Thursday, March 12, 2015

नारी पीड़ा लेखन के पीछे -शिवमूर्ति जी के जन्मदिन परिवार का साक्षात्कार भाग-4

शिवमू्र्ति जी की सबसे छोटी बेटी शिवानी इस समय चंडीगढ़ में हैं, खुद डॉक्टर है और एक डॉक्टर की ही पत्नी भी हैं। शिवमू्र्ति जी के साक्षात्कार टी० वी० पर देखना, उनकी कहानियों पर बनी फिल्मे देखना, उनकी किताबों की चर्चा सुनना उन्हे अभिभूत कर जाता है। खुद को विश्वास दिलाना पड़ता है कि क्या सच में वो उन्ही शिवमूर्ति की बेटी हैं, जिनका लोग इतना सम्मान करते हैं।

      वे बताती हैं कि पिता को प्रभावित करने के लिये वो चिट्ठियाँ लिखा करती थी। ऐसी चिट्ठियाँ जिनमें ढूँढ़ ढूँढ़ कर हिंदी के वो शब्द डाले जाते थे, जो पिता को प्रभावित कर सकें। सभी बहने मिल कर अपनी डिमांड शिवानी के हाथों लिखवा कर भेजती थी और शिवानी उस पत्र को देने के बाद दूर से पिता के मुख के हाव भाव पढ़ती रहती थीं। पिता का मूड देखा जाता जानबूझ कर ऐसे समय में पत्र दिया जाता, जब वो जल्दी में हो और तुरंत हाँ कर दें।

शिवानी कहती हैं "मैं तो हर बात के लिये पापा को चिट्ठी लिखा करती थी, मतलब छोटी से छोटी चीज़ के लिये भी।" मैने पूछा कि छोटी बात तो ये हो गई कि "वीसीआर मँगाने के लिये चिट्ठी लिख दी। बड़ी बात क्या होती थी ? " उन्होने तपाक से कहा "उस समय तो वीसीआर मँगाना ही बड़ी बात होती थी।" उसी क्रम में मुस्कुराती, खिलखिलाती शिवानी कहती है "असल में मैं सबसे छोटी थी, तो सब मेरे कंधे पे रख के बंदूक चलाते थे। मुझे ही बलि का बकरा बनना पड़ता था।"

सब से छोटी होने के कारण पानी पिलाने की ड्यूटी भी उन्ही की होती थी। दिन भर उनके हाथ में जग और गिलास रहता।

पापा ने शिवानी का नाम मनीषा रखा था, मगर उन्होने खुद इसे बदल कर शिवानी इसलिये कर लिया, जिससे वो भी पापा की तरह कुछ लिख सकें। लेकिन बचपन में अपनी कॉपी में लिखी कुछ कहानियों के आगे ये टोटका काम नही आया।

मैने पूछा " सुना है किसी दिन पापा आपको स्कूल से लाना भूल गये थे।" उन्होने कहा "किसी एक दिन नही, अनेक दिन, ऐसा होता ही रहता था।" शिवमू्र्ति जी उन्हे स्कूल से लाना भूल गये और जब कोई घर ले जाने वाला नही मिला तो टीचर उन्हे अपने घर ले कर चली गयीं। टीचर के घर पर वे लगातार रो रहीं थी, अब बेचारी करें तो क्या ? तो वे उन्हे बहलाने के लिये बाज़ार ले कर चली गयीं। वहाँ किसी को देख कर वो चिल्लाईं "ये तो मेरे अंकल हैं।" आखिर टीचर ने शिवानी को उन्ही अंकल के साथ घर भेजा।

शिवानी ने बताया कि दो बार बचपन में उन्हे भाई बहनो की ब्लैक मेलिंग झेलनी पड़ी। उनका कहना है कि यूँ तो वो अपने छोटे भाई को बहुत प्यार करती थी। अगर पापा कभी उस पर खुदा ना खास्ता हाथ उठाने चलें तो वो सामने जाती थीं। लेकिन एक बार जाने क्या हुआ की भाई की किसी शैतानी पर उन्होने अचक्के ही हाथ में पकड़ी चैन उसकी पीठ पर चला दी और भाई की पूरी पीठ पर उस चैन का निशान...!! अगले क्षण शिवानी खुद ही बिलबिला उठीं "ये मैने कर कैसे दिया ?" भाई ने उस समय तो शिवानी की हालत देख किसी को वो निशान नही दिखाया, मगर फिर लंबे समय तक वो उसका फायदा उठाता रहा, ब्लैकमेल कर कर "ये कर दो वर्ना दिखाऊँ पापा को, वो करो वर्ना दिखाऊँ पापा को जैसा।"

और दूसरा अनुभव उनके बहुत बचपन का है, जब एक नेक काम के लिये उन्हे ब्लैक मेंलिंग झेलनी पड़ी थी। हुआ ये कि शिवानी के लिये मम्मी तीन नयी ड्रेस ले कर आईं। शिवानी के घर जो काम करने आती थी, उसकी बेटी भी इनकी ही उम्र की थी। शिवानी ने अपनी एक ड्रेस फुल सेट लगा कर पॉलीथिन में रख कर उसे दे दी और साथ में हिदायत भी दी कि "इसे पहन कर मेरे घर मत आना।" लेकिन उस बच्ची का भी उत्साह की तीन चार दिन बाद वो वही ड्रेस पहन कर इनके घर गई। मम्मी ने तो ध्यान नही दिया लेकिन मधूलिका ने पहचान लिया। जब पता चला कि ये तो गुप्तदान की चीज़ है, उन्होने शिवानी को तुरंत ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। "पानी ले कर आओ, नही तो बताती हूँ मम्मी को, मेरा बैग उठा लाओ वर्ना..."

      "शिवमू्र्ति जी अच्छे पिता तो हैं ही, बड़ी होने पर ये समझ में आया कि वो माँ के लिये अच्छे पति भी है। उनकी खासियत ये है कि जो कुछ भी उन्होने औरतों के विषय में लिखा है, वही उन्होने औरतों के साथ किया है। समाज में होने वाली घटनाओं पर भी उनका दखल रहा है। मोहल्ले में, कॉलोनी में, अगर उन्हे लगा कि किसी के घर कोई अपनी औरत को पीट रहा है, तो वो इस बात की फिकर किये बगैर कि अंजाम क्या होगा, पहुँच जाते बिगड़ते हुए। वहाँ से सफाई मिल भी जाये कि इंजेक्शन लग रहा था इस लिये चिल्ला रही थीं, फिर भी असल मामले को समझते हुए ताक़ीद कर आते " जो भी हो, आगे कभी ये रोने चिल्लाने की आवाज ना आये।" कॉलोनी में समकक्ष अधिकारियों के घर से अगर कोई आवाज आई, इस तरह की तो तुरंत पत्नी को कहा जाता " चलो देखते हैं, चाय पीने चलो तो कम से कम शांत तो हो और फिर चाहे सुबह के आठ बजे हो चाहे रात के साढ़े दस, पति पत्नी बेल बजा कर पहुँच जाते। "कैसे हैं भाई ! हमने कहा भाभी जी के हाथ की चाय पी जाये।" मनोविज्ञान ये होता कि आवेश के पल उस समय टाल दिये जायें तो बाद में सब ठीक ही हो जायेगा। हॉस्पिटल में केरल की नर्सों की उदारता और कर्तव्य परायणता को देख उन्होने कहा "एक स्त्री ही इतनी अच्छी तरह से सेवा कर सकती है।

 साथ ही जानवरों पर भी उनका वैसा ही प्रेम रहता है। आस पास में अगर किसी का कुत्ता  रो रहा है, तो उससे पूछने पहुँच जायेंगे कि क्यों रो रहा है भाई। घर के सामने तो जाने कितने कुत्तों ने अपना घर बना लिया है, क्योंकि उन्हे रोज का खाना यहीं से मिलता है।  कुल मिला कर हर जगह उनकी दयालुता और सहायता देखने को मिल जाती है।"

      शिवमू्र्ति जी के स्वभाव की एक कमी पर वे लगभग १२० सेकंड सोचती हैं और फिर कहती हैं "मुझे लगता है कि पापा कभी कभी कुछ चीजों का नकारात्मक पहलू अधिक देख लेते हैं बनिस्पत उसके सकारात्मक पहलू के।"
      सभी बेटयों की तरह पापा तो हमेशा ही उनके साथ थे। जब एक कभी ऐसा हुआ हो कि पापा साथ ना रह पाये हों के उत्तर में वे हँस कर बताती हैं " एक बार ऐसा हुआ था कि मेरी पकनिक से वो मुझे वापस लाना भूल गये थे। मेरी टीचर मुझे अपने घर ले कर चली गयी तब। मुझे घर की बहुत याद रही थी, तो फिर टीचर मुझे चुप कराने के लिये मार्केट ले कर गयीं। वहीं पर एक अंकल दिखे, जिन्हे देख कर मैने कहा "अरे ये तो मेरे घर के पास रहते हैं।" और फिर मैं अंकल के साथ घर वापस लौटी।"

महमूद के साथ की यादे शेयर करते हुए शिवानी बतातीं कि महमूद उन्हे सायकिल पर बिठा कर स्कूल छोड़ने जाता और उन्हे हमेशा लगता कि चलती सायकिल से कूद जाने पर आखिर कैसा लगता होगा और वो पूछतीं "महमूद हम कूद जायें।"
महमूद कहता "नही, नही कूदियेगा नही।" लेकिन एक दिन फिर उसी प्रश्न पर उकता कर उसने जवाब दिया "कूद जाईये" और शिवानी कूद पड़ीं। और इस प्रकार चोट लग जाने के बाद, उस प्रश्न का हमेशा के लिये अंत हुआ।
अच्छी लड़कियाँ देख कर चिढ़ाते हुए महमूद कहता " देखो कितनी सुंदर लड़की जा रही है।" और शिवानी चिल्ला उठतीं "तुम मत देखो" उसे उन्हे लगता ये लड़की क्या सोचेगी उनके बारे में कि पीछे बैठ कर विरोध भी नही कर रही लड़की के देखे जाने का और महमूद को मजा जाता, वो फिर किसी लड़की को देख वैसे ही चिढ़ाने लगता।

यादे केशर के साथ की भी हैं उनकी, जिन्हे गाँव पर केशव कहते थे लोग। केशर दीदी आज कल दिल्ली में हैं। उनके पति की चिट्ठी आने पर सब मिलकर चिढ़ाते, "केशर दीदी ! कुछ अच्छा बनाइये, फिर मिलेगी चिट्ठी।"

अब हमने सोचा कि चलिये ये तो ठीक है कि स्त्रियों के दर्द को समझने वाले शिवमूर्ति जी अपने घर में भी वैसे ही हैं, लेकिन इससे ये बात कहाँ सिद्ध होती है कि वे पुरुषों के प्रति अतिरिक्त पक्षधरता नही रखते।

इस बात को दिमाग में रख कर मेरी बात हुई, छः बेटियों में उनके एक मात्र पुत्र प्रतीक से। शिवानी का दावा है कि उन्होने ही प्रार्थना कर कर के प्रतीक को बुलाया है।

शिवानी को स्कूल से लाना भूल जाने वाले पापा तो को प्रतीक नाम भी कहाँ याद रहता था। स्कूल प्रतीक को लेने भेजा जाता और उन्हे लेने पहुँचे पापा कहते"मोनू को लेने आये हैं"
 मैम कहेंगी " नाम बताइये"
"मोनू नाम है"
"स्कूल में जो लिखा हो वो नाम बताईये।"
अब पापा भूल गये। मैम सोचतीं कि कोई अंजान आदमी गया लेने। जो बच्चे को बहका के कहीं और ले जाना चाहता है। और मैम बच्चा देने से मना कर देतीं। तन महमूद आता ले जाने को।

प्रतीक इस समय आस्ट्रेलिया में इंजीनियर हैं। उन्होने आस्ट्रेलिया से ही परास्नातक की डिग्री ली है।

शिवमूर्ति जी का पुत्र होना हर संतान की तरह उन्हे भी गौरवमयी बनाता है।

पिता उनके लिये क्या हैं इस बात को अगर वे एक शब्द में कहना चाहें, तो वो होगा मार्गदर्शक।

बचपन में शैतान प्रतीक के लिये पिता हमेशा स्ट्रिक्ट रहे। हँसते हुए वे बताते हैं कि 'काफी मार वार खाई है मैने' अनुशासित प्रतीक के निर्माण के प्रति वे खासे जागरुक थे।

जब प्रतीक युवावस्था की ओर अग्रसर थे, तब पिता अलग अलग जगहों पर पोस्टेड थे। लौट कर आने पर उनका सरोकार ये होता था कि पढ़ाई ठीक हो और परिणाम सही हों। बहुत सारी बातों मे हस्तक्षेप करने का स्वभाव नही है उनका। प्रतीक का कहना है कि "पाप इस स्वाभाव के नही हैं कि उनके बच्चों की हर चीज उनके नियंत्रण में हो"

पढ़ाई में सामान्य और गणित में सामान्य से अधिक दिमाग रखने वाले प्रतीक को पढ़ने के मामले में डाँट कम ही खानी पड़ी।

अच्छा काम करने पर पिता की मूक नही मुखर प्रशंसा मिलती थी, जो अच्छा लगता था।

धर्मशाला विज़िट पर मेजबान ने बीयर का भी इंतज़ाम रखा था, सिर्फ अपने और शिवमूर्ति के लिये। आधा ग्लास पीने के बाद शिवमूर्ति जी ने प्रतीक से कहा " लो प्रतीक अब तुम पी लो यार मैं ज्यादा नही पीता।" प्रतीक हिचकिचाये हुए "अरे नही पापा।" और पापा " लो भईया, हमें बस इतनी ही पीनी थी।"

शिवमूर्त जी के व्यक्तित्व का एक गुण जो प्रतीक को हमेशा से प्रभावित करता है कि वो हर एक का खयाल रखते हैं, वो पारिवारिक सदस्य हो या बाहरी। आपको पता भी नही चलेगा और वो आपकी छोटी छोटी चीज़ का ध्यान रख रहे होंगे। 'उसको ये नही मिला, उसको ये चीज दे दो, उसे ऐसे मदद कर दो तो उसका काम बन जायेगा। किसी की भी मदद, किसी भी तरीके से अगर संभव है, तो वो करते हैं। जैसे कि मुझे याद है कि एक समय में दरवाजे दरवाजे पर जा कर चीजें बेचने वाले सेल्समेन का समय था। अगर पापा निकल गये, तो ज़रूरत हो या ना हो, पापा उसकी चीज खरीद लेते थे। बाद में मम्मी इस बात के लिये बहुत नाराज़ भी होती थी। लेकिन पापा कह देते "इतनी धूप में सुबह से मेहनत कर रहा है।"

पिता के अवगुण के बारे में पूछने पर काफी समय लगाया प्रतीक ने यह सोचने में। आखिरकार कहा देखा जाये तो ये पापा का अवगुण नही और ही मुझे कभी कोई शिकायत हुई उनसे लेकिन अगर अपनी तरफ से देखता हूँ तो पापा थोड़े से इंपेशेंस लगते हैं। चूँकि मैं कोई भी काम बहुत धीरे से, आराम से करने वाला हूँ और पापा को तुरंत परिणाम चाहिये होता है। तो मेरी जगह बैठ कर देखने में पापा थोड़े इंपेशेंस लगते हैं।

कम से कम पापा ने तो कभी यह अहसास नही दिलाया कि लड़कियों की तुलना में प्रतीक का महत्व अधिक है या फिर किसी भी बात से ऐसा नही लगा कि छः बेटियों के बीच एक उसका होना कोई गर्व की बात है।

हाँ मगर पापा को प्रतीक के प्रति ममता नही ऐसा भी नही है। धर्मशाला यात्रा के दौरान जब प्रतीक की उँगली कार में दब कर घायल हो गई थी, तो पापा का बेचैन होना हमेशा याद रहता है उन्हे।

सभी बेटियों के विचार लेने के बाद मैने शिवमू्र्ति जी की दौहित्री स्निग्धा के विचार लेने की सोची। स्निग्धा यथा नाम तथा गुणाः की उक्ति चरितार्थ करती है। एकदम स्निग्ध, प्यारी सी बच्ची, जो आजकल क्लैट की तैयारी कर रही है। स्निग्धा ही वो लड़की है जिसमें शिवमूर्ति जी की रवनाधर्मिता के कुछ बीज विद्यमान हैं। कभी कुछ कविताएं और कभी कभी कहानियाँ वो भी लिखती हैं। नानाजी उसके आदर्श हैं और भविष्य में वो भी नानाजी जैसा ही लिखना चाहती है। स्निग्धा ने जब पहली बार कविता लिखी तो "नानाजी ने  ईक्यावन रुपये ईनाम में दिये और कहा कि केवल कविताओं तक ही स्वयं को सीमित ना रख कर, तुम कहानियाँ भी लिखो और खुद के ही शब्दों मे ढूँढ़ों कि तुम क्या लिख सकती हो। अपनी भावनाओं को विस्तार दो।"


स्निग्धा का कहना है " केवल लेखन ही नही, हर चीज़ में मैं नाना जी जैसी ही बनना चाहती हूँ। साहित्यकार के रूप में हो या फिर प्रशासनिक अधिकारी के रूप में या फिर परिवार के मुखिया के रूप में उन्होने अपनी जिंदगी को बहुत ही सिस्टेमिटिकली और आर्गेनाइज़्ड वे में जिया। तीनो फेज़ में कहीं भी उन पर कोई दाग नही लगने पाया, उन्होने बहुत संयम से और फूँक फूक कर हर काम किया। उनकी इतनी सारी बेटियाँ थीं। सबकी शादी उन्होने ही की और हर बेटी खुश है यहाँ तक कि अपनी बहन की बेटियों की शादी भी उन्होने उतने ही धूम धाम से की। मुझे कभी भी नही लगा कि उमा मौसी और कला मौसी मेरी सगी मौसी नही हैं। वों लोग हमारे बीच उसी तरह रहीं जैसे बाकी मौसियाँ थीं। नानी जी ने भी कभी कोई अंतर नही किया। साथ में अगर कभी किसी ने उनसे मदद माँगी, तो उन्होने ये इच्छा नही रखि कि वो उस पैसे को अब वापस भी करेगा। जितना भी माँगा देते गये और बिना वापस लौटने की उम्मीद से देते गये। लोग उनसे कहते हैं कि वो तुम्हे मूर्ख बना रहा है, लेकिन नानाजी पर कोई असर नही पड़ता। एक बार जब मेरे साथ भी ऐसा हुआ कि मैने किसी की मदद की और वो मुझे मूर्ख बना गया, तो मैने नानाजी से ये बात बताई, तो नानाजी ने मुझे समझाया कि हो सकता है कि वो कह रहा हो कि मैने उसे खूब मूर्ख बनाया, या खुश हो रहा हो अपनी काईयाँगिरी पर। लेकिन अपने मन में जब भी वो अपनी जिंदगी का हिसाब करने बैठेगा, तो उसे लगेगा ही कि अगर तुम ना होती, तो शायद वो इस मुक़ाम पर ना होता। तो चाहे जैसे भी तुम तो अपनी जगह सही ही रह जाती हो और तुम्हारे हिस्से यही आया है कि तुमने उसकी मदद की। तो इस तरह के विचार जब नाना से मिलते हैं, तो लगता है कि एक मनुष्य के रूप में उनसे ज्यादा किसी को आदर्श माना ही नही जा सकता।"

 "नाना जी में कमी ये है कि वो अपनी किसी भी आदत को बदलना नही चाहते। उसमें से भी वो कुछ अच्छा निकाल लेंगे। इस आदत से ये फायदा है टाइप"

      " नानाजी का सबसे बड़ा सपोर्ट तब रहा जब मैं जब लखनऊ आई नानी जी के पास रह कर पढ़ने के लिये और सीएमएस जैसे स्कूल में मेरा एड्मीशन हो गया, तो सब कुछ बदल सा गया मेरे लिये। हाईफाई स्कूल, हाइफाई लोग हाईफाई सोसायटी। मैं छोटे शहर से आई थी। क्लास थर्ड में होने के बावजूद मेरी इंग्लिश बिलकुल अच्छी नही थी। तब नाना जी ने कहा कि ज्यादा से ज्यादा लिटरेचर पढ़ो, तो उस भाषा को ज्यादा समझ सकोगी। उन्होने बहुत सारी इंग्लिश नॉवेल सजेस्ट की मुझे। अब हाल ये है कि पढ़ना मेरा सबसे बड़ा शौक है और इंग्लिश वोकैब मेरी क्लास में सबसे अच्छी।"

" नानाजी का तब  बिलकुल भी सपोर्ट नही करते, जब मैं मैथ में गड़बड़ करती हूँ। उनका कहना है कि मैथ्स तो सभी को आनी ही चाहिये।"


तो इस तरह शीवमू्र्ति जी के परिवार के स्त्री पात्रों के विचार जान कर लगा कि ये लेखक केवल क़लम चालने के लिये या विषय वस्तु को जोरदार बनाने के लिये नही महिलाओं को अपने केंद्र पात्र के रूप में चयन करता, वस्तुतः स्त्री का हर तरह से सम्मान और उसके दर्द को समझना इनकी फितरत ही है। मन एक बार फिर भर आता है अपने प्रिय कथाकार को उतना ही संवेदनशील असल जिंदगी में भी पा कर जितना वो अपनी कथाओं में है।