Wednesday, March 10, 2010

गली में आज चाँद निकला



सबकी तरह मैं भी माँ से कहानियाँ सुनते बड़ी हुई। उन कहानियों के विषय अधिकतर देशभक्ति के हुआ करते थे। राणा प्रताप का राष्ट्र प्रेम से मौत तक समझौता ना करना। उनकी बच्ची का कहना

वो कौन शत्रु है जिसने,
हम सब को वनवास दिया है

एक छोटी सी पैनी सी तलवार मुझे भी दे दो
क्षण मुझको रण करने दो, मैं उसको मार भगाऊँ।

भगत सिंह का बंदूकें बोना, आजाद का कपड़ों की गठरी में बारूद बाँध कर धोबी के रूप में अंग्रेजों को धता बताना, दुर्गा भाभी का मेम बनना, सब मैने माँ से ही सुना।

वीर रस की कविताएं यूँ भी जल्दी याद होती और खाली मन में ओज भरती तो भी देशभक्ति का संचार होता। फिर टीन एज में जब पुरानी शहीद देखी तब तो विश्वास ही हो गया कि मैं पिछले जन्म में कोई क्रांतिकारी गुट की ही थी। तभी तो ये देशभक्त दिमाग से नही उतरते।

युवावस्था में आया कारगिल। जब टी०वी० पर दिखते शहीदों के माता पिता को भरी आँखों को छलकने से पूरी ताकत से रोकते हुए यह कहते देखती कि हम रो के अपने बेटे की शहादत को कलंकित नही करेंगे। और कई दिनो तक अपनी आँखें नम रहतीं। जाने क्यों फौजी अच्छे ही लगते थे। ऐसा लगता था कि जीने का शऊर इन्हे ही आता है

इसी तारतम्य में देखा नाम मेजर गौतम राजरिशी का असल में कुछ भी खास नही लगा पहली बार क्योंकि जाने कितने मेजर हैं यहाँ लखनऊ में और कुछ लोगो से मिलना हुआ तो लगा कि बस नाम को मेजर और देश के लिए जज्बे से कोसो दूर। देश के लिये कुछ करने का जज़्बा नही, बस फौजी होने का रुतबा..! सो बस एक नये ब्लॉगर जिसका वास्ता गुरुकुल से है ऐसा ही कुछ सामान्य भाव आया। फिर लगा कि जो पोस्ट लगाई जाती हैं वे कुछ खास होती हैं, तो ब्लॉग पर लगातार जाना और भाने पर कमेंट करना ये रीत बन गई।कुछ अखरा तब जब एक टिप्पणी आई कंचन जी आपसे शिकायत है कि आप टिप्पणी रोमन में करती हैं।

अजीब आदमी है ज्यादा टिप्पणियाँ ना करने वाली मैं इन्हे टिप्पणी कर देती हूँ यही बहुत नही है क्या? खैर शालीनता का लबादा ओढ़ कुछ जवाब दिय कि अगर देवनागरी में टिप्पणी करूँ तो शायद बिलकुल टिप्पणियाँ कर ही ना पाऊँ।

एक अतुकांत कविता वर्षा वन आने के बाद कुछ अधिक प्रभावित हुई इस ब्लॉगर से और इनकी पोस्टों का इंतज़ार रहने लगा।

मगर खास तो तब हुआ जब २६/११ की घटना हुई। सबकी तरह मेरे मन भी आक्रोश और कुछ ना कर पाने की पीड़ा थी।कितने निर्दोष असहाय मारे जा रहे थे। इसी बीच संदीप उन्नीकृष्णन का जाना देख देख अजीब सा मन होता। दुःख और आक्रोश के मिश्रित भाव आते।

तभी राजरिशी जी की पोस्ट आती है उन्नीकृष्णन पर। पढ़ा कि कमांडो ट्रेनिंग साथ साथ की थी दोनो ने।

ओह तो इन्होने कमांडो ट्रेनिंग कर रखी है। यानी नाम के लिये फौजी नही हैं लड़ने वाले फौजी हैं। इस के बाद एक अलग सम्मान हो गया मन में इनके लिये।

जब जब ये क़लम सरहदों के, फौज के, देश के विषय में लिखती कुछ अलग सा हो जाता मन। मन में आता कि एक लंबा खत लिखूँ इस आभासी अजनबी को। कमेंट लिखने में प्रयोग हृदयतल की सीमा और गहरी होती गई और इसी मार्च माह के उस दिन जब पोस्ट में पढ़ा कि ये काश्मीर को शोभित करने आखिर पहुँच गये, उस दिन खुद को रोक ना पाई और एक खत लिख ही दिया

गौतम जी !
कहा था ना कि आपको पढ़ते ही मन होता है, कि एक लंबी मेल लिखने बैठ जाऊँ आपको....! आज की पोस्ट पढ़ने के बाद नही रोक पाई खुद को।


एक जमाना था .... कारगिल युद्ध तक। जब मन होता था कि काश..! मेरे घर से कोई युद्ध के लिये जाता, वीर क्षत्राणियों की तरह तिलक लगा कर भेजती मैं, हाथ में बंदूक दे कर, आखों की कोरों पर आये आसुओं को ज़ब्त करते हुए कहती " विजयी हो कर लौटना, हमारी चिंता मत करना, देश की उन बहनों की चिंता करना, जिनकी अस्मत तुम्हारे हाथ है। उन दुश्मन मेमेनों पर सिंह की तरह टूटना....! उस भारत भूमि को दूसरों के हाथ में मत जाने देना जिस की संस्कृति सब से पुरानी है।"

हाँ तब जब कारगिल युद्ध हुआ था मैने अपने सबसे प्यारे दोस्त और मेरी नज़र सबसे खूबसूरत और वीर भतीजे 'लवली' से कहा था कि तुम लड़ने चले जाओ। उसका दोस्त मेरा मुँह बोला भाई था और दोस्त की बहन इसकी मुँह बोली बहन। उस बहन ने छूटते ही क्रोध से कहा था "अरे क्या बात करती हो, दुनिया भर में मेरा ही भाई मिला है शहीद होने को।" मैने गंभीरता से मुस्कुराते हुए कहा था " जो शहीद होते हैं, वो भी किसी के भाई होते हैं...!"

२३ २४ साल की वो उम्र शायद सिर्फ भावुकता वाली थी। जब मैने कारगिल राखियाँ भेजी थीं और एक दूर के रिश्ते के भाई ने लौटती डाक से कहा था कि "मुझे अपनी नौकरी के १६ सालो में इतनी भावुक चिट्ठी कोई नही मिली। मुझे विश्वास हो गया कि तेरी राखी के आगे दुश्मनो की गोली मेरा कुछ नही बिगाड़ पायेगी" और लौटते समय सारे दोस्त मेरे घर पर मुझसे मिलने आये थे, उस अंजान बहन से जिस ने राखी भेज कर उनकी सलामती की दुआ की थी।

मगर अब जीवन के इस मोड़ पर शायद भावनाएं अब कोरी नही रह गईं, दुनिया के बहुत से स्वार्थी रंग इस पर चढ़ गए। तभी तो एक अंजान व्यक्ति जिस से न मेरी मुलाकात है, ना बात..बस कुछ नज़्मों का रिश्ता, उस के ट्रांसफर विषय में जब से सुना था तब से मन में आशंका थी कि कहीं जम्मू मे तो पोस्टिंग नही मिल रही और आज जब आपकी पोस्ट पढ़ी,तो कहने की तो बात नही मगर आँसू यूँ निकलने लगे जैसे लवली की ही पोस्टिंग वहाँ हो गई हो। जितने कमेंट पढ़ रही थी भावुकता उतनी ही बढ़ रही थी। मन हुआ कि झट तनया को गोद ले कर कहूँ "पापा जब तक नही आते, तब तक बुआ से सारी जिद करना"

सच गंगोत्री की गंगा, कानपुर आते आते कितनी मिट्टी साथ ले आती है। कुछ भी पहले सा साफ नही रह जाता? वो उम्र कितनी भोली थी जब किसी को भी कोई संबोधन देते हिचक नही होती थी। मगर आज हो तो रही है, फिर भी कहूँगी..कि पता नही आप मुझसे एक दो साल बड़े हैं या छोटे या फिर हम उम्र...! मगर जो मेरी रक्षा में वहाँ खड़ा है, वो रक्षक मेरा वीर ही होगा। जाने क्यों एक छोटी बहन सा भावुक हो कर कहने को मन हो रहा है " जल्दी आना भईया, मैं इंतज़ार करूँगी। अपना ध्यान रखना और मेरा भी।"

कभी लखनऊ से निकलना हो तो ज़रूर मिलने आइयेगा। साथ में भाभी जी और तनया रहें तो और भी अच्छा.....!
खुदा हाफिज़
आपकी
कंचन

रोज उत्सुकता से मेल चेक करने के परिणाम में तीन दिन बाद जवाब आया

कंचन तुम,
स्नेहाशिष !


तुम मुझसे छोटी हो और फिर तुमने "वीर" तो कहा ही है.....ये रूलाने वाली आदत जो है ना तुम्हारी, एकदम गलत है वो भी एक फौजी को रूलाती हो...लोग क्या कहेंगे !!!

पता है ब्लौग पर आते ही तुम संग कुछ जुड़ गया था ये रिश्ता....तुम्हारे शब्दों को देख कर लगा कि कुछ है जो खिंचता है मुझे....

देखो फिर से रो पड़ा हूँ....

कश्मीर के इस सुदूर कोने में बैठा, इस इंटरनेट को शुक्रिया अदा करता हूँ....इससे पहले भी दो पोस्टिंग काट चुका हूँ किंतु ये सुविधा पहले नहीं थी...

जिंदगी थोड़ी सी कठिन जरूर है मगर मजा आता है, सच पूछो तो....

हाँ शादी हो गयी है और फिर तनया एक साल की हो गयी है तो उस वजह से कुछ भावुक अवश्य हो जाता हूँ कभी-कभी...

लखनऊ आने का अब तो बहाना ढ़ूंढ़ना पड़ेगा अपनी इस अलबेली बहना की खातिर...

"कंचन" रहो हमेशा अनवरत...

तुम्हारा वीर
-गौतम

और फिर जाने कब ऐसा हुआ कि लगा ही नही कि ये शख्स आभासी दुनिया का हिस्सा है। जो बाते कभी किसी को नही कही होगी वो भी जाने किस तरह बताती चली जाती हूँ, इस जादुई रिश्ते को। बात का हेलो कहते ही समझदारी जाने कहाँ चली जाती है और मैं एकदम से छोटी हो जाती हूँ। ऐसा लगता है कि शायद बहुत दिनों का साथ है।

कितनी बार पानी को अचानक चट्टान बनते और पत्थर को पिघलते देखा।

जब गोली खाई तब तो सबने जाना मगर इससे ज्यादा भयंकर दिन जिन्हे वो खुद कभी बयाँ नही करेंगे और मुझे करने नही देंगे। ७२ घंटे लागातार बारिश और एक चट्टान की आड़ में हथियार लिये बैठा एक फौजी शायर क्या करता होगा उन घंटों के मिनटों और मिनटों के सेकण्डों में। कभी एक बहन की तरह सोच के देखियेगा। लिहाफ के अंदर तड़ तड़ बूँदे चेहरे को तीखी लगने लगती हैं।

कल्पना और हक़ीकत में बड़ा अंतर होता है। आप मुझे कमजोर कह सकते हैं, मैं हूँ भी। कल्पना में फौजी की बहन बनना जितना बहादुरी का काम लगता था, उतनी ही कमजोरी से हर बार बस एक बात निकलती है "अपना खयाल रखना।"


लगा ही नही कि मिली नही हूँ अपने वीर से मगर उस दिन सारे दिन जुबाँ पर ये गीत रहा जो शीर्षक में है....! गली में आज चाँद निकला
वो दिन ही कुछ ऐसा था....










आज आप के जन्मदिन पर आप को बताना चाहती हूँ कि आप जैसे लोगो को जिंदगी में पाने के बाद ईश्वर से नज़र मिला के शिकायत नही की जा सकती.... और ये भी कि कभी कभी अपनी फीलिंग्स न जताना, फीलिंग सही मायने में रखना बताता है... और ये भी कि एक सच्चे और अच्छे भाई के सारे गुण हैं आप में (अवगुण भी).... और ये भी कि आप को वीर के रूप में पाना मुझ को गौरवान्वित करता है... इस गौरव को बनाए रखना... अपना ख़याल रखना



आपकी प्रेमिकाओं को ढूँढ़ने निकली तो पता चला सब इंगेज हो चुकी हैं। कुछ कुछ इनकी शक्ल-ओ-सूरत मिल रही थी तो आपको केक खिलाने के लिये इन्हे ही पकड़ लाई

LONG LIVE DEAR BRO..... MANY MANY HAPPY RETURNS OF THE DAY