Wednesday, April 23, 2008

और पैबंद लगाने को टुकड़े टुकड़े खुशी।

कल रात के दो बजे एक विचार आ रहा था कि ऐसा तो नही है कि जिंदगी में खुशियाँ नही है, लेकिन टुकड़ों टुकड़ों में हैं, फिर मन में आया कि पैच वर्क कर लो आज कल तो एंटीक का फैशन है... और फिर विचार आया कि हाँ सही भी तो है जिंदगी भी तो कहीं इधर कहीं उधर फटी सी है, और कविता ने जन्म ले लिया, दो लाइनें बन गईं, पास पड़े मोबाईल में सेव किया और आज सुबह आफिस आने के बाद पहला काम कि उन लाइनो को कविता का रूप दिया, कंप्यूटर ही.... जैसा बना वैसा आपके सामने है



जगह जगह से फटी एक जिंदगी पाई, और पैबंद लगाने को टुकड़े टुकड़े खुशी।
कोई काँधा नही जो ज़ब्त करता आँसू मेरे, ज़ब्त कर लेती है उनको ये मेरी झूठी हँसी।

प्यार जिनसे करो वो साथ नही चल पाते, साथ जिनके चलो वो प्यार नही कर पाते,
चाँद रूमानी हो और साथ थोड़ी धूप भी हो, ऐसी उम्मीद तो होती हैं खयाली बातें।
प्यार का मोज़दा बस दर्द भरेगा दिल में, ऐसे हालात कहाँ दे सके हैं सिर्फ खुशी।

रात भर जागती आँखें कहें अँधेरों से, कभी कहना नही बातें मेरी सवेरों से,
तुम्हारे सामने धोती हूँ आँख अश्कों से, तब कहीं होती हैं काबिल ज़रा सवेरों के।
खुदकुशी रोज रात शख्स कोई करता है, ये उजाले अगर जानें तो उड़ाएंगे हँसी ।

हर एक संग के पीछे कोई झरना होगा, अपनी इस सोच को अब मुझको बदलना होगा,
तोड़ते रह गए पत्थर औ मिले पत्थर बस, बह गया कितना लहू, अब तो ठहरना होगा।
अब मगर जायें कहाँ, जाएं भी तो कैसे हम, इसी पत्थर में मेरे प्यार की मूरत है बसी।

Saturday, April 19, 2008

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?

२४ अगस्त २००२ को अनंतपुर के कार्यालय में लिखी गई ये कविता इसके बारे में क्या कहूँ...बस गहन तनाव की व्युत्पत्ति थी ये...!



मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?आज भी तुम और तुम ही हो मेरी हर प्रार्थना में,

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ तुमको हर पल याद करना आज भी आदत है मेरी,

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ आज भी तेरी डगर पर ही लगी है नज़र मेरी,

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ कि तुम्हारी वो हँसी अब तक न भूली नज़र मेरी।

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ आज भी हर लड़खड़ाहट ढूढ़ती है हाथ तेरा,
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ तुम गए तो जिंदगी में छा गया है बस अंधेरा..!

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ भीड़ में इतनी, अकेलापन डरा देता है मुझको,
और घबरा कर बढ़ा देती हूँ मैं ये हाथ मेरा,
काश तुम इसको पकड़ लो और सहारा दे के बोलो,
"मै तो हूँ न साथ तेरे क्या करेगा ये अँधेरा ?"

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ , कि अचानक दिल है करता भाग कर तुमको पकड़ लूँ,
अपने सिर की कसम दे के तेरे कदमों को जकड़ लूँ।
सामने तुझको बिठाकर ,
तेरे हाथों को पकड़ कर,
फूट कर मैं खूब रो लूँ
इतने दिन से मेरे दिल ने,
दाग जितने खुद में पाले,
आँसुओ में सभी धो लूँ

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ कि महज उन्माद ही तो प्यार का मतलब नही है,
नेह का ही एक पहलू ही तो ये विषाद भी है...!

मैं तुम्हे कैसे बताऊँ ....?
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ कि महज तुम में नही है नेह की ये भावना,
बस ढिंढोरा पीटने का अर्थ है क्या चाहना....?
आरती और शंख के संग तुम बुलाते देव को हो,
मौन मंत्रों को मगर कहते नही क्या साधना..?

मैं तुम्हें कैसे बताऊँ....?और बताऊँ भी तो क्यों...?
क्यों भला शबदों की दासी बने मेरी भावना..?

मैं तुम्हे क्यों कर बताऊँ और भला कैसे बताऊँ
मैं तुम्हे कैसे बताऊँ ....? मैं तुम्हे कैसे बताऊँ ....?

Wednesday, April 16, 2008

उड़न तश्तरी का फुरसतिया पड़ाव हृदय गवाक्ष पर

पिछले दिनों जिंदगी बड़ी भागदौड़ की रही, इसी कारण अप्रैल बीत रहा है कोई पोस्ट भी नही भेज पाई... ३१ मार्च को कानपुर से लौटने के बाद स्वजनो की आवाजाही में सोमवार से शुक्रवार आ गाया शनिवार को जब आराम करने के लिये फोन आफ किया तो आन करने पर पता चला कि इतनी ही देर में कानपुर में भाभी हॉस्पिटलाईज़्ड हो गईं और आईसीयू में रखी गईं हैं...२४ घंटे का समय कैसे कटा ये तो हम और ईश्वर ही जानते हैं। सोमवार से स्थिति नियंत्रण में तो आई !

इन्ही परिस्थितियों में समीर जी का मेल प्राप्त हुआ कि वे १०-११ को लखनऊ तथा १२-१३ को कानपुर में रहेंगे...!
समीर जी से मिलने का अवसर छोड़ने का तो कोई विकल्प हो नही सकता था, हाँ कानपुर लखनऊ मे किस जगह मिलना है ये विकल्प थे..तो चूँकि हमें कनपुर जाना ही था तो हमने वहीं पर मिलना उचित समझा..! ३.०० बजे दोपहर मे जब हम कानपुर के जाम से जूझते किदवई नगर के अपने घर पहुँचे तो तुरंत कल्याणपुर जहाँ समीर जी अपनी बहन के घर रुके थे वहाँ जाने की हिम्मत नही हुई, समीर जी से हमने पूँछा कि शाम का क्या कार्यक्रम है तो उन्होने बताया कि उन्हे शाम को अनूप जी के घर जाना है, तो मुझे लगा कि वहीं पहुँचना अधिक उचित रहेगा। मैने तुरंत अनूप जी को फोन मिलाया और अता पता पूँछा।

भाभी अस्पताल में ही थी.भईया ने मुझसे कहा था कि कोई ड्राइवर ले लो और भतीजे के साथ चली जाओ..तो मैने कहा ठीक है लेकिन तुम चलते मैं अधिक आश्वस्त रहती..तो भईया खुद ही आए।



शाम को भईया के साथ ढूँढ़ते ढाढ़ते लगभग ७.४५ पर जब अनूप जी के घर पहुँची तो पता चला कि साधना भाभी बस निकलने ही वाली हैं, सो हमने जल्दी जल्दी उनके और बहन जी के दर्शन किये भाभी जी ने फिर मिलने का वादा करते हुए जो भारतीय शैली में हाथ जोड़ कर चलने की इजाजत माँगी तो हम उन्हे मना ना कर सके (वैसे पता था कि इजाज़त देने में ही इज्जत है :)) परंतु इतनी ही देर में उनकी सहज छवि मन पर छा चुकी थी।








सुमन भाभी से भी इसी बीच परिचय हो चुका था। बैठक के हर कोने से उनकी रचनात्मकता झाँक रही थी। सामने की मेज पर उनकी पाक कला फैली हुई थी। हम उन्हे बिना बताये ही उनकी भूरि भूरि प्रशंसा किये जा रहे थे।
अगली बारी थी सुमन भाभी की बड़ी बहन निरुपमा अशोक से परिचित होने की, वे लखीमपुर इण्टर कॉलेज में प्रधानाचार्या हैं एवम् हिंदी में गहन रुचि के साथ विद्वता भी रखती हैं..बातों बातों मे पता चला कि वे लखनऊ में हमारी पड़ोसन भी हैं।


अब मेहफिल थोड़ा रंग में आ चुकी थी बातें करने में कोई पीछे नही, शिवाय अनूप जी के हमे लग रहा है कि वे मन ही मन रिपोर्ट बनाने में लगे थे और एक एक बात का लेखा जोखा रख रहे थे कि कब कौन सी बात किसके मुँह से निकल रही है। समीर जी, निरुपमा दी, भइया और मैं मुखर चर्चा में लगे थे बातें ब्लॉग की भी हुईं...हम सब ने अपने कई अनुभव बाँटे कई शेर भी कहे गये।

भईया ने जब कहा कि

मेरे बच्चे मेरी मुफलिसी से वाक़िफ हैं,मेरे बच्चों को खिलौने नही अच्छे लगते।
तो अनूप जी ने मिराज़ फैजाबादी के शब्दों मे ने जवाब दिया कि

मुझे थकने नही देता ज़रूरत का पहाड़,मेरे बच्चे मुझे बूढ़ा नही होने देते।

साथ और दे मारे..!

मुश्किलें राह भूल जाएंगी,तुम मेरे साथ में चलो तो सही।

तो भइया ने भी दे मारा

अब कसम है तुमको रोक लो अपने आँसू,मेरी आँखों मे न आ जाएं तुम्हारे आँसू।

और समीर जी को समर्पित करते हुए कहा

आँख से दूर सही दिल से कहाँ जाएगा,ऐ जाने वाले तू याद बहुत आयेगा।

मैने जब बताया कि गज़ल सुनने में भइया लोगों के साथ अथराइज़्ड होने के लिये मुझे

एक आशिक ने रात पिछली पहर,अपने महबूब के न आने पर,

कर दिये ताज़महल के टुकड़े,आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर।

का व्याख्या सहित अर्थ बताना पड़ा था और शुरआती दौर में मैने जब अपने भईया से पूँछा कि चारागर का मतलब क्या होता है तो उनके बैद्य बताने पर हमने सुना बैल और समझ भी लिया कि चारा खाने के कारण ही उसे ऐसा कहा जाता है लेकिन जब वो मिसरों पर फिट न बैठे तो हम हैरान हो जाते थे, अनूप जी कहाँ पीछे रहने वाले थे उन्होने भी तुरंत अपने अनुभव बँटाये और बताया कि एक बार किसी के कविता याद कराने के अनुरोध पर उसे जब कन्हैया लाल जी की कविता

अजब सी छटपटाहट,घुटन,कसकन ,

है असह पीङासमझ लो

साधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन

चुपचाप सहता जा

सृजन में दर्द का होना जरूरी है.

याद कराई और दूसरे दिन उससे सुनाने को कहा था तो उसने कविता तुरंत सुना दी कि

अजब सी छटपटाहट,घुटन,कसकन,

है असह पीङा

समझ लोसाधना की अवधि पूरी है

अरे घबरा न मन

चुपचाप सहता जा

सूजन में दर्द का होना जरूरी है.

तो कमरा ठहाकों से गूँज गया


इसी बीच मैने सुमन भाभी से पूँछ लिया कि एक सफल ब्लॉगर की पत्नी के रूप में वे खुद कहाँ देखती हैं और दिल की बाते जो जुबाँ पर आईं तो अनूप जी को तो बस कहीं भागने का मौका ही नही मिल पा रहा था, हम तो भाभी जी की हाँ में हाँ मिलाए पड़े थे, समीर जी की भी कुछ नही चल रही थी वो भी इसी खेमे आ गये और मंजूर किया की ब्लॉगिंग के चक्कर में पत्नियों पर एक अलग प्रकार का अत्याचार हो रहा है..इसके खिलाफ जन जागरण की आवश्यकता है। भाभी जी को मैने आश्वस्त किया कि उनकी आवाज़ ब्लॉगर्स तक पहुँचाई जायेगी। भाभी जी का सुझाव है कि हम सभ ब्लॉगर्स अपने इस नशे के लिये घंटे सुनिश्चित करें और सुनिश्चित घंटों के इधर उधर ये कार्य न करें।

अब तक राजीव जैन जी भी मेहफिल में शामिल हो चुके थे, लेकिन मेरे सामने उन्होने बस इतना कहा कि अब वे ब्लॉगर नही रहे, बाकी वे मंद मंद मुस्कान ही परोसते रहे सो हम उनके विषय में अधिक नही बता सकते
यहाँ हम इन बातो पर चर्चा कर रहे थे उधर हॉस्पिटल में भाभी इस ब्लॉगर मीट का दर्द झेल रही थी, तो हम माता जी से मिलने घर के अंदर गए और उनसे चलने की इजाज़त ली और ढेरों यादे ले कर अपने घर वापस आ गए।

सारे चित्र समीर जी के कैमरे से साभार, यूँ मनीष जी के चिट्ठे पर फोटो के कारण मेरे बागी तेवर देख कर अनूप जी काफी डरे हुए थे, बार बार कह रहे थे कि कंचन अपनी फोटो का प्रिंट आउट निकाल कर देख लो हमने अपनी तरफ से कोई कमी नही छोड़ी है. लेकिन भगवान के क्रिएशन में कुछ कर नही पाए,..:)


मेहफिल यूँ सजी



हम तो बस हाथ मलते रह गए



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बातें बहुत थी, कुछ अधिक ही खिंच गईं, झेल लीजियेगा