसा पिटा दकियानूसी नाम। उन्होने किया क्या था सिवा किशन को पालने के?" " यशोदा शर्मा नाम में कोई सुंदरता नही।" और वर्षा नाम उसने अपना इसलिये रखा कि पिता की अलमारी में रखी ॠतुसंहार पुस्तक में छहो ॠतुओं में उसे सबसे प्रिय वर्षा लगी। " देखो प्रिये, जल की फुहारों से भरे हुए मेघों के मतवाले हाथी पर चढ़ी हुई, चमकती विद्युत पताकओं को फहराती हुई और मेघ गर्जनों के नगाड़े बजाती हुई यह अनुरागी जनो की मनभायी वर्षा राजाओं का सा ठाठ बनाये हुए यहाँ आ पहुँची है।" ये है उसके दुस्साहस का पहला नमूना।

और इसके बाद हैं श्रृंखलाए...! पढ़ते समय भतीजे ने जब पूँछा इस चरित्र के बारे में तो मुँह से निकला कि "वर्जित शब्द वर्ज्य है इस नायिका के लिये" सब कुछ ऐसे करती जाती है जैसे कितने दिनो से अभ्यस्त है। कहीं कोई हिचक ही नही। अपनी प्रेरणा श्रोत दिव्या के घर पर अंडों का सेवन वो बिना किसी संकोच के कर चुकी है। लखनऊ पहुँचने पर जब टूँडे के कवाब की प्लेट उसकी तरफ बढ़ाई जाती है तो बात करती हुई वर्षा के हाथ एक पल को भी सकुचाते नही वरन् सामान्य माँसाहारी की तरह सहजता से उठा लिया जाता है और बियर के साथ ऐसे लिया जाता है जैसे सिलबिल रोज रात माँ पिता के साथ एक पैग लेने की आदि हो। बाद में वो स्वीकार करती है कि बीफ का भी सेवन कर चुकी है।

कमलेश "कमल" से प्लैटोनिक लव के बाद लखनऊ के मिट्ठू से दो ही तीन मुलाकात बाद गहन सन्निकटता, और दिल्ली के हर्ष से भी कुछ ही मुलाकातों के बाद समर्पण की पराकाष्ठा प्राप्त करना फिर हर्ष की बहन द्वारा सगाई के लिये कहने पर इन सबके बावजूद "अभी सोचने के लिये समय माँगना" और बॉम्बे में ऐसे ही सहज मित्र सिद्धार्थ के प्रणय निवेदन को बिना किसी विरोध के स्वीकार करना और फिर से हर्ष के लिये वही समर्पण की पराकाष्ठा पहुँचना..... उफ्फ्फ्फ मैं तो कन्फ्यूज़ हुई जा रही थी। सिद्धार्थ के साथ साथ मैं भी उस पर आक्षेप लगाते हुए पूँछती हूँ कि " क्या तुम उनमें से हो जो थोड़ा सा भी भावात्मक अकेलापन नही झेल सकते।"

अंत की ओर बढ़ते हुए उपन्यास में जब पिता द्वारा मदिरापान करने पर प्रश्न खड़ा करने पर वो उत्तर देती है कि " शुरुआत जिग्यासा और ऐड्वेन्चर से हुई थी" और कहना कि " मैं गलत कह गई। दरअसल एक प्रमुख कारण अनुभव की माँग थी।" तब कुछ स्पष्ट होता है। वर्षा को अपने जीवन में अगर सबसे प्रिय कुछ है तो वो है उसका मंच, उसका नाट्य, मैं उसे कैरियर भी नही कह सकती, लेकिन उसक कला ऐसी चीज है जिसकी पराकाष्ठा पर पहुँचना वर्षा वशिष्ठ का जुनून है। वो किसी से भी विद्रोह कर सकती है मगर अपनी कला से नही वो उसके प्रति पूर्ण ईमानदार है। वहाँ वो कोई भी शॉर्टकट नही अपनाती, वहाँ वो कोई भी अड़ियल रवैया नही रखती। वह स्वीकार करती है कि " अगर मुझे भूख और शाहजहाँपुर में से किसी एक को चुनना पड़ेगा तो मैं भूख को चुनूँगी।

हर्ष के साथ उसका व्यवहार हो सकता है कि अनुभव कि माँग के कारण ही हो। क्योंकि अनुभव की कमी के कारण ही उसका पहला नाटक "बेवफा दिलरुबा" फ्लॉप रहा था।

मगर उपन्यास का अंत होते होते सभी भ्रम पीछे छूट जाते हैं.... और बस यही भावना रह जाती है कि वो शुरू से दुस्साहसी न होती तो इतना बड़ा निर्णय कैसे लेती ? धारा के विरुद्ध जाने की क्षमता न होती तो उस प्रवाह में वो जाने कहाँ बह गई होती..! और अंत में मै भी समर्थ हो ही जाती हूँ, उसे सखी बनाने में। जा के बैठ जाती हूँ उसके बगल में और जब उसे एक आँसू निकालने के लिये झकझोरा जा रहा होता है तो उसके आँसू मेरी आँखों से निकल रहे होते हैं।

एक ऐसा उपन्यास जो हमेशा मेरे द्वारा पढ़ी गई बेहतरीन किताबों में एक होगा।

हाँ वर्षा को समझने में शायद हर्ष का चरित्र भुला दिया जाता है, परंतु अपने अनेकों दुर्भाग्य के बावजूद हर्ष का चरित्र भी कम आकर्षक नही है। हर्ष मे मुझे जो चीज सबसे पहले भाती है वो है वर्षा के लिये उसकी एकनिष्ठा। शिवानी उस पर दिल-ओ-जाँ से फिदा है। तनुश्री पत्रकारों के सामने स्वीकार करती है। रंजना उसके लिये सायकिक हो गई है, लेकिन हर्ष पल भर को भी सिलबिल के अलावा किसी को मन में नही लाता। मंचीय क्षमता उसकी बेजोड़ है। वो अपने स्तर को कम करने समझौता नही कर सकता। वो गलत लोगो को बर्दाश्त नही कर सकता। मगर इस सबके साथ उसमे जो कमी है और ऐसी है जो उसकी सारी अच्छाइयों पर हावी है, वो है उसका अहं....लेकिन मै नही मानती कि ये अहं ही उसे पतन की ओर ले जाता है, पतन की ओर उसे लेजाता है उसका दुर्भाग्य.... जैसा कि वर्षा भी मानती है कि उसकी जिंदगी के तीसरे पृष्ठ चेखव को भी कभी सम्मानित नही किया गया था और वो इस मामले में उनसे अधिक भाग्यशाली थी।

लेखक के ग्यान से मैं अभिभूत थी। मनीष जी के विपरीत मुझे उपन्यास बिलकुल बोझिल नही लगी। कारण ये भी हो सकता है कि अभी हाल ही में छोटे भांजे ने रंगमंच ज्वॉइन किया, तो उसके स्तर पर बहुत कुछ समझने का मौका मिला। हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पर सामान्य रूप से अधिकार रखने वाले सुरेंन्द्र वर्मा के विषय में नेट पर कुछ भी नही मिला परंतु मनीष जी ने बताया कि यूनुस जी के अनुसार वे मुंबई रंगमंच से जुड़े हुए हैं।

मैने अपनी पोस्ट मे जो कुछ भी लिखा वो मेरी तरफ से भावात्मक विश्लेषण था, इस संबंध में तकनीकी और व्याख्यात्मक विवरण पढ़ने के लिये आप मनीष जी की ये पोस्ट पढ़ सकते हैं।



कुछ वाक्य जो मुझे भले लगे-

1. कुपात्र के साथ बँधने से अकेले रहना अच्छा है। (वर्षा)

2. मुझे ये समझना चाहिये था कि अपना बोझ ढोने के लिये हर कोई अभिशप्त है। (वर्षा)


३. "ड्रामा स्कूल के प्रति तुम्हारा जो मोह है, हम सचमुच उसे समझने में असमर्थ है।" वह हल्की मुस्कान से बोले।
" ऐसा हो जाता है।" सिलबिल ने काफी ऊँचाई से हामी भरी " क्योंकि हम लोग एक दूसरे की जिंदगी जीने में समर्थ नही हैं।"

३ अब मुझे महसूस होता है कि जिस चीज का हमारे पेशे में महत्व है, वह यश नही है, बल्कि सहने की क्षमता है, अपना दायित्व निभाओ और विश्वास रखो। मुझमें विश्वास है और इसीलिये अब वैसा दर्द नही उठता और जब मैं अपने अंत के बारे में सोचती हूँ तो मुझे अपने जीवन से डर नही लगता।" (वर्षा द्वारा अभिनीत नाटक का एक अंश)

४. खुशी का कोई स्विच नही होता। वह अपने आप पनपती है। उसके लिये अवसर तो देना होगा न। (वर्षा)

५. "जब चुप होती हो तो, ज्यादा अच्छी लगती हो"
वर्षा भीतर ही उदासी से मुस्कुरायी। "तो अच्छा लगने का यह मूल्य चुकाना होगा।"

६. " न मेरे हाथों में लगाम है, न मेरे पाँवों में रकाब, और उम्र का घोड़ा तेज तेज दौर रहा है। (वर्षा)


७. रोजी कमाना जिनकी मजबूरी है वो नापसंदगी की दलील कैसे दे सकते हैं।


८. maturity lies in having limited objectives in life


९. हर्ष के चेहरे का वह भाव उसे बहुत दिनो तक याद रहा। उसमें वैसा ही आतंक था, जैसे कोई अबोध बालक मेले में अकेला छूट गया हो। (हर्ष के पिता की मृत्यु पर)


१० छप्पर की लकड़ी की पहचान भादों में होती है।

११.अजीब है... कभी कभी रिश्ते की स्थिति का कारण नही स्पष्ट होता।


१२. मृत्यु चाहे कितने ही उत्कृष्ट रूप में हो, उस जीवन से बेहतर नही हो सकती जो चाहे जितनी ही निकृष्ट हो....ऐसा चाणक्य कहा करते हैं।

१३. जब किसी की स्मृति नींद ला देने में समर्थ होने लगे, तो इसे व्यवहारिक रूप से प्रेम कहा जा सकता है।
शिवानी उदास चंचलता से मुस्कुराई " और जब किसी की स्मृति से नींद उड़ने लगे, तो क्या यह भी प्रेम की उतनी ही सार्थक परिभाषा नही होगी?

१४. हर स्त्री पुरुष के बीच में किसी न किसी तरह का तनाव आता है। इस रिश्ते की प्रकृति ही ऐसी है। अगर तुम्हारी तरह हर कोई सौ फीसदी अंडरस्टैंडिंग की दलील ले कर अड़ जाये तो यहाँ तो कोई घर ही न बसे। अंडरस्टैंडिंग एक प्रक्रिया है जो एक साथ धूप छाँव झेलने से ही अपना स्वरूप लेती है। इसमें दोनो पक्षों को एड्जस्ट करना होता है। (सुजाता)

१५. भावना की लगाम ना मोड़ने से मुड़ती है, न रोकने से रुकती है।


१६. दुख व्यक्ति में गंभीरता, गहराई और गरिमा लाता है। दुख व्यक्ति का आध्यात्मिक परिष्कार कर देता है।


१७. आत्महंता को यह पता नही होता कि अपने निकटतम लोगो को वह कैसे सर्वग्रासी दुख के शिकंजे में कसा छौड़ रहा है।अपनी टुच्ची खुदगर्जी में वह सिर्फ अपने दर्द में डूबा रह जाता है। वे पीछे छूटे हुए लोग वंदनीय हैं, जो पीड़ा के दंश से चीखते हुए फिर अपने कर्मपथ पर वापस लौटते हैं।

Tuesday, November 11, 2008

मुझे तुम याद आये

मैने वादा किया था कि माँ के पसंदीदा गीत के साथ दोबारा मिलूँगी असल में एक गीत के कारण वो पोस्ट रह जा रही थी जिसे हमने आईपॉड पर रिकॉर्ड किया था और उसमें वायरस के कारण कंप्यूटर पर सेव नही कर पा रही थी।



मेरे भईया के मित्र और माँ के मानस पुत्र नीरज भईया ये गीत बहुत अच्छा गाते हैं। नीरज भईया कैरियर क्षेत्र में मेरे प्रेरणा श्रोत भी हैं। जब मैंने इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास की, उसी समय नीरज भईया की जॉब हिन्दुस्तान पेट्रोलियम में हिंदी अनुवादक के पद पर लगी थी और भईया ने मुझे भी यही तैयारी करने की सलाह दी और मैने स्नातक परीक्षा में इसी अनुसार विषय लिये। भईया ने मुझे एक टाइप राइटर भी ला कर दिया और अनुवाद की तैयारी का सबसे बढ़िया तरीका ये बताया कि रोजगार समाचार के दोनो वर्ज़न मँगाया करो। जब एक साल तक मैं हिंदी ही वर्ज़न मँगाती रही तो उन्होने खुद हॉकर को अंग्रेजी वर्ज़न मेरे घर डाल कर पेमेंट उनसे लेने को कह दिया और ये उनका मेरे प्रति सत्य स्नेह ही था शायद कि वो पेपर जब पहली बार मेरे घर आया तो दोबारा मुझे मँगाने की जरूरत नही पड़ी क्योंकि इसी पेपर मे मेरे चुने जाने का परिणाम आया था। :)



तो नीरज भईया ने हिदुस्तान पेट्रोलियम के वार्षिक समरोह में ये गीत गाया तो अधिकतर लोगों की आँखें नम हो गईं और ये किस्सा सुनाते हुए जब भईया ने ये गीत अम्मा को सुनाया तो फिर अम्मा ने फोन पर मुझे बताया कि कंचन मेरे कान में ये गीत सुबह शाम गूँजता रहता है.........मै समझ सकती थी।



तो उनके जन्मदिन पर इससे अधिक भला उपहार हो ही क्या सकता था नीरज भईया द्वारा...! लीजिये सुनिये आनंदबक्षी के बोलो से सजा लक्ष्मीकात, प्यारेलाल का संगीतबद्ध किया हुआ ये गीत पहले नीरज भईया (पार्टी के शोर के साथ)

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जब जब बहार आये और फूल मुस्कुराए,


मुझे तुम याद आये,


मुझे तुम याद आये,



अपना कोई तराना मैने नही बनाया,


तुमने मेरे लबों पर हर एक सुर सजाया,


जब जब मेरे तराने दुनिया ने गुनगुनाए,


मुझे तुम याद आये,



एक प्यार और वफा की तसवीर मानता हूँ,


तसवीर क्या तुम्हे मैं तकदीर मानता हूँ


देखी नज़र ने खुशियाँ, या देखे गम के साये


मुझे तुम याद आये,



मुमकिन है जिंदगानी कर जाये बेवफाई,


लेकिन ये प्यार वो है जिसमें नही जुदाई,


इस प्यार के फसाने जब जब ज़ुबाँ पे आये,


मुझे तुम याद आये,

और फिर मो० रफी की आवाज में



jab jab bahar aaye
और साथ ही ये गीत भी सुनिये जो भईया के दूसरे परम प्रिय मित्र अनुराग भईया द्वारा गाया गया है

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चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,



मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।



बड़ा दिलकश बड़ा रंगीन है ये शहर कहते हैं,


यहाँ पर हैं हजारों घर, घरों में लोग रहते हैं,


मुझे इस शहर ने गलियो का बंजारा बना डाला





चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,
मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।




मै इस दुनिया को अक्सर देख कर हैरान होता हूँ,


न मुझसे बन सका छोटा सा घर दिन रात रोता हूँ,


खुदा या कैसे तूने ये जहाँ सारा बना डाला


चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला,


मेरी आवारगी ने मुझको आवारा बना डाला।



नोटः योगेंन्द्र जी एवम् राजर्षि जी को विशेष धन्यवाद...जिन्होने याद तो रखा कि दीपावली बहुत देर मनती रही..! और राजर्षि जी आपकी दूसरी शिकायत के विषय में यही कहना है, कि क्या चाहते हैं भईया कि कमेंट भी देना बंद हो जाये :) :) असल में रोमन लिपि में तो काम के साथ साथ कमेंट होते रहते हैं..लेकिन हिंदी के लिये थोड़ा समय लेना पड़ता है... फिर भी कोशिश की है आज हमने..!