तो रेखा जी के उद्गार सुनने के बाद मैं बढ़ी पूनम जी की तरफ। शिवमू्र्ति जी बताते हैं कि जब उनकी दूसरी बेटी हुई, तब वे
गाँव के स्कूल में मास्टर थे। आमदनी कम थी और जिम्मदेदारियाँ ज्यादा। पूनम के जन्म के बाद जब किसी छात्र ने उनसे पूछा कि मास्टर साहब सुना है कि हमारी बहन आई है, तो उनका
चेहरा उतर गया। क्योंकि इस प्रसन्नता भरे उद्बोधन की प्रतिक्रिया में उनके मन में प्रसन्नता नही, अपितु एक उदासी
बन रही थी, इस बात
की कि दिन ओ दिन बढ़ती इन जिम्मेदारियों का निर्वाह वे इस अति न्यून आय में किस प्रकार कर पायेंगे।
शायद तब २
वर्ष की रही होंगी पूनम, जब उस
दिन शिवमूर्ति जी अपनी रेलवे वाली नौकरी से छुट्टी पर घर कुरंग आये थे। घर में आने पर देखा कि वो बच्ची फटी सी फ्रॉक पहने, हाथ में कटोरा पकड़े दाल चावल खा रही
है, अगल बगल कुछ मक्खियाँ भी भिनक रही थीं। ये वो दिन था जब उन्हे लगा कि अब जल्द ही कुछ और साधन, सुविधा जुटाना होगा।
पूनम
दन्त चिकित्सक हैं और उनके पति कॉर्डियक सर्जन और साथ ही दो प्यारे बच्चों सिद्धार्थ और श्रुति की माँ भी।
शिवमूर्ति
जी की बेटी होना, इन्हे अपने आप में
बड़े सौभाग्य की बात लगती है। अद्भुत लगती
है उन्हे
ये बात कि उनके पिता प्रशासनिक अधिकारी के साथ साथ कैसे एक साहित्यकार की भी भूमिका समानांतर स्तर पर निभा लेते हैं और कैसे उन्होने दोनो क्षेत्र में अपनी उच्चतम स्थिति बना रखी है।
पिता
हमेशा ही उनका सबसे प्रबल संबल रहे। उनके गुणावगुण पर चर्चा करने पर वे कहती हैं कि "अवगुण तो नही हैं, गुण ही गुण
हैं दोष तो होगा नही।“ पूनम जी की
आवाज़ और अंदाज़ दोनो ही आदर्श बोध कराते हुए थे। उन्होने क्रम जारी रखा “ यद्यपि उनकी पृष्ठभूमि गाँव से जुड़ी
है, इसके बावजूद उन्होने हमें कभी ये नही महसूस होने दिया कि हम लोग लड़की हैं, वे बहुत
ही ब्रॉड माइंडेड हैं, हम लोग
आज के समय के होते हुए भी अपने बच्चों को उतनी स्वतंत्रता नही दे सकते । लेकिन हमें उन्होने कभी नही रोका। इसके विपरीत हम लोग जो कि इतने आधुनिक समाज में रह रहे हैं, फिर भी हमें
लगता है कि अपने बच्चों को ऐसे नही छोड़ देना चाहिये, उन पर
निगारनी रखनी चाहिये, उन्हे अकेला कहीं भेजने के पहले
सौ बार सोचते हैं और हज़ार हिदायतें देते हैं। लेकिन हम लोगो के लड़की होने के बावज़ूद उन्होने कोई भी काम अकेले और खुद ही करने को प्रेरित किया। हम सब इतनी बहने थीं कि एक दूसरे का साथ देने के लिये चल सकती थीं, लेकिन तब वो
कहते कि जब तुम्हारा काम है़ तो उतनी देर के लिये उसका समय क्यों खराब करोगी। चाहे रात हो या दिन कोई भी समय हो उन्होने खुद पर निर्भर होना ही सिखाया।" मुझे लगा यहाँ ज्यादा खोज बीन अच्छी नही। एक आदर्श पुत्री जो अपने पिता के आदर्श रूप को ले कर मुग्ध है, उसे यूँ ही छोड़
देना चाहिये।
मैं
बढ़ती हूँ तीसरी पु्त्री की ओर । तीसरी पुत्री नीलम के जन्म के समय में वे अपने घर सुल्तानपुर में नही थे। पत्र के माध्यम से जब उन्हे तीसरी पुत्री के जन्म की की सूचमा मिली तो उस दिन उन्होने भोजन नही किया। उन्होने पत्र को छिपा कर रख दिया और अपना मन बदलने को बाहर निकल गये। चिंता इस बार भी यही थी कि जिम्मेदारियाँ दिन ओ दिन बढ़ रही थी और आय बढ़ने को कौन कहे पर्याप्त से भी बहुत कम थी।
छोटी
बहनों ने बताया कि सारी बहने आपस में एक दूसरे की ड्रेस पहन लेती थीं। रेखा और पूनम दीदी से ड्रेस पहनने की इज़ाज़त लेने पर, अगर उन्होने मना कर भी
दिया तो बहुत सारे चांसेज़ रहते थे कि उन्हे "दीदी प्लीज़" कह कर हाँ करवा लिया जायेगा। लेकिन नीलम दीदी को अगर हाँ कहना होगा, तो एक
ही बार में कह देंगी और अगर ना कह दिया तो फिर चाहे जितनी बार "दीदी प्लीऽऽऽज़" की अर्जियाँ भेजो उनका जवाब होता "ना मतलब ना"
नीलम जी ने
एमबीए और फैशन डिज़ायनिंग किया हुआ है, पति प्रशासनिक अधिकारी हैं और इस
समय वे अपना पूरा समय अपने बच्चे कुशाग्र को पढ़ाने और उसके व्यक्तित्व निर्माण को दे रही हैं।
"पिता क्या हैं उनके लिये ?" इस
प्रश्न के उत्तर में वो कहती हैं "जिंदगी में अगर मैं किसी को सबसे ज्यादा पसंद करती हूँ या किसी
की सबसे बड़ी प्रशंसक हूँ, तो वो
मेरे पिता ही हैं।"
"शिवमूर्ति जी का व्यक्तित्व एवं उनके गुणावगुण" पर चर्चा करने पर वे बड़े बेबाक तरीके से कहती हैं
कि " असल में पिता बचपन से ही लड़कियों के लिये हमेशा आदर्श रहते हैं। हमेशा लगता है कि जो पिता कर रहे हैं वही सही है। कुछ भी पूछा तो पापा बता देते थे तो लगता था "अरे कैसे इतना सब पता है पापा को " तो यही लगता रहा कि पापा ही सबसे बड़े हीरो हैं। ऐसे में एक पुत्री की जगह पर रह कर उनमें कोई अवगुण पाना मनोवैज्ञानिक रूप से संभव नही था। हाँ जब बड़े हुए, तो अपने
विचार बने, तब भले
लगा हो कि ये चीज ना होती पापा के स्वभाव में तो ठीक था, मगर वो बातें
बहुत ही कम रहीं और समय के साथ जैसे जैसे हम बड़े हुए, लुप्त भी हो
गईं।"
मैने बातें थोड़ा अंदर से निकलवाने
की गरज से दबाव सा बनाया "फिर भी एक गुण और एक अवगुण ?
"
पहले तो बहुत सेंसिटिव हैं। किसी की भी फीलिंग को, किसी के दुःख
को वो उस तरह समझ लेते हैं, जिस तरह शायद हम नही
समझ पाते हैं। जो पक्ष हम छोड़ देते हैं और सामान्य रूप से ले लेते हैं, उसे वो अलग
ही तरह से लेते हैं। उन्हे वो अलग ही तरह से समझ लेते हैं, उन्हे पता होता है कि
किसी को क्या ज़रूरत है, वो क्या
मिस कर रहा होगा, उन चीजों
के लिये और उसे इस बात के लिये कैसे मदद करनी है। असल में एक शब्द में कहे तो उनका व्यक्तित्व बहुत ही मददगार है।" बात जो मैं कहलाना चाहती थी, अब भी
कही नही गयी थी इसलिये मैने एक शब्द बढ़ाया "अवगुण ?"
“अवगुण....??? म्म्म्...??” कभी कभी मुझे लगता है कि पापा जो सोचते हैं या चाहते हैं, फाइनली
होता वही है। यद्यपि वो हम
लोगों से पूछ कर ही करते हैं, किसी भी काम
को कर ही लें ऐसा दबाव भी नही बनाते। लेकिन हर तरह से कुछ ऐसी सिचुएशन क्रिएट कर लेते हैं या इस तरह से काउंसिलिंग कर देते हैं कि अंत में होता वही है, जो पापा
चाहते हैं।“
मुझे
याद आया कि ऐसा ही कुछ तो रेखा जी ने भी कहा था।
" जिंदगी की एक घटना, जब पिता की बहुत आवश्यकता थी, मगर वे उपलब्ध नही थे ?
असल में कभी किसी चीज़ को इस तरह लिया ही नही कि उसको इस बात से रिलेट कर सकूँ। या
बिलकुल
घर कर गई हो वो बात। वैसे तो पापा एड्मीशन वगैरह के लिये या किसी भी काम के लिये हमारे साथ जाते ही नही थे। सबको आत्मनिर्भर बनाया, सबको खुद ही ड्राइव
करने को कहा, सिखाया। ऐसा रहा ही नही
कि वो कभी साथ में जायें। लेकिन वो चीज़ कभी इस तरह महसूस नही की हमने कि पापा नही कर रहे हैं या पापा क्यों नही आये साथ या पापा को करना चाहिये था या पापा को आना चाहिये था। ऐसा महसूस ही नही किया। बस ये महसूस किया कि मेरे पापा सबसे अलग हैं, जिन्होने हमें सामान्य लड़कियों से अधिक
छूट दे रखी है।"
और
अब बारी आती है शिवमूर्ति जी की चौथी बेटी श्वेता की। श्वेता, जिनके लिये ये भी
माना जा सकता है कि वे अपने साथ समृद्धि की बंद मुट्ठी भी ले कर आईं, जिसे आते ही खोल
लिया गया। लड़कियों के जन्म पर जिस प्रकार से ढिंढोरा पीट कर कहा जाता है कि " मुबारक़ हो, लक्ष्मी आई है” वो लक्ष्मी, शिवमूर्ति जी के
लिये श्वेता को माना जा सकता है, क्योंकि इन्ही के जन्म
के ठीक बाद शिवमू्र्ति जी ने प्रशासनिक अधिकारी के रूप में सेवाभार संभाला और भविष्य ये रहा कि अपने आगमन से पिता को प्रशासनिक अधिकारी बनाने वाली श्वेता खुद भी आगे चल कर प्रशासनिक अधिकारी ही बनी। संस्कृत से परास्नातक श्वेता स्वयं प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ साथ एक जज की अर्धांगिनी भी हैं।
श्वेता,
जिन्हें किसी ने बताया था कि बादल में भगवान रहते हैं और श्वेता देर तक उमा दीदी के साथ बादल को एकटक देखती रहतीं। कोई तो ऐसा क्षण होता होगा, जब अचानक
बादलो के बीच भगवान दिखाई देंगे और उनसे अपनी विश पूरी करा ली जाये...!!
श्वेता,
जिनके पास अनुभवों का भंडार है। उन्होने कहानियाँ लिखीं भले ना हो, लेकिन कहानियाँ सुनाने में वे कुशल
हैं। छोटी छोटी चीज़ों को पकड़ कर, उसको घटना के साथ
ले आना, वर्णन के साथ मुखाकृति को उसी के अनुरूप बना लेना, कुशल मिमिक्री के साथ
घटनाओं को विस्तार देना, सुनने वाले के सामने
उस घटना का पूरा पूरा दृश्य प्रस्तुत कर देता है।
श्वेता
को उनके पापा स्मिता पाटिल भी कहते हैं। शायद इसलिये क्योंकि श्वेता की मुस्कान बहुत सुंदर है। निश्छल सी श्वेता, बहुत सारा आदर्श ले कर
पिता के बारे में नही बताती। वे पिता के हर रूप पर पर चर्चा करती हैं। पिता कितनी ही बार उनका संबल बन के खड़े हुए हैं, तो पिता
का वो भी रूप उनकी स्मृति में है, जब वो
उनसे ठीक छोटी बहन मधूलिका के लिये ज्यादा उदार हो गये। अब तो समझ में आता है कि शायद इसलिये क्योंकि बचपन में मधूलिका अक्सर बीमार पड़ जाती थी। मगर तब ये समझ कहाँ थी। तब तो ये समझ में आता कि "हम क्यों नही बीमार पड़ते। बेबी बीमार पड़ती है तो उसकी सारी डिमांड पूरी हो जाती है।" और श्वेता के ही शब्दों मे कहें तो "रोते गाते एक बार हमें भी बुखार आया, तो हमें
लगा बस अब तो सारी मुराद पूरी और हमने मम्मी के सामने डिमांड रख दी "मम्मी हमें पारले जी ला दो" मम्मी को भी पता है ज़रा सा बुखार है उतर जायेगा उन्होने झिड़क कर कहा "बुखार आया नही कि डिमांड शुरू" ओहो फिर तो और भी दुःख। बाद में पूरा कॉर्टन आया पारले जी का हमारे लिये, लेकिन हम आज
भी कहते हैं कि मेरी डिमांड नही पूरी की मम्मी तुमने।"
एक
अन्य अनुभव में वो बताती हैं, शिवमूर्ति जी का
कहना था कि आठ घंटे की नींद पूरी होनी ही चाहिये। उन्होने बच्चों से कह रखा था कि "तुम लोग जब भी रात में जग के पढ़ाई करो, तो सोने
के पहले दरवाजे पर सोने का समय लिख कर चिपका दो। मैं उसमें आठ घंटे जोड़ कर जगाऊँगा तुम लोगों को।"
वे
नींद की कीमत जानते थे।
लेकिन
बच्चे तो बच्चे। उन्हे उतनी नींद भी कम पड़ती। श्वेता सोने में नंबर वन। वो सामने किताब खोल कर रख लेती और सो जातीं। जैसे ही मम्मी की चूड़ी की आवाज़ सुनाई देती, उठ कर
किताब देखने लगतीं। एक दिन यही क्रम चल रहा था। श्वेता सामने किताब रख कर सो गईं। उन्हे उठना तब था, जब मम्मी
की चूड़ी की आवाज़ आयेगी। इस बीच मधूलिका आईं, उन्होने सामने की किताब
हटाई और वहाँ कॉमिक्स रख दी। मम्मी की चूड़ी की आवाज़ सुनते ही प्रोग्राम्ड आँखें खुलीं और सामने की किताब को उठा कर आँख गड़ा दी। मम्मी ने देखा कि परीक्षा के समय में कॉमिक्स। और श्वेता की शामत...!!
वे
बताती हैं कि पापा और किसी बात के लिये चिंतित हो ना हों, मगर इस बात
के लिये हमेशा जागरुक रहते थे कि कहीं प्रशासनिक सेवा बेटियों के भीतर की समन्वयता खतम ना कर दे। वे हमेशा याद रखते कि कहीं बेटियों का तरीका घर पर आने वाले मातहतों के साथ गलत ना हो जाये। कभी एक बार श्वेता ने किसी ड्राइवर को तुम बोल दिया था। पापा एकदम नाराज़ हो गये “इस तरह
बात किया जाता है किसी से ?“ इस बात
का अंजाम है कि आज जज की पत्नी होने के बाद, उनके भी किसी
मातहत या अन्य से बात में वही आप और आइये, जाइये जैसे आदर सूचक शब्द शामिल हैं।
हर
बेटी की तरह शिवमूर्ति जी की संतान होना इनके लिये भी हमेशा गौरव का कारक रहा। पिता हमेशा बहुत बड़ा संबल भी रहे, मगर वो बताती
हैं कि शुरुआत में उनसे बाते मम्मी के माध्यम से होती थीं। थोड़े बड़े हुए तो लगा नही ऐसा भी नही है, हम खुद
भी अपनी बाते रख सकते हैं उनके सामने। बातों के बीच उन्होने चहक कर कहा "एक मजेदार बात आपसे शेयर करती हूँ कि जब हम बड़े हो रहे थे, तब वीसीआर
का चलन हो गया था, फिल्म देखने के लिये।
तो पिताजी से परमीशन लेने के लिये हमारी ये हिम्मत नही थी कि सीधे जा कर पूछ लें तो मैं और मेरी छोटी बहन एक कागज पर लिख कर परमीशन लेते थे कि "पापा आज वीसीआर मँगा लें ?" और पापा उस पर ही हाँ या ना, या फिर
ये कि सिर्फ दो फिल्में मँगाना या फिर पहले पढ़ाई पूरी कर लो, ऐसा लिख कर देते
थे।
ये तो
पूरी चिट्ठी लिखती थी "पापा प्लीज़ अगर मना करना होगा तो इसी पर मना कर दीजियेगा। मगर डाँटियेगा नही। हम लोग आज वीसीआर मँगाना चाह रहे हैं।" हम लोग वो चिट्ठी डायनिंग टेबल पर दे कर चले जाते थे।
इस संस्मरण
पर हँस लेने के बाद मैने उनसे पूछा कि शिवमूर्ति जी का व्यक्तित्व एवं उनके गुणावगुण क्या हैं आपकी नज़र में ?
शिवमूर्ति
जी के व्यक्तित्व पर चर्चा करने पर वो कहती हैं “व्यक्तित्व तो अद्भुत
है उनका, उसके कई कोंण
है। एक गुण जो सबसे बड़ा है, वो ये
कि वो अपने पराये के भेदभाव से परे, वो किसी
के लिये दयालु हो जाते हैं। वो किसी के भी दर्द को उतना ही समझते हैं, जितना अपने परिवार के। अवगुण अगर ढूँढ़ने ही लगूँ
तो ये कि कभी कभी नाराज़ होते हैं, तो एकदम
से और खूब नाराज़ हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि उन्हे कि अगर मैं ये बात समझा रहा हूँ, तो इस
व्यक्ति को कैसे समझ में नही आ रही।“
असल में वे खुद इतने समझदार हैं कि उन्हे लगता है कि अगर कोई नही समझ रहा तो ऐसा हो कैसे सकता है।
श्वेता से बात करना इसलिये भी अच्छा लगा कि उनके पास पुराने किस्से खूब थे। उन्होने बड़े मजेदार
तरीके
से इसे हमसे बाँटा। उन्होने बताया कि एक तारेश आंटी हुआ करती थीं, जो असल
में तारेश आंटी इसलिये थीं क्यों कि वो तारेश अंकल की पत्नी थीं। तो सभी अंकल लोग और पापा मिल कर शाम को उनके यहाँ चाय पीने जाया करते थे। असल बात ये थी कि वो तारेश अंकल से मिलने नही बल्कि तारेश आंटी को देखने जाते थे। क्योंकि आंटी बहुत सुंदर थीं।
श्वेता और
मधूलिका वनस्थली विद्यापीठ (राजस्थान)
में पढ़ती थीं। एक दिन शीवमूर्ति जी उनसे मिलने जाते हैं, उस समय
दोनो क्लास में होती हैं। मधूलिका पहले लौटीं और घर वापस चलने की ज़िद करने लगीं। शिवमूर्ति जी उन्हे ले कर लौट पड़ते हैं। श्वेता की एक्स्ट्रा क्लास चल रही थी, तभी उन्हे पता चला कि उनके
पापा आये हैं। क्लास खतम कर जैसे तैसे वे दौड़ती हाँफती पहुँची तो देखा ना पापा हैं ना बहन है। वो हर जगह ढूँढ़ती फिरती हैं बहन को। आखिर वार्डेन से मिल कर पूछती है, तो पता
उनका जवाब होता है "बेटा तुम्हारे पापा तो गये।" बहुत हर्ट होती हैं वो। उन्हे लगता है "पापा कुछ भी करते,लेकिन कम से
कम मुझे बता तो देना था।" दो तीन दिन बस रोना और यही सोच "मुझे बताया तक नही, कम से कम बताना तो चाहिये था।" फिर खूब भावुकता के साथ लिखी जाती है चिट्ठी पापा को "जल्दी से जल्दी आ कर मिल लीजिये।" पापा चिट्ठी पाते ही चल देते हैं, वनस्थली की ओर। लेकिन उन्हें अपने सरकारी काम से शाम तक वापस भी लौटना है। उधर आज फिर श्वेता के एक्सट्रा क्लासेज़ होते हैं। जब छूटती हैं, तो पता चला पापा तो फिर चले गये। वो भागते हुए बस स्टॉप पहुँचती हैं। देखा तो बस चल चुकी थी। पापा ने उन्हे देखते ही कहा "हाँ बताओ भईया" उन्होने चुपचाप खिड़की से उन्हे एक और चिट्ठी चलती बस में पकड़ा दी, जिसमें लिखा था "पापा आप अगर मुझे घर नही ले गये तो मैं कुँएं मे कूद के जान दे दूँगी।" वो वहीं खड़ी थी और बस चल दी। पापा ने खिड़की से झाँक कर तेज आवाज में पूछा कुँआ ज्यादा गहरा तो नही है बेटा। फिर मुस्कुराते हुए बस से उतर के आये और कहा तुम ठीक से रहो। "जान बड़ी कीमती चीज़ है। उसे ऐसे ही गँवाने की मत सोचो, परीक्षाएं हो जायें तो मैं फिर आऊँगा और ले चलूँगा तुम्हे।"
कभी ऐसा भी हुआ
क्या कि जब लगा हो कि आज तो पिता जी को मेरा साथ देना ही चाहिये था और उन्होने नही दिया। श्वेता के पास इस प्रश्न का भी उत्तर झट पट मौजूद था। वो बड़ी सादाबयानी के अंदाज़ में बताती है। "मैने हाईस्कूला काफी अच्छे अंको से पास किया था और मेरा मन एक विशिष्ट कालेज में प्रवेश लेने का था। मैने पापा से कहा
तो उन्होने कहा कि खुद कर के देखो, जो हो
जाता है कर लो। तब मुझे बड़ा अफसोस हुआ कि पापा चाहते तो तुरंत हो जाता एड्मीशन और आखिर मैंने फिर दूसरे कॉलेज में लिया एड्मीशन। उस समय तो बहुत बुरा लगा, लेकिन हाँ अब लगता
है कि+ इतने सारे बच्चों के साथ
वे एक साथ कैसे हो सकते थे, फिर प्रशासनिक अधिकारी होने की एक
अलग तरीके की जिम्मेदारी भी थी उनकी।
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