Thursday, June 16, 2011

हमें इंतज़ार कितना ये हम नही जानते





खाना जल्दी से बना के रख देना है। वर्ना किचेन में ही आ के बैठ जायेगा। और एक बार बात शुरू होगी तो खतम ही नही होगी। फिर दीदी गुस्सा होंगी। किचेन में ही बैठकी जम जाती है तुम्हारी।

वो खाना बना कर बाहर बराम्दे मे ऐसी जगह बैठी है, जहाँ से सड़क के मोड़ की शुरुआत दिखाई देती है। कोई आता है, तो वहीं से दिख जाता है।

ऊपर से सब के साथ बातचीत में मशगूल दिखती वो अंदर से वहीं है, जहाँ मोड़ शुरू होता है।

इंतज़ार अब गुस्से में बदल गया है। वो अपनी डायरी ले कर ज़ीने पर बैठ जाती है। कुछ लिखने

" कोई दूर जाये, तो क्या कीजिये,
ना पहलू में आये, तो क्या कीजिये...!!"

गेट पर कुछ हलचल है शायद वो आ गया। वो कान उटेर लेती है। हुह, वो क्यों आयेगा ? राहुल है। दीदी आवाज़ देती हैं। राहुल आया है। वो अपनी डायरी के साथ, अनमने मन से बैठक में आ जाती है। राहुल पूछता है "डायरी में क्या है?"

वो उसी अनमने मन से डायरी बढ़ा देती है।

"अरे कितना अच्छा लिखती है आप ? कैसे लिख लेती है इतना अच्छा ? किसके लिये लिखा है ?"

"किसी के लिये नही। बस लिख दिया। सहेलियों के अनुभव हैं।"

"अच्छा ?? कभी मेरी तरफ से भी लिखियेगा प्लीज़।"
"हम्म्म.. लिखूँगी। तुम अपने बारे में बताना। फिर लिखूँगी।"

" रेत की तरह बंद मुट्ठी से भींचने पर भी फिसल जाते हैं,
जान क्यों हम में वो जुम्बिश ही नही, हमसे रिश्ते ना संभल पाते है

ओहो, कितना अच्छी लाइन है, नोट कर लूँ... "

"कर लो"

गेट फिर खटकता है। काले शीशे के पार दिखता है कि वो आ गया। गुस्सा दोगुना,चौगुना हो गया है मन के अंदर। वो इग्नोर करना चाहती है उसे और ये भी शो करना चाहती है कि उसे कुछ फील ही नही हुआ, वो देर से आये या जल्दी ?

घर में घुसते ही क्लोज़ अप का प्रचार करती उसकी मुस्कान चमकती है। राहुल से वो हाथ मिलाता है। राहुल उससे कहता है " तुमने तो सब पहले से ही पढ़ा होगा यार। कितना अच्छा लिखती है ये ?"

वो बदले में उसकी तरफ देख कर मुस्कुराता है। लड़की का रुख राहुल की तरफ है। वो उसे जानबूझ कर ज्यादा तवज्जो देने लगी है। "नोट कर लिया तुमने?"

"जी..! और भी देख लूँ।"

" हाँ! हाँ! शौक से। घर ले जाना चाहो तो ले कर चले जाओ। नोट कर के वापस कर देना।"

" अरे नही नही मैं यही देखता हूँ
आज मन बेचैन बरा, क्या तुमने याद किया
अरे इस पर तो तुमने "यस" लिख दिया है" वो लड़के से पूछता है।

वो फिर मुस्कुरा कर उस की तरफ देखते हुए कहता है " हम्म्म..मुझे लगा कि मुझे ही याद कर के लिखा होगा इन्होने, तो मैने जवाब दे दिया 'यस' "

वो उसे इग्नोर करती हुई कहती है। "ये देखो, ये आज ही लिखी है
कोई दूर जाये तो क्या कीजिये,
ना पहलू में आये तो क्या कीजिये,
वो जिसके लिये दिल तड़फता रहे,
वो नज़रें चुराये तो क्या कीजिये।
"

वो कुछ राहुल की तरफ खिसक जाती है। उसे पता है कि तीर जहाँ चलाया गया था, वहीं पहुँचा है। दोनो ही समझ रहे हैं कि दोनो क्या कर रहे हैं ? वो ऐसा इस लिये कर रही है कि उसे पता है कि अगले को ये अच्छा नही लग रहा और अगला समझ भी रहा है कि वो ऐसा बस इसीलिये कर रही है कि वो अपनी नाराज़गी इसी तरह जता रही है, फिर भी उसे अच्छा नही लग रहा।

वो घर में सब को वहीं बैठकी में इकट्ठा कर लेता है। सब उसे बहुत मानते हैं। फिर कहता है "चलो कुछ खेलते हैं।"

" हाँ हाँ भईया।" नेहा चिल्लाती है।
"क्या खेलेंगे ?" राहुल कहता है।
"कैचिंग फिंगर" वो सजेस्ट करता है।
" नही कैंचिंग फिंगर नही।" वो विरोध करती है।
"क्यों ?"
"नही ना।"
"अरे मौसी प्लीज़...!" बच्चे बोलते हैं।
" अरे दूसरा कोई गेम खेल लेते हैं ना..कैरम ??"
"नही मौसी, कैचिंग फिंगर..प्लीज़"
उफ् वोट उसकी तरफ ज्यादा पड़ रहे हैं। उसे पता है कि कैचिंग फिंगर गेम के बाद क्या होना है। वो अभी अपनी उँगली जानबूझ कर पकड़वा देगा, फिर उसे जो कहा जायेगा कर देगा और फिर जब उसे उँगली पकड़ने का मौका मिलेगा, तो चाहे वो जितना जतन कर ले, उसकी ही उँगली पकड़ी जायेगी और तब वो क्या करने को कहेगा, उसे ये भी पता है।

गेम शुरू। जैसा जैसा उसने सोचा था, वैसा वैसा होता जाता है। उसकी उँगली हाथ में आ गई है। हेऽऽऽऽऽऽऽऽऽ का शोर मच चुका है।
"हम्म्म्म...आप वो गाना गाईये..हमें तुमसे प्यार कितना।"
"नही, ये गाना तो नही गाऊँगी, दूसरा कोई बोलो।"
"अरे, यही गाना है। आपकी मर्जी से हो तो फिर कौन सा गेम?"
" मुझे याद नही है।"
"मैं याद दिला दूँगा, वैसे भी सेकंड स्टैंजा गाना है।"
"सेकंड स्टैंजा ??? वो तो बिलकुल नही याद।"
" हम याद दिला देंगे। आप शुरू तो करिये।"
" अरे गाती तो रहती हो, नौटंकी क्यों कर रही हो?" दीदी खीझ कर बोलती हैं।

वो शुरू करती है।

हमें तुमसे प्यार कितना,
ये हम नही जानते, मगर जी नही सकते तुम्हारे बिना!


वो आँखें बंद कर लेता है।

वो थोड़ा ठिठक कर दूसरा अंतरा शुरू करती है

तुम्हे कोई और देखे तो जलता है दिल

वो मुस्कुरा कर दोहराता है

तुम्हे कोई और देखे तो जलता है दिल

बड़ी मुश्किलों से संभलता है दिल,

वो साथ साथ गाता है,

वो मुस्कुरा कर चुप हो जाती है।

वो अकेले गाता रहता है

क्या क्या जतन करते हैं, तुम्हे क्या पता ऽऽऽ
ये दिल बेकरार कितना, ये हम नही जानते,
मगर जी नही सकते, तुम्हारे बिना।

वो साथ में फिर शुरू करती है। उसके हरा देने वाले इस अंदाज़ से वो कितनी खुश हो गई है। मेहफिल जमा है। सब एक दूसरे को जाने क्या क्या करने को कह रहे हैं। गुस्सा जाने कहाँ चला गया। मनाने का ये अंदाज़ किसी और के पास नही है।

दोपहर ढलने को है, मगर गर्मी की दोपहर शाम तक भी कहाँ ढलती है। वो चलने को होता है। वो आवाज़ देते हुए कहती है "शाम को आ जाना, तुम्हारा जनमदिन है।"
"मेरा जनम दिन ?"
"हम्म्म आ जाना।"
" वाह हमारा जनम दिन और हमें ही नही पता। कितने साल के हो जायेंगे हम"
" बीस"
"आप?"
"इक्कीस..क्या खो गया था, तुम्हारा । जो बड़े बेचैन थे।
" अरे वो... क्या बतायें? जिसके पास मिल जायेगा ना। उसे हम अबकी तो मारे बिना छोड़ेंगे नही। हम ये जानते हैं। बहुत गुस्सा आ रहा है। हमें जान से ज्यादा प्यारा सामान था वो।"
"अच्छा ऐसा क्या था"
" अब क्या बतायें ? अगर मिल जाता तो दिखाते भी
वो मुस्कुरा देती है, वो चला जाता है।

शाम को उसने चाट बनाई है। बैठकी के लोगों को बुला भेजा है दस पंद्रह लोगो के बीच एक टी पार्टी, उसने खुद अरेंज किया है सब। सबसे पहले उसने उसे टीका लगाया। फिर उसकी पसंदीदा मिठाई सोहनपापड़ी खिलायी। लड़के ने उसके पैर छू लिये। आँखों में कुछ पानी सा तैर गया।
"खूब खुश रहो। अपना लक्ष्य प्राप्त करो।" कहते हुए उसने गिफ्ट बढ़ा दिया।
" क्या है इसमें?"
"खोलो"
वो खोलता है। उसकी आँखें चमक जाती हैं।
" यही ढूँढ़ रहे थे, उस दिन ?"
"आपको कैसे मिला?"
" जिसने चुराया था, उसी से खरीदा।"
वो एक डायरी थी, जिसमें जन्म दिन का गिफ्ट पाने वाले ने, जन्म दिन का गिफ्ट देने वाले के ही बारे में लिख रखा था पूरी डायरी में। और एक एलबम जिसमें गिफ्ट देने वाली की गुम हो गई फोटुएं थीं।

वो अपनी चोरी पकड़े जाने पर शरमा जाता है। वो हँस के पूछती है, "चोरी की चीज चोरी में चली गई थी , तो इतना नाराज़ क्यों थे।"

वो झेंप जाता है। " अरे मौसी....!"
डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था " for kanchan mausi, V.V.I.P."

जाने कब का मिलना .. जाने कौन कौन सी बातें ... जाने कौन कौन सी नाराज़गी .. जाने कौन कौन सी खुशी दर्ज़ थी उस डायरी में। तब वो रिश्ता दो साल का ही था बस...!

बाद के पाँच सालों में और जाने क्या क्या लिखा गया होगा ? और अगर कभी किसी के हाथ पड़ी होगी, तो एक अपराधी की डायरी के नाम से जानी गई होगी।"

मैने बीसवें साल में उसका जनम दिन मनाना शुरू किया था....! वो खुद सिर्फ पाँच जनमदिन और मनाया पाया.... उस ठहरे पल को बीते आज ठीक चौदह साल हो गये...! मेरे हाथ है में पहले अंतरे की ये पंक्तियाँ...

हमें इंतज़ार कितना ये हम नही जानते,
मगर ............................................



जी तो रही ही हूँ...............



Wednesday, April 6, 2011

जियो खिलाड़ी वाहे वाहे


गुरू जी की पोस्ट पर टिप्पणी करने गयी, तो यादों के गलियारे में ऐसी भटकी कि टिप्पणी बन गयी पोस्ट... तो वो ही सही !!

१९८३ पता नही याद है या बार बार याद दिलाने के कारण याद रहता है। पड़ोस की टी०वी० पर सब के साथ मुझे भी ले जाया गया था। ये जून की बात है और हमारे यहाँ उसी साल सितंबर में टी०वी० आया था। थोड़ा थोड़ा है ज़ेहन मे । कपिल देव का ट्रॉफी लेना..एक गाड़ी पर बारह खिलाड़ियों का सवार होना, शैंपेन खुलना.... तब ये भी नही पता था कि शैंपेन क्या बला है, खुद ही समझ लिया था कि कोई मँहगी सी कोल्ड ड्रिंक है जो बड़े लोग ही पीने के साथ साथ बहा भी सकते हैं।

और फिर ८७ और ९२ के विश्व कप तो नही याद हाँ मगर ये याद है कि क्रिकेट देखा जाता था। कभी कभी गायत्री माता को पाँच रुपये का प्रसाद भी माना जाता था और कभी गायत्री मंत्र पढ़ के भारत को जिताया जाता था। गवास्कर के १०,००० पूरे होने पर सबने उल्लास के साथ स्वागत किया था। सचिन वाला प्रेम तब गवास्कर से था और फिर वो हमारे जीजा जी भी तो थे :P ( कानपुर में उनकी ससुराल जो ठहरी)


१९९१ में, जब टीन एज का समय था। मुझे याद है कि तब ४ खिलाड़ी आये थे। सचिन, कांबली, कुंबले,सलिल अंकोला। सभी लड़कियों को अपना फेवरिट चुनना था। बड़ी समस्या थी कि रिकॉर्ड सचिन के अच्छे थे और शक्ल सलिल अंकोला की। आखिरकार दिमाग पर दिल की जीत और पसंदीदा क्रिकेटर सलिल अंकोला....!! बच्चे अब भी चिढ़ाते हैं " अच्छा किया सचिन को नही चुना, वर्ना उसका भी कैरियर चौपट हो जाता। जिसको चुना वो तो खाली एक्टिंग ही कर पाया, क्रिकेट तो खेल नही पाया।"

१९९२ का विश्वकप भी उतना याद नही। असल में तब तक याद घर वालों के उत्साह पर निर्भर करती थी। मगर अगले विश्व कप में कांबली का क्रिकेट फील्ड पर ही बैठ जाना और रोना हमेशा याद रहा। बुद्धि अब शकल की जगह मन देखने लगी थी। रोने का मतलब भावुक होना, क्या हुआ कि
कांबली देखने में अच्छा नही लगता, है तो कितना सेंसिटिव। फेवरिट क्रिकेटर चेंज... कांबली हो गये हमारे फेवरिट क्रिकेटर। ग़ोया हमारी पसंद क्या चेंज हुई हम उसका भी क्रिकेट कैरियर ले बीते।

१९९९ में प्रारंभ में उम्मीद और फिर ना उम्मीद होना। तब तक फोन आ चुका था। और मित्रों सखियों से बात करने का अच्छा मुद्दा था क्रिकेट। सचिन को नापसंद करने के लिये कोई विकल्प नही था अब। मगर अनेकों विवादों के बावज़ूद सौरभ गांगुली मुझे कभी बुरे नही लगे। हमेशा लगा कि सिंसियर बंदा बहसों और दुर्भाग्य की भेंट चढ़ रहा है।


२००३ ने मुझे बहुत ज्यादा निराश नही किया चक्रव्यूह के सारे दरवाजे तोड़ के आ जाने के बाद हार और जीत के मध्य सिर्फ एक पतली सी रेखा होती है। उसे पार ना करने से हम दुर्भाग्यशाली भले कहे जायें मगर असफल नही। फिर भी सुपर एट में अच्छा प्रदर्शन ना कर पाने के कारण मीडिया में टीम की छीछालेदर और लोगों का क्रिकेटर्स के घरों के सामने प्रदर्शन, उनके घरों को, घर वालों को नुकसान पहुँचाना, भारतीयों के नकारात्मक रूप से भावुक होने का द्योतक लगा मुझे और लगा कि हमें अपना बौद्धिक स्तर थोड़ा और बढ़ाना होगा।


२००७ में सबके साथ मैं भी बहुत निराश थी।


इस बीच आया आईपीएल। जिसने क्रिकेट से मेरी रुचि पूरी तरह भंग कर दी। सौरव के खिलाफ सचिन जीते या हारें क्या फरक पड़ता है ? बस ऐसे जैसे सामने के मैदान में दो भतीजों की टीम, जो भी जीते खुश हो लेंगे और दूसरे को पुचकार देंगे। दक्षिण जीते या महाराष्ट्र हमारे लिये तो भारत ही है। विजू, पिंकू के देर रात तक मैच देखने में मुझे ब्लाग पढ़ना या कोई किताब पढ़ना ज्यादा भला लगता। जबर्दस्ती बैठा लेने पर मुझे प्रीती जिंटा और शिल्पा शेट्ठी के मेक अप के अलावा कुछ भी देखने लायक नही लगता।


ऐसे में अचानक मेरा क्रिकेट के प्रति फिर से जागरुक हो जाना, आफिस से जल्दी घर आ जाना, एक एक बॉल का हिसाब रखना। घर के दोनो प्राणियों के लिये आश्चर्यजनक था।
अम्मा से जब बताया गया कि " अम्मा पता है, आस्ट्रेलिया ३ साल से विश्व कप ले जा रहा था। और भारत ने उसे ऐसा हराया है कि वो सेमी फाइनल में भी नही पहुँच पाया।" तो अम्मा ने कहा " मतलब धूल चटा दी।" और हमने एक स्वर में कहा "हाँ... जियो खिलाड़ी वाहे वाहे।

और फिर वो दिन खुशी के छक्के के साथ घर में एक दुखद खबर भी आयी मगर, वो यहाँ नही यहाँ तो ये गीत....!





जियो खिलाड़ी वाहे वाहे
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

ऐदे पैदे (दे घुमा के)
आरे पारे (दे दे घुमा के)
गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के)
अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के)

जियो खिलाड़ी वाहे वाहे
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

हम्म्म.... ऐदे पैदे (दे घुमा के)
आरे पारे (दे दे घुमा के)
गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के)
अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के)

जुटा हौसला, बदल फैसला,
बदले तू बिंदास काफिला
खेल जमा ले, कसम उठा ले,
बजा के चुटकी धूल चटा दे


दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

आसमान में मार के डुबकी,
उड़ा दे जा सूरज की झपकी,
सर से चीर हवा का पर्दा,
बदले पटटे जम के गर्दा
मार के सुर्री सागर में तू,
छाँग बटोर लगा घर में,
फाड़ के छप्पर मस्ती मौज की,
बारिश होगी घर घर में

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे


अटकी साँस सुई की नोक पर,
खेल बड़ा ही गहरा है,
मजा भी है रोमंचदार सा,
रंगा, रंगी ये चेहरा है,
इटटी शिट्टी, हो हल्ला सब,
हुल्लम धूम धड़ाका है,
खेल, खिलाड़ी, तड़क, भड़क सब,
जलता भड़का है

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे


ऐदे पैदे (दे घुमा के)
आरे पारे (दे दे घुमा के)
गुत्थीगुत्थम (दे घुमा के)
अड़चन खड़चन (दे दे घुमा के)

जुटा हौसला, बदल फैसला,
बदले तू बिंदास काफिला
खेल जमा ले, कसम उठा ले,
बजा के चुटकी धूल चटा दे


दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

दे घुमा के, घुमा के, घुमा के,घुमा के
दे घुमा के, घुमा के,
जियो खिलाड़ी वाहे वाहे

Wednesday, March 23, 2011

कि मैने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया था.....!!!


पिछले १० वर्षों से साथ रहने के बावज़ूद.... वो ये नही समझा कि ये परिवर्तन जो उसे सुखद लग रहे हैं, वो किसी की जीवंतता की समाप्ति का लक्षण है। उसे नही पता चल रहा कि उसके साथी ने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया....!

कितना अजीब है ? कि वो समझ भी नही पा रहा कि ऐसा होना तितलियों के रंगीन परों को, जबर्दस्ती सफेद रंग में रंग देने जैसा है। चिड़ियों की चहचहाहट को आँख बंद कर उनींदा बना देने जैसा। चमेली की तेज खुशबू में, कमल की भीनी महक ढूँढ़ने जैसा.....!!

उसने ये तो देखा कि पिछले १ माह से वो उस पर झल्लाई नही, मगर उसने ये नही देखा कि पिछले एक माह से वो चलते फिरते उसके गालों को भी हिला के नही गई। उसने नही देखा कि अचानक आकर टी०वी० बंद करते हुए, वो साड़ी का पल्ला फैला के खड़ी भी नही हुई ये कहती हुई कि " इस साड़ी का आँचल एकदम डिफरेंट है ना ? " उसने नही देखा कि देर रात उसने अपनी फेवरिट आइसक्रीम खाने की ज़िद भी नही की पिछले एक महीने से। उसने नही देखा कि बिंदी अब हफ्तों तक नही बदली जाती माथे पर, लिप्स्टिक आजकल लगाई ही नही जाती और काजल को छुआ भी नही गया पिछले एक माह से। आफिस से आने के बाद पानी का गिलास दे कर उदास आँखों वाली मुस्कान ने पिछले एक महीने से देर से आने का कारण भी नही पूछा और न ही नाराज़ हो कर घर सिर पर उठाया। ध्यान ही नही दिया उसने कि काँधे पर आये हाथ के दो सेकंड बाद ही उसे कोई काम याद आ जाता है और वो उठ के चल देती है, बहुत देर तक वापस ना आने के लिये। न्यूज़ पेपर छीन कर फेंका नही गया, ज्यादा आयली खाने पर आँखें नही तरेरी गईं। प्राणायाम में बंद हुई आँखों को कोई चूम के नही गया.....

और उधर शांत बैठी वो सोच रही थी कि अब करना भी क्या है ? चिल्लाना, रूठना, चीजों को इन्वेस्टीगेट करना ... वो सब तो तब तक था, जब पता था कि तुम मेरे हो। अब.... जब तुम मेरे हो ही नही, अब जब मैने जान ही लिया कि तुम बँट चुके हो, तो तुम पर अधिकार क्या जताना। ये शांति नही, बेबसी थी। किसी अपने की मृत्यु की सूचना के बाद हाहाकार मचाते हुए बिलख बिलख रो लेने के बाद, हिचकियों को भी घोट देने जैसा। अपने ही कटे पैरों को देख कर, चिल्लाते हुए बार बार नज़र हटा लेने के बाद एक टक घूरते रहने जैसा। हड्डियों तक धँसे हुए दर्द का चीख चीख के प्रदर्शन करने के बाद होंठों पर दाँत रख के भींच लेने जैसा। बलात्कार में घोर विरोध से हाथ पैर चला कर नुचे हुए अंग प्रत्यंगो को देख, शिथिल पड़ जाने जैसा............!!!!

कि मैने इतना नाटकीय जीवन कभी नही जिया था.....!!!

Monday, March 7, 2011

बस अगर इतना होता



सोचती हूँ कि वो रातें,

जो इस तसल्ली मिली बेचैनी से बिता दी जाती थीं,

कि इधर हम इस लिये जग रहे हैं क्योंकि

उधर कोई जागती आँखें ले कर जगा रहा है हमें....

कितनी आसानी से कट जातीं,

११ रू के एसएमएस पैक से,

सायलेंट मोड मोबाईल के साथ।



या वो दिन,

जो इस सोच में कटते थे कि

तुम जाने कहाँ होगे आज....?

कितनी तसल्ली से बीत सकते थे,

किसी सोशल साइट पर तुम्हारे स्टेटस अपडेट से तुम्हारा हाल ले कर।



तुम्हें खोजना होता कितना आसान,

जब तुम्हारा नाम लिख कर,

बस सर्च पर अँगुली मार देती,

और तुम अपनी सबसे अच्छी तस्वीर के साथ,

मुस्कुराते हुए पहचान लिये जाते।



तुम्हारी बातों की लज्ज़त,

तु्म्हारे दाँतों की चमक को पाने के लिये,

तुम्हे आँखों में बुला कर चादर के लेट जाने

की ज़रूरत ही क्या थी?

जब तुम वीडिओ चैट में,

सामने छोटी सी स्क्रीन पर,

एक आन्सर पर क्लिक के मोहताज़ होते।


बहुत छोटा सा फासला था,

उस युग से इस युग को तय करने का,

बस अगर इतना होता,

कि जिन साँसो को मैं ढो रही हूँ,

उन साँसों को तुम जी पाते ............!!


 

Monday, February 14, 2011

वैलेंटाइन डे का भारतीयकरण


रात के साढ़े ग्यारह बजे आप जब वैलेंटाइन डे को स्पेशल बनाने की ललक में घर से बाहर निकलते हैं कोई भी कपल नज़र नही आता। असल में तो सड़क भी लगभग सूनी ही है। मतलब लखनऊ की सड़क पर अगर १०-१२ लोग दिख भी रहे हैं तो, सूनी ही कही जायेगी ना। बाज़ार में पहुँचने पर सिर्फ एक प्रकार की दुकानें खुली मिलती हैं, वो है फूलों की।

"ये रेड रोज़ कितने में भईया?"
"कितने दे दूँ ?"
खिल्ल से हँसी आ जाती हैं होंठ पर।इसे भी पता है " I Love You the most" मुझे थोक के भाव कहना है।

मैं भी मु्स्कुराते हुए कहती हूँ " दो आर्किड, तीन रेड रोज़ और एक येलो रोज़ दे दीजेये"

पौने बारह बज गये। लगा कि हमारा वाला आइडिया तो सबके पास पहले से ही था। रेस्ट्राँ बंद हैं, तो आइसक्रीम खा कर सेलीब्रेट करेंगे। कारें, मोटर साईकिलें अचानक मार्केट में बढ़ जाती हैं। लोग फेमिली के साथ, फ्रैंड्स के साथ बढ़िया बढ़िया साड़ी पहने, ताज़े फेशियल के साथ, गहरा काज़ल लगाये नव युगल और साथ में ननद, जेठानियाँ....! आइसक्रीम पार्लर अचानक भर गया।

"सब लाईसेंसी ही आ पाते हैं बेचारे, इस समय रात के बारह बजे।" मोटर सायकिल ड्राइवर हँस के बोलता है।

हम फूल और आइसक्रीम लिये अपनी फर्स्ट वैलेंटाईन के घर के लिये मूव करते हैं। उसकी शादी की २२ वीं सालगिरह भी तो है ना....!!

सामने कार में बैठी सुंदर आँखों वाली लड़की पर नज़र जाती है, वो जाने कब से अपलक हम दोनो को देख रही है। मैं हँस कर कहती हूँ " वो सेंटी हो रही है , गुज़ारिश फिल्म याद आ रही है उसे।"
" ओहो...! कितना पुअर सेंस आफ ह्यूमर है आपका।"

बाइक स्टार्ट सूनी सड़कें पार करते... कुछ कुत्तों का भौंकना और कुछ दोस्तों का लाल परी सेवन के बाद उमड़ा प्रेम एन्ज्वाय करते हम पहुँचते हैं अपनी फर्स्ट वैलेंटाइन के घर के सामने। पूरी कॉलोनी सो चुकी है। घर में भी सभी सोते ही से लग रहे हैं।

पहला रिंग कजिन के नंबर पर शायद जाग के एंट्री दे दे। नो...!!
दूसरा नीस के....!! " The no. you have dialed is not responding."
तीसरा जीजा जी के....! same answer.

हुँह..! बड़े बेआबरु हो कर तेरे कूचे से हम निकले।

रिसेशन के दौर में पूरे दो सौ खर्च किये थे, यादगार वैलेंटाइन डे मनाने के चक्कर में।

मन तो हो रहा था कि उसी फूल की दुकान पर जा कर सारे फल ५ रुपये कम के सौदे पर लौटा आयें।

सुबह से ढेरों फूल घुटने पर अड़े लोग दे चुके हैं। " I Love You the most" बोल के। फ्रीज के ऊपर एक एक फूल इकट्ठा करते, गुलदस्ता बन गया है।

हम भी ना..! सारे इमोशन्स का बखूबी इण्डिअनाइजेशन कर लेते हैं।

फिलहाल सुनिये ये गीत मेरी फर्स्ट वैलेंटाइन को डेडीकेटेड और दुआ करिये उनके स्वास्थ्य और लंबी उम्र के लिये



इंसान को रब का वास्ता देने वाले रब को दिल का वास्ते दे रहे हैं....! वल्लाह...!! क्या बात है ??

माँगा जो मेरा है, जाता क्या तेरा है ?
मैने कौन सी तुझसे जन्नत माँग ली??
कैसा खुदा है तू, बस नाम का है तू,
रब्बा जो तेरी, इतनी सी भी ना चली।

चाहिये जो मुझे कर दे तू मुझको अता,
जीती रहे सल्तनत तेरी,
जीती रहे आशिकी मेरी,
दे दे मुझे मेरी जिंदगी,
तैनू दिल दा वास्ता

Monday, February 7, 2011

आई लव यू सो एण्ड आई वांट यू टु नो,दैट यू विल आलवेज़ बी राइट हीयर



You're my Honeybunch, Sugarplum
Pumpy-umpy-umpkin, You're my Sweetie Pie
You're my Cuppycake, Gumdrop
Snoogums-Boogums, You're the Apple of my Eye
And I love you so and I want you to know
That I'll always be right here
And I love to sing sweet songs to you
Because you are so dear

(Lyrics and Music by Judianna Castle)



ये सब आज भी उसी उम्र में ले कर चला जाता है....। छोटा सा....! दाढ़ी वाले गाल को हटाता और मन में सोचता ..... एक बार एक और पप्पी मिल जाये...!!

म्म्म्म्म्आऽऽऽ... क्या खाया है ? बड़ी मीठी मीठी है।

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और फिर सबसे नज़र बचा कर बाउंड्री के अंधेरे में थोड़ी सी रोशनी ढूँढ़ कर लिखता हुआ किशोर मन..... छंद, मात्रा, बहर, रदीफ से बेखबर.... दर्द को मुड़े तुड़े पन्नों पर निकालता हुआ........!!

ढूढ़ूँ कभी आकाश में तारों के बीच में,
ढूढ़ूँ कभी मैं रात में सपनो के बीच में,
मुझको गले लगा लो, पास अपने बुला लो,
मैं रह गई अकेली हूँ, इतनों के बीच में,

तुम्हारी लाड़ली ढूँढ़े तुम्हे अपनो के बीच में.....!
नोट : शीर्षक में I'll को U'll लिखने की क्षमा के साथ

Thursday, January 20, 2011

दुःखों से निकलने की होड़

हाल चाल लेने की जनरल कॉल करती हूँ, तो उसकी आवाज़ थोड़ी डल लगती है।

"क्या हाल है?"
"ठीक है।"
" क्या हुआ बड़ा शोर है?"
"हम्म्म.. वो यहाँ आया था ना ! नीरा दी के घर"
"ओके ओके...नीरा ठीक है ?"
" अरे वो मौसी..... वो... नीरा दीदी के ससुर एक्सपायर कर गये।"
"क्या ऽऽऽ ?? हे भगवाऽऽन !"
मैने फोन काट दिया। ३ दिन पहले नीरा की ननद की शादी हुई है। परसो रिसेप्शन के बाद कल ही वो ननद सिंगापुर गई है हस्बैंड के साथ, चूँकि वो एनआरआई है। उसके ससुर अपनी बेटी को एयरपोर्ट छोड़ने गये तो कितने खुश और कितने दुखी थे, जैसा कि नीरा ने कल बताया... और अचानक आज...??

फोन कैसे करूँ नीरा को समझ नही आया। उसके हस्बैण्ड अभी ३२ साल के होंगे इस उम्र में पिता का साया उठना। दुख का रंग कहीं अपना सा लगा।

हिम्मत कर के शाम को फोन किया।
"हेलो"
"हाँ भईया।"
"प्रणाम मौसी"
"......." मुझे उनकी आवाज़ सुनते ही पता नही कैसा लगने लगा। सिसकी शायद वहाँ तक गई।
" अरे मौसी आप प्लीज़ परेशान ना होइये। जो होना था हो गया। अब आप अपने आप को संभालिये।"

अरे ! ये क्या ? मैं संभालूँ ? खुद पर बड़ी शर्म आई। लगा जैसे अजीब ड्रामेबाज हूँ मैं भी। जबर्दस्ती रो रही हूँ। फोन नीरा ने पकड़ लिया।

" मौसी आप रोयेंगी तो तबियत खराब हो जायेगी। देखिये पापा जी तो चले गये। अब रोने से उनकी आत्मा को कष्ट ही होगा।"

मुझे लग रहा था कि कही कोई जगह मिले, कि मैं जल्दी से उसमें समा जाऊँ और अपने ही क्रिएट किये हुए इस ड्रामे का पटाक्षेप करूँ।

दो दिन बाद फिर हाल लिया, तो माहौल खुशनुमा था। नीरा ने कहा " मैं खुद इनके साथ चुहल करती रहती हूँ मासी। जिससे ये अब चीजों से निकलें।" मैने हाँ में हाँ मिलाई "हाँ ये तो होना ही चाहिये।" उसने मुझे फिर से आगाह किया " और मौसी आप भी अपना खयाल रखियेगा। परेशान ना होइयेगा। अब जो हो गया, उसे बदला तो नही जा सकता ना।" मै फिर उसी ड्रामे का अंग महसूस करने लगी खुद को और फोन झट से रख दिया।

नीरा (नाम बदला हुआ) मेरी कोई रिश्तेदार नही। दीदी की पड़ोसी की बहन की पड़ोसी है। इस रिश्ते से मुझे मौसी कहती है, उम्र में मुझसे कुछ बड़ी ही होगी और उसके ससुर को मैने देखा भी नही था।

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अभी एक महीना ही हुआ था उस घर में आये हुए। सुबह दीदी के घर गई तो अंकल डॉ० के पास जा रहे थे।

लंच लेने के बाद विजू और पिंकू ये कह के घर चले गये कि आज छत पर रहेंगे थोड़ी देर। मुझे शाम की चाय दीदी के साथ पीने के बाद आना था।

दीदी के चाय बनाने को उठने के ठीक पहले फोन आता है।
"फोन मौसी को दीजिये ज़रा।" मैने फोन दीदी को दे दिया।

दीदी कुछ बोल नही रही थीं। मुझे लगा कुछ गड़बड़ है।
"क्या हुआ ?"
" कुछ नही, रुको, चाय बना लाऊँ।"
"नही पहले बताओ तो ? कुछ बात है, क्या हुआ ? "
" अरे वो विजू कह रहा था कि मौसी को आज अपने ही पास रोक लीजिये"
"क्यों ?"
"ऐसे ही, कह रहा है कि कल संडे है, क्या करेंगी आ कर।"
" अरे तुम सही बताओ ?" मैने हड़बड़ाते हुए पूछा।
" ये लोग घर पहुँचे तो देखा तुम्हारे घर पर भीड़ लगी है और तु्म्हारे लैण्डलॉर्ड की बॉडी बॉउण्ड्री में रखी है।"
" हम जा रहे हैं दीदी।"
" रुको हम भी चलते हैं तुम्हारे साथ। ऐसे अकेले गाड़ी नही चलाने देंगे।"

आंटी बैठी थी शरीर के पास। उनके आँसू धार-ओ-धार निकल रहे थे। पास में बैठी महिलाएं शांत बैठी थीं। क्षेत्रीय रिश्तेदार भी। एचआईजी मकानों वाले इस मोहल्ले में मैने आज तक किसी को चिल्ला के, गला फाड़ के, विह्वल हो के, बिलख के रोते नही देखा।

मैं आंटी के पास जा कर बैठ गई। उन्होने मेरा हाथ पकड़ लिया औड़ आँसू की धार और तेज हो गई। दोनो बच्चे दिल्ली में थे। फ्लाईट से चल चुके थे। आंटी को पानी पिलाया जा रहा था, चाय पिलाने की कोशिश के लिये़ दूसरे टेनेंट के घर उनकी मेड को भेजा, तो उन्होने जाली के अंदर से बड़ी सभ्यता से जवाब दिया "रुनझुन बस अभी सोई है। शोर होने से डिस्टर्ब हो जायेगी।"

चूँकि मेरे घर के में दोनो लड़के थे, इसलिये वो जाने में संकोच कर रही थी। मैने उसको परमीशन दी। और फिर रात में थोड़ी थोड़ी देर में चाय बनवाती रही। बेटे के आने के बाद जब आंटी के बगल में वो बैठ गया, तब घर में आई। मुझे सामने पड़ा शरीर अपने पिता के शरीर की याद दिला रहा था, आंटी अम्मा की और वो दोनो लड़के दोनो भाईयों की

सुबह आंटी मेरे ही कमरे में आ गई और महिलाओं की भीड़ यहीं इकट्ठा हुई। मोहल्ले की महिलाएं आँखों आँखौं में एक दूसरे से बात कर लेतीं, फिर बातों बातों में। अचानक कान में आवाज़ आई।

"कलर अभी लगाया क्या?"
"हम्म्म"
"कौन सा लगाती हो?"
"बसमोल"
" गार्नियर लगाया करो यार। मँहगा है लेकिन एक महीने की छुट्टी हो जाती है।"

आंटी चिल्ला रहीं थीं।" मुझे भी साथ ले चलो जी। कभी कुछ करने नही दिया। अब कैसे करूँगी अकेले इस उम्र में।"

शरीर जाने के बाद सफाई करती हुई मेड के गुनगुनाने की आवाज़ सुनकर मैने कहा " इस घर से अभी मिट्टी उठी है। एक हफ्ते बाद गाना गा लेना।" समझ नही आ रहा था कि गुस्सा कहाँ निकालूँ।

शाम को आंटी के घर से खूब हँसी की आवाजे आ रहीं थी। मुँह अजीब सा बना मेरा। बड़े लोग...! आंटी बेचारी कैसे बर्दाश्त कर रही होंगी।

वो सीढ़ियाँ चढ़ना बहुत बड़ी कवायद था मेरे लिये। मगर आंटी से मिलना चाह रही थी। किसी तरह गई। सामने कुर्सी डाल दी गई और आंटी भी वहीं आ गई। आई हुई रिश्तेदार ने फिर से एक जोक मारा। पब्लिक फिर से ठहाका मार उठी। मुझे हँसना अपराध लगा। आंटी ने मुस्कुराते हुए कहा। "बेटा, वो वाला किस्सा सुनाओ, नाना जी वाला । उसने हँस हँस के पूरी मिमिक्री के साथ नानाजी का किस्सा सुनाया, अबकी बार आंटी के साथ मैं भी हँसी।

आंटी ने कहा कि यही सब सुना रही है ये। उसने भी मनोविज्ञान की छात्रा की तरह कहा " अब रोने से क्या, जतनी जल्दी हो सके, निकलो इन सब से।"

मैने भी कहा " हाँ सही है। रो के कहाँ जिंदगी बीतनी है।"

सुबह आफिस को तैयार होते समय आंटी की बहन आई। "बेटा मुझे ज़रा अपने घर की चाभी दे जाना। २ बजे मायका आयेगा ना। अब वहाँ तो टी०वी० चला नही सकते। अच्छा नही लगता ना....!! "

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किस्से ऐसे बहुत सारे हैं। सोच रहीं हूँ कि इस बात को इतना सोच क्यों रही हूँ....गलत क्या है ऐसा करने में ???