Tuesday, May 19, 2015

यह मलिन स्वच्छ्ता

दौड़ती,भागती,
हाथ से छूटती उम्र के व्यस्ततम पलों में,
अचानक आता है तुम्हारा ज़िक्र...!
और मैं हो जाती हूँ 20 साल की युवती।
मन में उठती है इच्छा,
 "काश ! तुम फिर से आ जाते ज़िन्दगी में,
 अपनी सारी दीवानगी के साथ "

और इस तपते कमरे के चारों ओर
 लग जाती है यकबयक खस की टाट।
और उससे हो कर आने लगते हैं,
 सुगन्धित ठंढे छीटे।

तमाम सफेद षडयन्त्रों के बीच,
तुम्हारी याद का काला साया...

आह !
कितनी स्वच्छ है ये मलिनता।

Wednesday, May 13, 2015

अम्मा की अवधी कविता 'अवधि'



अम्मा की शादी 1953 में हुई थी. अम्मा उस समय अध्यापिका थीं और बाबूजी विद्यार्थी. शादी की प्रक्रिया कम रोचक नहीं. लेकिन फ़िलहाल बात दूसरी. वह यह कि शादी के 1 या दो महीने बाद अम्मा मायके आ गयीं और उसके एक या दो महीने बाद  उन्हें फिर से ससुराल जाना था. उस समय ससुराल वापस जाना कितना कष्टप्रद था, उस पीड़ा को अम्मा ने जिस तरह छन्दबद्ध किया वह देखिये:

अवधि के दिन अब निकट ही आय रहे,
सोचि, सोचि हरदम ही जिया घबरात है.
एक और चिंता बाटे, सबसे अलग होबे,
ओसे ज्यादा चिंता ओहि जेल की ही लाग है.
आदमी को कौन कहे, धूप हवा नाहिं मिले,
एक बंद कोठरी ही दुनियाँ हमार है.
सोचि-सोचि काम करी सबका डेरात रही,
तौन्यो पे लाग रहत एक-एक दोष है.
ईश्वर से बिनती हमार दिन रात यही,
छूटि जात वह जेल है.