Friday, January 30, 2009

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान ए गज़ल

सब से पहले तो एक विनती कि यदि आप अभी जल्दी में हैं तो अभी इस पोस्ट को पढ़ने और गीत को सुनने का काम ना करे। ये एक ऐसी क़व्वाली है जिससे मैं पारिवारिक रूप से जुड़ी हूँ। मेरी और मेरे दोनो भईया लोगो की बहुत पसंदीदा कव्वाली इस को हम सब सपरिवार सुनते थे। फिर भतीजों को भी उतनी ही पसंद। असलम साबरी द्वारा गाई इस क़व्वाली को मै कितने दिनो से तलाश रही थी। कभी भइया स्टेशन पर से ये कैसेट ले आये थे। आनलाइन की तो बात ही छोड़ दें कैसेट भी दोबारा नही मिल रहा था साझे का कैसेट कभी मै ले आती कभी कोई ले जाता। इसी कव्वाली के इस शेर की समीक्षा के बाद मैं गज़ल सुनने के लायक समझी गई थी :)

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर!

ऐसे में इस गज़ल को भेजा मेरे दिल्ली में एमबीए कर रहे भतीजे आशीष ने। रेडीफमेल के इस लिंक को डॉउनलोड करने का आप्शन नही था। मैने हमेशा की तरह मनीष जी का आनलाइन आवाहन किया और समाधान पूँछा। उन्होने रिकॉर्ड कर के मुझे mp3 वर्ज़न भेजा। अब समस्या थी कि कब पूरे ४ घंटे का समय निकाला जाये और इस को टाइप किया जाये। इसके उर्दू शब्दो की मीनिंग तलाशी जाये और अपलोड किया जाये। पूरे ४ घंटों की मेहनत के बाद ये सारा काम हो पाया है। १९ मिनट की ये कव्वाली पूरी की पूरी उस प्रारूप में नही है, जिसमें हमारे कैसेट में है। अब लग रहा है कि यदि पूरी कव्वाली होती तो शायद ४० मिनट की होती, पता नही तब अपलोड कैसे होती और लिखी कैसे जाती सब की छोड़ो मेरे मित्र सुनते कब...???? लेकिन मेरा मन रखने की खातिर ही सही सुनियेगा पूरा इसे...!कुछ शब्दों के अर्थ नही मिल पाये हैं, जैसे जैसे मिलेंगे मैं अपडेट करती रहूँगी



कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी,
यूँ कोई बेवफा नही होता,
जी बहुत चाहता है सच बोलें,
क्या करें हौसला नही होता।
अपना दिल भी टटोल कर देखो,
फासला बेवजह नही होता।

एक इमारत लब-ए-जमुना,
वही अंदाज़-ओ-अदा,
मुगलिया दौर की गम्माज़ नज़र आती है,
जब भी महताब की हलकी सी किरन पड़ती है,
ताज़ की शक्ल में मुमताज़ नज़र आती है।

रात तेरी नही, रात मेरी नही,
जिसने आँखों में काटी वही पायेगा।
कोई कुछ भी कहे और मैं चुप रहूँ,
ये सलीका मुझे जाने कब आयेगा।

क्या यूँ ही कल भी मेरे घर में अंधेरा होगा,
रात के बाद सुना है कि सवेरा होगा
आज जो लमहा मिला, प्यार की बातें कर ले,
वक्त बेरहम है कल तेरा न मेरा होगा।

चाँद जैसा बदन, फूल सा पैरहम,
जाने कितने दिलो पे गज़ब ढायेगा,
आजकल तू कयामत से कुछ कम नही,
जो भी देखेगा दीवाना हो जायेगा
लेकिन जान-एमन,

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल


जो मेरे शहर में कुछ रोशनी लाये होंगे,
उन चरागों ने कई घर भी जलाये होंगे
हाथ उनके भी यकीनन हुए होंगे ज़ख्मी,
जिसने राहों में मेरी काँटे बिछाये होंगे

एक आशिक ने रात पिछली पहर,
अपने महबूब के ना आने पर,
कर दिये ताज महल के टुकड़े,
आब-ए-जमुना में फेंक कर पत्थर,

भीग जाती हैं जो पलके कभी तनहाई में,
काँप उठता हूँ मेरा दर्द कोई जान ना ले,
यूँ भी डरता हूँ कि ऐसे में अचानक कोई,
मेरी आँखों में तुम्हे देख के पहचान न ले


एक सब्र है इसके सिवा कुछ पास नही है,
बरबाद ए तमन्नाओं का एहसास नही है,
कमज़र्फ नही हूँ कि जो मैं माँग के पी लूँ,
और ये भी नही है कि मुझे प्यास नही है।

हर सनमसाज़ ने पत्थर पे तराशा तुझको,
पर वो पिघली हुई रफ्तार कहाँ से लाता,
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पिन्हा दी लेकिन,
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता?

चाँदी जैसा रंग है तेरा,
सोने जैसे बाल.
एक तू ही धनवान है गोरी,
बाकी सब कंगाल कि गोरी बाकी सब कंगाल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

सोज़ में तू है, साज़ में तू है,
मेरे जीने का राज़ भी तू है,
सारी दुनिया में नूर तेरा है,
तेरे बिन हर तरफ अंधेरा है।
दिल तेरा और धड़कने तेरी,
तू ही कुल कायनात है मेरी,
एक एक जाम जुस्तजू तेरी
एक एक साँस आरजू तेरी
चाँद छुपता है शर्म के मारे
तेरी राहों की धूल हैं तारे,
ये तख़ल्लुल नही हक़ीकत है,
तेरा कूचा नही है जन्नत है
एक मुसव्विर का शाहकार है तू,
चश्म ए नरगिस का इन्तज़ार है तू
रंग भी तू है राग भी तू है,
फूल भी तू है खार भी तू है।
ज़ीस्त की वारदात कुछ भी नही,
तू नही तो हयात कुछ भी नही,
साँस लेन तो एक बहाना है,
जिंदगानी तेरा ठिकाना है।
ये शबाब और ये जमाल कहाँ,
इस जहाँ में तेरी मिसाल कहाँ,

पर लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल,
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

अये ज़फर के शऊर की मलिका,
हुस्न की मय ना इस तरह छलका
थे पुजारी तेरे फिराक़-ओ-मजाल
तेरे शाइदा थे क़तील-ओ-फराज़,
तेरे सौदाई हैं शमीम-ओ-खुमार
उफ्फ् तेरा हुस्न, उफ्फ् तेरा सिंगार
तू कि खय्याम की रुबाई है,
एक छलकती हुई सुराही है
तू कि आतिश के दिल का शोला है,
और नासिर के फन का ज़लवा है
मिर्ज़ा सौदा का तू क़सीदा है,
और यगाना का तू क़ाबा है।
तू है इंशा के खाब की ताबीर,
और है मुश-हक़ी का हुस्न-ए-ज़मीर
तुझसे थी तानसेन की हर तान,
तुझपे बैजू भी दिल से था क़ुरबान,
तू है ग़ालिब का ज़ौक-ए-ला फानी
और मोमिन की तर्ज़-ए-वज़दानी
ज़ौक के फन की आबरू तू है,
दाग़ के दिल की आरज़ू तू है,
जोश ने तुझको प्यार से पूजा
और ज़िगर ने तुझे सलाम किया,
जितने फनकार बेनज़ीर हुए,
तेरी ज़ुल्फों के सब असीर हुए,

पर लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तुझको अल्लाह ने बक्शा है जो ये हुस्नो अदा,
पेश करते हैं तुझे सब ही मोहब्बत का क़िरा
और दिलबवालो की दुनिया में है बस तेरा ही राज
तेरी मस्ताना किरामी पे बहारें कुर्बाँ
तेरी आँचल की परस्तार है मौज-ए-तूफाँ,
तुझपे होता है किसी हूर के पैकर गुमाँ,
तेरे जज़्बात की कीमत नही समझेगा कोई,
तेरा क़िरदार-ए-शराफत नही समझेगा कोई,
मैं तेरे प्यार को रुस्वा नही होने दूँगा,
तेरे साये को भी मैला नही होने दूँगा,
यूँ सर‍‍-ए-राह तमाशा नही होने दूँगा,
मान बिस्मिल का कहा अपने इरादे तू बदल,

लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

तू किसी और की, जागीर है ऐ जान-ए-गज़ल,
लोग तूफान उठा लेंगे मेरे साथ न चल

हया अदा आई, गूरूर आया हिज़ाब आया,

ना आना था जिसे वो आ गई पर वो नही आई,
...............जाम ओ जुनूँ सब है (ये लाईन मुझे कम समझ आई )
लो वो काली घटा भी आ गई पर वो नही आई,
तुम्हारे वादा-ए-फरहा से जिसकी शान कायम थी,
लो वो सुबह ए कयामत आ गई पर वो नही आई,

हया अदा आई, गूरूर आया हिज़ाब आया,
हजारों आफतें ले कर हसीनो पर शवाब आया,
जो तुम आये तो नींद आई, जो नींद आई तो ख्वाब आया,
मगर तेरी जुदाई में ना नींद आई ना ख्वाब आया

कल मिला वक़्त तो जुल्फें तेरी सुलझा लूँगा,
आज उलझा हूँ ज़रा वक्त को सुलझाने में
यूं तो पल भर में सुलझ जाती हैउलझी जुल्फें,
उम्र कट जाती है पर वक्त के सुलझाने मे,

कोई हँसे तो तुझे गम लगे हँसी न लगे,
तू रोज़ रोया करे उठ के चाँद रातों में,
खुदा करे कि तेरा मेरे बगैर मन न लगे

जब तुम्हे जाना ही था तो क्यों लिया आने का नाम
जान दे दूँगा जो तूने फिर लिया जाने का नाम
अये मेरी जान ए गज़ल
अये मेरी जान ए गज़ल


गम्माज़ -सूचक
जुस्तजू-जुस्तजू
खार-काँटा
ज़ीस्त-जिंदगी
बेनज़ीर-अनुपम
असीर-कैदी
जमाल- खूबसूरती
ज़मीर-विवेक




Thursday, January 22, 2009

पुस्तक एडविना और नेहरू के बहाने गाँधी विमर्श



बहुत दिनो से ये पोस्ट लिखनी थी, लेकिन आज लिख ही गई इस लिये क्योंकि डॉ० अनुराग की पोस्ट पढ़ने के बाद इस किताब का बहुत कुछ अलिखित समझ में आया.....! चार दिन के वैचारिक उथलपुथल के बाद आज ये पोस्ट लिखने को मजबूर हूँ। अनुराग जी की पोस्ट पर कमेंट नही दिया, कारण कविता जी की तरह मैं भी भीरु प्रवृत्ति की हूँ, विवादो से बचना चाहती हूँ, अधिकतर बच के ही निकल जाना चाहती हूँ। जिंदगी में भी। लेकिन कोई चीज आप में चार दिन से बार बार कौंध जाती है और आप उससे फिर से बच निकलने की कोशिश करते हैं, तो ये अवॉइड करना नही शायद पलायनवादिता है।




१९९६ में राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित कैथरीन क्लैमा द्वारा लिखी गई इस पुस्तक का अनुवाद निर्मला जैन द्वारा किया गया है। ४४२ पन्नो की इस किताब में एडविना और नेहरू के किस्से तो लगभग २०० पन्नो के बाद आये हैं...! शुरुआत में तो उस समय के भारत के विषय में ही जानकारी मिली। उस समय का सामाजिक परिवेश। उस समय के लोगो की वैचारिक स्थिति। कुछ दिनो के लिये उस दौर को जीने लगी थी मै। बहुत सी बाते नयी थी मेरे लिये। जैसे कि भारत कोकिला सरोजिनी नायडू का जिन्ना के प्रति soft corner रखना। सरोजिनी नायडू की पुत्री पद्मजा नायडू का जवाहर लाल नेहरु के साथ प्रणय। कट्टर पंथी जिन्ना की पत्नी का पारसी होना तथा पुत्री के पारसी हमसफर को चुनने पर जिन्ना का उसको त्याग देना। नेहरू और पटेल का इस हद तक एक दूसरे का विरोधी होना। और वहीं थोड़ा सा हिंट हुआ था मनु और गाँधी के बारे मे, जिसे पढ़ने के बाद मेरे मन में आया कि कैसे इस तरह की सोच विकसित कर लेते हैं, एक मर्यादित और महान पुरुष के लिये उसकी ही पोती के विषय में सोचना वाक़ई मेरे लिये असंभव था।




पुस्तक शुरू होती है १४ फरवरी १९२२ से, दृश्य कारागार का होता है और इसी दृश्य से मोतीलाल नेहरू के माध्यम से संगठन के आपसी वैमनस्य का पता चलता है मोतीलाल नेहरू के इस वाक्य से



"हमारा महात्मा पागल हो गया है, उसने हमारा वह आंदोलन तो रद्द कर ही दिया, तिस पर वो तुम्हे बहाने भेजता है।"



नेहरू इस वाक्य से द्रवित होते है, मुख से कुछ न कह कर मन में बहुत कुछ सोचते है,जिसमें उनका राजसी ठाठ छोड़ कर, गृहस्थ जीवन समाप्त कर के इस आंदोलन में कूदने के बाद क्या खोया क्या पाया का मंथन चलता है।




इसके बाद नेहरू और एडविना की पहली मुलाकात होती है जबकि एडविना की उम्र ३९ वर्ष एवं नेहरू की ५३ वर्ष है, ये मुलाकात होती है १९४२ में सिगापुर के कान्फ्रेंस में जहाँ एडविना भीड़ में फँस जाती है, और नेहरू के द्वारा बचाई जाती हैं। एक आम मुलाकात love at first sight बिलकुल नही। शनैः शनैः अनुभवों के साथ बढ़ने वाला परिपक्व प्रेम। जो कि कैथरीन क्लैमा द्वारा तो प्लैटोनिक ही दर्शाया गया है। अन्य लेखकों का भी यही विचार है। दोनो के बीच समझ १९४७ के बाद से पनपती है। जब माउंटबेटेन भारत आते हैं।



लॉर्ड माउंटबेटेन अपने कर्तव्यों मे फँसे इस प्रकार के व्यक्ति दिखाये गये है, जो कि अपने कार्यों के चलते अपनी पत्नी को ले कर बिलकुल भी possesive नही है। जो कि शायद एडविना को एक स्त्री के रूप में भटकाता रहता है। जो attention उन्हे पति से नही मिलता, वो अन्य स्थानो पर पाने से वो उधर खिंचती है। इस तरह नेहरू के पहले एडविना के पास पुरुष मित्रों की एक लंबी सूची है और नेहरू भी कुछ इसी रूप में विख्यात हैं। पद्मजा नायडू और उनकी मित्रता का ज़िक्र इस सिलसिले में कई बार आया है।





पता नही एक भारतीय होने के कारण पूर्वाग्रह या क्या ? मुझे पुस्तक में नेहरू और डिकी (लॉर्ड माउंटबेटेन) एडविना से अधिक आकर्षक लगे। ऐसा लगा कि वो नेहरू का व्यक्तित्व था जिस के कारण एडविना फिर कहीँ न जुड़ सकीं और डिकी का एक पति के रूप में सहयोग थाजो ये संबंध पल्लवित हो सके। अपनी बड़ी पुत्री को पत्र लिखते समय डिकी ने उसे लिखा भी है कि एडविना का स्वाभाव आश्चर्यजनक तरीके से बहुत मृदुल हो गया है, नेहरू से मिल कर और वे पारिवारिक माहौल को सुखद बनाने के लिये इस रिश्ते को अधिक से अधिक सहयोग दे रहे हैं। परंतु एडविना कभी कभी मुझे समझ में नही आईं। नेहरू के साथ मानसिक स्नेह रखने और डिकी के सहयोग पूर्ण रवैये के बावज़ूद वे डिकी की महिला मित्र के आने पर अपना वो व्यवहार संतुलित नही रख पातीं। पद्मजा से भी उनका व्यवहार सहज नही है। परंतु एक चीज जो मुझे लगी इस किताब के माध्यम से कि एडविना समाज सेवा के प्रति मन से समर्पित हैं। वो चाहे विश्व युद्ध हो या बँटवारे की त्रासदी एडविना ने अपने स्वास्थ्य और शरीर की चिंता न करते हुए प्रभावित लोगो की सेवा की और उतने दिन कोई भी भाव उन पर शासन नही करता शिवाय सेवा और समर्पण के।




एक सहज एवं मर्यादित प्रेम के रूप में इस कथा पर उँगली उठाने जैसा कुछ भी नही लगा मुझे। ६० वर्ष की अवस्था में एडविना की मृत्यु के ठीक पूर्व नेहरू को उनके पत्रों द्वारा याद करना और एडविना के शव के बगल में बिस्तर पर बिखरे हुए नेहरू के पत्रों का पाया जाना सचमुच मन को आर्द्र करता है।



गाँधी जी के चरित्र के विषय में भी इसमें काफी कुछ सोचने को मिलता है। सबसे पहले जब मैं इस किताब द्वारा गाँधी जी के विषय में कुछ सोचने को मजबूर होती हूँ, वो है कस्तूरबा का मृत्यु शैय्या पर पड़ा होना और डॉक्टरों के अत्यधिक निवेदन के बाद भी गाँधी जी का उन्हे इंजेक्शन ना लगाने देने की हठ और परिणाम स्वरूप कस्तूरबा की मृत्यु। गाँधी जी ने कस्तूरबा को इंजेक्शन नही लगने दिया क्यों कि ये प्राकृतिक नही था। बाद में उन्होने डाक्टरों से कहा कि उनकी ये मृत्यु उत्तम मृत्यु थी क्योंकि



"हम लोग ६२ साल साथ इकट्ठे रहे और उन्होने मेरे शरीर में दम तोड़ दिया, इससे बेहतर बात और क्या हो सकती है" गाँधी जैसा विचारक क्या स्त्री की मौत को सौभाग्य और वैधव्य से जोड़ कर देख सकता है ? मुझे सोचना पड़ा ? फिर तो कौशल्या,कुंती, दुर्गा भाभी, इंदिरा गाँधी बहुत ही अभागन थीं। पति की मृत्यु के बाद इतने दिनो तक जीना........!



और अब अनुराग जी की पोस्ट के बाद सोचना पड़ रहा है कि इंजेक्शन लगाना अप्राकृतिक था तो क्या छोटी छोटी बच्चियों के साथ किया गया वो प्रयोग प्राकृतिक था। इससे पहले पढ़े गये सारे वृतांत याद आने लगे। गाँधी जी के आश्रम में किन्ही दो के बीच पनपे प्रेम को अवैध करार दे कर उन्हे आश्रम से निकाल देना। बा से उनका सहयोग पूर्ण नही बल्कि मालिकाना व्यवहार। मैला उठाने पर मना करने पर बा से सालों कोई संबंध न रखना। क्या पत्नी के प्रति उनकी दार्शनिकता में थोड़ी खोट नही दर्शाता। इसी पुस्तक में जब गाँधी मनु के साथ एडविना से मिलने आते हैं तो एडविना गौर करती है कि मनु बगीचे में हर कदम बड़ी सावधानी से, भयभीत सी रख रही है और उसमें बाल सुलभ प्रवृत्ति समाप्त हो चुकी है लेकिन एडविना गाँधी के विषय में कुछ भी बुरा नही सोचना चाहती।




अनुराग जी की पोस्ट में लिखी बातों को कोई झूठा नही कह रहा बल्कि बासी सच कह रहा है। परंतु मेरे लिये तो ताजा है। मैने अपने गिर्द जिनसे भी चर्चा की, उन सब के लिये ताजा है।




एक आम सकारात्मक भारतीय की तरह मैं भी बापू को राम कृष्ण के बाद का स्थान देती हूँ। लेकिन इसका ये मतलब नही कि दुनिया को रामराज देने वाले राम को सीता को वनवास देने के पाप से बरी कर दिया जायेगा। तुलसी दास मेरे बड़े प्रिय कवि हैं, लेकिन रामराज्य के बाद रामचरितमानस को समाप्त कर देना, यही तो बताता है कि हम अपने आराध्य की कमियाँ जानते हुए भी उनकी चर्चा नही करना चाहते।



राम मेरे पूज्य हैं, उनका आदर्श, उनकी मातृ पितृ भक्ति साधुजनो की रक्षा के लिये उनका धनुर्धारी व्यक्तित्व, शबर, निषाद, कोल, भील, वानर, रीछ जैसी पिछड़ी जातियों और आदिवासियों को गले लगा कर उन्हे मुख्य धारा में लाना मेरे लिये एक युगप्रवर्तक छवि बनाता है.... परंतु जिस सीता के खेत में मिलने के कारण उनके जाति पर लगे प्रश्नचिन्ह की अवहेलना करके अपनाया, जिसके लिये तीनो लोक से युद्ध लिया और ग्रहण के पूर्व परीक्षित भी किया उसे लोगो के कहने से वनवास देना, तब जब वो गर्भ से हो..नही ये तो गलत ही था..क्यों किया उन्होने ऐसा, स्वयं को सर्वोत्तम और न्यायप्रिय बताने के लिये ही ना।



युधिष्ठिर सत्यप्रिय और न्यायप्रिय राजा थे...निस्संदेह थे...! परंतु वस्तु की भाँति द्रोपदी को दाँव पर लगाने के लिये क्या उन्हे क्षमा किया जा सका..??



अपनी गलतियों को स्वीकार कर लेना बहुत बड़ा काम है...! बड़ी हिम्मत का काम...!! मुझमे तो नही है वो हिम्मत...!!! लेकिन सच स्वीकार कर लेने से पाप कम तो नही हो जाते ना...! कन्फेसिंग के बाद क्षमा ये आयातित संस्कृति का भाग है (कृपया कोई भी इसे धार्मिक टिप्पणी ना समझे, मेरे लिये सभी धर्म सम्माननीय हैं) परंतु भारत में जब दशरथ ने भूल से श्रवण कुमार को मारा, तो भी पुत्र शोक में जान गँवानी पड़ी, रावण ने भुल से ब्राह्मणों को मांस परोसा तो भी उसे राक्षस कुल में जन्म लेना पड़ा, राम ने धर्म हेतु बालि को छुप कर बहेलिये की भाँति मारा, परंतु अगले जन्म में बहेलिये के द्वारा ही मरना पड़ा, कृष्ण ने धर्म हेतु गांधारी के सौ पुत्रों को मारा लेकिन अपना कुल गँवाना पड़ा। पाप को स्वीकार करना हिम्मत का काम है, लेकिन इससे पीड़ित को न्याय नही मिलता।



गाँधी जी की एक आवाज पर पूरा राष्ट्र एकजुट हो जाता था। राष्ट्र को जिस मानसिक चेतना की ज़रूरत थी, उस नब्ज़ को उन्होने पकड़ा, राष्ट्र का हर व्यक्ति स्वतंत्रता हेतु आंदोलन में शामिल हुआ। जन क्रांति लाने वाले गाँधी ही थे। उनका ये रूप मेरे लिये पूज्य है। हर भारतवासी की तरह मैं स्वतंत्र हवा में साँस लेने हेतु उनकी ‌ॠणी हूँ, लेकिन अपनी आत्मा के विकास के लिये अपनी ही पोती का एक object के रूप में प्रयोग, मेरी नज़र में गाँधी को कटघरे में खड़ा करता है। १३ और १६ ये कोई उम्र होती है। फिर उम्र कोई भी हो किसी के महात्मा बनने के लिये किसी का कुचला जाना.....! ये तो बलि है...! नर बलि...! अहिंसा नही...!



Friday, January 9, 2009

जब कंचन में जड़ा पुखराज


पारुल जिसे मैने सखी का नाम इसलिये दिया है क्यों कि वो जो भी लिखती हैं, वो जैसे मेरे मन से निकला हुआ होता है। सारी कविताएं, सारे गीत और सारी पसंद याद नही कि कब मेरे पसंद में ना आया हो। मनीष जी की मित्र सूची में वो बहुत दिन से दिखाई देती थीं। धीरे धीरे जब उनकी कविताओं द्वारा उनको पहचान लिया, तो फिर उनसे बत करने का मन हुआ। आर्कुट पर स्क्रैप्स के माध्यम से हुई बातचीत से पता चला कि उन्होने पढ़ाई हमारे कानपुर से की है और जिस संगीत की कक्षा की मैं पिछड़ी छात्रा हूँ उसकी वो ब्रिलियेंट स्कॉलर हैं। कविता का भी कुछ वही हाल हैं। उनकी गुलज़ारिन स्टाईल भी मेरे लिये अप्राप्य ही है।

तो ऐसे शख्स को सखी का नाम दे कर खुद को गर्व महसूस होता है, वैसे पारुल की तरफ से कभी ऐसी कोई सहमति नही जतायी गई है :) !

पारुल से मैं पिछली गर्मियों में मिलते मिलते रह गई थी। इस बार भी कुछ ऐसा ही लग रहा था। कि शायद मिलना नही हो पायेगा। चूँकि सर्दी मेरे लिये बहुत कष्टकर होती है। इसके आफ्टर एफेक्ट्स भी अब तक परेशान करने लगते हैं...! जिस कोहरे की सुबह को पारुल जैसे पठारी लोग रूमानी महसूस करते हैं, वो हमारे जैसे लोगो के लिये लोगो के लिये डरावनी होती है। मेरे पैरों में ब्लड सर्क्यूलेशन कम होने के कारण शायद मेरे पैर हमेशा ही सर्द बने रहते हैं। उस पर सुबह सुबह आफिस जाना ही मेरे लिये बड़ा समस्या प्रद होता है, तो कानपुर जाना तो बहुत ही मुश्किल हो रहा था।

खैर ना ना होते होते अचानक उस सुबह पारुल का फोन आ ही गया, जब मैं बिस्तर से बिलकुल उठी ही थी (शनिवारीय अवकाश होने के कारण ११ बजे) और पारूल ने बताया कि वे लखनऊ आ चुकी हैं और शायद तीन बजे तक मुझसे मिलने का कार्यक्रम हो।

मैं और मेरी छोटी दीदी २ कि०मी० की दूरी पर रहते हैं (पिछले डेढ़ सालों से मै इधर रहती हूँ, अन्यथा मैं लखनऊ आने के बाद साढ़े ४ साल तक उन्ही के साथ रहती थी) और बाइकों के चलते ये दूरी कुछ नही रह जाती, दिन में कई बार आना जाना होता रहता है। पारुल के फोन के समय बिटिया सौम्या अपने कोचिंग से लौटते समय अटेंडेंस लगाने आई थी। पारुल मौसी के आने की खबर सुनते ही उन्होने " हम भी मिलेंगे मौसी ! पारुल मौसी से।" का डायलॉग दिया, चूँकि पारुल का ब्लॉग उनके लिये परिचित था और उनकी काविता के साथ साथ आवाज़ की वो भी मुरीद थीं। मैने कहा "जब आयेंगी तब आ जाना" और सौम्या जी ने घर पहुँचते ही न्यूज़ रिले कर दी कि पारुल मौसी आ रही हैं। घर से बड़ी बिटिया नेहा (बड़ी दीदी की बेटी) का फोन आ गया आप तो कह रही थी कि हमसे मिलवाएंगी। हमने उनसे भी पहले वाला डायलॉग दोहरा दिया। अब पारुल से मिलने के लिये सब तैयार और पारुल थीं कि अपना फोन अलग कमरे में रख कर खुद अलग कमरे में बैठी थीं।

मैने उनका लोकेशन लेने के लिये फोन करना शुरू किया तो कोई रिस्पॉंस नही। मुझे लगा कि शायद किसी समस्या में पड़ जाने के कारण मिल नही पायेंगी और अब ये बात कहते संकोच हो रहा है। घर से फोन पर फोन...! मेरे पास कोई जवाब नही..! और अचानक ५ बजे पारुल का फोन आता है कि हम इंदिरानगर के लिये मूव कर चुके हैं। हाथ मे पकड़ा चाय का प्याला जहाँ का तहाँ छोड़ कर बच्चो को फोन किया। पारुल मासी आ रही हैं १० मिनट में पहुँच जाओ। बच्चे हड़बड़ाये " अरे मौसी अब हम सब तो समझे कि प्रोग्राम कैंसिल, अब चेंज कर के आना है तो १० मिनट में कैसे...! " "मत मिलो, अगली बार मिलना" का मेरा हड़बड़ी का जवाब। लेकिन मेरी कूल कूल दीदी के पास वैसे भी हर समस्या का समाधान रहता हैं। उन्होने कहा कि ऐसा है, तुम खुद यहीं आ जाओ और पारुल को भी ले आओ " हम्म्म्म्...! क्या आइडिया है...!!!!! सब फिर खुश...!"

पारुल को निश्चित जगह पर आने को कह कर मैने पिंकू को भेजा, जो मनीष जी को भी लाने मे भेजे गये थे। और मनीष जी के चिट्ठे में लगी फोटो के सौजन्य से पारुल को उन्हे पहचानने में कोई समस्या नही हुई।

और पारुल पधारी हमारे घर, अपने पति और बेटों के साथ। जैसा कि होता ही है, बड़ा छोटे की अपेक्षा गंभीर और छोटा संभलते संभलते भी चंचल। १० मिनट के लिये आई पारुल शायद आधे घंटे रुकी होंगी। लेकिन वो २ ही मिनट जैसा लगा। अभी तो पारुल से गीत सुनने थे, बच्चों से बाते करनी थीं। (अब डायरेक्टली जीजाजी का नाम कैसे लें जिनसे हम को पारुल ने बात ही नही करने दी :)..! और वो जाना है, जाना है कहते हुए जाने लगीं।हमारी आत्मा कह रही थी

अभी आये, अभी बैठे, अभी दामन संभाला है,
तुम्हारी जाऊँ जाऊँ ने मेरा तो दम निकाला है। :( :(

लेकिन कोहरा सच में बहुत ज्यादा था, हम रोकने की ज़िद करने में भी असमर्थ थे।

बहरहाल दीदी और बच्चे सभी खुश थे पारुल से मिल कर...और मैं.....??? भला अपनी चीज़ की तारीफ सुन कर कौन नही खुश होता, जिसे आप ने चुना है, इतने बड़े संसार से उसकी संसार प्रशंसा करे इससे बड़ी खुशी की क्या बात है...!

फिर भी मैं शुक्रगुज़ार हूँ उन लम्हों की, जिनमें मै उनसे मिली। कुछ पल को ही सही, लेकिन जिंदगी के यादगार पलों में एक....!