Friday, July 24, 2009

ज़रा सा और दो पल को.ज़रा सा और दो पल को-१०० वीं पोस्ट



कुछ आम से दिनो को कुछ अपनो का साथ खास बना देता है। उन्ही आम दिनो में ये भी दिन है..आज का दिन। जो खास बस इसलिये हो गया क्योंकि बहुत से अपने आज एक ही दिन दुआयें देते हैं। आज की पोस्ट मेरी १०० वीं पोस्ट है। आप मुस्कुरा रहे होंगे और मन ही मन कह रहे होंगे कि दो साल का ब्लॉगीय सफर और अब जा कर शतक ? शर्मिंदा होने वाली तो बात है ही। मगर क्या करें। सच भी यही है।

तो ये थी एक आम सी बात। मगर खास यूँ हुई कि आज जो गज़ल लगा रही हूँ उसमें बहुत से अपनो का साथ और हाथ है। ये पोस्ट आज ही के दिन डाली जाये ऐसा मेरे छुपेरुस्तम अनुज अर्श का सुझाव था। अब चूँकि इस गज़ल को वो आवाज़ देने वाला था, तो उसका सुझाव तो मानना ही था। ये है पहली बात जो इस पोस्ट को खास बनाती है। दूसरी खास बात ये कि इस गज़ल को गुरु जी ने न सिर्फ सँवारा है, बल्कि आशीष स्वरूप मुझे एक शेर भी भेंट किया है (आखिरी शेर), आप समझ सकते हैं कि ये बात कितनी सुखद है कि मेरे गुरुभाई इससे अवश्य जल रहे होंगे। but who cares ?? :) तीसरी खास बात ये कि इस में एक शेर गूढ़ रहस्यों के ज्ञाता रविकांत जी ने भेंट किया है।(8वाँ ) गूढ़ रहस्यो के ज्ञाता क्यों कहा ये तो आप जान ही रहे हैं और अगर नही जान रहे तो जान लीजिये यहाँ जा कर। And the last but not least reason....ये कि इस गज़ल को जिसने सबसे पहले जिसने दाद दी वो थी हमारी भाभी संजीता राजरिषी और इस गज़ल का 7वाँ शेर समर्पित है उन्ही को।

तो पढ़िये और सुनिये ये पंचमेल खिचड़ी। आवाज़ के विषय में यही कहना बहुत है कि मेरी दीदी ने इस आवाज़ को सुनने के बाद कहा कि तुम्हारे मृत शब्दों को जान दे दी इस आवाज़...! मेरे शब्द मृत...??? भाला ऐसे भी धोते है किसी को :( मगर क्या करे..?? यही तो कहा था उन्होने।

अर्श कहता है कि उसे सुरों का कोई ज्ञान नही है, मगर जिस तरह की शब्दावली उसने रिकॉर्डिंग के समय मुझसे चैट पर प्रयोग की, मैं मान ही नही सकती कि उसे संगीत का ज्ञान नही है। ये इसके छुपेरुस्तम होने का दूसरा उदाहरण गुरु जी के सामने पेश है। और शेष अंदाज़ आप गीत सुन कर ही लगा सकते हैं। अर्श ने इसमें बहुत मुश्किल सुरों का प्रयोग चुना है। और बिना किसी म्यूज़िकल सपोर्ट के ९ शेरों को गाना सभी समझ सकते हैं कितना मुश्किल रहा होगा। मैं इस खूबसूरत उपहार को कभी नही भुला सकती।

सुनिये और गुनिये।









सुबह की नींद जैसा वो, बहुत प्यारा लगे दिल को,
ज़रा सा और दो पल को.ज़रा सा और दो पल को।

तरीक़ा हम में होता ग़र, अगर हम भी अदा रखते,
तो तुम ना छोड़ पाते यूँ, मेरे मन पाक़ निश्छल को।

हमें जीने की आदत है, हर इक पल जी के जीते हैं,
सिसक कर खूब दुक्खों को, विहँस कर हर हसीं पल को।

किसी में कुछ,किसी में कुछ, सभी कुछ तुम में पाना है,
यही उलझन तुम्हे भी है, यही उलझन मेरे दिल को।

वो तुम में है न जाने क्या, कि जो भाने लगा हमको,
समझ पाते नहीं हम, दिल की इस अन्‍जान हलचल को।

कभी सबसे भले हो तुम, कभी सब से बुरे हो तुम,
असल में वो तुम्‍हीं हो जो, बदलते हो हर इक पल को।

किनारा तेरे सीने का, तेरी बाँहों की ये लहरें,
यही सागर है जिसकी प्‍यास थी जुल्‍फों के बादल को।

तुम्‍हें तो महफिलों की रौनकें ही दिख रहीं केवल,
कभी देखो जरा रोती हुई लाचार पायल को।

सलामत तुम रहो सौ साल तक ये है दुआ मेरी
मगर मत भूलना राखी पे अपने बीर पागल को


नोटः बहुत देर तक ढूँढ़ती रही, जैसा चाह रही थी वैसा चित्र नही मिला तो ये चित्र डाल दिया.... मैं और मेरे होने वाले दामाद जी :) (भांजी के होने वाले पति)

Wednesday, July 1, 2009

लहर की खामोशी



जान ले के जायेगी, ये कहर की खामोशी,
कब खुदारा टूटेगी, उस नज़र की खामोशी।

आँख भीग कर सारे भेद खोल जाती है,
हम छिपा न पाते हैं, दिल जिगर की खामोशी।

पैर के निशाँ बेशक, ले गई लहर लेकिन,
मन में अब भी बैठी है, रेत पर की खामोशी।

रोज आप आते हैं, रोज सोचते हैं हम,
आज आप समझेंगे, इस नज़र की खामोशी।

आपके मिजाजों से, और गर्म लगती है,
कितनी जानलेवा है, दोपहर की खामोशी

पा के शोर करता है, है अजब ये सागर भी,
दे के कुछ नही कहती, है लहर की खामोशी *

* इस शेर को खिताब मिला हासिल-ए-मुशायरा का


लीजिये पढ़िये आज वो गज़ल जिस के एक शेर को गुरु जी के ब्लॉग पर आयोजित तरही मुशायरा में हासिल-ए-मुशायरा का खिताब मिला। इस मुशायरे में आई सभी गज़लो के रचनानाकार का नाम ना बताते हुए स्वनामधन्य श्री प्राण शर्मा जी के पास हासिल-ए-मुशायरा का खिताब हेतु चुनने के लिये भेजा गया था। नतीजे के साथ गुरु जी को जो पत्र प्राण जी ने भेजा उसमे लिखा था "कृपया शेर लिखने वाले को मेरी हार्दिक बधाई अवश्य दीजियेगा। चूँकि उसमे बहुत संभावनाएं हैं इसलिये उससे बहुत आशाएं भी हैं।" और प्राण जी को व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद भेजने पर उन्होने मुझे जो मेल से आशीर्वाद दिया वो इस प्रकार था

प्रिय कंचन जी,

उम्दा शेर के लिए मेरी बधाई स्वीकार कीजिये.मुझे प्रसन्नता होती है जब कोई अच्छे
शेर कहता है.शायद ऐसा खूबसूरत शेर मैं न कह पाता.आप इसी तरह शेर कहते रहिये और सबकी "वाह,वाह" लूटते रहिये.शेर कहने का आपका अंदाज़ बड़ा प्यारा है.शब्दों के नाप-तौल से ,लगता है आप अच्छी तरह परिचित हैं.भविष्य में इतना ध्यान रखिये
कि आपकी शायरी में भारतीयता की सुगंध हो. आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ मैं. आशा है कि आप सानंद हैं.

आपका शुभ चिन्तक ,
प्राण शर्मा

इस आशीर्वाद से मै कितनी कृतकत्य हुई मैं ही जानती हूँ.......!
तो आप भी पढ़ें इस गज़ल को

ये रहा प्रमाण पत्र