Tuesday, February 23, 2010

काकः काकः, पिकः पिकः


ये आवाज़ अक्सर परीक्षा के समय कूजती थी। जब सारी दुनिया से ध्यान हटा कर एक लक्ष्य परीक्षा होती दिन रात के परिश्रम में जब इसकी आवाज़ कान में पड़ती तो मन कुछ हलका सा प्रतीत होता था। अब भी जब ये आवाज़ सुनती हूँ तो हाथ में पु्स्तक लिए बाउंड्री के भीतर पड़ी खटिया पर खुद को औंधी पाती हूँ।
सर्विस के बाद जब दोबारा एम०ए० हिंदी कर रही थी उस समय भी अचानक ये बोली उस दिन रमेश भईया आये हुए थे। तो अनायास ही मुँह से निकला, "देखो कितना अच्छा लगता है जब ये बोलती है।"
वो मुस्कुरा कर बोले "मगर मुझे कोयल पसंद नही आती।"


अजीब सी बात लगी मुझे ये, भला कोई ऐसा भी हो सकता है जिसे कोयल न अच्छी लगती हो ? फिर उन्क्स्होने कुछ कारन बताये..... उसी आधार पर लिखी गई है ये लम्बी तुकबंदी। लीजिये पढ़िए ०९.०४.२००६ को लिखा गया ये कुछ


मेरी बगिया में पेड़ हैं दो, इक आम और इक कटहल का,

कटहल में वास काग का है और आम घरौंदा कोयल का।

इक दिन सूरज ढलने को था और मै बैठी थी बगिया में,

संग में मेरा था प्रिय मित्र और मै सपनीली दुनिया में।

ऋतु भी बसंत कुछ ऐसी कि, सब कुछ रूमानी होता है,

उस पर कोयल कि कुहू कुहू फिर खुद पे कहाँ वश होता है।

मै काँधे पर धर शीश मीत के आँखों को थी बंद किये,

जीती थी उस हर इक पल को, हर आहट पर थी कान दिए।

पर जैसे मिश्री की डालियों में इक नीम गिलौरी आ जाए,

वैसे ही वहाँ एक स्वर गूँजा, इक कौवा बोला काँय काँय।

मै खीझ बहरे स्वर में बोली, मेरा मुँह था कुछ तना ताना ,

भगवान् तुझे ये क्या सूझी, कोयल संग कागा दिया बना।

इतने में मेरे कानो में रूखा पर भीगा स्वर आया,

ये स्वर उस कागा का ही था उसका था गला कुछ भर आया।

उस भीगे स्वर में वो बोला "देवी मेरा अपराध कहो,

तुम तो दर्शन में जीती हो कम से कम तुम तो ये न कहो।

ना काम कोई भी बुरा किया, किस्मत में जो था उसे लिया,

फिर भी तुम जैसे कहते हैं क्यों, काकः काकः, पिकः पिकः।

न ठिठुरन सर्दी की झेले, न जेठ दोपहरी में आये

ये कोयल सबको प्यारी है, जो बस बसंत ऋतु में गाये।

मैंने गर्मी कि तपन सही, ठिठुरन सर्दी कि झेली है,

पर कहीं पलायन नहीं किया, विपदा सर आँखों पर ली है,

वो कोयल जो अपने अंडे तक मेरे घर रख जाती है,

मातृत्व बोध भी नहीं जिसे, वो सबके मन को भाती है।

अपने शिशुओं की नही हुई जो, वो समाज की क्या होगी,

मै एक समूह में रहता हूँ, ये बात गौर की ही होगी।

जिसको समूह में रहना है, उस पर एक जिम्मेदारी है,

खुद में जीना गाने गाना ये बात कौन सी भारी है।

जूठा कूठा साँझा कच्चा, जो भी मिलाता है खाता हूँ।

इस पर सब मुझको कहते हैं, मै बिना बात चिल्लाता हूँ।

मेरा स्वर मीठा नहीं सही, संदेशे मीठे लाता हूँ,

आने वाला है परदेसी सजनी को जा बतलाता हूँ।

वो जो इठलाई फिरती है, जो फुदक रही डाली डाली,

उसकी बस किस्मत अच्छी है, पर वो मन से भी है काली।

जब आम बौरने लगते हैं, मीठा सा मौसम आता है,

अनुकूल सभी कुछ होने पर, ये पंचम सुर लहराता है।

मीठे सुर से छलने वाली पर दुनिया मोहित रहती है,

पर मेरे मन कि सच्चाई मुझमे ही तिरोहित रहती है।

सब कुछ किस्मत की बाते हैं, सहना पड़ता है भाल लिखा,

ज्ञानीजन ठोकर खाते हैं, मूरख देते हैं राह दिखा।

देवी तुम से ये विनती है, फिर से पढ़ना ये शाष्त्र लिखा,

और नया अर्थ देना इसको है काकः काकः, पिकः पिकः "




Wednesday, February 17, 2010

एक मुक्तक




बहरे मुतकारिब सालिम मक़बूज असलम (१६ रुक्नी) जिस पर इस बार की तरही भी है और गुरु जी ने ढेरों गीत इस बहर पर बता रखे हैं। इसी बहर पर ये ताज़ा ताज़ा मुक्तक गुरु जी के आशीष से....


मिलो किसी से तो अपना दिल तुम,
ना पूरा पूरा उठा के रखना।
वो जैसा दिखता है, हो कि ना हो,
ये मन को अपने बता के रखना।
जो ज्यादा समझा किसी को तुमने,

तो दाग फितरत के सब दिखेंगे,
ज़रा सी दूरी बना के रखना,

ज़रा सा खुद को बचा के रखना।

Sunday, February 14, 2010

तुमने इश्क का नाम सुना है, हम ने इश्क किया है


बेतहाशा चूमते हुए होंठो पर

अपना हाथ रख के,

उस दिन जब पूंछा था तुमने

कि

"अब क्यों नहीं लिखता मै कविता तुम पर"

कहना चाहता था

कि

"लिख ही तो रहा था अभी

जब तुमने अचानक रख दिया हाथ.......!!"


नोट: किसी ने किसी से कहा ऐसा और मैंने जस का तस लिख दिया कभी कभी यूँ भी हो जाती है कविता

Sunday, February 7, 2010

बाबुल तेरे प्यार ने तो मुझे सिर पर चढ़ा लिया



और आज फिर याद आया सब कुछ .....! पांडे जी की बेटियों को उनकी थाली में खाते देख याद आया आपका कौर तोड़ कर मिर्च अलग कर कर के खाना खिलाना। उन सबका मचलना देख कर याद आया अपना बचपन जो शायद आज ही के दिन बहुत हद तक खतम हो गया था।

ऐसा नही कि आपके जाने के बाद ही आपकी कीमत समझ आई। आपके रहने पर भी तो आप उतने ही प्रिय थे। अम्मा हमेशा कहतीं कि जाते हम दोनो हैं और लौटने पर बाबूजी को पकड़ के रोती है ये। १४ साल की उम्र में ये तो उद्गार थे मेरे बाल मन के

नही प्रतीक्षा अब होली की इंतजार दीवाली का,
लौटा दो जो साथ ले गये प्यार तुम अपनी लाडली का।

वही लाडली जिसकी आँखें क्षण भर जो भर आती थीं,
तो मानो रग रग में आपके पीड़ा सी भर जाती थी

जिस घटना की कल्पना कर ना सोई सारी रात
वो घटना चरितार्थ हो गई और मैं रह गई मलती हाथ।

आऊँगा मैं लौट अभी फिर, वादा कर के गये थे आप,
आये तो पर चक्षु बंद थे, जाने क्यों ना बोले आप

वो ही आँखें जिन आखों मे बस दुलार था मेरी खातिर,
वो ही कर थे जिन हाथों में लाड़ बहुत था मेरी खातिर

वो ही चेहरा, वो ही पलकें, वो ही थे सब अंग तुम्हारे,
पर जाने क्यों सब कहते थे, बाबूजी ना रहे तुम्हारे।

कितना चिल्लाई बाबूजी, एक बार दो आँखें खोल,
जाओ मैं ना रोकूँगी पर एक बार दो गुड्डन बोल

जाने किन पुण्यों का फल था पिता मिले जो आपसे,
जाने किन पापों का फल था अलग हुई जो आपसे

दो पैसा मुझको जिद करना, वो लड़ना, वो चिल्लाना,
हैं सारी अतीत की बातें पास रहा अब कुछ भी ना

है जीने की चाह नही अब, ले लो मेरा सारा जीवन,
पर उसके बदले में दे दो, बाबूजी के संग गुजरे क्षण।

वो क्षण जिसमें मैं नाराज़ थी और बाबूजी मुझे मनाते
वो क्षण जिसमें मैं रोती थी बाबूजी मुझको फुसलाते।

वो क्षण जिसमें मैं ज़िद करती और बाबूजी गुड़िया लाते
जो कुछ उनसे कह दो ला कर मेरे सारे स्वप्न सजाते।

वो क्षण जिसमें मैं और दीदी कहते बाबूजी मुझे चाहते
और हमारी बातें सुन कर बाबूजी केवल मुसकाते

और ये गीत जब आता था तो कितनी छोटी थी मैं ....पाँचवीं क्लास में थी शायद। मैं और दीदी दोनो ही खुश हो जाते थे ये गीत सुनकर। हम दोनो को लगता कि ये गीत मेरे बाबूजी गा रहे हैं।




बाबुल तेरे प्यार ने तो मुझे सिर पर चढ़ा लिया।

Monday, February 1, 2010

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।


कौन है जो जिंदगी तनहा बिताना चाहता है,
जिदगी को चुन लिया तनहाइयों नें किंतु मेरी,
अब मुझे जैसी मिली, वैसी बिताना चाहती हूँ,

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

छूट जाने के लिये ही मीत जब सारे मिले हैं,
दिल जलाने के लिये ही दीप जब सारे जले हैं,
क्यों न फिर जलते हुए इस दिल की लौ रोशन करूँ मैं,
और उस लौ से किसी के दिल के तम को अब हरूँ मैं।

इस तरह जलते हुए मैं जगमगाना चाहती हूँ।

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

मैं किसी की प्रार्थना में हूँ न हूँ शामिल भले ही,
पर मेरी हर प्रार्थना, शुभकामना सबको मिले ही।
हो न हो मेरे लिये आँखें किसी की नम यहां पर,
पर सभी के पीर पर नम हो मेरी आँखें पिघल कर।
मैं सभी के अश्क ले कर मुस्कुराना चाहती हूँ।

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

उस विधाता ने किसी इक ध्येय से सबको गढ़ा है
और अपना ध्येय मैने भाल पर ये ही पढ़ा है।
पैर के काँटे न रोकें होंठ की खिलखिल हँसी को,
फूल का मतलब बताना,लक्ष्य मेरा हर किसी को
इसलिये ही हर चुभन में गुनगुनाना चाहती हूँ

इस अकेलेपन में भी मैं खिलखिलाना चाहती हूँ।

नोटः रविकांत जी और शार्दूला दी को धन्यवाद के साथ जिन्होने पढ़ने लायक बनाया इसे। और चित्र साभार गूगल जिसका शीर्षक था Might Be Laughing :)